हिंदी के प्रमुख ‘रेखाचित्रों’ में चित्रित ‘संवेदना’ के विविध आयामों का अध्‍ययन

डॉ. विश्‍वजीत कुमार

संपर्क : 9716639869

ई-मेल : drvishwajeetkumar14@gmail.com

सारांश

रेखाचित्र सदृश कथेत्तर विधाओं का प्रत्‍येक शब्‍द मानवीय जिजीविषा, अनुभूति, चिंतन और कर्तव्‍य से संपृक्‍त रहता है। रेखाचित्र विधा अन्‍य कलाओं की भांति सौंदर्यानुभूति की अभिव्‍यक्ति है और रचनाकार की यह अनुभूति जितनी ही गहरी है, वह जीवन के रहस्‍य को, सत्‍य को उतने ही संयत रूप से व्‍यक्‍त करने में सफल हुआ है। इस विधा की स्निग्‍धता, अगोचरता और इन सबके ऊपर नव-नव संवेदनशीलता का हिंदी साहित्‍य में विशिष्‍ट स्‍थान है। रचनाकारों ने संवेदनापूर्ण यथार्थ का चित्रण कर इस विधा को समृद्ध एवं महत्‍वपूर्ण बना दिया है। प्रस्‍तुत आलेख प्रमुख रेखाचित्रों में संवेदना के विविध आयामों को, इन्‍हीं संदर्भों में परखता है।

बीज शब्‍द: रेखाचित्र, हिंदी साहित्‍य, विधा, संवेदना, पारिवारिक आयाम, सामाजिक आयाम, धार्मिक आयाम, राजनीतिक आयाम, मानवीय आयाम

शोध आलेख

मानव अन्य प्राणियों से इस रूप में अलग और श्रेष्ठ है कि मानव के पास ‘विचार शक्ति’ है। वह जिन चीजों को देखता है, उसे अनुभूत भी करता है; साथ ही उससे किसी न किसी रूप में प्रभावित भी होता है। किसी वस्तु या घटना के प्रभाव से उपजी भावनाएँ एवं अनुभूतियाँ ही ‘संवेदना’ के रूप में जानी जाती है। इस ‘भाव-प्रेरणा’ का मनुष्य जीवन में विशेष महत्व है। यह मानव जीवन में जीवंतता, सजगता और चेतन्यता का आधार और प्रमाण भी है। संवेदना एक प्रकार से किसी के प्रति विशेष सहानुभूति रखना भी है। ज्ञान या ज्ञानेन्द्रिय के अनुभव के अर्थ में भी इसका अर्थ लिया जाता है। ‘संवेदना’ शब्द के विग्रह से हमें ‘समान वेदना’ या ‘समान दुःख’ शब्द प्राप्त होते हैं जो ‘सहानुभूति’ के नजदीक है। अंग्रेजी में भी इसके लिए ‘सिम्पैथी’ या ‘सेंसेटिविटि’ शब्द व्यवहार में लाया जाता है। और यह संवेदना सामान्यतः किसी के शोक, दुःख, कष्ट या हानि के प्रति जागृत होता है।

समाज मानवों का कृत्रिम समुच्य है और संवेदना मानव समाज की व्यवहारिक प्रक्रिया। साहित्य इसी बीच की एक कड़ी है। साहित्यकार का संवदेनशील हृद्य ही उसे साहित्य सृजन की ओर प्रेरित करता है और साहित्य का भी उद्धेश्य है मानव में विशुद्ध संवेदनाओ को जगा कर एक सजग, संवेदनशील एवं सामाजिक प्राणी बनाना।

यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि साहित्यकारों में ऐसी कौन सी विशिष्ट संवेदनाएं है जो उसे सृजन की ओर प्रेरित करती है जबकि ‘संवेदना’ प्रत्येक मानव का सहज प्राप्य गुण है! वस्तुतः साधारण संवेदना सृष्टि नहीं रचती क्योंकि वह संवेग मात्र होती है, साहित्यकार का चिंतन दार्शनिक, हृद्य कोमल और दृष्टि पैनी होती है जिससे उसकी संवेदना में गहराई होती है जो कालानुभूति बन पाती है, वस्तु या घटना के वास्तविक कर्म और मर्म को उद्घाटित करती है, अतः उसका असर भी पुरजोर होता है। इस प्रकार साहित्य में, संवदेनाओं का स्वाभाविक प्रतिपादन हो जाता है। साहित्यकार मन के धरातल पर उभरी संवेदनाओं को चयनित विधा के पात्रों, संवादों व विभिन्न रसों और भाषाओं में व्यक्त करता है; जिससे वह अपनी अनुभूतियों को पाठक तक पहुँचा कर उसे प्रभावित करने की चेष्टा करता है। साथ ही; भाषा, भाव और प्रेरणा तीनों प्रत्येक काल में साहित्य की संवेदना को नई अर्थवत्ता भी प्रदान करते हैं।

