मंगलेश डबराल- मनुष्यता के कवि
डॉ गौरी त्रिपाठी
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग
गुरु घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय
बिलासपुर, छत्तीसगढ़
मंगलेश डबराल समकालीन कवियों में चर्चित नाम हैं ।राजेश जोशी, अरुण कमल और उदय प्रकाश के समकालीन ।समकालीन कविता की विशेषता कह लें या खामी लगभग इस कविता में फर्क करना मुश्किल हो जाता है क्योंकि वह अपने समय को एक साथ और लगभग एक जैसा प्रस्तुत करते हैं। अपने तरीके के ये अलग कवि हैं ।उनकी कविता का एक खास रंग है, इनकी कविता में समकालीन समय अपने पूरे बिखराव के साथ मौजूद दिखाई देता है। पहाड़ ,नदी जंगल ही नहीं है बल्कि सत्ता का विरोध मानवता की खोज हुई है ।मानवीयता से जुड़कर कविता ज्यादा आसान हो जाती है ,जो कि इनकी कविताओं में बहुतायत दिख जाती हैं ।सहृदयता और अनुभूति संपन्नता दो विशेष मूल्य मंगलेश की कविता में हर जगह दिखाई देते हैं ।उनकी कविता की पहली शर्त यही है कि हम मनुष्य बने रहें ।ऐसा आग्रह वह बार-बार अपनी कविता में करते रहते हैं । इनकी कविता नई पीढ़ी के संघर्षों को भी सामने लाती है , साथ ही पहाड़ की संवेदनाओं भी उसी संघर्ष के साथ मिलकर कविता बन जाती हैं। अपने को मार्क्सवादी कवि के रूप में घोषित करते हैं “मैं एक मार्क्सवादी हूं लेकिन शायद स्वतंत्र मार्क्सवादी।” सर्वहारा क्रांति का सपना हर बड़े कवि की तरह उन्होंने भी देखा था ।
हिंदी कविता में मंगलेश डबराल 80 के दशक में आते हैं और उनका पहला ही काव्य संग्रह” पहाड़ पर लालटेन “बहुत चर्चित होता है ।शुरुआती दौर में वे गद्य के साथ साहित्य की तमाम विधाओं में लिखना शुरू करते हैं लेकिन साहित्य की शुरुआत कविता से ही होती है ।उन्हें लगता है कि वर्तमान समाज और समय की विद्रूपताओं को बता पाने का सबसे अच्छा जरिया है कविता ।”पहाड़ पर लालटेन” कविता संग्रह में पहाड़ का जीवन भी है और लालटेन के माध्यम से एक उम्मीद भी है। यह कविता संग्रह समाज में फैले हुए उदासी और मुक्ति का संकल्प एक साथ दिखाता है ।जीवन का कटु यथार्थ और समाज की पेचीदगी के साथ-साथ पहाड़ के यथार्थ जीवन का मर्म बहुत संजीदगी के साथ उभरता है। वह बदलाव चाहते हैं ,समाज में यह समकालीन कविता की सबसे बड़ी पहचान है-
“जंगल में औरतें हैं
लकड़ियों के गट्ठर के नीचे बेहोश
जंगल में बच्चे हैं उसमें दफनाए जाते हुए
जंगल में नंगे पैर चलते हैं बूढ़े डरते खांसते
अंत में गायब हो जाते हुए
जंगल में लगातार कुल्हाड़ियां चल रही हैं
जंगल में सोया है रक्त”(1)
यह है पहाड़ का स्वाभाविक जीवन जहां अक्सर ही सोया रहता है रक्त ।इस कविता में कुल्हाड़ी केवल वृक्षों पर ही नहीं चलती बल्कि मनुष्य के जीवन में भी लगातार चलती रहती है।वे त्रस्त व पस्त होते रहते हैं ।मंगलेश सीधे सीधे सीधे अपनी कविता में पहाड़ों के शोषण का जिक्र करते हैं, पहाड़ों में शोषण की एक लंबी परंपरा रही है। जैसे पहाड़ कठोर होते हैं वैसे ही पहाड़ी मनुष्य का जीवन भी कठिन खुरदुरा और संघर्षमय होता है। इस संग्रह की कविताओं में मंगलेश पहाड़ी जीवन का कोई आदर्श नहीं प्रस्तुत करना चाहते थे बल्कि पहाड़ी संस्कृति के अंतर्विरोध को दुनिया के सामने लाना चाहते थे। पहाड़ का जीवन बिल्कुल खराब नहीं है लेकिन वहां फैली हुई भूख ,उदासी ,अकाल ,बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएं किसी उपहार के तौर पर पहाड़ी मनुष्य को जो मिलती हैं उस से निजात पाना चाहते हैं-
