आधुनिकता के आईने में वृद्ध

डॉ. रितु अहलावत

ईमेल: ritialw@gmail.com

सारांश

आधुनिकता के आईने में वृद्धों की स्थिति तिरस्कृत नजर आती है। पीढ़ी दर पीढ़ी वृद्धों को केवल उपेक्षा का शिकार होना पड़ रहा है। मनुष्य आधुनिक होता जा रहा है, परन्तु समाज में वृद्धों की समस्याएं इस आधुनिकता पर एक प्रश्न चिन्ह लगाती नजर आ रही हैं। आज का युवा वर्ग टी.वी और इंटरनेट में ही अपनी दुनिया तलाश रहा है। उनकी दोस्ती रिश्तेदारी सब इंटरनेट में सिमट कर रह गयी है। इसके परिणामस्वरूप वृद्धों की अनदेखी होती जा रही है।

बीज शब्द: वृद्धावस्था, बच्चे, परिवार, समस्या, व्यथा, अनदेखी

शोध आलेख

वर्तमान समय विमर्शों का समय माना जाता है। इन विमर्शों में दलित, स्त्री और आदिवासी विमर्श बहुत चर्चित हुए हैं। दलित, आदिवासी और स्त्री को समाज में एक समतामूलक स्थान दिलाने के पूर्ण प्रयास किये जा रहे हैं और इसमें काफी हद तक सफलता भी प्राप्त की जा रही है, लेकिन इतने विमर्श चलाने के बाद भी एक महत्वपूर्ण सामाजिक पक्ष ऐसा भी है जो आज भी पिछड़ा हुआ है। वह पक्ष आधुनिकता के नाम पर वृद्धों की बढ़ती समस्याओं का पक्ष है। साहित्य में वृद्धों की समस्या पर बहुत कम लिखा जा रहा है। यदि कहीं पर वृद्धों की समस्याओं को लाया भी जाता है तो वह गौण रूप में ही आती हैं। प्राचीन समय में वृद्धों को सम्मानित स्थान दिया जाता था, परन्तु अब पीढ़ी दर पीढ़ी वृद्धों को केवल उपेक्षा और तिरस्कार झेलना पड़ रहा है। मनुष्य आधुनिक होता जा रहा है, परन्तु समाज में वृद्धों की समस्याएं इस आधुनिकता पर एक प्रश्न चिन्ह लगाती नजर आ रही हैं। आज का युवा वर्ग टी.वी और इंटरनेट में ही अपनी दुनिया तलाश रहा है। उनकी दोस्ती रिश्तेदारी सब इंटरनेट में सिमट कर रह गयी है। इसका परिणाम यह है कि “अब टी.वी की चकाचौंध में वृद्धों की बातें धुंधली पड़ गयी हैं।”1 माता-पिता अपने बच्चे का अच्छे से अच्छा पालन-पोषण करते हैं। जब वह बच्चा जीवन में कामयाबी हासिल कर अपने अभिभावकों का सहारा बनने लायक हो जाता हैं तब वह उन्हें छोड़कर चल देता है। मॉडर्न कहलाने के लिए आज का युवा वर्ग इसी जीवन शैली को अपना रहा है। उसे अपने बूढ़े अभिभावक ‘बैकवर्ड’ लगने लगते हैं व उसे उनके साथ रहने में शर्मिंदगी महसूस होने लगती है। वे यह बात भूल जाते हैं कि माता-पिता अपना अस्तित्व मिटाकर उनके भविष्य का निर्माण करते हैं और उन्हें ‘मॉडर्न’ कहलाने वाली जीवन शैली प्रदान करते हैं।

प्राचीन काल में वृद्धों को पारिवारिक धरोहर के रूप में माना जाता था। किसी भी परिवार में वृद्धों के जीवन का अनुभव उनके परिवार के अन्य सदस्यों के लिए एक सशक्त मार्गदर्शन का काम करता था। वृद्ध ही रीति-रिवाज, तीज-त्यौहार, संस्कार, कृषि-विज्ञान, देशी औषधियों आदि की जानकारी अपने बच्चों को देते थे। इससे पारंपरिक मूल्यों का पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरण होता रहता था। इसके साथ ही वृद्धों का अनुभव घरेलू तथा क्षेत्रीय लोगों की समस्याओं का भी निदान करता था, जिस कारण परिवार में वृद्धों को श्रेष्ठ तथा उच्च दर्जा प्राप्त था। लेकिन जैसे ही आधुनिक युग का विकास हुआ, वृद्ध के ‘अनुभवों’ का स्थान ‘विज्ञान व आधुनिक तकनीक’ ने ले लिया। निर्धनता, मॉडर्निटी, समय का अभाव, बेरोज़गारी आदि के कारण मनुष्य जितना प्रगति करता गया उतनी ही वृद्धों से दूरी बढ़ती गई।