हिंदी साहित्य में, रेखाचित्र विधा की रचनाओं में साहित्यकार की संवेदनाओं की गहरी पैठ है। कल्पनाओं के इतर जीवन-यथार्थ से अनुभूत संवेदनाएँ ही ‘रेखाचित्र’ का आधार है। समीप की घटनाएँ या कोई मनुष्य-मनुष्येत्तर प्राणी जब साहित्यकार की संवेदनाओं को निंरतर उद्वेलित करती है तो वह इस विधा की ओर प्रवृत्त होता है। वस्तुतः रेखाचित्र में संवेदनाओं का चित्रण बहुरंगी, बहुआयामी, और बहुस्तरीय होता है। निकट संपर्क में आए वस्तुओं व प्राणियों से गहरे लगाव व सप्रेम जीवन में आस्था का चित्रण रचनाओं में सर्वत्र व्याप्त है। अंध-उपभोक्त्तावादी संस्कृति के अपनाने से ऊपजी संवेदनहीनता, भाग-दौड़ की जिंदगी से उत्पन्न छटपटाहट का कहीं चित्रण हैं तो कहीं सरांध संस्थागत अव्यवस्था के बिंब हैं। कहीं मानवीय मूल्यों में ह्रास का असंतोष है तो कीं समाज में व्याप्त विसंगतियों का पर्दाफाश। यदि एक ओर विद्रोह, आक्रोश और सामाजिक अवांछनीय ढ़ाँचों को बहिष्कृत करने का आह्वान भी है तो दूसरी ओर मानव हृद्य के सुंदर भावों का चित्रण भी अवश्य मिलता है। रेखाचित्र विधा संवेदना के विविध आयामों को समग्रता एवं संपूर्णता से समेटे हुए हैं, जिसका विस्तृत अध्ययन आगे किया जा रहा है-

पारिवारिक आयाम

परिवार अपने सदस्यों के संरक्षण की संस्था भी है और परस्पर विकास, सहयोग, सामूहिक उन्नति की भावना लिए जीवन की धुरी भी। यह कई पीढ़ियों व विचारों का सम्मिश्रण हो सकता है। संस्कार निर्माण से लेकर जीवन जीने की कला तक, सामाजिक दायित्व की समझ से लेकर व्यावहारिक शिक्षा ग्रहण करने तक; सबमें यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। एक सामान्य परिवार के किसी भी सदस्य की संवेदना में समस्त परिवार सहभागी होता है जो इस संस्था की खूबसूरती है। परिवार के प्रत्येक सदस्य का न केवल अन्य दूसरे सदस्यों के प्रति जिम्मेदारियाँ जुड़ी होती है बल्कि संवेदनात्मक रूप से भी परस्पर जुड़ाव होता है। वैसे तो प्र्रत्येक सदस्य स्व्यं में महत्वपूर्ण होता है लेकिन परिवार-हित सर्वोपरि। दूसरे शब्दों में, वैचारिकी अंतर व मनोभावों का सुंदर सामंजस्य एक स्वस्थ व प्रगतिशील परिवार का निर्माण करता है, जो मानव के समग्र विकास में सहयोगी और उपयोगी है। लेकिन विडंबना यह भी है कि हमारे यहाँ परिवार का स्वरूप हमेशा एक सा नहीं रहा है। संयुक्त परिवार से लेकर एकल परिवार तक की अवधारणा हमारे समाज व संस्कृति में रही है। भारत में संयुक्त परिवार की प्रणाली प्राचीनतम समय से विद्यमान रही है लेकिन पश्चिमी प्रभाव, औद्योगिकी क्रांति के बाद की नई अर्थव्यवस्था, नवीन जीवन शैली व बदली हुई आवश्यकता और मानसिकता ने परंपरागत संयुक्त परिवार संस्था का विनाश प्रारंभ कर दिया। लोग एकल परिवार की ओर मुड़ते गए। हालांकि दोनों प्रणालियों के फायदें एवं नुकसान गिनाए जाते रहे हैं। अलग-अलग महत्ताएँ बताई जाती है। संयुक्त परिवार एक वट-वृक्ष की भाँति होता था, दादा-दादी, घर के बुजुर्ग मुखिया की तरह होते, जिसके छत्र-छाया में परिवार संस्कृत होकर पलता बढ़ता था। एक सुरक्षा की भावना सदैव बनी रहती थी। लेकिन वैयक्तिक स्वतंत्रता व पृथक स्वतंत्र विकास के अवरोध का आरोप इस प्रणाली पर लगाया जाता है। एकल परिवार इसका समाधान ढूँढ़ने की कोशिश जरूर है लेकिन असुरक्षा की भावना, मानसिक अवसाद, रिश्तों में टकराहट व संवेदनाहीनता, मूल्य ह्रास जैसे मामले भी इसकी देन है। दादा-दादी, चाचा-चाची, माँ-बाप, पति-पत्नी, भाई-बहन, बेटा-बेटी, पोता-पोती के साथ नौकर-चाकर, पशु-पक्षी भी जहाँ संयुक्त परिवार के हिस्सा होते थे, समय के साथ सिमटता गया और फलस्वरूप इस बिखराव व दूरी ने संवेदनाओं में भी कमी या ह्रास पैदा किया। रेखाचित्रकारों की कथा-वस्तु भी इन तत्वों को व्याख्यायित करती है।

