स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी नाटकों में राष्ट्रीय एकता किसी भी देश में वर्ण-जाति,धर्म-संस्कृति और भाषा-क्षेत्र जैसी विविधता का होना असामान्य बात नहीं है। लेकिन ‘राष्ट्र’ में इन सबकी एकता का होना उतना ही अपरिहार्य है,जितना इनका अलग अस्तित्व रखना इनकी पहचान के लिए आवश्यक है। प्रसिद्ध भारतीय चिन्तक श्री मा स गोलवलकर ने ‘राष्ट्र’ शब्द को संबोधित […]
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