महान कथाकार प्रेमचंद ने समाज में व्याप्त सभी समस्याओं को अपनी कहानियों के माध्यम से उद्घाटित किया। प्रेमचंद द्वारा लिखी गयी कहानी ‘बूढ़ी काकी’ एक वृद्ध महिला की कहानी है। इस कहानी में बूढ़ी काकी की हृदयविदारक व्यथा प्रस्तुत की गयी है। ‘बूढ़ी काकी’ अपनी सारी संपत्ति अपनी बहन के बेटे बुद्धिराम के नाम कर देती है। इस सम्पत्ति से आज बुद्धिराम को अच्छी आमदनी प्राप्त होती है, परन्तु वह है कि बूढ़ी काकी को भरपेट भोजन तक नहीं देता। “यद्धपि उस सम्पत्ति की वार्षिक आय डेढ़-दो सौ रूपये से कम नहीं थी तथापि बूढ़ी काकी को पेट भर भोजन भी कठिनाई से मिलता था।”2 वर्तमान समय में तो यह बात आम हो गयी है, बूढ़े-बुजुर्गों की सेवा व सम्मान तभी तक किया जाता है जबतक उनके पास अपनी संपत्ति होती है। जैसे ही वह संपत्ति बेटे के नाम हो जाती है वैसे ही बुजुर्गों की आवश्यकता घर में ख़त्म हो जाती है। यही स्थिति बूढ़ी काकी की भी है उसे समय पर भोजन तक नसीब नहीं होता। घर में शादी के मोके पर भी काकी को कमरे में ही रहने का निर्देश दिया जाता है। जब भूख से व्याकुल बूढ़ी काकी शादी में बनने वाले भोजन की महक के कारण खुद को रोक न सकी और पंडाल में पहुँच गयी तब पंडित बुद्धिराम उनको पंडाल में देखकर क्रोधित हो उठा। वह बूढ़ी काकी की व्यथा समझने के स्थान पर उनपर क्रोध करता है। वह पूड़ियों का थाल लिए खड़ा था और उसने- “थाल को जमींन पर पटक दिया और जिस प्रकार निर्दयी महाजन अपने किसी बेईमान और भगोड़े कर्जदार को देखते ही उसका टेंटुआ पकड़ लेता है उसी तरह लपककर उन्होंने काकी के दोनों हाथ पकड़े और घसीटते हुए लाकर उन्हें अँधेरी कोठरी में धम से पटक दिया।”3 बूढ़ी काकी इस आशा से बाहर गयी थी कि क्या पता उन्हें खाने को एक पूड़ी ही मिल जाए और उनकी क्षुधा शांत हो जाए। परन्तु बुद्धिराम के पास इतनी बुद्धि नहीं थी कि वह बूढ़ी काकी को प्यार से समझा दे या उन्हें पहले भोजन करवा दे।

इस कहानी का सबसे मार्मिक क्षण तब आता है जब मेहमानों को भोजन करवाने के बाद पूरा परिवार स्वयं भी भोजन कर के सो जाता है। बूढ़ी काकी की तरफ किसी का ध्यान तक नहीं जाता। वह भूख से व्याकुल होते हुए भी भूखे पेट अपनी कोठारी में ही सो जाने के लिए विवश है। आधी रात में जब लाड़ली अपने हिस्से की पूडियाँ बूढ़ी काकी के लिए लाती है तो वह उससे कहती है कि मुझे उस स्थान पर ले चल जहाँ मेहमानों ने भोजन किया था। अबोध बालक को कुछ समझ नहीं आता है- “उसने काकी का हाथ पकड़ा और ले जाकर झूठे पत्तलों के पास बैठा दिया….बुढ़िया पत्तलों से पूड़ियों के टुकड़े चुन-चुनकर भक्षण करने लगी। ओह…दही कितना स्वादिष्ट था, कचौड़ियाँ कितनी सलोनी, खस्ता कितना सुकोमल। काकी बुद्धिहीन होते हुए भी इतना जानती थी कि मैं वह काम कर रही हूँ, जो कदापि न करना चाहिए।”4 जिसे काकी अपना बेटा समझकर सब कुछ सौंप चुकी थी उसी के द्वारा किये जाने वाले अमानवीय व्यवहार के चलते वह यह कार्य करने को विवश हो गयी थी। यहाँ वृद्धों के भरण-पोषण का मुद्दा विशेष रूप से मुखरित होता है कि किस प्रकार एक वृद्ध अपना सर्वस्व बच्चों को दे देने के बाद भी झूठी पत्तलों से टुकड़े उठा कर खाने को मजबूर है।

