नरेन्द्र कोहली की रामकथा में परिकल्पित प्रसंग
डॉ. एम. नारायण रेड्डी,
जेआरपी(हिन्दी), एनटीएस-आई,
भारतीय भाषा संस्थान, मैसूरु, कर्नाटक, भारत।
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सारांश
भारतीय वाङ्मय में वाल्मीकि रामायण से प्रेरणा प्राप्त कर अनेक काव्य, नाटक, उपन्यास आदि लिखे गये हैं और अब भी लिखे जा रहे हैं। पुराणों में भी रामकथा को महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। उपन्यासकार नरेन्द्र कोहली ने पौराणिक रामकथा को लेकर नये सिरे से अपनी निजी विचारधारा एवं युगीन परिवेश के आधार पर रामकथात्मक उपन्यासों की रचना की है। उन्होंने अपनी रामकथा को शुद्ध मानवीय, व्यावहारिक, तर्क सम्मत एवं जैविक रूप में प्रतिष्ठित किया है। अपनी विचारधारा का निर्वाह करने के कारण कोहली ने पौराणिक रामकथा के मिथकों की नवीन व्याख्या प्रस्तुत की है। प्रस्तुत शोध-आलेख में नरेन्द्र कोहली के पाँच (दीक्षा, अवसर, संघर्ष की ओर, युद्ध-1 और युद्ध-2) उपन्यासों में परिकल्पित प्रसंगों का विवेचनात्मक अध्ययन परम्परा के सापेक्ष्य में किया गया है। इस नये प्रयोग को युगबोध के सन्दर्भ में भी परिशीलन करने का प्रयत्न किया है।
बीज शब्द : दीक्षा, अवसर, संघर्ष की ओर, युगबोध, अगस्त्य प्रसंग, मुखर प्रसंग, निष्कर्ष।
शोध आलेख
‘दीक्षा’ उपन्यास में नये प्रसंगों की योजना : नरेन्द्र कोहली के ‘दीक्षा’ उपन्यास का प्रारम्भ सिद्धाश्रम से आरम्भ होता है और परशुराम के निष्क्रमण से समाप्त होता है। कोहली पुत्रेष्टि यज्ञ को नहीं मानते हैं, लक्ष्मण के विवाह को राम के विवाह के साथ नहीं जोड़ते हैं। इसके कारण कथा सिद्धाश्रम में राक्षसों के क्रूर कृत्यों को देखकर विचारमग्न होकर इधर-उधर टहलनेवाले विश्वामित्र के साथ आरम्भ होती है। इसलिए, उपन्यासकार ने अपने दृष्टिकोण के अनुसार रामकथा में नये प्रसंगों की कल्पना की है। यहाँ कुछ प्रमुख नये प्रसंगों को प्रस्तुत किया गया है।
विश्वामित्र का उद्धार : पौराणिक युग में राक्षसों एवं शासकों से लोग पीड़ित थे। लोगों पर अत्याचार होते थे और उनके अधिकार छीन लिये गये थे। किन्तु, कोई उनके सामने आवाज उठाने वाला नहीं था। राक्षस असमर्थ पुरुषों को मार डालते थे और उनकी पत्नियों को उठा ले जाते थे। वे ऋषियों के धार्मिक अनुष्ठानों में भी विघ्न उपस्थित करते थे। समाज की व्यवस्था बनाये रखने के लिए जो शासक नियुक्त किये गये थे, वे सर्वथा विफल रहे थे। इन शासकों से निराश होकर ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ के पास पहुँचते हैं और वहाँ से राम और लक्ष्मण को अपने साथ ले आते हैं। वे राम-लक्ष्मण को शस्त्र-विद्या सिखाते हैं। राम-लक्ष्मण राक्षसों के आतंक का सामना करते हैं। राम ताड़का का वध करते हैं और अन्य राक्षसों को मारने के लिए राक्षस शिबिरों में जाने की आज्ञा चाहते हैं। ऋषि विश्वामित्र उनको आज्ञा दे देते हैं। जब राम वहाँ पहुँचते हैं तब, राक्षस अपहृत युवतियों को शिबिर में छोड़कर भाग जाते हैं। राम उन युवतियों को मुक्त कराते हैं और अपने साथ सिद्धाश्रम में ले जाते हैं। राम उन युवतियों का परिचय माँगते हैं तो, एक कन्या कुरू की राजकन्या-वनजा के रूप में अपना परिचय देती है, बाकी युवतियाँ अपना परिचय देकर अपने कुल को कलंकित करना नहीं चाहती हैं। राम उन अपहृत युवतियों को छोड़कर ऋषि विश्वामित्र के साथ चलने की तैयारी करते हैं तो, वनजा उनसे विनती करती है कि हमें इस प्रकार निराधार ही छोड़ना था तो, हमें मुक्त क्यों कराया? तब राम उन अपहृत युवतियों से कहते हैं– “देवियों! व्यथा त्यागो। अपने भिविष्य के निर्माण में अतीत को भूलने का प्रयत्न करो। तुम लोग यद्यपि अपने घरों को नहीं लौट सकतीं, तो भी स्वयं को निराश्रित मत समझो। यह आश्रम और यह जनपद तुम्हारा घर है। मैं तुम्हें निराश्रित नहीं छोड़ रहा। मैं तुम्हें राम के संरक्षण में छोड़ रहा हूँ। उठो देवी! स्वयं को हीन, तुच्छ और निराश्रित मत जानो।”1 राम इन अपहृत युवतियों का आत्मविश्वास लौटाते हैं और उनको अपने अतीत को भूलकर समाज में सम्मानपूर्वक जीने का पथ दिखाते हैं।