“दूर एक लालटेन जलती है पहाड़ पर
एक तेज आंख की तरह
टिमटिमाती धीरे-धीरे आग बनती हुई
देखो अपने गिरवी रखे हुए खेत
बिलखती स्त्रियों के उतारे गए गहने।”(2)
पहाड़ों पर भूख और महामारी एक साथ मनुष्यता को नष्ट करने के लिए आती हैं। ‘मुक्ति’ कविता में मंगलेश डबराल पहाड़ी संस्कृति के शोषण का एक और ही स्वरूप दिखाते हैं जिसमें सीधा- साधा इंसान तबाह हो जाता है-
‘पीठों पर घाव और कंधो पर हथियार लिए हुए
लोगों की आहटें और नजदीक हो गईं ।
उनके कांपते सर और सूराखदार सीने
धीरे-धीरे अपने पैतृक विलाप से बाहर आ रहे हैं ।
उनकी धमनियों में गूंजती भूख
खोजती है अपना गुस्सा और अपना प्रेम
उनके रोओं में उड़ती है बारूद ‘(3)
इस कविता में कवि संवेदना के स्तर पर आम आदमियों से जुड़ जाता है। समाज में तो नहीं लेकिन कविताओं में वह इन बातों को मुख्यधारा में ले आते हैं जैसे-
‘ अपने मरे हुए बच्चों की खोज में
मैं ने उन्हें एक जंगल से निकलकर
दूसरे जंगल में जाते हुए देखा है ।
मैंने नारों और वायदों के लिजलिजे जाल में उनकी भूख को
एक मुस्तैद और नुकीले पंजे में बदलते देखा है।'(4)
मंगलेश की कविताओं में बिंब काफी उभरता है ।
80 का दशक कविता के क्षेत्र में बिंबों और प्रतीकों का दौर था जहां ज्यादातर खिड़की ,चौखट ,छत, दीवार जैसी कविताएं लिखी गईं जो मानवीय संवेदनाओं को एक गति दिया करती थी, साथ ही जिंदगी के तनाव को भी ।ये प्रतीक बहुत स्वाभाविकता के साथ प्रयुक्त होते थे। मंगलेश की कविता में जंगल कई कई रूपों में आता है, कहीं वह मनुष्यता के प्रतीक के रूप में आता है और कहीं वह स्मृतियों के रूप में आता है। उन्हें पता है कि खालीपन और उदासी केवल बाहरी तौर पर नहीं होती है, बल्कि यह अंदरूनी भी उतनी ही होती है-
‘ सबसे ज्यादा खामोश चीज है बर्फ
उसके साथ लिपटी होती है खामोशी
वह तमाम आवाजों पर एक साथ गिरती है
एक पूरी दुनिया और उसके कोहराम को
ढांपती हुई
बर्फ के नीचे दबी है घास ।चिड़ियां और
उनके घोसले
खंडहर और टूटे हुए चूल्हे। लोग बिना
खाए सो जाते हैं
वह चुपचाप गिरती रहती है
बर्फ में जो भी पैर आगे बढ़ाता है
उस पर गिरती है बर्फ ‘(5)
जाहिर सी बात है मंगलेश डबराल की कविताएं उनके व्यक्तिगत जीवन से भी प्रभावित हैं ।वे पहाड़ के कवि हैं । यह सभी चीजें उनकी कविताओं में बरबस ही आ जाती हैं ।ज्यादातर सारी चीजें दुख स्वप्न की तरह आती हैं-
‘ आकाश के नीचे अपने अकेले बिस्तर को
याद करता हुआ अकेला आदमी।
टहलता से सुनसान में सड़कों पर
मृत्यु की तरह। व्याप्त आकाश में अपने अंधकार को
छाते की तरह ताने हुए ।अकेला आदमी
