प्रेम को प्रताड़ित करने वाले को कभी समझ नहीं आएगा प्रेम
उसे सुनाई नहीं देंगी सिसकियाँ..
दिखाई नहीं देंगें आंसुओं के निशान
देह – आत्मा जब दंशों से भर जाएगी
आत्मा कराह उठेगी! वो बदजुबानी के चाबूक चलाएगा
रोज स्वाह होगा सात जन्मों का बंधन
मरा हुआ मन, टीसता तन कितनी दूर चल पाएगा
काले मोती जब रूप धर ले सर्प का! बूंद बूंद विष उतरता जाए..! एक लावे में तब्दील हो जाता तथाकथित प्रेम!!
प्रेम जो है ही नहीं! न कभी था उसका प्रतिकार क्यू नहीं!
गाय ढोर, की तरह ब्याह दी जाती है सही शब्दों में घर से निकाल दी जाती है… फिर उस दहलीज से कोई ताल्लुक नहीं होता! पिता भी अभिशाप हो जाते हैं कभी!
पिता और पति एक ही नस्ल के जीव है जिन्हें जन्म से
प्रताड़ित करने का पाठ पढ़या जाता है!
मां देवी होती है सास बनते ही ह्रदय हीन हो जाती
बहु नहीं वो कामवाली हो जाती है
प्रेम समर्पण तिल तिल मरना.. पीहर की लाज रखना
यह घुट्टी बस औरत को पीलायी जाती है!
अरे छोड़ो यह ढकोसले! सारी दुनियादारी बस एक के लिए
यह झूठे बंधनों की कुरीति अब तोड़नी चाहिए!