सामाजिक यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में समकालीन हिंदी कविता
डॉ. शिराजोद्दीन
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शोध सारांश
21 वीं सदी का समाज पुराने मूल्यों, परम्पराओं तथा विचारों से मुक्त होकर परिवर्तन की दिशा में आगे बढ़ रहा है। लेकिन कुछेक ऐसे भी तत्व हैं, जिनसे भारतीय समाज आज भी प्रभावित है। मुख्य रूप से देखा जाए तो जातिवाद, साम्प्रदायिकता, पितृसत्तात्मक सोच तथा दलित, आदिवासी, स्त्री, अल्पसंख्यक, थर्ड जेंडर आदि के प्रति संकीर्ण मनोभावनाएं सामाजिक संरचना को प्रभावित कर रही हैं। इसीलिए इन तमाम चीज़ों एवं चुनौतियों से उभरना समकालीन समय की मांग एवं आवश्यकता है। सामाजिक व्यवस्था को सदियों से चली आ रही इन कुरीतियों, समस्याओं तथा विषमताओं से मुक्त कर एक नवीन समाज का निर्माण करना प्रत्येक नागरिक का दायित्व है। इसी पहल को वर्तमान साहित्य में देखा जा सकता है। जिसमें समकालीन रचनाकार अपने लेखन के माध्यम से समाज की प्रत्येक गति एवं दशा और दिशा को चित्रित करने में अपनी भूमिका निभाता है। इस प्रक्रिया में रचनाकार की दृष्टि और विचारधारा से भी परिचित होने का अवसर प्राप्त होता है। समसामयिक परिघटनाओं के यथार्थ से रूबरू होने और उनकी गंभीरता को समझने के लिए साहित्य की प्रत्येक विधा की आवश्यकता है। इसी क्रम में समकालीन हिंदी कविता भी ध्यान आकर्षित करती है। जिसमें समकालीन हिंदी कवि आम जनता के जीवन से जुड़े तमाम बिन्दुओं पर प्रकाश डालते हुए सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि परिस्थितियों पर विचार-विमर्श करता है। सामाजिक यथार्थ के सन्दर्भ में समकालीन हिंदी कवि अपनी कविताओं के माध्यम से समाज के ज्वलंत विषयों को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। दरअसल ये कविताएँ आम जनता की अभिव्यक्ति हैं। इस बात को कहने में कोई दोराय नहीं है कि ये कविताएँ भारतीय जन-मानस में चेतना व जागरूकता लाने के साथ-साथ व्यवस्था की कड़ी आलोचना करती हैं। इन कवियों का मुख्य उद्देश्य समाज में लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित कर स्वतन्त्रता, समानता एवं भाईचारे के सिद्धांतों पर बल देना है। अत: इस दिशा में समकालीन हिंदी कविताएँ अपना सफ़र तय कर रही हैं।
- मुख्य बिंदु : भारतीय सामाजिक व्यवस्था, समकालीन हिंदी कविता में सामाजिक यथार्थ, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, पितृसतात्मक मानसिकता, स्त्री की स्थिति आदि।
- शोध प्रविधि : शोध की सामाजिक पद्धति के साथ-साथ आलोचनात्मक, विश्लेषणात्मक पद्धतियों को अपनाते हुए तथा आंकड़ों का भी उपयोग किया गया है।
- शोध विस्तार
