फणीश्वर नाथ रेणु प्रणीत रिपोर्ताजों में अभिव्यक्त आम -जन की पीड़ा
सारांश
हिंदी साहित्य में रिपोर्ताज विधा सर्वाधिक नई विधा है। इस विधा को विकसित करने में फणीश्वर नाथ रेणु की अप्रतिम भूमिका है। रेणु जी ने समकालीन सामाजिक एवं राजनीतिक परिवेश को सदैव गंभीरता से लिया। मानवीय संवेदना से लिप्त उनके द्वारा प्रणीत रिपोर्ताज अमूर्त भावों को मूर्त करने में पूर्ण सक्षम है। सामाजिक जीवन में सक्रियता एवं जनहित हेतु लेखन रेणु जी का न केवल उत्तरदायित्व बल्कि लक्ष्य भी रहा है। उन्होंने रिपोर्ताज विधा में न केवल बिहार की आम जनता के लिए आवाज उठाई अपितु नेपाल की राणाशाही के विरुद्ध भी कलम एवं आवाज बुलंद की। यही बुलंद आवाज लेखनी के रूप में आलोच्य रिपोर्ताजों में दर्शनीय है इसी की पड़ताल प्रस्तुत शोध आलेख का लक्ष्य है।
बीज शब्द– विभीषिका ,त्रासदी, मृग- मरीचिका, सामूहिक रुदन , राणाशाही, अर्थहीनता , अमूर्त भाव।
शोध आलेख
जिस समय साहित्य के क्षेत्र में कवि, कथाकार, कहानीकार के रूप में प्रतिभाओं का उदय प्रगति पर था उस समय फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ बहुमुखी प्रतिभा संपन्न रूप में न केवल कथाकार बल्कि कथेतर साहित्य के प्रणेता रूप में साहित्य के सूर्य बनकर उदित हो चुके थे। अंचल विशेष को लेकर रची गई उनकी कहानियां एवं उपन्यास विधा ही चर्चित नहीं रही बल्कि कथा से इतर रिपोर्ताज विधा के सरताज रूप में भी ख्याति मिली। पत्रकारिता की रिपोर्ट से विकसित हुई इस नई विधा को स्थापित करने का काम यदि रांगेय राघव द्वारा मान लिया जाए तो इसके विकास का श्रेय फणीश्वर नाथ रेणु को देने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है। उनकेद्वारा प्रणीत इन रचनाओं में अभिव्यक्त आम जन-जीवन न केवल भारत के बिहार राज्य बल्कि पड़ोसी देश नेपाल की सरजमी तक पहुंचता हैं। नेपाल में मजदूरों की नरक सरीखी जिंदगी को ‘सरहद के उस पार’ नामक रिपोर्ताज में वर्णित किया है। रेणुजी मानते हैं कि अकाल की विभीषिका से उत्पन्न आम जीवन की त्रासद स्थति के पीछे भले ही नेपाल की सत्ता एवं सत्ता की गोद में बैठकर स्वार्थ सिद्धि में लिप्त पूंजीपति है लेकिन चुप्पी साधे हुए भारतीय नेताओं को भी वे उतना ही जिम्मेदार मानते हैं। रेणु जी नेपाल के विराटनगर शहर के दौरे पर हैं । वहां की आम जनता की स्थिति से लेकर मजदूरों की दुर्दशा को खुली आंखों से देखते हैं। विराटनगर 1942 की क्रांति के दौरान भारत के समाजवादियों का एक महत्वपूर्ण ठिकाना था। परिणाम स्वरूप नेपाली सरकार की दृष्टि में यह नगर हमेशा चुभता रहा। उस पर कड़ी निगरानी रखी जाती थी। चूंकि यह शहर चमडिया, सिंघानिया जैसे पूंजीपतियों का केंद्र था और मिलें विराटनगर की छवि को ‘मिलो का नगर’ रूप में स्थापित कर चुकी थी। पूँजीपतियों को यहाँ न केवल नेपाली राणाशाही की मिलीभगत के परिणाम