अपने जीवनावधि में, समय के साथ मनुष्य वृद्ध जनों के प्रति अधिक संवेदनशील होता जाता है। जीवन की समझ व स्वानुभव इसमें सहायक होता है। दादा-दादी, नाना-नानी से लगाव तो बचपन में भी होता है लेकिन आगे चलकर उनके प्रति हमारा भाव गंभीर व प्रायोगिक होता जाता है। रेखाचित्रकार देवेन्द्र सत्यार्थी को अपने मित्र गुरूबख्शसिंह से उनकी दादी के रेखाचित्र को सुनकर दादा जी की याद आ जाती है। उनका लिखा ‘दादा-दादी के रेखाचित्र’ अत्यंत संवेदना से भरा व भावपूर्ण है। वे लिखते हैं-‘मेरे मित्र की दादी का रेखाचित्र सुंदर भी है और महत्वपूर्ण भी। इससे मुझे प्रेरणा मिली है। इसे देखकर भला कौन यह कहने का साहस करेगा-अगले वक्तों के हैं ये लोग, उन्हें कुछ न कहो!…….अपने मित्र की दादी का ध्यान करते ही मुझे अपने दादा का ध्यान आ जाता है। जैसे आज भी मेरे दादा मेरे कल्पना के कला भवन में बैठे मुस्कुरा रहे हो, जैसे वे आज भी मुझसे कह रहे हों-मेरे लिए एक भुट्टा भून लाओ न! हाँ मुझे याद है कि मृत्यु से दो दिन पहले ही उन्होंने मुझसे भुट्टा मांगा था।…….मैं बाहर यात्रा पर था, वे बिमार पड़ गए। मैं आया और वे जाने के लिए तैयार हो गए। ठीक दीवाली के दिन मेरी जाँघ पर उनका सिर था, जब उन्होंने स्व्यं मृत्यु का स्वागत किया; वे चले गए। पर अपने पीछे शत-शत स्मृतियाँ छोड़ गए।’1 पोता व दादा का ऐसा लगाव निश्चय ही पाठक को अपने परिवार की ओर सजल आँखों से खींच जाता है।

एक सजग माँ परिवार के उन्नति में किस प्रकार अतुलनीय सहयोग दे सकती है, विष्णुप्रभाकर ने चित्रित किया है। मातृत्व गुण के अतिरिक्त अगर माँ शिक्षा के प्रति भी सजग हो तो बच्चों के संस्कार पर महत्तम असर होता है। ‘मेरी माँ’ रेखाचित्र में वे लिखते हैं-दहेज में मेरी माँ पुस्तकों से भरा एक संदूक भी लाई थी। जब पढ़ने योग्य हुए तब बड़े गर्व से हमने उस संपत्ति पर डाका डाला और उसे पढ़ते-पढ़ते नष्ट कर दिया। क्या यह कहना अतिश्योक्ति होगी कि आज मैं जो कुछ हूँ एक मात्र उसी डाके के कारण हूँ।’2 माना भी जाता है कि परिवार बच्चों के लिए प्रथम पाठशाला है, जिसमें माँ की भूमिका सर्वोपरि है। ‘माँ’ अपनी प्रगतिशील सोच से उदाहरण प्रस्तुत कर, बच्चो को ऐसा संस्कार भी दे सकती है। लेखक की माँ भी वर्जनाओं को तोड़ती है। उनके रूढ़िग्रस्त परिवार में सबसे पहले परदे का परित्याग करने का गौरव भी उनकी माँ को ही प्राप्त हुआ। इस रेखाचित्र में, पाठक की संवेदना तब और द्रवित हो जाती है जब पर्दे के परित्याग की वजह भी पता चलता है। अपने सास के बैकुंठवास के बाद ससुर को किसी प्रकार की असुविधा न हो, यह बड़ा कारण था। आज के संवेदनहीन होते समाज में अपने वृद्ध जनों के लिए परित्याग बिड़ले जान पड़ता है। इससे भी बड़ा परित्याग माँ ने तब किया जब परिवार का व्यापार नष्ट हो जाने पर, कुटुंब की लाज बचाने के लिए अपने जेबर भी बेच दिए। स्त्री का जेवर-त्याग निश्चित ही, प्रशंसनीय है। परिवार के हित के समक्ष वह अपना जेवर-मोह भी त्याग देती है। रचना के अंत में, लेखक बड़े ही संवेदना भरे शब्दों में, माँ को याद करते हैं-‘जिसने जीवन भर संघर्ष किया, जो सदा विजयी हुई, वह मेरी माँ, क्या मृत्यु से हार गई! अत्यंत रूपवती, विशाल हृद्या, जिनके प्रेम के वट-वृक्ष के नीचे न जाने किस-किस-ने आश्रय लाभ लिया, वह मेरी माँ क्या मृत्यु से हार गई! नहीं, मृत्यु ने उन्हें पराजित नहीं किया है, अमर किया है। मेरी माँ अपने परिवार में सदा जीवित रहेंगी और उस परिवार का क्षेत्र बहुत-बहुत विशाल है।3

पिता न केवल अपने परिवार की रक्षा करता है बल्कि खुद उदाहरण प्रस्तुत कर बच्चों में संस्कार भी भरता है। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने ‘मेरे पिताजी’ में अपने उदार, परोपकारी व सहृद्य पिता को चित्रित किया है। ‘मानव के प्रति निष्काम ममता उनकी अपनी चीज थी। जो घासवाला उनकी गाय के लिए घास लाता, उसे चाय पिलाई जाती और यजमानों के यहाँ से आई-गई सुहाली मिठाई अवश्य दी जाती। अगर वह बूढ़ा होता, तो उसे जरा सी अफीम की गोली भी वे दे देते। यह सब उन्हें अपनी शीतलपाटी पर बैठाकर किया जाता और इसके लिए वे अपना ही गिलास काम में लाते।……..वे इतने मीठे थे कि संसार की कोई भी कड़वाहट, उन तक पहुँचते-न-पहुँचते स्व्यं मीठी हो जाती थी! ओह; वे कितने अच्छे थे।’4