राम और लक्ष्मण ऋषि के साथ जनकपुर की ओर चलते हैं। रास्ते में ऋषि उन्हें अहल्या की कथा सुनाते हैं। कथा के अन्त के साथ ही वे दोनों राजकुमारों को अहल्या के आश्रम के सम्मुख रोकते हैं और कहते हैं कि आज भी यह कथा यहाँ अटकी पड़ी है। राम कुटिया में प्रवेश करते हैं और अहल्या के चरण छूते हैं। पच्चीस वर्षों से अहल्या अपने पति और पुत्र से अलग रहकर तपस्या करती हुई समाज की स्वीकृति का इन्तजार कर रही थी। राम उसका उद्धार करते हैं, तब वह कहती है– “तुमने मेरे चरण छुए हैं , राम और लक्ष्मण! तुम्हारा कल्याण हो। इच्छा होती है कि मैं तुम्हारे चरण छू लूँ। मैं अपनी कृतज्ञता किस रूप में अभिव्यक्त करूँ? तुम लोग नर श्रेष्ठ हो। युग-पुरुष हो। कदाचित आज तक मैं तुम लोगों की ही प्रतीक्षा कर रही थी। मैं ही नहीं आज सम्पूर्ण आर्यावर्त तुम्हारे जैसे युग-पुरुष की प्रतीक्षा कर रहा है। मैं अकेली जड़ नहीं हो गई थी, सम्पूर्ण आर्यावर्त जड़ हो चुका है। वे सब तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। वीर बंधुओं! तुम उनमें उसी प्रकार प्राण फूँको, जिस प्रकार तुमने मुझ में प्राण फूँके हैं। तुम सम्पूर्ण दलित वर्ग को सम्मान दो, प्रतिष्ठा दो, सामाजिक रूढ़ियों में बंधा यह समाज न्याय-अन्याय, नैतिकता-अनैतिकता आदि के विचार और प्रश्नों के सन्दर्भ में पूर्णत: जड़-पत्थर हो चुका है। राम! तुम इन सब को प्राण दो। मेरी प्रतीक्षा आज पूरी हुई। मेरी साधना आज सफल हुई। तुमने आज स्वयं आकर मेरा उद्धार किया है, आज मैं निर्भय, ग्लानिशून्य मन से कहीं भी जा सकती हूँ। मेरा आत्मविश्वास लौट आया है। मैं नि:संकोच अपने पति के पास जा सकती हूँ। मेरा मन किसी से आँखें नहीं चुराएगा। राम! तुमने मेरे दुविधाग्रस्त मन को विश्वास दिला दिया है कि मैं अपराधिनी नहीं हूँ। वह अपराध-बोध मेरा भ्रम था।”2 अहल्या के इस संवाद में देवत्व की ओर अग्रसर राम के मनुष्यत्व को समष्टि के उपयोग में लाने का निर्देश प्राप्त होता है।
अहल्या की कथा कोहली की रामकथा में भिन्न रूप से है। विश्वामित्र सिद्धाश्रम से चलते वक्त राम लक्ष्मण को एक ऐतिहासिक कथा के रूप में अहल्या की कथा बताते हैं। मिथिला प्रदेश में सात दिन का सम्मेलन था जो गौतम मुनि का पुराना स्वप्न था। इसमें भाग लेने के लिए कई ऋषि, मुनि, देवता, राजा आदि पधारे थे। सीरध्वज ने देवराज इन्द्र को इस सम्मेलन में भाग लेने के लिए लाये थे। आश्रम नियमों के विरुद्ध देवराज इन्द्र के लिए मदिरा का भी प्रबन्ध किया गया है। उस समय इन्द्र गौतम की पत्नी अहल्या को देखकर उसे पाने का दृढ़ निश्चय करता है। दूसरे दिन प्रात:काल गौतम स्नान करने नदी की ओर चल पड़ते हैं। कुटिया के चारों ओर सन्नाटा था। मौका पाकर इंद्र ने गौतम की कुटिया का भिड़ा हुआ द्वार खोला और भीतर घुसकर द्वार बन्द कर लिया। गौतम स्नान कर लौटे तो आश्रम में उन्हें एक प्रकार की अव्यवस्था सी दिखायी पड़ी। उनकी कुटिया के सामने भीड़ थी। गौतम कुटिया तक पहुँचे, उनसे पहले ही, भीतर से द्वार खुला और इन्द्र बाहर निकले। अस्तव्यस्त वस्त्र और मुद्रा मुख और भुजाओं पर लगी खरोचे, रक्त के छोटे-छोटे बिन्दु जैसे किसी हिंस्र मल्लयुद्ध करके आये हो। इससे पूर्व ही अप्रत्याशित दृश्य को ग्रहण कर गौतम की चेतना किसी निष्कर्ष पर पहुँची, इन्द्र ने तनिक संकोच से गौतम को एक क्षण तक देखा और निर्लज्जता और धृष्टता से एक वाक्य भीड़ की ओर उछल दिया– “पहले स्वयं बुला लिया और अब नाटक कर रही है।”3