स्वरूप इनकम टैक्स से छूट मिल रही थी बल्कि इनके षड्यंत्र भी चलते रहते थे जिसके कारण लेखक इस क्षेत्र को षड्यंत्र-क्षेत्र कहने से नहीं चूकता। कानून तोड़ने वाले ही कानून निर्माता भी थे। ऐसे में आमजन से लेकर निरीह जनता एवं मिलों में काम करने वाले हजारों मजदूर अपने परिवार सहित इनके दमन चक्र में पीसने को मजबूर थे। मजदूरों के लिए बनाए गए रिहाइश को लेखक ‘सूअर के खुहारों का समूह’ कहकर संबोधित करता है। इससे पता चलता है कि यहां मनुष्य और सूअर में कोई भेद नहीं। खुद को इनका रहनुमा मानने वालों द्वारा इस भेद को मिटाने के कोई प्रयास भी नहीं दिखते। इन सब के पीछे वह पूंजीपति ही हैं जिन के लिए मजदूर अपना खून बहा कर उनकी तिजोरिया भर रहे थे। मजदूर हड़ताल या अपनी मांगों के लिए संघर्ष तो छोड़िए उफ तक नहीं करते थे। इस विषय में रेणुजी लिखते हैं-’ इन मिलों में पंद्रह बीस हजार मजदूरों की पिसाई होती है मगर कभी आह भी नहीं करने दिया जाता है। मांगो एवं हड़तालों की चर्चा तो स्वप्न में भी नहीं की जाती।”1
जहां मजदूर अपने परिवारों संग रहते हैं उस स्थान की ओर संकेत करते हुए लेखक लिखता है- “देखिए दाहिनी ओर वह मजदूर कॉलोनी है या सूअर के खुहारों का समूह। उनके बच्चे एवं औरतों की दशा देखिए कितनी दर्दनाक सूरत हैं।”2
मजदूरों के लिए बनी इस कॉलोनी में न स्कूल है, ना अस्पताल लेकिन दिल बहलाने हेतु जगह-जगह शराब खाने एवं वेश्यालय खुले हैं। न केवल शराब के फ्लेवर उपलब्ध है बल्कि वेश्यालय में वेश्याएँ भी अलग-अलग स्थानों से लाकर रखी गई हैं- ‘औसतन दस क्वार्टरों पर एक वेश्यालय। महुआ, धान, जौ , सॉफ, नारंगी, नासपत्ती, केले की शराब। और वेश्याएं? देसी, पहाड़ी, बंगाली ,असमी ,सिंगापुरी ,बर्मीज, सस्ती- महंगी सब तरह की।”3
ऐसी व्यवस्था से मजदूरों को ऐसे कुएँ में डूबोए रखने का इंतजाम है ताकि वह कभी अपनी वास्तविक स्थितियों का आकलन न कर पाए और पूंजीपतियों का स्वार्थ चक्र निरंतर गतिमान रहे। पूंजीपतियों द्वारा सत्ता के साथ मिलकर त्त्योहार और नेपाली महाराजा के जन्मदिन पर जुए के लिए छुट्टियों की घोषणा किया जाना विराटनगर के मजदूरों की हालत को और दयनीय बनाता है। नेपाल के मजदूरों की बदतर स्थितियों के लिए लेखक न केवल नेपाली सत्ता, वहां बैठे पूंजीपतियों को ही जिम्मेदार मानता है बल्कि भारतीय नेताओं की चुप्पी पर भी सवाल उठाता है-”देश के नेताओं की निगाह पर तो जैसे पट्टियां बंधी हैं। मुंह पर ताले पड़े हैं। उन्हें दुनिया भर के लिए दर्द है पर नेपाल की शोषित जनता के लिए उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकलता ‘’4