अपने बच्चे का एक सुंदरसा चित्र उपेन्द्रनाथ अश्क ने रचा है। परिवार में बच्चा अपनी शरारतों, जिज्ञासाओं व अन्य बाल-सुलभ क्रिड़ाओं से वातावरण जीवंत एवं स्फूर्तिमय बनाए रखता है। परिवार असल मायनों में भरा-पुरा परिवार लगता है। वे लिखते हैं-‘कई बार बच्चा मम्मी को जगाते-जगाते थककर अपने ‘पापा’ को प्रातः के उस ठन्डे वातावरण में, चाय के एक-गर्म प्याले के आनंद की याद दिलाने आ पहुँचता है। वह धीरे-धीरे अपने बिस्तर से उतरता है और अपने ठंडे-ठंडे हाथों से मेरे दोनों गाल पकड़ चूम लेता है।’5 प्रस्तुत रेखाचित्र में बाल-मनोविज्ञान का बड़ा ही सटीक व सजीव चित्रण है। बच्चे व अभिभावक के बीच के पारिवारिक संबंध को संवेदनापूर्वक रखा गया है।

रेखाचित्र साहित्य में, परिवार के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग व वातावरण में मौजूद संवेदनाओं का विस्तृत चित्रण मिलता है। यथार्थ चित्रण के बावजूद ये रेाचक हैं और निश्चय ही प्रेरणादायी और सारगर्भित भी हैं।

मानवीय आयाम

मानव सह-अस्तित्व की भावना में विश्वास करता है। ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’, ‘वसुधैव कुटुंबकम’ व ‘प्रकृति-प्रेम’ की भावना मानव-संवेदना जनित मानवता ही है। हिंदी साहित्य में, रेखाचित्रकारों ने संवेदना के मानवीय आयामों का गहराई से चित्रण किया है। ‘संवेदना’ साहित्यकार को सृजन के लिए प्रेरित करता है और साहित्य सबके हित की भावना लिए होता है; रेखाचित्र की कथा वस्तु में इसकी अनुगुंज सर्वत्र है। रचनाओं के केंद्र में मानव-समस्या से जुड़ी चिंताएँ हैं। कुछ मानवों के बहाने संपूर्ण मानवहित के लिए सर्जना है। साधारण मानवों, प्राणियों के बहाने उच्चतर आदर्श प्रस्तुति की आकांक्षा है। मानव में और मानवीयता भरने के लिए संवेदनाओं का शब्दीकरण है। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर अपनी रचनाओं के संदर्भ में लिखते हैं-‘अगले पृष्ठों में ऐसे ही मानवों के संस्मरण हैं, जो साधन या शक्ति के कारण नहीं, साधना एवं भक्ति के कारण ही दिप्तिमान् हैं; यहीं मैनें उन्हें कहा है दीप, जो प्रकाश फैलाते हैं और शंख, जो जागरण का संदेश देते हैं।…….जीवन का भटकना है गलत चीजों-वैल्यूज़ में अपनी सार्थकता मानना, तो हम इस प्रकाश में देखे कि जीवन की सार्थकता उसके गुणवान होने में, नम्र सेवाशील होने में, दूसरों के लिए उपयोगी होने में हैं, संहारक या साधन-संपन्न होने में नहीं-यह साधान संपन्नता धन की हो, बल की हो, पद की हो, या बुद्धि की हो!……मनुष्य की उच्चता यह नहीं है कि वह अपने लिए जिए, दूसरों को अपने लिए समझे या दूसरों को अपने लिए जीने-मरने का कर सके। उसकी उच्चता यह है कि वह दूसरों के लिए जिए, दूसरों के लिए उपयोगी होकर जिए।’6

श्रीराम शर्मा ने ‘पीताम्बर’ का जो रेखाचित्र खींचा हैं, उसमें पात्र की मानवीय संवेदना बखूबी वर्णित है- ‘पीताम्बर कुम्हार उन तपस्वी, ईमानदार, परहितकार और परोपकारी महानुभावों में से था, जो निष्काम सेवा को मानव जीवन की भित्ति समझते हैं। वे सेवा करते हैं किसी को दिखाने और नाम करने के लिए नहीं, वरन् इसलिए कि सेवा करना उनका स्वभाव है- कोयल की भांति, जो दूसरे के लिए नहीं, वरन् अपने लिए ही कंटकित होकर मधुर आलाप करती है।’7

एक फेरीवाला से महादेवी की आत्मीयता पाठक के संवेदनाओं को गहराई से छू जाता है। एक साधारण मनुष्य के सुख-दुःख से खुद को जोड़ लेना एक विशाल हृदय की पहचान है। यही मनुष्यता का प्रमाण है। चीनी फेरेवाले को याद करते हुए लिखती हैं- और आज कई वर्ष हो चुके हैं- चीनी को फिर देखने की संभावना नहीं, उनकी बहिन से मेरा कोई परिचय नहीं, पर न जाने क्यों वे दोनों भाई-बहिन मेरे लिए स्मृति पटल से हटते ही नहीं…. वह जन्म का दुखिया मातृ-पितृहीन और बहिन से बिछुड़ा हुआ चीनी भाई अपने समस्त स्नेह का एक मात्र आधार चीन में पहुँचने का आत्मतोष पा गया है, इसका कोई प्रमाण नहीं, पर मेरा मन यही कहता है।’8 लेखिका का एक अंजान के प्रति मंगलकामना मानवीय संवेदना का परिचायक है।