अहल्या को वहीं छोड़कर नये कुलपति के रूप में गौतम शत को लेकर यज्ञशाला पहुँचे और इन्द्र को शाप दिये– “मैं आश्रम का कुलपति गौतम इस पवित्र जल को हाथ में लेकर आज देवराज इन्द्र को शाप देता हूँ। अपनी दुश्चरित्र के कारण इन्द्र देवराज होते हुए भी आज से आर्यावर्त में सम्मान्य तथा पूज्य नहीं होगा। उसे किसी यज्ञ, हवन, पूजा, सम्मेलन अथवा किसी शुभ-कार्य में आमंत्रित नहीं किया जायेगा। आज से देवोपासना में इन्द्र का कोई भाग नहीं होगा। उसकी पूजा नहीं होगी।”4 इस प्रकार, कोहली ने अपनी विचारधारा के अनुसार विश्वामित्र के कहने पर पीड़ित एवं दलितों का उद्धार राम से कराया है।
सीता का जन्म प्रसंग : सीरध्वज की पुत्री सीता भूमिपुत्री है। यह अज्ञात कुलशील कन्या सीरध्वज को अपने राज्य के किसी खेत में हल चलाते हुए प्राप्त हुई थी। उन्होंने उसे पुत्रीवत् पाला। किन्तु, सीरध्वज ने यह नहीं सोचा था कि जब कन्या युवती होगी तो जाति-पांति, कुल-गोत्र और ऊँच-नीच की मान्यताओं में जकड़े इस समाज में उसके विवाह की समस्या कितनी जटिल होगी? आर्य सम्राटों और राजकुमारों में से कोई भी उपयुक्त पुरुष उस अज्ञात कुलशीला कन्या का पाणिग्रहण करने को प्रस्तुत नहीं हुआ। इसलिए, जनक ने एक अद्भुत खेल रचा। सीरध्वज के पूर्वजों को महादेव शिव ने युद्ध से निरस्त होकर अपना धनुष प्रदान किया था। शिव का वह तथाकथित धनुष आज भी सीरध्वज के पास पड़ा है किन्तु, उपयोग में नहीं आ रहा क्योंकि, उसके संचालन की विधि कोई नहीं जानता। स्वयं सीरध्वज जनक भी नहीं जानता। जनक ने उसी धनुष को लेकर सीता के विवाह की युक्ति सोची। उसने यह प्रण किया कि जो कोई उस धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा देगा, अर्थात् उस यंत्र को संचालित कर देगा, सीता का विवाह उसी के साथ होगा। जनक ने यह सोचा कि कोई भी देवता, राक्षस, नाग, गंधर्व, किन्नर उस धनुष का संचालन नहीं कर सकेगा। अत: सीरध्वज जनक यह कह सकेगा कि उसकी परीक्षा पर कोई पुरुष पूर्ण नहीं उतरा। अत: सीता अविवाहित रहेगी। तब वह आर्य राजकुलों में जामाता न पा सकने की अक्षमता से बच जाएगा और सीता अज्ञात कुलशीलता के कारण अविवाहित रह जाने के आक्षेप से मुक्त रहेगी।
विश्वामित्र ने इतना कहने के बाद फिर राम से कहा– “इन्हीं के विरुद्ध लड़ने के लिए तुम्हें यहाँ लाया हूँ, राम!”5 राम इस शर्त के लिए प्रस्तुत हो गये। कठिन परिश्रम के बाद राम ने अजगव के दो खंड़ कर दिये और सीता ने राम के गले जयमाला डाल दी। “विस्फोट शब्द से चौंकने की स्थिति से गुजरकर सीता ने एक बार दृष्टि भर राम के रूप को निहार कर पास रखी जयमाला को उठाया और विह्वल हो अपनी आँखें मूद लीं।…अब और क्या शेष था देखने को? वे पूर्णकाम हो उठी थी। राम अब उनके थे, वे राम की थी। लोह का पर्वत टूट गया था। उनके राम ने अद्भुत पराक्रम किया था उन्हें प्राप्त करने के लिए। ऐसा पुरुष संसार भर में अन्य कोई नहीं था। राम अद्वितीय हैं।”6 इस प्रकार, नरेन्द्र कोहली ने आधुनिक परिप्रेक्ष्य में सीता-जन्म के प्रसंग की व्याख्या की है।