‘भूमि का दर्शन की भूमिका’ नामक रिपोर्ताज में भी रेणु अपने कवि मित्र यायावर [अज्ञेय] के साथ यात्रा पर हैं। इस रिपोर्ताज में लेखक ने बिहार के अकाल के कई रंग और रूप दिखाये हैं। जगह-जगह मरे हुए पशुओं के शरीरों पर लड़ते हुए गिद्धौ, काग के झुंड देखकर मन उद्विग्नता के सागर में डूब उतर रहा है। यायावर द्वारा मुसहर जाति के बालक की ओर अमरूद बढ़ाने से बालक के मन में उपजे एक अलौकिक उल्लास को देखकर लेखक अति संवेदनशील हो उठता है और ऐसे में लेखक को गाँव का वह नक्षत्र याद हो उठता है जिसे लोग नछत्तर मालाबार कहते थे। वही नक्षत्र जो भूखी आम जनता के मसीहा और व्यापारियों के लिए लुटेरा एवं डकैत रहा। और ‘‘जिसका नाम सुनते ही गरीब गांव में खुशी की लहर दौड़ जाती थी। अमीरों की हवेलियों में सन्नाटा छा जाता और अधिकारियों का आराम हराम…”.5
इसी नछत्तर को लेखक गुमराह कहता है। वास्तव में नक्षत्र से नच्छत्तर में रूपांतरण नक्षत्र की संवेदनशीलता का प्रमाण है। वह उन भूखे गांव वालों की आंखों में उस दर्द की लहर को महसूस कर सकता है इसलिए एक बार लेखक को भी वह एक पत्र में लिखता है कि एक बार यदि लेखक गांव आकर इन भूखी आत्माओं को देखे तो उनके लिए लूटपाट करके जेल जाने या फांसी पर भी चढ़ जाने का दुख नहीं। दिन भर के भूखे बालक का पेट भरने पर जो आत्मिक खुशी होती है उसके लिए नछत्तर फांसी पर भी चढ़ने को तैयार है। यहां पाठक भी महसूसता है कि नक्षत्र द्वारा की गई लूटपाट लेखक [रेणुजी] को एक तरह से सही प्रतीत होती है लेकिन अपनी भावता पर लेखक जल्द ही वैचारिक चादर डाल देते हैं।
डाल्टनगंज में अकाल पीड़ित होने के बावजूद मुसहर जाति के लोगों की जीवनशैली और ड्राइवर गणेश द्वारा गांजा मांगना जीवन के प्रति ललक को दर्शाता है। उनकी जिजीविषा देख एक स्थान पर लेखक खुद से सवाल कर उठता है-’’ कौन कहेगा कि बिहार में सूखा और अकाल है..”. 6
लेकिन औरंगाबाद आते आते फिर वही झुलसी हुई धरती, कुत्सित, कुरूप भूखंड। यहां लेखक को बिहार अकाल का बदरंग चेहरा दिखता हैं जिनमें एक रूप उन मुफ़्त लंगरो का भी है जो डीसी द्वारा उद्घाटन के आयोजन मात्र ही साबित होते हैं। उन भूखी आत्माओं के अंतर्मन से किया जा रहा खिलवाड़ मात्र। लंगर के रूप में प्रीतिभोज और’ प्यारे भाई बहनों’ का संबोधन लेखक को व्यर्थ जान पड़ता है। सब सत्ता द्वारा किया गया दिखावा। प्रीतिभोज के रूप में पत्तल पर एक मुट्ठी चावल और सोयाबीन की घूघनी। और किसी को यह भी मयस्सर नहीं। न ही वे मांग रहे हैं क्योंकि लाशों में तब्दील हो चुके हैं। सामूहिक रुदन के इस रूप को कोई समझने को तैयार नहीं। इन्हे ही लेखक मुर्दों की टोली कहता है-’ मैंने जीवन में ऐसे लोगों की भीड़ कम ही देखी है चलते फिरते मुर्दों की टोली। मुझे लगा मुंह में ग्रास डालकर चबाए और कोई स्वाद पाए बिना ही लोग निगलते जा रहे हैं’’7 मुर्दों की इस टोली के विपरीत भरे पेट लंगर आयोजकों का अपना ही खेला चल रहा है। कैसे अखबार या पत्रिका में सही फोटो आए, कैसे फ़ोटो में लंगर लगाए साइन बोर्ड की तस्वीर सही तरीके से दिखाई दे? ऐसे में मरते हुए लोगों की परवाह आखिर किसे थी?