मानव न केवल प्रकृति का हिस्सा है, बल्कि प्रकृति के प्रति आकर्षण भी उसका स्वाभाविक गुण है। मानव प्रकृति से ही अपना विकास पाता है। नदी, नाले, खेत, खलिहान, सूरज, चंद्रमा, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी सब प्रकृति के हिस्से हैं। रेखाचित्रों में ये बड़ी सुंदरता से चित्रित हुए हैं। ग्रामीण परिवेशों के वातावरण रेखाचित्रों में अत्यंत सजीव है। रामवृक्ष बेनीपुरी ने तो अपने रेखाचित्रों में प्रकृति का सुंदर मानवीकरण भी किया है। ‘बालगोबिन भगत’ में प्रकृति का अन्यतम चित्र काव्यात्मकता लिए हुए है-

‘आषाढ़ की रिमझिम है। समूचा गाँव खेतों में उतर पड़ा है। कहीं हल चल रहे हैं, कहीं रोपनी हो रही है। धान के पानी-भरे खेतों में बच्चे उछल रहे हैं। औरतें कलेवा लेकर मेड़ पर बैठी हैं। आसमान बादल से घिरा है, धूप का नाम नहीं। ठंडी पुरवाई चल रही। ऐसे ही समय आपके कानों में एक स्वर तरंग-झंकार सी कर उठी। यह क्या है, कौन है। पूछना न पड़ेगा। बालगोबिन भगत समूचा शरीर कीचड़ में लिथड़े, अपने खेत में रोपनी कर रहे हैं।….. भादों की वह अंधेरी अधरतिया। अभी, थोड़ी ही देर पहले मूसलाधार वर्षा खत्म हुई है। बादलों की गरज, बिजली की तड़प में आपने कुछ न सुना हो, किंतु अब झिल्ली की झंकार या दादुरों की टर्र-टर्र बालगोबिन भगत के संगीत को अपने कोलाहल में डूबो नहीं सकती।’9

मानवेत्तर प्राणी के साथ भी मानव का गहरा लगाव रहा है। आदिम युग से ही मानव ने पशु-पक्षी को अपने दैनिक जीवन में, मित्र-सहयोगी के रूप में स्वीकारा है। फलस्वरूप उससे संवेदनात्मक संबंध भी रहा है। ‘महादेवी जी कुछ विशिष्ट मानवेत्तर प्राणियों के प्रति अपनी जिस सहज, सौहार्द्र और एकांत आत्मीयता की अभिव्यंजना का जो अपूर्व कला-कौशल अपने इन चित्रों (मेरा परिवार) में व्यक्त किया है, वह केवल उनकी अपनी ही कला की विशिष्टता की दृष्टि से नहीं वरन् संसार-साहित्य की इस कोटि की कला के समग्र क्षेत्र में भी बेमिसाल और बेजोड़ है। ये कृतियाँ मानवीय भावज्ञता, संवेदना और कलात्मक प्रतिभा के अपूर्व निदर्शन की दृष्टि से शाब्दिक अर्थ में अपूर्व और अद्भुत कलात्मक चमत्कार हैं… उनकी संवेदना अत्यंत मार्मिक और जन्म-जन्मांतर की मानवीय अनुभूति के शोधन, परिशोधन और परिशोधन के सुदीर्घ योगाभ्यास के फलस्वरूप वर्षाकालीन निचिड़ मेघ के स्वतः स्फूर्त वर्णन और गहन पर्वन-प्रसूत निर्झर के अनिरूद्ध प्रवाह की तरह सहज विमुक्त और निश्छल सृजनशील प्रकृति की आदिम गतिशीलता की तरह एकांत स्वाभाविक है। अपने एक-एक लघुत्तम और सर्वथा उपेक्षित मानवेत्तर पात्र की सूक्ष्म संवेदना को प्रकृति-माता के जिस अति-संवेदनशील राडार की तरह पकड़कर जो मर्म-मोहक अभिव्यक्ति दी है, वैसी स्पर्शातीत भाव-ग्रहिता कोमल से कोमल अनुभूति वाले कवियों में भी अधिक सुलभ नहीं है, पंचतंत्र के पशुपात्रों की तो बात ही क्या है।’10

‘गिल्लू’ गिलहरी के साथ महादेवी ने अपने मधुर संबंधों को सुंदरता से चित्रित किया है’ ‘कभी मैं गिल्लू को पकड़कर एक लंबे लिफाफे में इस प्रकार रख देती कि उसके अगले दो पंजों और सिर के अतिरिक्त सारा लघु गात लिफाफे के भीतर बंद रहता। इस अद्भुत स्थिति में कभी-कभी घंटों मेज पर दीवार के सहारे खड़ा रहकर वह अपनी चमकीली आँखों से मेरा कार्य-कलाप देखा करता।’11