सामाजिक यथार्थ समाज की सच्चाई से जुड़ा होता है। जिसमें वर्तमान समाज की गतिविधियों, विसंगतियों, विद्रूपताओं और विषमताओं आदि का चित्रण किया जाता है। वर्तमान समय में भारतीय सामाजिक परिस्थितियों में अनेक परिवर्तन हुए हैं। बदलते हुए समाज के परिदृश्य को समकालीन हिंदी कविता में चित्रित करने का बखूबी प्रयास किया गया है। दरअसल समकालीन हिंदी कविता सकारात्मक मानवीय मूल्यों को समग्रता में आत्मसात कर चलती है। समाज को तोड़ने वाली हिंसात्मक प्रवृत्ति तथा विकास की दिशा को रोकने वाली साम्राज्यवादी ताकतों के विरुद्ध यह कविता चुनौती देती है। समकालीन कविता की मूल शक्ति है- मानवीय संवेदना, करुणा, अहिंसा, मानवाधिकार और लोकतांत्रिक मूल्य और मुख्य सरोकार है- सामाजिक परिवर्तन। वह परिवर्तन जो जनता के हित में हो। आम आदमी की संवेदना और उसके जीवन से जुड़ी विभिन्न समस्याओं को समकालीन कविता के अंतर्गत जगह मिली है। इसी सिलसिले में समकालीन हिंदी कविता भारतीय सामाजिक व्यवस्था में प्रचलित जातिवाद को उजागर करने में सक्षम है। दरअसल भारतीय समाज में जातिवाद प्राचीनकाल से चली आ रही एक भयंकर कुरीति है। जिसका मूलाधार वर्ण व्यवस्था है। वर्तमान समय में हमारे समाज का दुर्भाग्य यह है कि आज भी इस व्यवस्था की जंजीरों में जकड़ा हुआ है। जातिवाद के प्रभाव से आज प्रत्येक समाज की जाति में उपजातीय संगठनों का विकास हो रहा है। अपने समुदाय या जाति के लोगों के साथ आदर-सम्मान रखने एवं अन्य जातियों के सन्दर्भ में इससे भिन्न व्यवहार करना जाति या जातिवाद का मुख्य लक्षण है। इस सन्दर्भ में डॉ. दोड्डा शेषु बाबु का मत उल्लेखनीय है। वे लिखते हैं- “भारतीय समाज व्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था है, जहां हर एक जाति अपनी निचली जाति से भेदभाव दिखाना अपना अधिकार समझती है।”[1]
वर्तमान समय में जातिवाद को समाप्त करने के लिए कई सारे आन्दोलन हो रहे हैं। जिनमें मुख्य रूप से वामपंथी और अम्बेडकरवादी आन्दोलन हैं। जिनका मुख्य लक्ष्य है- भारतीय समाज से जातिवाद को मिटाकर समतावादी समाज की स्थापना करना। ऐसे आंदोलनों और प्रगतिशील विचारधारों के प्रभाव से दलित, वंचित व हाशिए के समाज में जागरूकता आ रही है। इसी जागरूकता के कारण ही दलित व वंचित समाज का व्यक्ति वर्ण व्यवस्था से विरोध करता हुआ दिखाई दे रहा है। वर्ण व्यवस्था के संरक्षक कहे जाने वाले ब्राह्मणवादियों ने अपने आपको सर्वश्रेष्ठ घोषित कर समाज के अन्य लोगों को निम्न या अछूत करार दिया है। साथ ही समाज को अपने स्वार्थ के लिए बांटने का कार्य भी किया है। जब कोई व्यक्ति इनसे तर्क संगत सवाल पूछता है तो इनके पास कोई जवाब नहीं होता बल्कि कुतर्क होते हैं, जिनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता। समकालीन हिंदी कविता में ऐसी व्यवस्था के प्रति तीखे स्वर स्पस्ट रूप से दिखाई देने के साथ-साथ तीखे सवाल भी दिखाई देते हैं। इस सन्दर्भ में प्रमुख दलित कवि ‘ओमप्रकाश वाल्मीकि’ अपनी कविता में कहते हैं-
“एक रोज मैंने भी / जुटायी हिम्मत
और पूछ लिया उससे / वही सवाल
देखा उसने मेरी ओर / बोला, मैं जन्मा हूँ ब्रह्मा के मुख से
इसीलिए श्रेष्ठ हूँ / ताज्जुब है!