बात चाहे अकाल की हो अथवा बाढ़ की। आम जन -जीवन दुश्वारियां से भर उठता है। सहायता के नाम पर सत्ता केवल दिखावटी सहानुभूति के अतिरिक्त कुछ नहीं करती। मृग-मरीचिका में भटकते ये निरीह प्राणी कितने विवश है यह ‘पुरानी कहानी नया पाठ’ रिपोर्ताज में द्रष्टव्य है। कोसी नदी की बाढ़ के दौरान आम जीवन कितना त्रासदीपूर्ण हो सकता हैं लेखक ने यही दिखाने का प्रयास इस रचना में किया हैं। अचानक आई बाढ़ और उससे उत्पन्न विपत्ति को लेखक साक्षात देखता हैं फिर उसे अपनी संवेदना के देग में पकाकर न केवल पाठक को संवेदित करता है बल्कि इस त्रासदी के पीछे कैसे जनसेवक अपना स्वार्थ साधते हुए राजनीतिक रोटियां सेकते हैं -बखूबी दिखाया है। मीडिया भी कम स्वार्थी नहीं है। खबरों को बेचने- खरीदने की होड़ में वह किस कदर रसातल की ओर अग्रसर है -यह सर्वविदित है। बाढ़ पीड़ितों से मुट्ठी भर अनाज के बदले कैसे अंगूठे की टीप ली जाती हैं… ,कैसे दाने- दाने का हिसाब रखा जाता हैं। इसके विपरीत स्वार्थी तत्व अनाज से भरी नाव को बाढ़ के पानी में विलीन दिखाकर कैसे खुद भरी बोरियों को निगल जाते हैं – यही स्वार्थ की पराकाष्ठा है। राजनीति से लेकर मीडिया और मीडिया से लेकर राहत कैंप कैसे एक पीड़ित व्यक्ति को बार-बार छलते हैं इसका ब्यौरेदार विवरण है यह रिपोर्ताज।
नदियों को मां के रूप में मारने वाला यह आम व्यक्ति न केवल सत्ता,राजनीति,बल्कि प्रकृति द्वारा भी छला जाता है। -’’ धरती पर मरे हुए पशुओं की लाश- कंकाल। हरी-भरी फसलों के सड़ते हुए पौधे, दुर्गंध दुर्गंध कीड़े धरती की सड़ी हुई लाशें’’8 छोटे शहर ही नहीं बल्कि पटना जैसे बड़े शहर भी बाढ़ की विभीषिका को झेलते हैं। ‘कुत्ते की आवाज’ नामांक रिपोर्ताज में पटना के पश्चिमी इलाके में छाती भर पानी चढ़ने के कारण उत्पन्न स्थिति का वर्णन लेखक ने बड़े ही सजीव रूप में किया है। आम जीवन कैसे प्रभावित होता है बावजूद उसकी जीवन के प्रति ललक विद्यमान हैं – यही लेखक ने इस रचना में दिखाने का प्रयास किया है। लेखक खुद मोमबत्ती, दीयासलाई से लेकर पान और सिगरेट के जुगाड़ में राजभवन और मुख्यमंत्री निवास तक पहुंच जाते हैं। वे देखते हैं कि कैसे लोग निचली मंजिलों को खाली कर ऊपर की मंजिलों पर जा रहे हैं। ऐसे में जब जीवन अर्थहीनता का पर्याय महसूस हो सकता है बावजूद ताश की गड्डी का जुगाड़ करना वे नहीं भूलते। यह आम व्यक्ति की जीवन के प्रति एक सकारात्मक दृष्टि है जो उन्हें कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी जीने का अवसर मुहैया कराती है। लोगों को बचाने आई नाव पर कुत्ते को न चढ़ने देने की हिदायत पर नौजवान खुद पानी में उतर पड़ता है। यह दृश्य दिखाता है कि एक आम व्यक्ति अपनी जान से अधिक अपने जानवरों से प्यार करता है और किसी भी हालत में उन्हें मरने देना नहीं चाहता। बाढ़ में विलीन होता जीवन का दृश्य लेखक ने निम्न शब्दों में व्यक्त किया है-’ ‘बेबस कुत्तों का सामूहिक रुदन, बहते हुए सूअर के बच्चों की चिचियाहट, कोलाहल, कलरव, कोहराम यह एक एक शब्द जनजीवन के विलीन होने को दर्शा रहे थे’’9