गुजरता है चीजों के बीच से।'(6)
इनकी कविताओं में पहाड़ी जीवन पर शहरों की क्रूरता को बखूबी देखा जा सकता है। पहाड़ और नगर का द्वंद एक साथ हृदय और बुद्धि के द्वंद के रूप में देखा जा सकता है। वे लिखते हैं –
‘मेरे रक्त की अंतिम उछाल के बाद ।
शुरू हो जाती है शहर की दीवारें
नींद के चारों किलो और कब्रों को रौंदते दौड़ते रहते हैं घुड़सवार ।'(7)
इस कविता में वे नगरीय सभ्यता के प्रति अपना विरोध जाहिर करते हैं हालांकि धीरे-धीरे शहरों के प्रति या आलोचनात्मक रवैया उनका कम होता दिखाई पड़ता है।
‘घर का रास्ता ‘उनका दूसरा कविता संग्रह है। इस संग्रह में समाज और जीवन में घटी हुई सदियों का जिक्र ज्यादा है ।वे हर तरह के शोषण के खिलाफ हैं चाहे वह प्रकृति का शोषण हो स्त्री शोषण हो या एक सामान्य व्यक्ति के जीवन। ‘घर का रास्ता ‘कविता संग्रह में वे शहर की सबसे लंबी दीवार खाली देखकर सोचते हैं कि उस पर लिखा जा सकता है अपना पूरा पता उस पर लिखी जा सकती है कोई कविता ।कल सुबह के लिए कोई संदेश ,उस पर दर्ज किया जा सकता है अगली लड़ाई का ऐलान ।यह कविता संग्रह एक सामान्य मनुष्य की दिनचर्या और उसकी संवेदना को बहुत कलात्मकता के साथ प्रस्तुत करता है। इस संदर्भ में उन्होंने स्त्रियों पर भी तमाम कविताएं लिखी हैं।
‘ हम जो देखते हैं’ उनका तीसरा काव्य संग्रह है ।यह कविता संग्रह उत्तर आधुनिकता के धरातल पर लिखा गया है ,जिसमें महानगरीय परिवर्तन के साथ-साथ भाषाई परिवर्तन को भी दिखाया गया है। सोवियत संघ के विघटन के बाद भारतीय राजनीति में किस तरह वामपंथ धीरे-धीरे क्षीण होता जाता है। भाषा कैसे बदलने लगती है यह सब कुछ इस संग्रह में मौजूद है। वे सबसे पहले मनुष्यता को स्थान देना चाहते हैं जो कि पूरी दुनिया से धीरे-धीरे गायब हो रहा है-
‘टीवी देख -देख कर आजिज आइये ।
मौसम से भी बुरी हैं खबरें मौसम की।
प्राणहीन मुस्कानों से ऊबिइ ।
ऊबिए बिना प्यार के चुंबनो लेकर ।
ऊब मिटाने की खातिर फिर से चुंबन लीजिए'(8)
विज्ञान हमारे जीवन में अगर प्रगति लेकर के आया है तो उसने मनुष्यता का विनाश भी किया है। आगे बढ़ने की होड़ में हम पीछे होने लगते हैं खासकर प्रौद्योगिकी के दुष्प्रभावों को कविताओं में स्थान देते हैं । उनका कुछ समय अमेरिका में भी बीता है । उन्होंने नजदीक से देखा है कि कैसे वहां नस्लीय हिंसा घृणा और सांप्रदायिकता के रूप में दिखाई देती है ।”कागज की कविता” इसका बहुत अच्छा उदाहरण है –
‘ आखिरकार मैंने देखा की पत्नी कितनी यातना सहती है ।
बच्चे बावले से घूमते हैं ,
सगे संबंधी मुझसे बात करना बेकार समझते हैं।
पिता ने सोचा अब मैं शायद कभी उन्हें चिट्ठी नहीं लिखूंगा मुझे क्या था इन सब का पता मैं लिखे चला जाता था कविता'(9)
वे निराश होने वाले व्यक्ति नहीं हैं उन्हें लगता है कि कविता कहीं ना कहीं हमें सचेत करने का काम करती है । दुनिया का दुख उन्हें दुनिया का नहीं बल्कि खुद का लगता है वे लिखते हैं –
‘बीससाल से एक ही जगह है वे जमे हुए हैं।
किसी चमत्कार की प्रतीक्षा में