सामाजिक आयाम

भारतीय समाज अत्यंत प्राचीन एवं जटिल है। विविधता में एकता उसकी अन्यतम विशेषता है। समय के साथ समाज में निरंतर परिवर्तन होते रहे। समाज वैज्ञानिकता की ओर बढ़ता तो गया लेकिन संवेदना के स्तर पर कमजोर भी होता गया। श्यामचरण दूबे लिखते हैं- ‘समकालीन भारतीय समाज परिवर्तन के एक संवेगात्मक उद्वेग से गुजर रहा है तथा दुविधाओं और विडंबनाओं की एक शृंखला से मुठभेड़ कर रहा है। ये आहत करते हैं किंतु ये अपरिहार्य हैं। समाज के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने लोगों की सभी श्रेणियों की समस्याओं को सहानुभूति के साथ देखें, आर्थिक असमानताओं तथा अन्याय की समस्याओं के समाधान ढूँढे जन चेतना को व्यापक आयाम देने के कार्यक्रम चलाए, मिथक की अधीनता के विरूद्ध इतिहास के सच्चे अर्थ का उन्नयन करें तथा निर्णय करने में सहभागिता की प्रक्रियाएँ प्रारंभ करें। परंपरा के कुछ पक्ष अपनी जीवंतता तथा उपयोगिता के कारण जीवित रहेंगे जबकि अतीत के अनेक पर्तों वाले पूर्वाग्रहों को जड़ से उखाड़ फेंकना होगा तथा शोषण और आतंक की संरचनाओं को ढहाना होगा।’12 रेखाचित्रकारों ने समाज के इस स्वरूप को बखूबी पहचाना है। समाज के प्रत्येक वर्ग व क्रियाकलापों पर उनका स्वर मुखर है। हाशिये के लोगों का संवेदनात्मक चित्र खींचना तो रेखाचित्र की प्रमुख विशेषता है। अभावग्रस्त, दीन-हीन, वृद्ध-लाचार, अपाहिज, शोषित लोगों के इर्द-गिर्द रेखाचित्र की कथा-वस्तु निर्मित होती है। वस्तुतः केवल इन रेखाचित्रों में समाज को ज्यों का त्यों रख देने की कोशिश भर नहीं है, अपितु अपनी विचारधाराओं से समाज को दिशा देने की भी कहीं न कहीं कोशिश है।

‘अतीत के चलचित्र’ में विधवा मारवाड़िन वधू के जीवन का महादेवी ने बड़ा ही कारूणिक चित्रांकन किया है। सभी सुख-सुविधाओं से वंचित ‘समाधि जैसे घर में लोहे के प्राचीर से घिरे फूल के समान, वह किशोरी बालिका बिना किसी-संगी-साथी, बिना किसी प्रकार के आमोद-प्रमोद के निरंतर वृद्धा होने की साधना में लीन थी।… इसी साधना के बीच सौभाग्यवती ननद के पुरस्कार स्वरूप ‘भाभी के दुर्बल गोरे हाथों पर जलने के लम्बे, काले निशान और पैरों पर नीले दाग रह जाते थे।’13

वेश्यावृत्ति सामाजिक व्यवस्था के विफलता का ही परिणाम है और इससे उत्पन्न समस्याएँ बहुस्तरीय है। राहुल सांकृत्यायन ने इस समस्या पर ‘रूपी’ रेखाचित्र लिखा जो ‘मधुपुरी’ में रहने वाली माँ-बेटी के मजबूरीवश वेश्यावृत्ति को पेशा अपनाने की मार्मिक कहानी कहता है। असाध्य रोग से पीड़ित पात्रा पेट पालने के लिए अपना रोग लोगों से छुपाती है और परिणामस्वरूप यह बीमारी आगंतुकों में भी फैलता जाता है। सांकृत्यायन लिखते हैं- ‘वेश्यावृत्ति को सभी धर्मों ने पाप बतलाया है और इसके लिए नर्क में कठोर यातनाओं का चित्र खींचा है, लेकिन हजारों वर्षों से नर्क की धमकी दी जा रही है तो भी वेश्यावृत्ति कम होने की जगह बढ़ती ही गई। उधार के दंड का यहाँ कोई सवाल नहीं, क्योंकि धीरे-धीरे प्रकृति भी इसे बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं हुई और उसने इसी जन्म में आँखों के सामने घोर दंड देना शुरू किया और रजित रोग (सुजाक) ने दुनिया में अपना फैलाव शुरू किया।14

महादेवी वर्मा व बेनीपुरी के अधिकांश रेखाचित्र के पात्र सामाजिक- आर्थिक विषमता के शिकार है। गाँव का निर्धन बालक ‘घीसा’ हो या बेनीपुरी की पात्र ‘रजिया’, पाठक की समस्त संवेदनाओं को जागृत कर देता है। चंद पैसों की जरूरत के खातिर मेहनतकशों की पैंतरेबाजी हास्य से अधिक गंभीर संवेदना पैदा करती है। रेखाचित्रों ने समाज के एक और उपेक्षित विकलांग व अपाहिजों को केंद्र में रखकर भी कई रचनाएँ की हैं। विकलांगता अपने साथ कई और अवांछनीय समस्याओं को साथ लाती है। जन्मजात, कुपोषण या कोई दुर्घटनावश कोई व्यक्ति विकलांग हो सकता है लेकिन लोगों का उनके प्रति दृष्टिकोण संवेदनहीन व घृणास्पद भी रहा है। आज के समय तक कई हिस्सों में विकलांगों के दर्शन को अपशकुन तक माना जाता है। हालांकि आज इनके प्रति दृष्टिकोण में सकारात्मक बदलाव आ रहा है और अब इन्हें ‘दिव्यांग’ कहा जाता है। विकलांगता के साथ जीवन निश्चय ही कठिन और दुष्कर है। रचनाकारों की संवेदना इनकी समस्याओं को लेकर भी गंभीर है।