‘अवसर’ उपन्यास में नये प्रसंगों की योजना : नरेन्द्र कोहली के ‘अवसर’ उपन्यास की रामकथा ‘मानस’ की रामकथा से पर्याप्त भिन्नता रखती है। दशरथ की असमर्थता, अयोध्या के संघर्ष, कैकेयी तथा भरत के विरोध का भय आदि, राज्याभिषेक की भूमिका में प्रस्तुत किये गये हैं। राम सोचते हैं कि पिता की आज्ञा का पालन करे या न करे। सुमित्रा के मना करने का प्रसंग भी ‘मानस’ में नहीं है। लक्ष्मण का दशरथ एवं कैकेयी के प्रति क्रोध का संकेत भी नहीं है। लक्ष्मण के अविवाहित होने की बात भी नहीं है। राजा गुह से भरत के प्रति अपना संदेह प्रकट करते हैं, यह तथ्य भी ‘मानस’ में नहीं है। ‘अवसर’ में मुख्य तथ्य राम द्वारा विश्वामित्र को दिया गया वचन है कि वे दुबारा वन जाकर शेष राक्षसों का संहार करेंगे। उसी का अवसर उन्हें कैकयी के वरदान के माध्यम से मिलता है। उसी के अनुरूप कोहली ने घटनाओं को नया रूप दिया है।
इस तरह, उपन्यासकार ने नये प्रसंगों की योजना कर भरत को मंदबुद्धि, भीरू, असहाय और मदिरा सेवन करने वाला बताया है, जो काफी दुखदायी है। पौराणिक रामकथा में भरत के आदर्श, उज्ज्वल चरित्र की गाथा पढ़कर, पाठक इस उपन्यास में वर्णित भरत के चरित्र को पढ़कर जरूर चौंक उठेंगे। इस प्रकार, कोहली ने युगीन परिवेश के आधार पर इस काण्ड में नये प्रसंगों का सृजन किया है।
‘अवसर’ उपन्यास में आयोध्याकाण्ड की रामकथा को आधुनिक सन्दर्भ प्रदान करने, उसे यथार्थ परक वैज्ञानिक बनाने और राम को विश्वसनीय मानवीय धरातल प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। “तत्कालीन स्थिति में क्रान्ति अर्थात् राक्षसी भय से जनता को मुक्त करने का कोई कार्यक्रम राजधानी में रहकर औपचारिक सेना-प्रयोग के माध्यम से सम्भव नहीं था और इसलिए, तपोवन में निवास के प्रथम चरण में विश्वामित्र ने राम से वचन लिया था कि वे शेष निशाचरों का उन्मूलन करने के लिए पुन: जंगल जाएँगे। इसी वचन के पालन का अवसर उन्हें अयोध्या की राजनीतिक उथल-पुथल में मिल जाता है।”7 इस प्रकार, नरेन्द्र कोहली ने अपनी रामकथा में लक्ष्मण के चरित्र को आधुनिक युग के अनुकूल चित्रित करने का प्रयत्न किया है।
‘अवसर’ में दशरथ की, राम के युवराज्याभिषेक की व्याकुलता तथा राम का वनगमन चित्रित है। “यहाँ भी मैंने यह स्वीकार नहीं किया है कि ज्योतिष के किसी योग के कारण दशरथ राम का युवराज्याभिषेक करने को उत्सुक थे और पिता के वचनों की रक्षा के लिए राम बलात् वन भेज दिए गए। मैंने यह माना है कि सत्ता दशरथ के हाथों से फिसल रही थी। अपनी सुरक्षा के लिए वे आशंकित तथा भयभीते थे। उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए आवश्यक प्रतीत हो रहा था कि शासन राम के हाथों में रहे। किन्तु, जब यह नहीं हो सका तो उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये।”8 वास्तव में कोहली ने भक्ति और ईश्वरत्व के औपचारिक बोझ से दबी कथा को बहुत खनहन और चुस्त बना दिया है। साथ ही कैकेयी के दो वरदानों वाली बात को नया राजनीतिक मोड़ देने के लिए लेखक ने ऐसा किया है। इस प्रकार, स्पष्ट होता है कि कोहली ने पौराणिक रामकथा के स्वरूप को अपनी विचारधारा एवं युगीन परिवेश के आधार पर बिल्कुल नये रूप में प्रस्तुत किया है।
‘संघर्ष की ओर’ उपन्यास में नये प्रसंगों की योजना : कोहली के ‘संघर्ष की ओर’ की कथा ‘मानस’ की कथा से पर्याप्त भिन्नता रखती है। कुछ प्रमुख ऋषियों से भेंट, मारीच-वध एवं सीता-हरण प्रसंग ‘मानस’ में भी हैं। लेकिन ‘संघर्ष की ओर’ में उन प्रसंगों में भी काफी भिन्नता है। अलौकिक शक्तिओं के अस्वीकार के कारण ही लेखक को ऐसा करना पड़ा है। खान-श्रमिक, खानों के स्वामित्व का प्रश्न, मजदूरों का संगठन, बुद्धिजीवियों का बिकना, अगस्त्य के आश्रम की सैनिक तैयारियाँ, शूर्पणखा द्वारा स्वयं युद्ध करने को जाना, उसके द्वारा त्रिजटा को दिया आदेश आदि प्रसंग उपन्यासकार की कल्पनाएँ हैं। इस उपन्यास में लेखक वनवासी समाज को संघर्ष की ओर तैयार करता हुआ दिखाई देता है। राम इस संगठन के केन्द्र हैं। इसी कारण से उपन्यास में रामकथा के मुख्य अंश बहुत संक्षेप में वर्णित हुए हैं और संगठन सम्बन्धी बातों का पर्याप्त विस्तार हुआ है। इस के लिए लेखक को बहुत से पात्रों की कल्पना भी करनी पड़ी है।