किसी उम्मीद में हर सुबह खिड़की खोलते हैं ।
पर दोस्तों के चेहरे बदले नहीं उसी तरह सख्त हैं ।'(10)
वे अपनी कविता में विजन साथ लेकर चलते हैं उनकी कविताएं मृत्यु और विनाश के सामने खड़े हुए व्यक्ति की मन:स्थितियों में ले जाती हैं ।कभी-कभी तो कविताएं एक लंबी उदासी और दुख के साथ जुड़ी दिखती हैं लेकिन साथ ही वह उन सब से निजात पाने की जद्दोजहद भी करती है । सन 2000 में उनका एक नया संग्रह आता है “आवाज भी एक जगह है”
इसमें दो कविताएं बहुत महत्वपूर्ण हैं । छुपम -छुपाई और दृश्य ।इन दोनों में आप समकालीन कविता का विकास देख सकते हैं कि कविता कहां से कहां पहुंच गई ।एक कविता है -‘गायकी ‘जो कि उन्होंने संगीत विषय को आधार बनाकर के लिखी है ।यह कविता हमारे सामने आख्यान की तरह आती है ।इसी संग्रह में वे मुक्तिबोध पर एक कविता लिखते हैं –
‘बिना शिष्य का गुरु केशव अनुरागी
नशे में धुत्त सुनाता था एक भविष्यहीन ढोल के बोल
किसी ने अपनायी नहीं उसकी कला
गढ़वाल के गीतों को जिसने पहुंचाया शास्त्रीय आयामों तक।'(11)
इस कविता में मंगलेश डबराल एक संगीत प्रेमी अद्भुत कलाकार के अंतर्द्वंद को उभारते हैं और बताते हैं कि किस कदर कलाकार भी ऊंचे दर्जे के होते हैं और आत्मविस्मृति कैसे उन्हें अपनी कला में और डुबो देती है। समाज ऐसे कलाकारों से प्रेम करता है। इस संग्रह की तमाम कविताएं मध्यवर्गीय महानगरीय दुनिया से निकलते हैं क्योंकि कवि इनके आसपास ज्यादा रहा है ।एक ऐसी ही कविता है -‘घर की काया ‘जिसमें एक मध्यवर्गीय व्यक्ति की साप्ताहिक दिनचर्या का जिक्र है किराए के घर का वर्णन है।
मंगलेश डबराल ने कवि के रूप में सबसे ज्यादा ख्याति अर्जित की है लेकिन वे गति भी लिखते रहे हैं उनका गद्दे भी कविताओं की तरह बहुत स्वाभाविक और जीवंत रहा है इनकी कविता हमें आत्मविश्वास पैदा करती है काव्यधारा एक खास किस्म की संवेदनशीलता प्रदर्शित करती है सामान्य से सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी इनकी कविताओं से अपने जीवन को जोड़ लेता है यही शायद एक कवि का सबसे बड़ा साहित्य और समाज के प्रति अवदान होता है मंगलेश डबराल एक कवि के रूप में समकालीन हिंदी कविता में बेहद लोकप्रिय हैं।
संदर्भ सूची –
1- मंगलेश डबराल, पहाड़ पर लालटेन, पृष्ठ संख्या 64
2-मंगलेश डबराल, पहाड़ पर लालटेन, पृष्ठ संख्या 64
3- मंगलेश डबराल ,पहाड़ पर लालटेन पृष्ठ संख्या 69
4- मंगलेश डबराल, पहाड़ पर लालटेन, मुक्ति पृष्ठ संख्या 70
5- मंगलेश डबराल, पहाड़ पर लालटेन ,गिरना, पृष्ठ संख्या 14
6- मंगलेश डबराल ,पहाड़ पर लालटेन, अकेला आदमी ,पृष्ठ संख्या -39
7- मंगलेश डबराल ,पहाड़ पर लालटेन, शहर- 2 पृष्ठ संख्या 42
8- मंगलेश डबराल, हम जो देखते हैं, अमेरिका में कविता, पृष्ठ संख्या 76
9- मंगलेश डबराल ,हम जो देखते हैं,’ लिखे चला जाता था’ पृष्ठ संख्या 47
10- मंगलेश डबराल, हम जो देखते हैं ,’बीस साल ‘पृष्ठ संख्या 40
11- मंगलेश डबराल ,”आवाज भी एक जगह है” केशव अनुरागी पृष्ठ संख्या 29