मनुष्य का जन्म तो होता है / सिर्फ माँ के गर्भ से
फिर आप कैसे पैदा हो गए / ब्रह्मा के मुख से?”[2]
समकालीन समय में दलित समाज पर दृष्टि डालें तो यह मालूम होता है कि लगातार इनके अधिकारों का हनन किया जा रहा है और इन्हें मौलिक अधिकारों से वंचित रखने का प्रयास भी किया जा रहा है। देश के कोने-कोने में घटने वाली अमानवीय घटनाएं इसका प्रमाण हैं। ‘हिंदी न्यूज़ क्लिक समाचार’ में छपी अमित सिंह की रिपोर्ट बताती है कि- “गुजरात के बोताड़ जिले में बुधवार को दलित सरपंच के पति 51 वर्षीय मांजीभाई सोलंकी की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई। वह खुद भी ग्राम पंचायत के सदस्य थे और उप-सरपंच के रूप में कार्य करते थे।”[3] ‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो’ (एनसीआरबी) द्वारा जारी किए गए आंकड़े देश में दलितों की स्थिति और उनकी मार्मिक दशा का यथार्थवादी चित्रण प्रस्तुत करते हैं। रिपोर्ट के अनुसार- “2018 में दलितों पर अत्याचार के 42793 मामले दर्ज हुए। 2017 में यह आंकड़ा 43,203 का था, जबकि 2016 में दलितों पर अत्याचार के 40,801 मामले दर्ज किए गए।”[4] आज भी देश के कई जगहों पर देखा जा सकता है कि शोषक वर्ग या वर्ण व्यवस्था द्वारा दलितों के अधिकार छीने जाने पर वे विवशता से अपना सर झुकाए सहमे हुए रहते हैं। दलित समाज के प्रति सदियों से चली आ रही ऐसी व्यवस्था ने दलितों को निर्जीव, जड़ पदार्थ की तरह इस्तेमाल किया है। इस सन्दर्भ में ‘ओमप्रकाश वाल्मीकि’ की कविता की निम्न पंक्तियाँ प्रासंगिक हैं।
“वे बेहद ख़ुश हैं / उस आदमी से
जो खड़ा है सिर झुकाए / उनकी भीड़ में
जिसे जब चाहें / करते हैं इस्तेमाल
निर्जीव, जड़ पदार्थ की तरह।”[5]
भारतीय समाज का यथार्थ यह है कि एक तरफ दलित समाज सदियों से जातिवाद, अस्पृश्यता और भेदभाव का दंश सह रहा है तथा अपनी अस्मिता, आत्मसम्मान व अधिकारों के लिए लगातार संघर्ष कर रहा है। दूसरी तरफ अन्नदाता कहा जाने वाला किसान भी अनेक समस्याओं और संकट से जूझ रहा है। यहाँ तक कि ज़मींदारों, सामंतवादियों एवं पूंजीपतियों के क़र्ज़ में डूबा किसान आत्महत्या करने के लिए विवश है। इस सन्दर्भ में सरकारी आंकड़े चौकाने वाले हैं- “2015 में कृषि क्षेत्र में कुल 12,602 लोगों ने आत्महत्या की है, जिनमें 8,007 किसान और 4,595 कृषि मजदूर हैं। महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा 4,291 किसानों ने जान दी है। उसके बाद कर्नाटक में 1,569, तेलंगाना में 1,400, मध्यप्रदेश में 1,290, छत्तीसगढ़ में 954, आंध्रप्रदेश में 916 और तमिलनाडु में 606 किसानों ने आत्महत्या की है। किसानों की आत्महत्याओं से जुड़े 87.5 फीसदी मामले इन्हीं सात राज्यों में सामने आए हैं।”[6] समकालीन हिंदी कविताओं में भारतीय किसानों की दयनीय स्थिति का अत्यंत मार्मिक, सजीव एवं यथार्थवादी चित्रण हुआ है। समकालीन कवि किसान की पीड़ा, दुःख-दर्द, जीवन संघर्ष और सरकार की नीतियों से परिचित है। इसीलिए इनकी कविताएँ विचार-विमर्श करने के लिए मंच प्रदान करती हैं। समकालीन कवि ‘राजेश जोशी’ की कविता भारतीय किसान जीवन की त्रासदी और विवशतापूर्ण आत्महत्या को उजागर करती है। कवि कहता है-