धार्मिक आयाम

धर्म आदिम काल से मनुष्य जीवन को प्रभावित करता रहा है। कला, साहित्य और संस्कृति भी इससे अछूती नहीं रही है, कला और साहित्य को इतिहास में भी धार्मिक केंद्रों द्वारा संरक्षण दिया जाता रहा है। धर्म अपने बाहरी रूप, रीतियाँ एवं कर्मकाण्डों के कारण पुरोहितों, पंडों, पुजारियों व मौलवी, पादरियों के अधीन रहा है और आम आदमी धार्मिक क्रियाओं में उनकी व्याख्याओं पर निर्भर रहा है। एक विशेष वर्ग ने धर्म के उच्च पदों पर जाति के आधार पर कब्जा करके रखा और उनकी विलासिता और भ्रष्ट आचरण भी लोगों को प्रभावित करता रहा। इससे धर्म का सही रूप तिरोहित हो गया और यह कर्मकांड बनकर रह गया। धर्म विभिन्न प्रकार के झगड़ों एवं सांप्रदायिक उपद्रवों का भी कारण बनता रहा है। साहित्यकार इन सब का चित्रण कर पाठक को सजग करते हैं। रेखाचित्रकारों ने धर्म के सकारात्मक व नकारात्मक उपक्रमों दोनों को तटस्थ्ता से देखा है। जातिवाद, संप्रदाय, अंधविश्वास, कर्मकांड पर चोट करते कई रेखाचित्र उदाहरण स्वरूप दिए जा सकते हैं। धर्म की अस्वस्थ परंपरा का भंजन इन रेखाचित्रों में मिलता है।

रेखाचित्र के सिद्धहस्त रचनाकार रामवृक्ष बेनीपुरी इन्हीं विडंबनाओं के शिकार हुए। उनके बचपन के समय में मृत माँ का प्रेत अपने बच्चे को अपने पास न ले जाए, इसलिए माँ के शव की टाँगों में कीलें ठोंक दी जाती थी। बेनीपुरी की प्यारी माँ की टांगों में ऐसी ही कीलें ठोक दी गई थी। बेनीपुरी इस क्रूर अंधविश्वास को याद कर बाद के वर्षों में सिहर उठते और आक्रोश उनका यों फूटता- ‘जहाँ माँ का, मातृत्व का, संतान प्रेम का ऐसा अपमान हो, निरादर हो, उस समाज को जहन्नुम में जाना चाहिए।’15

बेनीपुरी ‘बालगोबिन भगत’ में ‘जातिवाद’ को ठुकराते लिखते हैं- ‘तेली जिसका मुख देखने के बाद यात्रा-सफल नहीं होती- ऐसी व्यवस्था दे रखी थी हमारे समाज ने। तेलिया-मसान, यह घृणास्पद आस्पद जुड़ा था, जिस जाति के साथ! और, तब तक मुझमें वह ज्ञान भी न था कि समझूँ कि ये सारी बातें हमारे सड़े समाज की घृणिततम मनोवृत्ति का सूचक है!… न जाने वह कौन-सी प्रेरणा थी, जिसने मेरे ब्राह्मण का गर्वोन्नत सिर उस तेली के निकट झुका दिया था। जब-जब वह सामने आता, मैं झुककर उससे राम-राम किए बिना नहीं रहता।’16

पौराणिक कथाओं व मिथकों की रोचकता भी रेखाचित्र का विषय बना है। देश की जातीय-स्मृतियों को सुरक्षित रखने की इसमें अपार क्षमता होती है। ‘गिल्लू’ रेखाचित्र में महादेवी कौवों को देखकर सोचती है कि- ‘यह काकभुशुण्डि भी विचित्र पक्षी है- एक साथ समादरित, अनादरित, अति सम्मानित, अति अवमानित। हमारे बेचारे पुरखे पितरपक्ष में हमसे कुछ पाने के लिए काक बनकर ही अवतीर्ण होना पड़ता है।’17 हमेशा नापसंद किया जाने वाला कौवा पितरपक्ष में खूब आदर पाता है। महादेवी ने, माघ मेले में गंगा स्नान के बाद दान में भिखारियों के सामने एक रुपया और एक मुट्ठी अनाज फेंककर पुण्य लूटने वालों को ‘पुण्य-अहेरी’ का नाम दिया है। ‘रामा’ नामक रेखाचित्र में पौराणिक पात्र ‘धर्मराज’ अर्थात् यमराज मृत्यु के देवता के सुसंगत प्रयोग से निर्मल हास्य की सृष्टि भी की है।

राजनीतिक आयाम

साहित्यकार समाज का प्रहरी है। वह न केवल आम जनता पर नजर रखता है बल्कि समाज, राज्य और देश के विकास में भागीदारी व जिम्मेदारी लेने वाले राजनेताओं व उनकी राजनीति से भी मतलब रखता है। देश की मुख्यधारा की राजनीति स्वार्थ, परिवारवाद, धन बल, बाहुबल, अवसरवाद व छल कपट पर टिकी रही है। राजनैतिक दल व नेतागण सभी मूल्यों को तिलांजलि देकर, सत्ता में बने रहने के लिए जातिवाद, सांप्रदायिकता आदि को हवा देते हैं। अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए समाज के जनता की एकता को तोड़ते हैं। चुनाव पूर्व के जनता से किए वादे, जीतते ही ठंढे बस्ते में डाल दिए जाते हैं। आजादी के इतने सालों बाद भी हमारा देश इन्हीं वजहों से तरक्की के उस मुकाम पर नहीं पहुँच पाया, जितनी इस देश की क्षमता रही है। साहित्यकारों ने इन विषयों पर भी रेखाचित्र लिखे, क्योंकि सामाजिक, आर्थिक विकास में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इनके लिखे रेखाचित्रों में क्रांति के स्वर हैं। अपनी विचारधाराओं को भी रचनाकारों ने मुखरता से जगह दी है।

