एहसान
बारिश पड़ने के कारण उसने गीले कपड़े ही उतार लिये थे लेकिन अब बारिश रूक गई थी और धूप आने लगी तो वो वापस बालकनी में कपड़े सुखाने के लिए डाल रही थी तभी सामने से आते हुए उसकी नज़र उस पर पड़ी और भागते हुए नीचे आयीं उसके डोर बेल बजाने से पहले ही दरवाज़ा खोलते हुए बोली- “तुम्हारी तबीयत कैसी है अब।”
“पहले से बहुत ठीक हूँ।”
“तुम्हारा यहाँ कैसे आना हुआ।”
“तुमने जो मेरी उस रात मदद की थी उसके लिये ये लो ब्लेंक चेंक इसपर जो भी कीमत तुम भरना चाहो भर लो।”
‘वाह! विवेक वाह!…’आज तुम मुझे यह ब्लेंक चेक देकर अपने आप को क्या समझ रहें हो।…उस वक्त कहाँ गया था तुम्हारा ये चेक जब तुम खून से लथपथ सड़क पर जान की भीख मांग रहे थे और किसी ने भी तुम्हारी मदद करना तो दूर तुम्हें देखा तक नहीं।’
‘कहाँ गये थे तुम्हारे नाते रिश्तेदार जब मैं तुम्हें अपने कंधे पर उठाकर अस्पताल लेकर गई थी और तुम्हारी दवा-दारू कराके तुम्हें घर तक छोड़ने आई थी इतना ही नहीं डाक्टर के कहने पर कि तुम्हें अकेले ना छोड़ा जायें क्योंकि इनके सर में गंभीर चोटे है और इनके लिए 72 घंटे बेहद मुश्किल है क्योंकि तुम्हें कही दौरा य लकवा न पड़ जायें इसका खास ध्यान रखना है यदि ऐसा हो तो तुरंत तुम्हें अस्पताल ले लाऊं।’
“उस वक़्त मैं सुप्रिया अपने घर की लाज के साथ अपनी आबरू को भी ताक पर रखकर मैंने एक मनुष्य होने के नाते तुम्हारी मदद की थी और तुम एक रात का एहसान उतारने ओह सॉरी एक रात की कीमत देने मेरे घर आ गये यदि उस रात मैं तुम्हें न बचाती तो क्या तुम ये कीमत देने मेरे घर आते।”
‘विवेक तुम अपने नाम के साथ ही अपना भी विवेक वाकई खो चुके हो जो एहसान की भरपाई चेक से करने मेरे घर चले आये क्योंकि एहसान शब्द के आगे आभार सूचक शब्द भी छोटे लगते है।’
विवेक एक बात कहूं, ” तुम एक रात की कीमत चेक से कर रहे हो और ये तुम्हरा घटिया समाज मेरे चरित्र पर लांछन लगा रहा है कि मैं एक रात तुम्हारे साथ…..खैर विवेक मैं इस समाज से अपने अस्तित्व के लिए लडूँगी और अपने स्वाभिमान को वापस पाऊँगी क्योंकि मैने कुछ गलत नही किया बस मनुष्य होने के नाते किसी इंसान की जान बचाई है अब तुम यहाँ से जाओ।”
प्रियंका हंस