“देश के बारे में लिखे गए / हजारों निबन्धों में लिखा गया
पहला अमर वाक्य एक बार फिर लिखता हूँ
भारत एक कृषि प्रधान देश है / दुबारा उसे पढ़ने को जैसे ही आँखें झुकाता हूँ
तो लिखा हुआ पाता हूँ / कि पिछले कुछ बरसों में
डेढ़ लाख से अधिक किसानों ने / आत्महत्या की है इस देश में”[7]
भारतीय समाज में किसान वर्ग के साथ-साथ मजदूर वर्ग भी पीड़ित है। वह अपने अधिकारों के लिए लगातार संघर्ष जारी रखा हुआ है। जब भी मजदूर वर्ग अपने अधिकारों की मांग किया है या शोषण-अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करने का प्रयास किया है, तब पूंजीवादी व्यवस्था ने उसका दमन किया है। वर्तमान समय में ऐसी घटनाएं मिलों, कारखानों, खदानों आदि में होना सामान्य बात हैं। दिन-रात कड़ी मेहनत करने पर इन मजदूरों को औसतन मजदूरी भी दी नहीं जाती। इस सन्दर्भ में ‘राष्ट्रीय सर्वेक्षण कार्यालय’ द्वारा किए गए सर्वेक्षण के आंकड़े उल्लेखनीय हैं- “ग्रामीण क्षेत्रों में जहां पुरुष श्रमिकों की औसत दैनिक मजदूरी 175.30 रुपए थी, वहीं महिलाओं की औसत दैनिक मजदूरी सिर्फ 108.14 रुपए थी। इसी तरह शहरी क्षेत्रों में पुरुष श्रमिकों की औसत दैनिक मजदूरी 276.04 रुपए और महिलाओं की 212.86 रुपए थी। ग्रामीण क्षेत्रों में अस्थायी पुरुष श्रमिकों की दैनिक मजदूरी (मनरेगा को छोड़ कर) 76.02 रुपए थी।”[8] समकालीन हिंदी कविता में मजदूर जीवन के सभी महत्वपूर्ण पहलुओं पर चर्चा की गई है। वर्तमान समय में मजदूर वर्ग की दशा एवं दिशा पर प्रकाश डाला जाए तो इनकी सामाजिक स्थिति चिंताजनक है। इनकी गंभीर स्थिति के लिए पूंजीवादी व्यवस्था तथा सरकार की नीतियाँ जिम्मेदार हैं। इसीलिए समकालीन कवि ‘अरुण कमल’ ऐसी व्यवस्था से चिंतित है। दरअसल इनके सामने पूंजीवाद का वह भयावह चेहरा है, जिसके कारण मजदूर श्रम करते-करते और अन्याय के विरोध में आवाज़ उठाने पर मारा जाता है। कवि कहता है-
“वे मजदूर मारे गए / वे बच्चे मारे गए
बोकारो पथड्डा बड़हिया विश्रामपुर
कोई कहीं, कोई कहीं / वे मारे गए।”[9]
बात की जाए भारतीय आदिवासी समाज की तो मुख्य रूप से इनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति चिंताजनक है। साथ ही यह समाज कानूनी तौर पर भी वंचित हैं। भारतीय सविधान में ‘पांचवी अनुसूची’ के अनुच्छेद 244 (1) अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण के अधिकार का कानून है। लेकिन यह कानून सही रूप में लागू नहीं हुआ। इस सन्दर्भ में आदिवासी लेखक डॉ. गंगा सहाय मीणा का कहना है- “आजाद भारत में हुआ ये कि एक तो आदिवासियों के पक्ष में ठीक से कानून नहीं बने, और जो बने, उन्हें ठीक से लागू नहीं किया गया। मसलन 5वीं अनुसूची और 6ठी अनुसूची, ‘जनजातीय सलाहकार परिषद’ आदि बातें कागजों तक रह गईं। जंगलों पर आदिवासियों के परंपरागत अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए यूपीए सरकार ने वन अधिकार अधिनियम बनाया। चूंकि जिस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने लाखों आदिवासियों की बेदखली का आदेश दिया, उसका लक्ष्य वन अधिकार अधिनियम को चुनौती देना है।”