हिन्दीउर्दू का अन्तर्संबंध और निदा फ़ाज़ली की कविताग़ज़ल

डॉ. बीरेन्द्र सिंह
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग
स्कॉटिश चर्च कॉलेज, कोलकाता
मो.-9331265343
ई-मेल: birendra_scottish@yahoo.in

 

शोध सारांश

हिन्दी और उर्दू दो भिन्न भाषाएँ न होकर एक ही भाषा की दो भिन्न शैलियाँ हैं । जिनके बीच का भेद बहुत हद तक आधारहीन है । स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी हिन्दी और उर्दू में कोई भेद न देखते थे और एक मिलीजुली सामान्य भाषा जिसे उन्होंने हिन्दुस्तानी कहा थाराष्ट्रभाषा के रूप में चाहते थे । आज के साहित्य में हिन्दीउर्दू के इस भेद को मिटाकर रख देने वाले रचनाकारों की एक लम्बी फेहरिस्त है प्रेमचंद, फिराक गोरखपुरी, चकबस्त, राही मासूम रज़ा, शानी, असगर वजाहत, अब्दुल बिस्मिल्लाह, मंजूर एहतेशाम आदिआदि । इन रचनाकारों ने अपने लेखन में हिन्दीउर्दू के बीच की बेबुनियाद दीवार को लगातार तोड़ा है । इसी परम्परा के प्रमुख शायर निदा फ़ाज़ली को मैंने अपने अध्ययन का आधार बनाया है । निदा फ़ाज़ली मौजूदा दौर के हिन्दीउर्दू के ऐसे शायर रहे हैं जिनकी लेखनी हिन्दी और उर्दू के बीच फैलाये गए भ्रम की दीवार को ढहा कर रख देती है ।

बीज शब्द: भाषा, राष्ट्रभाषा, उर्दू, हिंदी, परिस्थिति, हिन्दुस्तानी

शोध विस्तार:

आज हिन्दी और उर्दू दो प्रमुख भाषाओं के रूप में मान्य हैं । सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियाँ इस भाषा-भेद को स्थापित करने में अहम भूमिका अदा करती हैं फलस्वरूप साधारण तौर पर हिन्दी और उर्दू को न केवल दो भाषाओं बल्कि एक हद तक दो विरोधी भाषाओं का दर्जा प्राप्त है । परन्तु यह मान्यता भाषावैज्ञानिक दृष्टि से वास्तविकता से कोसों दूर ठहरती है । आज तक किसी भी भाषावैज्ञानिक ने हिन्दी और उर्दू को दो भिन्न भाषाएँ नहीं माना है ।

लिपिभेद एवं शब्दावली का किंचित अंतर छोड़ हिन्दी और उर्दू में कोई भेद नहीं है । इस संबंध में हिन्दी के मुर्धन्य आलोचक एवं भाषाशास्त्री डा. रामविलास शर्मा लिखते हैं, ‘‘हिन्दी-उर्दू में सबसे पहला भेद लिपि का है । लिपि लिखने के काम आती है न कि बोलने के । इसलिए लिपि-भेद को हम बुनियादी भेद नहीं मानते । हिन्दी-उर्दू में दूसरा भेद है शब्दभंडार का । यह भेद साधारण लोगों की बोलचाल में बिल्कुल नहीं है, पढ़े-लिखे लोगों में बहुत थोड़ा है और भाषा के लिखित रूपों में बहुत ज्यादा है ।’’1 यानी हिन्दी-उर्दू का भेद एक ही भाषा के लिखित रूपों का भेद है, वो भी वहाँ जहाँ साधारण लोगों की बोलचाल की सहज भाषा का प्रयोग नहीं किया जाता । दूसरे शब्दों में हिन्दी-उर्दू का भेद है नहीं, उसे बनाया जाता है । प्रेमचंद भी यही मानते थे और उनका तो लेखन भी इस बात का गवाह है कि अगर बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग लेखन में भी किया जाये तो हिन्दी उर्दू में कहीं कोई भेद है ही नहीं । फिर हिन्दी-उर्दू के बीच यह भेद की दीवार कैसे खड़ी हो गई, इसके पीछे का इतिहास क्या है, अब आइए इस पर भी ज़रा निगाह डालते हैं ।