अगस्त्य प्रसंग : कोहली की रामकथा में अगस्त्य ऋषि की कथा भी है, लेकिन ‘मानस’ में नहीं है। कोहली के अगस्त्य ऋषि आर्यों और वानरों के बीच स्थित झगड़ों को समाप्त करने के लिए आर्यों से यह वचन लेते हैं कि जब तक वे वापस नहीं लौटेंगे तब तक विरोध रूपी विंध्याचल को मत बढ़ाए– “तुम लोग आत्म रक्षा के लिए सन्नद्ध रहो। चौकन्ने रहकर अपने मनुष्यों, पशुओं और खेती की रक्षा करो। किन्तु आक्रमण की योजना स्थगित रखो। मैं विंध्याचल के पार जा रहा हूँ। जब तक लौटकर न आऊँ, आक्रमण की बात मन में मत लाना। विरोध को मत बढ़ाओ। विंध्याचल को ऊँचा मत करो।”9 बाद में वानरों के तथा आर्यों के बीच विरोध उत्पन्न करनेवाले कालकेय राक्षसों के बारे में बताता है तथा नौका बनाकर राक्षसों के पीछे पड़े तो, वानर यह देखकर पुकारने लगते हैं कि अगस्त्य समुद्र को पी गये।
मुखर प्रसंग : कोहली की रामकथा में मुखर का चरित्र राम के साथी के रूप में हुआ है। उसका गाँव गोदावरी नदी के किनारे पंचवटी के पास था। राक्षसों ने उसके गाँव को उजाड़ दिया तो, मुखर भागता हुआ वाल्मीकि आश्रम पर राम से मिला। राम से अस्त्र विद्या सीखकर राम के अनुयायी होकर राक्षसों के विरुद्ध लड़ा। खर-दूषण के साथ हुए युद्ध में मुखर प्रमुख रूप से लड़ा। खर-दूषण के अंत से मुखर के मुख पर आनंद उभर पड़ा था। जब रावण सीता को हरण करने के लिए पंचवटी में आया तो, मुखर ने पहले रावण से जा टकराया– “अब तक मुखर भी स्थिति समझ चुका था, उसने अपना खड्ग खींच लिया था और प्रहार करने जा रहा था। किन्तु, आक्रमणकारी उससे कहीं अधिक फुर्तीला और दक्ष था। उसका खड्ग पहले घूमा। मुखर के हाथ से उसका खड्ग निकल गया। वह नि:शस्त्र था। आक्रमणकारी का खड्ग भयंकर गति से ऊपर उठकर नीचे गिरा। मुखर धराशायी हो गया…उसका शरीर नि:स्पंद था।”10 मुखर की मृत्यु का समाचार सुनकर लक्ष्मण क्रोधित हुआ तो, राम भी बहुत दुखी हुआ। बाद में राम-लक्ष्मण मुखर का अंतिम संस्कार कराते हैं। ‘मानस’ में मुखर का उल्लेख तक नहीं मिलता है। इस तरह, उपन्यासकार ने अपने उपन्यास में युगानुकूल प्रसंगों में परिवर्तन कर, और नये प्रसंगों की सृष्टि कर, उन्हें प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है।
इस उपन्यास के सम्बन्ध में कोहली ने अपने विचार इस प्रकार प्रकट किये हैं। ‘संघर्ष की ओर’, ‘मानस’ के अरण्यकाण्ड की कथा पर आधृत है। इस उपन्यास में अपने युग की परिस्थितियाँ चित्रित करने तथा अपने युग चिंतन को वाणी देने का सर्वाधिक अवकाश मिला है और मैंने उसका उपयोग करने का भरसक प्रयत्न किया है। इसमें राक्षसों द्वारा खाये गये तपस्वियों की हड्डियों के ढेर का चित्रण है, आत्मदाह करने वाले शरभंग यहीं हैं, राम को अपने आश्रम में ठहराने से डरते हुए सुतीक्षण हैं और पंचासर में अप्सराओं के साथ विवाह करते हुए नृत्य और संगीत में मग्न मांदकर्णी भी यहीं है। सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि शरभंग के जिस आश्रम के पास तपस्वियों की हड्डियों का ढेर लगा है, उस आश्रम में स्वयं इंद्र की उपस्थिति भी वर्णित है। इन्हीं सारे तथ्यों को सम्मुख रख मैंने ‘संघर्ष की ओर’ के कथानक का निर्माण किया है। मैंने यहाँ पिछड़ी हुई अविकसित मानवता के विरुद्ध महाशक्तियों के षड्यंत्र की कल्पना की है। इस अविकसित मानवता के पक्ष में खड़े हैं, शरभंग और अगस्त्य। राम इसी पक्ष की सहायता के लिए वहाँ आते हैं। दस वर्षों तक राम मानवता के शत्रुओं का नाश करते हैं और उस सम्पूर्ण क्षेत्र को भयमुक्त कर अगस्त्य के आदेश से पंचवटी में आकर बस जाते हैं। पंचवटी के सामने गोदावरी के उस पार शूर्पणखा का सैनिक स्कंधावार है। यहीं से राक्षसों के साथ राम द्वारा संगठित लोगों का संघर्ष आरम्भ होता है। शूर्पणखा को मैंने प्रौढ़ वय की, धन, सत्ता, सेना-सम्पन्न और कामुक स्त्री के रूप में चित्रित किया है। जटायु गूर्घ जाति के गोरिल्ला योद्धा है तथा विभिन्न जन-संगठन राम की सेना है।