कृष्णा सोबती द्वारा लिखित कहानी “दादी-अम्मा” भी वृद्धों की समस्याओं के मार्मिक पक्षों को प्रस्तुत करती है। जिस बेटे को दादी-अम्मा अपनी कोख में रखती है, जन्म देती है और पाल-पोसकर बड़ा करती है, वही बेटा आज बड़ा होकर उनसे बात तक करने से जी चुराता है। आज वह स्वयं तीन बच्चों का बाप है परन्तु माँ-बाप की पीड़ा को वह नहीं समझ पाता। वह काम का हवाला देकर माँ के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेता है। “बेटा दादी अम्मा से नजर बचाता है। दादी की खबर क्या घर-भर में उसे ही रखनी है ? छोड़ो कुछ न कुछ कहती ही जाएँगी अम्मा, मुझे देर हो रही है।”5 उम्र के इस पड़ाव पर आकर जब माँ को अपने बच्चों के सहयोग की आवश्यकता होती है तो बच्चे उनके मुद्दों को महत्वहीन और निरर्थक मानकर उनकी अनदेखी कर जाते हैं और वृद्ध उपेक्षित जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं। बेटे-बहुएँ अपने को इतना बड़ा मानने लग जाते हैं कि उन्हें अपने बड़े बुजुर्ग़ों का किसी बात में बोलना-टोकना भी पसंद नहीं आता है। घर के किसी कार्यक्रम में भी उनकी किसी प्रकार की सलाह लेना वे पसंद नहीं करते हैं। “किसी ने कुछ पूछा नहीं तो क्या करती? समधियों से बातचीत लेन-देन, दुलहिन के कपड़े-गहने, यह सब मेहरां के अभ्यस्त हाथों से होता रहा है। घर में पहले दो ब्याह हो जाने पर अम्मा से सलाह-सम्मति करना भी आवश्यक नहीं रह गया।”6 आज उनकी अभ्यस्तता से किसीको सरोकार नहीं हैं क्योंकि वह एक ठूंठे पेड़ के समान मान ली गयी हैं, जिसमें न फल लग सकता है और न ही उसकी छांव ही उपयोगी हो सकती है। ऐसी भावना के चलते वृद्धों को उनके अधिकारों से भी दरकिनार कर दिया जाता है और वे अपने ही परिवार के महत्वपूर्ण निर्णयों में अपनी राय तक नहीं दे सकते हैं।

वृद्ध हो जाने पर बाकी घर वाले उन्हें अछूत समझ लेते हैं। वृद्धों को अपने घर से पृथक कर दिया जाता है। लेकिन समय का चक्र तो चलता रहता है। वे यह बात क्यों भूल जाते हैं कि यह अवस्था एक दिन उनकी भी आनी ही है? इतना सब होने के बावजूद जहाँ वृद्धों के साथ इतना गलत व्यवहार होता है वहीं वृद्ध तब भी अपने बेटे बेटियों और बहुओं को सदैव दुवाएँ ही देते हैं। “कभी मेहराँ की जली-कटी बातें सोच बेटे पर क्रोध और अभिमान करने को मन होता है पर बेटे को पास देखकर दादी अम्मा सब भूल जाती है। ममता भरी पुरानी आँखों से निहार कर बार-बार आशिर्वाद बरसाती चली जाती है।”7 दादी अम्मा मन से कितनी भी क्रोधित और पीड़ित क्यों न हो परन्तु वे अपने बेटे के प्रति ममता से लाचार होकर सबकुछ भुला देती हैं और उसके सुखी जीवन की ही कामना करती है। वृद्धों के जीवन की यही नियति बन जाती है, बच्चों द्वारा मिले हजारों दुःख झेलना परन्तु सदैव उनके मंगल की कामना करना।