आमतौर पर माना जाता है कि भारत में उर्दू का जन्म हिन्दुओं और मुसलमानों के आपसी मेलजोल के फलस्वरूप हुआ । दूसरी ओर भाषा के अर्थ में उर्दू शब्द का प्रयोग 18वीं सदी के अंत तक नहीं मिलता है । दरअसल भारतीय व्यापार की उन्नति के साथ-साथ उत्तर भारत के बड़े हिस्से में जिस खड़ी बोली का व्यापक प्रचार हुआ उसे हिन्दी, हिन्दवी या हिन्दुई कहा गया । कवि-रचनाकारों ने भी अपनी भाषा को इसी नाम से पुकारा चाहें वो किसी भी धर्म के रहे हों । इस संदर्भ में डा. रामविलास शर्मा बड़े ही मजेदार ढंग से लिखते हैं, ‘‘हिन्दी-उर्दू का एक सामान्य आधार है, बोलचाल की खड़ीबोली । इस खड़ीबोली में अरबी-फारसी के कुछ या बहुत ज्यादा शब्द आ मिले तो इससे एक नयी भाषा नहीं उत्पन्न हो गयी । यह खड़ीबोली मुसलमानों के आने से पहले भी थी, उनके शासनकाल में रही और आज भी है । एक दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि जितना ही हम पुराने जमाने के उर्दू लेखकों की रचनाएँ पढ़ते हैं, उतनी ही साधारणतः अरबी-फारसी के शब्दों की खपत कम मिलती है और जितना ही बीसवीं सदी की ओर बढ़ते हैं, उतना ही यह खपत बढ़ती जाती है । अगर बारहवीं-तेरहवीं सदी में मेलजोल के लिए पाँच फीसदी अरबी-फारसी शब्दों की जरूरत थी तो 1947 के आसपास यह जरूरत बढ़कर पचासी फीसदी तक पहुँच गयी है । यानी ज्यों-ज्यों मेलजोल बढ़ा, त्यों-त्यों हिन्दी-उर्दू का अलगाव बढ़ता गया । मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की ।’’2

दरअसल हिन्दी और उर्दू का भेद बढ़ना शुरु हुआ भारत में अंग्रेजों के आगमन के बाद । 18वीं सदी के पहले जिस ‘उर्दू’ शब्द का कहीं जिक्र नहीं मिलता अचानक वह एक नयी भाषा कहलाने लगती है । इसके पीछे फोर्ट विलियम कॉलेज की भी महत्वपूर्ण भूमिका है । जॉन गिलक्राइस्ट हिन्दी-उर्दू भाषी कौम की शक्ति और इसके खतरों को कहीं-न-कहीं महसूस कर सकते थे । उन्होंने फोर्ट विलियम कॉलेज के साथ-साथ पहला काम ही किया, भाषा को मजहब से जोड़कर देखने-दिखाने की प्रवृति का प्रचार । जातीय भाषा के विकास में दरार डालकर भाषा को धर्म से जोड़ा जाने लगा ।

1857 की जनक्रांति में हिन्दू और मुसलमानों ने जिस प्रकार की एकता का परिचय दिया, अंग्रेजी हुकूमत उससे काफी विचलित हुई । अतः हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दूरी बढ़ाने वाले तत्वों पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा । ‘फूट डालो राज करो’ की नीति अहम हो गई । इस सिलसिले में भाषा-भेद को धर्म से जोड़कर भयावह रूप में बढ़ावा दिया गया । फलतः अब तक सामान्य जनता के बीच जिस सामान्य भाषा का प्रयोग होता आ रहा था, वहाँ मुसलमानों ने अपने लेखन में अरबी-फारसी के शब्दों की खपत बढ़ानी शुरु की और संस्कृत तथा सामान्य बोलचाल के शब्दों को जानबूझकर बाहर निकाला गया जिसे मतरुकात का सिद्धांत कहा गया । इसीतरह हिन्दुओं ने संस्कृत शब्दों की ओर ज्यादा ध्यान देना शुरु किया । दुःख की बात है कि इस अलगाववादी मानसिकता के कारण एक ही भाषा दो रूपों में आगे बढ़ी ।