11 कोहली के उक्त कथन से स्पष्ट है कि उन्होंने पौराणिक रामकथा के स्वरूप को अपनी विचारधारा एवं युगीन परिवेश के आधार पर बिल्कुल नये रूप में प्रस्तुत किया है।
‘युद्ध -1’ उपन्यास में नये प्रसंगों की योजना : इस उपन्यास में राजनीतिक परिवेश को भी सहज ढंग से प्रस्तुत किया है। लेखक ने वालि-मायावी, वालि-सुग्रीव आदि प्रसंगों को अपने मनोनुकूल प्रस्तुत किया है।
वालि-मायावी प्रसंग : नरेन्द्र कोहली ने अपनी रामकथा में वालि-मायावी सन्दर्भ में नूतन कल्पना को विस्तार के साथ किया है। मायावी एक वन्य भैंसा है जो राजसभागार में पहले अपराधी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। उसका अपराध है कि वह मदिरा बनाकार बेचता है, वेश्यालय चलाता है और अनेक कन्याओं का अपहरण कर उनका क्रय-विक्रय करता है। यह सब सुनकर वालि मायावी से उसके थके मन को विश्राम दे पाने की बात करता है तो, मायावी कहता है– “सम्राट एक बार सेवा का अवसर दें! यदि सम्राट के मन को विश्राम मिले, सम्राट स्वस्थ हों, तो सेवक को किष्किंधा में अपना व्यापार फैलाने की खुली छूट दें।”12 लेकिन वालि मायावी को अपराधी नहीं मानता, बल्कि मायावी द्वारा व्यापार से कर के रूप में राज्य को पर्याप्त आय की वृद्धि की संभावना से प्रसन्न होता है। वालि के इस प्रकार के कथन से सुग्रीव को चिंता होती है। अंगद भी अपने पिता के निर्णय से भीतर ही भीतर घुटता है। वालि महासामंत का पद मायावी को देने से सुग्रीव उसका विरोध करता है। मायावी के प्रभाव से वालि भोग-विलास में डूब जाता है। नगर में कन्याओं की चोरी होती है। लेकिन वालि, मायावी द्वारा भेजी गयी अलका के आकर्षण में सब कुछ भूल जाता है। फिर अलका की शिकायत पर वालि, मायावी की हत्या करने का निर्णय लेता है। सुग्रीव से सूचना मिलती है कि मायावी अलका के भवन की ओर गया है। वालि और मायावी के बीच युद्ध होता है। मायावी वन की ओर भागने से वालि भी उसके पीछे जाता है। कई दिन बीतने पर भी वालि का कोई समाचार नहीं मिलता। सुग्रीव वालि की पत्नी तारा से कहता है कि वह खुद शासन की बागडोर अपने हाथ में ले लें अथवा अंगद का अस्थायी राज्याभिषेक कर दें। फिर वन में बहुत ढूँढ़ने के बाद वालि को मायावी सोता हुआ मिल जाता है। वालि अपनी गदा से उसे कुचल देता है।
‘युद्ध -2’ उपन्यास में नये प्रसंगों की योजना : पौराणिक रामकथा से कोहली की रामकथा में अशोक-वाटिका प्रसंग तथा लंका-दहन में अंतर स्पष्ट दिखायी देता है। विशेषकर रावण-सीता संवाद में सीता, रावण से युद्ध करने के लिए तैयार होती है।
रावण-सीता संवाद प्रसंग : कामासक्त रावण सीता से राम के मरने की झूठी खबर सुनाता है और सीता से सुख पाने के लिए आतुर हो, राजाधिराज रावण सीता से कहता है– “वैदेही!…तुम्हारा कंगला राजकुमार अपनी असमर्थता पर लज्जित होकर किसी नदी-नाले में डूब मरा होगा। देखो, तुम्हारे सम्मुख लंका का राजाधिराज रावण खड़ा है।”13 फिर रावण अपनी शक्ति की बात करने पर, सीता उसकी बात काटकर कहती है– “शक्ति का तो कोई प्रमाण तुमने दिया ही नहीं। मैं तो कब से कह रही हूँ कि राम से युद्ध का साहस नहीं है तो, मुझे ही शस्त्र दो और द्वन्द्व-युद्ध कर देखो।”