भारतीय जीवन में नदी नदी न होकर मां के रूप में पूजनीय मानी जाती है। रेणु जी का ‘जै गंगा’ रिपोर्ताज माँ की संज्ञा पा चुकी गंगा नदी के उफान से जन जीवन की अस्त-व्यस्तता को दर्शाता है। बाढ़ से प्रभावित जीवन उबर भी जाए लेकिन सत्ता में बैठे आमजन के ठेकेदार और जनप्रतिनिधियों द्वारा बाढ़ की आड़ में किया गया शोषण और सत्ता की दिखावटी मदद इनके जीवन को बद से बदतर बनाने में कोई कोर कसर नहीं रखती। बूढ़ा फैजू हताश और परेशान है उसकी परेशानी का कारण वे नाव और स्टीमर है जो प्रशासन द्वारा मदद के लिए तैनात किए गए हैं लेकिन बाढ़ का पानी लोगों के घरों में घुसकर अट्टहास कर रहा है। बावजूद ‘ऊपरी आदेश’ के अभाव में ये स्टीमर बेकार पड़े हैं। दर्जनों गांव पानी में डूब जाने के बावजूद साहब लोग मजे से रेडियो सुन रहे हैं। जब तक ऊपरी आदेश ना मिले तब तक कुछ भी करने की मनाही है। डी टीए एस साहब आराम से कंठहारपुर जंक्शन के बंगले में मजे से रेडियो प्रोग्राम सुन रहे हैं और जिला मजिस्ट्रेट को शायद खबर भी नहीं मिली कि दर्जनों गांव के सैकड़ों प्राणी किसी भी वक्त मौत के मुंह में समा सकते हैं। इन मरते डूबते आमजन के साथ रिलीफ फंड कमेटी से लेकर राजनीतिक पार्टियां तक उपहास करती प्रतीत होती हैं। दावते उड़ रही है लेकिन आमजन दो वक्त तो छोड़िए एक वक्त की रोटी के लिए बिलख कर जान दे रहा है।
निष्कर्ष- स्पष्ट है कि बिहार एवं पड़ोसी देश नेपाल के गांव के सामाजिक जीवन समेत जनचेतना को वाणी देने का काम रेणु जी ने अपने इन रिपोर्ताजों में बखूबी किया है।एक तरफ बाढ़ अथवा अकाल से उत्पन्न पीड़ा से बिलबिलाते आम लोग हैं तो दूसरी ओर स्वार्थ की सीढ़ी लिए राजनेता और सत्तासीन हैं जो आमजन की समस्याओं को कम करने या मदद के नाम पर बढ़ा रहे हैं। एक मानव ही दूसरे मानव के दुख का कारक है -कितनी बड़ी विडंबना है। सामान्य जन की पीड़ा और संघर्ष गाथा का बेहद संवेदनशील और मार्मिक चित्रण इन रचनाओं में दृष्टिगत है।
संदर्भ सूची
- सरहद के उस पार – फणीश्वरनाथ रेणु-गद्द कौमुदी -संपादक -प्रोफेसर रमेश गौतम ,वाणी प्रकाशन,पृष्ठ-111
- वही,पृष्ठ-112
- वही,पृष्ठ-112
- वही,पृष्ठ-114
- भूमिदर्शन की भूमिका -फणीश्वर नाथ रेणु -गडद्य संकलन क ,संपादक- प्रोफेसर सुरेशचंद्र गुप्त , प्रकाशक दिग्दर्शन -पृष्ठ-83
- वही,पृष्ठ-86
- वही,पृष्ठ-88
- पुरानी कहानी नया पाठ -फनीश्वरनाथ रेणु – गद्द मंजूषा -संपादक -ओमप्रकाश शर्मा । प्रकाशक-सतीश बुक डिपो-पृष्ठ-94
- वही,पृष्ठ-96