इसतरह इतना तो स्पष्ट होता ही है कि हिन्दी और उर्दू दो भिन्न भाषाएँ न होकर एक ही भाषा की दो भिन्न शैलियाँ हैं । जिनके बीच का भेद बहुत हद तक आधारहीन है । स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी हिन्दी और उर्दू में कोई भेद न देखते थे और एक मिली-जुली सामान्य भाषा जिसे उन्होंने हिन्दुस्तानी कहा था,  राष्ट्रभाषा के रूप में चाहते थे । दरअसल मजहब से भाषाएँ तय नहीं हुआ करतीं । यह घोर साम्प्रदायिक दृष्टिकोण है जिसका खामियाजा हम अब तक भुगत रहे हैं । हिन्दी-उर्दू भेद की तमाम व्यावहारिक सच्चाइयों को मानते हुए भी कम-से-कम हमें यह भी मान लेना चाहिए कि भारत में हिन्दी-उर्दू एक ही क्षेत्र के वासिन्दों की – एक कौम की – भाषा है । यह ‘हिन्दी जाति’ की भाषा है । रामविलास शर्मा के शब्दों में फिर एक बार कहना पड़े तो, ‘‘हिन्दी-उर्दू का व्याकरण एक, वाक्य-रचना एक-सी, शब्द भंडार और क्रियाएँ एक-सी – इसीलिए हिन्दी-उर्दू भाषियों की दो कौमें नहीं हैं । उनकी जाति एक है और बोलचाल की भाषा एक है ।’’3

आज के साहित्य में हिन्दी-उर्दू के इस भेद को मिटाकर रख देने वाले रचनाकारों की एक लम्बी फेहरिस्त है – प्रेमचंद, फिराक गोरखपुरी, चकबस्त, राही मासूम रज़ा, शानी, असगर वजाहत, अब्दुल बिस्मिल्लाह, मंजूर एहतेशाम आदि-आदि । इन रचनाकारों ने अपने लेखन में हिन्दी-उर्दू के बीच की बेबुनियाद दीवार को लगातार तोड़ा है । इसी परम्परा के प्रमुख शायर निदा फ़ाज़ली को मैंने अपने अध्ययन का आधार बनाया है । निदा फ़ाज़ली मौजूदा दौर के हिन्दी-उर्दू के ऐसे शायर रहे हैं जिनकी लेखनी हिन्दी और उर्दू के बीच फैलाये गए भ्रम की दीवार को ढहा कर रख देती है ।

भाषा का सवाल जातीय एकता से जुड़ा सवाल है । यह साम्प्रदायिकता और अलगाववाद के विरोध का सवाल है । यह हमारे विकास का सवाल है । पाकिस्तान से लौटने के बाद अपनी एक मशहूर नज़्म में निदा लिखते हैं, गौर करें –

‘‘ख़ूँख्वार दरिन्दों के

फ़क़त नाम अलग हैं

शहरों में बयाबान

यहाँ भी है वहाँ भी

 

रहमान की कुदरत हो

या भगवान की मूरत

हर खेल का मैदान

यहाँ भी है वहाँ भी

 

हिन्दू भी मज़े में है

मुसलमाँ भी मज़े में

इन्सान परेशान

यहाँ भी है वहाँ भी’’4

इंसान की परेशानी से जूझने वाले इस शायर की शायरी का विश्लेषण करते हुए हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि आज की जटिल परिस्थितियों की अभिव्यक्ति करते हुए किसी रचनाकार की संवेदना किसी भाषा-भेद का ख़्याल रखती है क्या ! एक और नज़्म देखें –

‘‘मस्जिदों मंदिरों की दुनिया में

मुझको पहचानते कहाँ हैं लोग

रोज़ मैं चाँद बन के आता हूँ

दिन में सूरज सा जगमगाता हूँ

खनखनाता हूँ माँ के गहनों में

हँसता रहता हूँ छुप के बहनों में

मैं ही !