उषा प्रियंवदा द्वारा लिखित कहानी ‘वापसी’ पैतीस साल की नौकरी पूरी करने के बाद रिटायर हुए वृद्ध की कहानी है। गजाधर बाबू ने अपने बच्चों और पत्नी के लिए अपना पूरा जीवन नौकरी करके पैसा कमाने में लगा दिया। आज वही परिवार उन्हें अनुपयोगी सिद्ध कर देता है। इतने वर्षों में उस पारिवारिक संरचना में इतना बदलाव आ गया है कि आज वह अपने ही घर में अजनबी बनकर रह जाते हैं। उनके घर में उनका स्थान नगण्य है- “घर छोटा सा और ऐसी व्यवस्था हो चुकी थी कि उसमें गजाधर बाबू के रहने के लिए कोई स्थान न बचा था।”8 उन्हीं की बरसों की मेहनत से बना घर आज उन्ही के अस्तित्व के नकार से भर गया है। वृद्ध जीवन की यह सबसे बड़ी विड़म्बना है कि उनके पूरे जीवन की मेहनत से बनाये गये घर में उन्ही को अधिकारपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं होता। उनके रहने का स्थान परिवार के दूसरे सदस्यों की सहूलियत का मोहताज हो जाता है। दूसरों की इच्छा का पहले ख्याल किया जाता है और वृद्धों का स्थान सबसे आखिर में आता है। वर्तमान समय में अधिकतर वृद्धों की ऐसी ही स्थिति हो गयी है। वृद्ध जन अपने ही घर में रहकर एकांकी जीवन व्यतीत करने को मजबूर हैं। जहाँ माता-पिता अपने बच्चों के पालन-पोषण में अपने जीवन का अमूल्य समय उन्हीं पर न्योछावर कर देते हैं, वही जब किसी कारणवश पिता बच्चों को डांट देते हैं तो बेटा-बेटी उनसे बात तक नहीं करते हैं। गजाधर बाबू ने अपनी बेटी बसंती को डांट दिया था केवल उसकी भलाई के लिए और बसंती इससे नाराज होकर उनसे बात तक करना बंद कर देती है- “गजाधर बाबू ने दो-एक बार पत्नी से पूछा तो उत्तर मिला, रूठी हुई है।”9 आज का युवा वर्ग अभिभावकों द्वारा कही जाने वाली किसी भी बात को बंधन के रूप में देखता है। इस बंधन से छुटकारा पाने के लिए वह वृद्ध माता-पिता से दूरी बना लेता है और उन्हें अकेला रहने पर मजबूर कर देता है।

उषा प्रियंवदा ने वापसी कहानी में घर में विद्यमान प्रत्येक परिस्थिति को प्रस्तुत किया है। जब बच्चे किसी बात की हठ करते हैं या उनकी कोई बात उनके अभिभावकों को अच्छी नहीं लगती तो अभिभावक उन्हें प्यार से समझाते हैं। इसके विपरीत जब वृद्धों की कोई बात उनके बच्चों को पसंद नहीं आती तो वे या तो उन्हें घर से निकालने की साजिश रचने लगते हैं या फिर खुद ही अलग घर बसाने का फैसला ले लेते हैं। यही गजाधर बाबु के साथ भी हुआ। जब अमर को बाबूजी से शिकायतें रहने लगीं तो- “फिर उनकी पत्नी ने सूचना दी कि अमर अलग रहने की सोच रहा है।”10 अपने घर वालों का ऐसा व्यवहार देखकर गजाधर बाबू निश्चय कर लेते हैं कि वे कोई दूसरी नौकरी करेंगे और इस घर से दूर रहेंगे। जब अपने जीवन का बहुमूल्य समय एक व्यक्ति परिवार के पोषण के लिए नौकरी में खपा देता है तो वह वृद्ध होने पर घरवालों के साथ समय व्यतीत करने और आराम करने की इच्छा करता है। ऐसे समय में घर के लोगों का व्यव्हार यदि विपरीत मिलता है तो वह व्यक्ति पलायन की ओर उन्मुख हो जाता है। यही स्थिति गजाधर बाबू की भी है। वे वृद्धावस्था में भी काम करने को मजबूर हो जाते हैं। घर की बेरुखी से अच्छा उन्हें काम करके समय व्यतीत करना ज्यादा उचित लगता है।