14 फिर रावण सीता की इन बातों को टालकर प्रलोभन करते हुए अपने सम्पूर्ण साम्राज्य को अर्पित करने के लिए तैयार होता है। वह कहता है कि मानव जन्म सुख भोगने के लिए ही है। इसका उत्तर सीता शांत स्वर में देती है– “मानव का सुख सूक्ष्म है, अभौतिक है और अलौकिक है। वह ग्रहण में नहीं, त्याग में है। दूसरों के सुख के लिए स्वयं को खपाकर पाया गया सुख ही मानव-सुख है।…उनके चरणों में गिरकर उनसे क्षमा माँग।”15 रावण का मुख क्रोध से विवर्ण हो उठा। वह अपने ही विष से जलने लगा और फिर सीता से संबोधित कर कहा– “ठीक है, वैदेही! आज फिर निराश और असफल लौट रहा हूँ। दो मास की अवधि और है। एक मास के पश्चात् पुन:याचना करने आऊँगा। तब भी तुम न मानीं तो, अवधि समाप्त होने पर स्वयं अपने हाथों से तुम्हारा वध करूँगा।”16 इस प्रकार, सीता आधुनिक नारी के रूप में अपने मान की रक्षा करने के लिए शस्त्र धारण करने को भी तैयार होती है। साथ ही वह निडरता से काम लेती है।
युद्ध के पहले रावण का कपट : इस प्रसंग का वर्णन उपन्यास में है मगर, पौराणिक रामकथा में नहीं है। कोहली की रामकथा में रावण मंत्रियों का परामर्श लेकर युद्ध के लिए पूर्ण आत्म-विश्वास के साथ तैयार होता है। वह सीता को राम की ओर से निराश करने के लिए सुबह ही सीता के पास जाकर राम का वध कर देने की बात कहता है तो, सीता भयभीत हो जाती है– “सागर पार करते-करते बेचारा बहुत थक गया था। युद्ध से पहले थोड़ा विश्राम कर लेना चाहता था इसलिए, सागर के दक्षिण तट पर सेना-सहित गहरी नींद सो रहा था। मैंने सोचा, प्रात: उठकर युद्ध करेगा तो, पुन: थक जाएगा। इसलिए, मैंने उसे वहीं चिरनिद्रा में सुला दिया है। अब वह कभी नहीं थकेगा। मैंने अपने हाथों से राम का वध किया है। रावण बोला, उसके जटाजूट को पकड़ अपने चंद्रहास खड्ग के एक वार से उसका सिर उसके शरीर से अलग कर दिया है। उसका सिर इस समय भी मेरे रथ में मेरे पैरों से ठुकराए जाने के लिए पायदान पर पड़ा है।”17 विभीषण की पत्नी सरमा आकर रावण के कपट के बारे में बताती है तो, सीता राहत का अनुभव करती है।
युगबोध : उपन्यासकार युगीन परिस्थितियों को दृष्टि में रखकर ही उपन्यास का सृजन करता है और उन्हीं के माध्यम से एक नया बोध जगाता है। वर्तमान में प्रचलित मूल्यों और विचारों के औचित्य को फिर से जाँचने की मानसिकता में व्यक्ति का आना और इस कारण आगे के लिए उसका एक विशेष और सजग दृष्टिकोण को अपनाना ‘बोध’ कहलाता है। यह ‘बोध’ युग को लेकर और युग के प्रति होता है। इसलिए, हम इसी को युगबोध कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि आधुनिकता का विकसित रूप युगबोध है जहाँ व्यक्ति युग का समग्र बोध रखता है और उसके प्रति सचेतन दृष्टि अपनाता है।
रामकथा को आधुनिक परिवेश में प्रस्तुत करने का प्रयत्न कोहली ने अपने उपन्यासों में किया है। उन्होंने अपनी रामकथा में विशेष रूप से ‘मानस’ की रामकथा की अनेक विसंगतियों की भी चर्चा की है। लेखक ने राम को अवतार रूप में न देखकर एक मानवीय चरित्र के रूप में तथा एक जनवादी नेता के रूप में देखा है, जो समंती एवं पूंजीवादी चेतनाओं के विरुद्ध संघर्ष करते हैं। कोहली के उपन्यासों में तत्कालीन ऋषियों की सुधारवादी, शांत और आत्मलीन स्थिति को चुनौती देते हुए दण्डकारण्य जैसे अविकसित इकाइयों के सामूहिक जीवन-विकास, सामूहिक सुरक्षा और सम्पूर्ण क्रान्ति की दिशा में राम के नेतृत्व की सफल रचनात्मक भूमिका चित्रित की गयी है। इस प्रकार, नरेन्द्र कोहली ने अपनी रामकथा के द्वारा पहली बार राम को यथार्थ रूप में जनसामान्य के निकट ला खड़ा कर दिया है। अत्याचारियों से राम जनता की रक्षा नहीं करते हैं, उसे स्वयं आत्मरक्षा के लिए जागरूक और सन्नद्ध कर देते हैं। गाँव, बस्ती, आश्रम, खेत और खान सर्वत्र आत्म विश्वास जाग उठता