मज़दूर के पसीने में

मैं ही !

बरसात के महीने में’’5

            मस्जिद-मंदिर के बीच की खाई से पीड़ित शायर अल्लाह-ईश्वर की उपस्थिति को सूरज-चाँद से लेकर मानवीय संबंधों और संघर्ष की अभिव्यक्ति तक ले जाकर जिस सेतु के निर्माण का प्रयत्न कर रहा है क्या वहाँ आपको किसी हिन्दी-उर्दू का भेद दीख रहा है? ऐसा शायर प्रार्थना करते हुए ईश्वरीय सत्ता के सामने क्या निवेदन रखता है, इसे देखें –

‘‘नील गगन पर बैठे

कब तक

चाँद सितारों से झाँकोगे

 

पर्वत की ऊँची चोटी से

कब तक

दुनिया को देखोगे

 

आदर्शों के बन्द ग्रन्थों में

कब तक

आराम करोगे

 

मेरा छप्पर

टपक रहा है

बनकर सूरज

इसे सुखाओ

 

खाली है

आटे का कनस्तर

बनकर गेहूँ

इसमें आओ’’6

अब आप ही निर्णय लीजिए यह प्रार्थना किस धर्म वाले की है, किसके लिए है और किस भाषा में है?…

निदा जैसा शायर जब कहता है –

‘‘बच्चा बोला देख कर मस्जिद आलीशान

अल्ला तेरे एक को, इतना बड़ा मकान’’7

तो कहीं ऐसा नहीं लगता कि जो काम कबीर जैसा क्रांतिकारी 14-15वीं सदी में कर रहा था वही अधूरा काम अपने तरीके से कोई रचनाकार आज भी पूरा कर रहा है । आखिर ‘काँकर-पाथर’ जोड़कर अल्लाह के लिए इतना बड़ा मकान बनवाया जाना तो आज भी बदस्तूर जारी है । वहीं दूसरी ओर –

‘‘अन्दर मूरत पर चढ़े घी, पूरी, मिष्ठान

मन्दिर के बाहर खड़ा, ईश्वर माँगे दान’’8

और निदा इन सारे चोंचलों से मुक्ति का जो रास्ता बताते हैं, उसे देखिए –

‘‘घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें

किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये’’9

निदा के यहाँ मासूमियत को बचाये रखने की गहरी अपील देखने मिलती है । बौद्धिकता आदमी को कहीं-न-कहीं खुंखार बना रही है, निदा इसे व्यक्त करते हुए कहते हैं –

‘‘बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो

चार किताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जायेंगे’’10

और यहीं मैं जोड़ना चाहूँगा कि हिन्दी-उर्दू का झगड़ा यही चार किताबें पढ़ चुके लोगों के बीच का झगड़ा है । निदा अपने लेखन में जिसका प्रतिरोध रचते हैं । इसीलिए सिनेमा जैसे माध्यम से, जहाँ हिन्दी-उर्दू का भाषाई भेद लगभग नहीं है क्योंकि वह आम जन का माध्यम है, निदा को विशेष लगाव रहा । उनका साहित्य, कविता-ग़ज़ल सिनेमा में नई ऊँचाई पाता है । निदा उन्हीं के लिए लिखना पसंद करते थे जो –