मेहरुन्निसा परवेज़ की कहानी “टहनियों पर धूप” बदलते रिश्तों की एक शास्वत कहानी है। यह कहानी मुसलमानों के एक से अधिक विवाह करने और वृद्धावस्था में उससे मिलने वाले दुष्परिणामों को भी दर्शाती है। जैतून की माँ अपने जीवन में अकेली रह गयी है। पति का प्रेम कैसा होता है यह उसने कभी नहीं देखा और न ही संतान से ही उसे कभी प्रेम मिला। उसका पति अपनी दूसरी पत्नियों में ही खोया रहा। उसके दो बच्चे थे जो अपनी माँ से अधिक दादी और फूफी के नजदीक थे। वे अपनी दादी को ही अम्मा कहकर पुकारते थे। दोनों बच्चे धीरे-धीरे अपनी माँ का साथ छोड़ उससे दूर होते जा रहे थे। वह अपने ही बच्चों की बेरुखी से हैरत में पड़ जाती है- “बच्चे… उसे आश्चर्य होता है, क्या इन्हीं साँपों के बच्चों को उसने जन्म दिया था ? बच्चे भूल चुके थे कि वह उनको जन्म देने वाली माँ है। बस, वे इतना जानते थे कि, एक अपंग, अधेड़ औरत उनके घर पड़ी रहती है। यह अपमान यह पीड़ा नारी मन को चुभोता, टीसता, कुरेदता था।”11 इसी पीड़ा और मानसिक यंत्रणा के चलते वह फालिज़ से रोगग्रस्त होकर दुनिया छोड़ देती है।

निष्कर्ष-

वृद्धावस्था उम्र का वह पड़ाव है जिसमें वृद्ध शारीरिक व मानसिक रूप से अक्षम तथा सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टि से विपन्न दिखाई देते हैं। जिसका फायदा उठाकर हमारे समाज के व्यक्ति अपने हितों की पूर्ति के लिए उनका शोषण करते हैं। वहीं आज का युवा वर्ग जब माता-पिता की वृद्धावस्था में उनका सहारा बनने लायक होता है तो वह अपने कर्तव्य से बचने के लिए उनसे अलग रहना पसंद करता है या वृद्धों को घर से निकाल कर उन्हें दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ देता है। यदि वृद्धों से उनके अपने ही बच्चों को कोई लाभ नहीं मिलता तो वे उनके साथ दुर्व्यवहार करने लगते हैं। वृद्धों को हमेशा उनके उपयोगी न रहने का भावाबोध परेशान करता रहता है। वृद्धों को इतना प्रताड़ित होना पड़ता है कि वे वृद्धावस्था में भी नौकरी करने पर मजबूर हो जाते हैं। कुछ वृद्ध तो धिक्कारपूर्ण जीवन से तंग आकर आत्महत्या तक कर लेते हैं, या परिवार से दूर घर, अनाथालय, वृद्धाश्रम, रैन-बसेरों, सड़कों पर अंतिम जीवन व्यतीत करने के लिये मजबूर होते हैं। परिवार से दूर रहने का गम हर वक़्त उन्हें सताता रहता है। इसके साथ ही वे अकेलेपन से व्यथित तथा जूझते हुए नजर आते हैं।

सन्दर्भ सूची :

  1. मार्टिन मेकवेल, मेरी कथा : दलितयात्रा, संघर्ष और भविष्य, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण- 2008, पृ– 100
  2. प्रियदर्शन (संपादक), कहानी रिश्तों की : बड़े-बुजुर्ग़, राजकमल प्रकाशन, संस्करण- 2014 पृ- 15
  3. वही पृ- 19
  4. वही, पृ- 19
  5. वही पृ- 25
  6. वही पृ- 27
  7. वही पृ- 30
  8. प्रियंवदा उषा, मेरी कहानीयाँ, जैन निर्मला(संपादक), वाणी प्रकाशन, संस्करण- 1999 पृ- 86
  9. वही पृ- 89
  10. वही पृ- 90
  11. परवेज़ मेहरुन्निसा, टहनियों पर धूप, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, संस्करण- 1977, पृ- 141