‘लालतारा’ की भूमिका में बेनीपुरी लिखते हैं कि ‘यह मेरे शब्दचित्रों का पहला संग्रह है। इसका पहला रूप उस जमाने में निकला था, जब मैं सिर से पैर तक लाल-लाल (मार्क्सवादी विचारधारा पूर्ण) था। ‘लालतारा’ एक नए प्रभात का प्रतीक था। वह प्रभात अब अधिक सन्निकट है। शायद इसलिए अंधकार भी अधिक सघन हो चला है। यह अंधकार छँटे, नए प्रभात का सर्वोदय हो, इसी कामना के साथ।’

‘हमारे राष्ट्रपति’ में बेनीपुरी का राजेन्द्र बाबू के प्रति लगाव व श्रद्धा का संवेदनात्मक चित्रण है- ‘राजेन्द्र बाबू को बिहार का कौन विद्यार्थी नहीं जानता था? उस समय के विशाल कलकत्ता विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों में सर्वप्रथम आकर उन्होंने बिहार के विद्यार्थियों की प्रतिभा की धाक जमाई थी। ‘बिहारी-छात्र-सम्मेलन’ की स्थापना कर बिहार के विद्यार्थियों का जैसा संगठन किया था, वैसा आज तक नहीं किया जा सका। इसके संरक्षण में गाँवों में निरक्षरता दूर करने के प्रयास से लेकर, छात्रों के बीच व्यायाम, व्याख्यान, संगीत, अभिनय आदि की प्रतियोगिताएं चलती रहती थी। फिर, चंपारण के किसान संघर्ष में, राजेन्द्र बाबू ने गांधी जी का पूरा साथ देकर बिहार की जनता का मन मोह लिया था। अब गांधी जी की पुकार पर सबसे पहले असहयोग कर उन्होंने बिहार का नेतृत्व अपने कंधों पर लेकर हमें कृतार्थ किया था। ऐसे और वही राजेन्द्र बाबू हमारे आचार्य होंगे, हम उनके चरणों के निकट बैठकर ज्ञान प्राप्त करेंगे, यह कल्पना ही हमें मुग्ध बनाने के लिए काफी थी।’18

निष्‍कर्ष:- यह कहा जा सकता है कि संवेदना के विविध आयाम रेखाचित्रों में समाहित है। किसी पात्र, वस्तु, घटना के कारण जो संवेदनाएं रचनाकार में जागृत होती हैं, उसका प्रसार उनकी कृतियों में बखूबी है। रचनाकार की सहानुभूति व्यक्ति, समाज और राष्ट्र से है, मानव व मानवेत्तर प्राणियों से भी है। रेखाचित्र विधा इस मूल्यह्रास के युग में, मशीनी व व्यस्त जीवन में फंसे मानव में और अधिक संवेदनशीलता जागृत करने में सक्षम है।

संदर्भ सूची

  1. देवेन्द्र सत्यार्थी, रेखाएँ बोल उठी, प्रगति प्रकाशन, दिल्ली, 1949 ई., पृ. 165
  2. विष्णु प्रभाकर, जाने-अनजाने, विश्वविद्यालय प्रकाशन, गोरखपुर, 1961 ई., पृ. 44
  3. वही, पृ. 48
  4. कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, दीप जले, शंख बजे; भारतीय ज्ञान पीठ, नई दिल्‍ली, 1959 ई., पृ. 13
  5. उपेन्द्र नाथ अश्क, ज्यादा अपनी: कम परायी, नीलाभ प्रकाशन, इलाहाबाद, 1959 ई., पृ. 135
  6. कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, दीप जले: शंख बजे, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्‍ली, 1959 ई. पृ. 7-8
  7. श्रीराम शर्मा, बोलती प्रतिमा, आर्य बुक डिपो, नई दिल्‍ली, 1996, पृ. 70
  8. महादेवी वर्मा, स्मृति की रेखाएँ, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2014, पृ. 27-28
  9. रामवृक्ष बेनीपुरी, रचना संचयन, साहित्य अकादमी, नई दिल्‍ली, 2000 ई., पृ. 178
  10. महादेवी वर्मा, मेरा परिवार, उच्छ्वास-इलाचंद्र जोशी से
  11. महादेवी वर्मा, मेरा परिवार, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2014, पृ. 34
  12. श्यामचरण दूबे, भारतीय समाज, राष्ट्रीय पुस्तक न्याय, नई दिल्ली, 2014, पृ. 126
  13. महादेवी वर्मा, अतीत के चलचित्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2015, पृ. 27-29
  14. ‘नई धारा’ पत्रिका, वर्ष 4, अंक 10, 1954 ई., राहुल सांकृत्यायन का रेखाचित्र ‘रूपी’।
  15. लक्ष्मीनारायण मिश्र, नई धारा (पत्रिका), बेनीपुरी स्मृति अंक, पृ. 225
  16. रामवृक्ष बेनीपुरी, रचना संचयन, साहित्य अकादमी प्रकाशन, नई दिल्‍ली, 2000 ई., पृ. 177
  17. महादेवी वर्मा, मेरा परिवार, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2014 ई., पृ. 33
  18. रामवृक्ष बेनीपुरी, मील के पत्थर, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, नई दिल्‍ली, 1957, पृ. 47

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.