‘‘दुःख में नीर बहा देते थे, सुख में हँसने लगते थे

सीधे-सादे लोग थे, लेकिन कितने अच्छे लगते थे’’11

और यही कारण है कि आज की दुनिया में सोच-समझवालों के लिए निदा नादानी माँगते हैं –

‘‘दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है

सोच-समझवालों को थोड़ी नादानी दे मौला’’12

निदा आदमी और आदमियत की तलाश के शायर हैं इसीलिए वह आज एक नई ग़ज़ल सुनाना चाहते हैं –

‘‘उठके कपड़े बदल, घर से बाहर निकल जो हुआ सो हुआ

रात के बाद दिन, आज के बाद कल जो हुआ सो हुआ

जब तलक साँस है, भूख है प्यास है ये ही इतिहास है

रख के काँधे पर हल , खेत की ओर चल जो हुआ सो हुआ

*          *          *          *          *          *

मन्दिरों में भजन, मस्जिदों में अज़ाँ आदमी है कहाँ?

आदमी के लिए एक ताज़ा ग़ज़ल जो हुआ सो हुआ’’13

निदा मानते हैं –

‘‘हम सब

एक इत्तिफ़ाक़ के

मुख़्तलिफ़ नाम हैं

मज़हब

मुल्क

ज़बान

इसी इत्तिफ़ाक़ की अनगिनत कड़ियाँ हैं’’14

आज के दौर की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि इन मुख़्तलिफ (भिन्न) चीजों के बीच का ‘लफ़्जों का पुल’ लगातार दरकते-दरकते कहीं टूट चुका है और इसे किसी भी कीमत पर जोड़े जाने की महती आवश्यकता है । अगर हम ऐसा कर सके तभी हम अपनी-अपनी तन्हाई से निजात पा पायेंगे । निदा की नज़्म है – ‘लफ़्जों का पुल’

‘‘मस्जिद का गुंबद सूना है

मंदिर की घंटी ख़ामोश

जुज़दानों में लिपटे

सारे आदर्शों को

दीमक कब की चाट चुकी है

रंग

गुलाबी

नीले

पीले

कहीं नहीं हैं

तुम उस जानिब

मैं उस जानिब

बीच में मीलों गहरा ग़ार

लफ़्जों का पुल टूट चुका है

तुम भी तन्हा

मैं भी तन्हा’’15

यह लफ़्जों का पुल जब तक नहीं जुड़ेगा, अपनी-अपनी तन्हाइयों में हिन्दी-उर्दू के ‘बीच में मीलों गहरा ग़ार’ बदस्तूर कायम रहेगा । निदा ने अपने सम्पूर्ण रचनाकर्म के माध्यम से इस मीलों गहरी खाई को पाटने की एक अदना-सा कोशिश की है और बाकी का एक विस्तृत कार्य हम सभी के लिए छोड़ गए हैं । निःसंदेह यह काम कठिन तो है पर नामुमकिन नहीं । पुनः निदा के ही शब्दों में –

‘‘मुम्किन है सफ़र हो आसाँ अब साथ भी चल कर देखें

कुछ तुम भी बदल कर देखो, कुछ हम भी बदल कर देखें’’16

 

संदर्भः

 

  1. शर्मा रामविलास, भाषा और समाज, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पाँचवा संस्करण, 2002, पृ. 331
  2. वही, पृ. 284
  3. वही, पृ. 331
  4. फ़ाज़ली निदा, सफ़र में धूप तो होगी (सं.-शीन काफ़ निज़ाम और नन्दकिशोर आचार्य), वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर, प्रथम संस्करण, 2000, पृ. 155
  5. वही, पृ. 129
  6. वही, पृ. 117
  7. वही, पृ. 157
  8. वही, पृ. 158
  9. वही, पृ. 22
  10. वही, पृ. 39
  11. वही, पृ. 54
  12. वही, पृ. 75
  13. वही, पृ. 74
  14. वही, पृ. 139
  15. वही, पृ. 140
  16. वही, पृ. 63

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