है। पाठकों का आधुनिक मन इस प्रमाणिक रामत्व को सहज रूप में ग्रहण कर लेता है क्योंकि, ईश्वरत्व धर्म और अध्यात्म से परे उसमें मनुष्य के भ्रममूलक और संघर्षशील जीवन मूल्यों को भावुकता-रहित रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। उपन्यासों में युगीन प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। नरेन्द्र कोहली का युद्ध अपने समग्र अर्थ में शोषकों के विरुद्ध शोषितों का आधुनिक स्वातन्त्र्य युद्ध है। कोहली ने अपने उपन्यासों में यह बात स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि मनुष्य की श्रद्धा व्यक्तिगत सम्बन्धों पर नहीं, किन्तु न्याय, नीति, सत्य जैसे आदर्श मूल्यों पर आधृत होनी चाहिए। साथ ही लेखक ने यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि शासक बनते ही मनुष्य में प्राय: सत्ता का दुरुपयोग करने, अनैतिक कार्य करने और प्रभावपूर्ण जीवन व्यतीत करने की लालसा उद्दीप्त होती है।
आधुनिक नारी के नवोन्मेष की अवधारणाएँ नरेन्द्र कोहली की सीता में निहित हैं। वे रावण को द्वन्द्व-युद्ध के लिए ललकारती है। अशोक-वाटिका में रावण के आने पर शस्त्र माँगती है। “योद्धा राम की पत्नी शस्त्रों का प्रशिक्षण प्राप्त कर तेरह वर्षों के वनवास में तप कर भी अपनी मुक्ति का प्रयास न करे, सीता ऐसी दीन-हीन तो नहीं थी।”18 इस प्रकार, जनवादी दृष्टि को कथा में स्थान-स्थान पर आधुनिक निखार मिला है। लेखक ने उपन्यासों में कुछ नये प्रसंगों की योजना की है। साथ ही पौराणिक रामकथा को लेकर युगीन सन्दर्भ के अनुसार अपने उपन्यासों के कुछ प्रसंगों में परिवर्तन भी लाये हैं।
निष्कर्ष : नरेन्द्र कोहली ने पौराणिक रामकथा को लेकर नये सिरे से अपनी निजी विचारधारा एवं युगीन परिवेश के आधार पर रामकथात्मक उपन्यासों की रचना की है। कुछ असफलताओं के साथ कोहली ने अपनी रामकथा में अहल्या प्रसंग, वाली-मायावी युद्ध, राम-रावण युद्ध आदि प्रसंगों में विश्वसनीयता एवं रोचकता का आयोजन किया है। साथ ही स्वाभाविक ढंग से रामकथा की घटनाओं और पात्रों को चित्रित करने का प्रयत्न किया है। अपनी मान्यताओं के सहारे एक प्रसिद्ध कथा को पूर्ण मौलिक तथा आधुनिक उपन्यासों के रूप में निर्मित किया है। मानव जीवन दुख, सुख और परेशानियों से भरा है। यहाँ तक कि राम और सीता भी मानव-जीवन के इन पहलुओं से अछूते नहीं रहते। राजकुमार होते हुए भी राम को चौदह वर्ष वनवास में बिताने होते हैं और सीता के तो छब्बीस वर्ष वनवास में बीते। लेकिन, रामकथा में चरित्र और प्रसंग मनुष्य मात्र को दुखों से विचलित न होने की प्रेरणा देते हैं। इस प्रकार, रामकथात्मक उपन्यासों में विभिन्न हृदय-रंजित, विश्वसनीय एवं रोचक प्रसंगों के संतुलित प्रयोग द्वारा उपन्यासकार ने अपने कथ्य को रम्य बनाया है तथा कथा को युगबोध देकर रामकथा को एवं उसमें निहित मानवीय मूल्यों को आधुनिक समाज के पाठक हेतु उपयोगी बनाया है।
सन्दर्भ सूची
1. नरेन्द्र कोहली – अभ्युदय-1(दीक्षा), पृ.86
2. वही, पृ.149
3. वही, पृ.143
4. वही, पृ.182
5. वही, पृ.199
6. वही, पृ.233-234
7. नर्मदाप्रसाद उपाध्याय – नरेन्द्र कोहली: व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पृ.58
8. वही, पृ.14-15
9. नरेन्द्र कोहली – अभ्युदय-1(संघर्ष की ओर), पृ.388
10. वही, पृ.185-186
11. नर्मदाप्रसाद उपाध्याय – नरेन्द्र कोहली: व्यक्तित्व एवं कृतित्व, पृ.15
12. नरेन्द्र कोहली – अभ्युदय-2(युद्ध-1), पृ.15
13. नरेन्द्र कोहली – अभ्युदय-2(युद्ध-2), पृ.355
14. वही, पृ.356
15. वही
16. वही, पृ.357-358
17. नरेन्द्र कोहली – अभ्युदय-2(युद्ध-2), पृ.500
18. नरेन्द्र कोहली – अभ्युदय-2(युद्ध-1), पृ.191