[10] फिलहाल उच्चतम न्यायालय ने अपने उस आदेश पर रोक लगा दी है। जिसमें उसने देश के करीब “21 राज्यों के 11.8 लाख से अधिक आदिवासियों और जंगल में रहने वाले अन्य लोगों को जंगल की जमीन से बेदखल करने का आदेश दिया था।”[11] समकालीन हिंदी कविता आदिवासी समाज के यथार्थ को चित्रित करने में महत्वपूर्ण साबित हुई है। इसमें समकालीन कवियों द्वारा आदिवासी समाज की समस्याओं, अस्तित्व, अस्मिता, अधिकारों, सामाजिक सरोकार तथा जल-जंगल-जमीन के संघर्ष के बारे में गहन चिंतन-मनन किया गया है। इस कविता के मूल स्वर में आदिवासी कवयित्री ‘निर्मला पुतुल’ का भोगा हुआ यथार्थ है। इन्होंने व्यवस्था से जल, जंगल और ज़मीन के सवाल को मुखरता से उठाया है। साथ ही अपने इलाके की भयंकर समस्याओं को भी रेखांकित किया है। जैसे- सूखे, अकाल, भूख, बिमारी आदि समस्याएं प्रमुख हैं। इस सन्दर्भ में कविता की ये पंक्तियाँ सोचने पर मजबूर करती हैं-
“मैं अपने इलाके के सूखे और / अकाल की चर्चा करना चाहती हूँ आपसे
भूख बिमारी से लड़ते-मरते मंगरू, बुधवा और
इलाज के लिए राशन कार्ड गिरवी रखने वाले समरू पहाड़िया की
बात करना चाहती हूँ / जड़ खाकर ज़िंदा संतालों
और चूहे पकाकर खा रहे भूखे-नंगे-पहाड़ियों की / बात करना चाहती हूँ”[12]
विकास का मतलब केवल जीडीपी (GDP) या जनता की आय में बढ़ोतरी होना नहीं है, बल्कि समाज के सारे वर्गों में शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा, संवैधानिक मूल्यों, लोकतंत्र आदि जैसे मुद्दों में कितने आगे बढ़े हैं, यह भी महत्वपूर्ण है। सामाजिक यथार्थ के सन्दर्भ में दलित, किसान, मजदूर, आदिवासी जीवन विसंगतियों पर चर्चा करने के साथ-साथ स्त्री जीवन पर भी विचार-विमर्श करना आवश्यक है। सदियों से लेकर वर्तमान समय तक भारतीय प्रत्येक समाज में स्त्री के अस्तित्व को दोयम दर्जे का स्थान प्राप्त है। इसीलिए स्त्री जीवन की त्रासदी यह है कि मुख्यधारा के समाज में अपनी आज़ादी, अस्मिता, आत्मसम्मान, तथा अधिकारों के लिए संघर्ष करती नज़र आती है। वर्तमान समय में स्त्री जीवन अनेक समस्याओं तथा चुनौतियों से गुज़र रहा है। इस सन्दर्भ में ममता कालिया के विचार प्रासंगिक हैं। वे अपनी पुस्तक ‘भविष्य का स्त्री विमर्श’ में लिखती हैं- “आज का समय स्त्री के लिए कई नयी चुनौतियां लेकर आया है। ऐसा लगता है वर्तमान समय प्रागैतिहासिक काल से भी ज्यादा पिछड़ा हुआ तथा स्त्री के प्रति आक्रामक है। आधुनिक तालिबान हमारे आचरण, विचरण, वस्त्र विन्यास और प्रसाधन के नियन गढ़ रहे हैं। इन्हें हमारी आज़ादी से भय लग रहा है। उन्हें हमारे अस्तित्व, व्यक्तित्व और विकास पर संदेह है।”[13] दरअसल स्त्री को देवी मानने वाला भारतीय समाज, स्त्री के तमाम अधिकारों को न केवल छीना है बल्कि उस पर अनेक पाबंदियां लगाकर अपने अधीन रखने का प्रयास किया है। इससे समाज की दोहरी नीति और पितृसत्तात्मक मानसिकता स्पस्ट रूप में दिखाई देती है। समकालीन कवयित्री अमानिका की ‘मेरे दुश्मन’ कविता इस बात को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करने में सक्षम है। स्त्री को सामाजिक परिवेश के साथ-साथ अपने परिवार के भीतर भी संघर्ष करना पड़ता है। ऐसी सामाजिक व्यवस्था और परम्परावादी सोच के प्रति अनामिका का आक्रोश जायज़ है। इसीलिए वह अपने घर को दुश्मन के नाम से संबोधित करती हुई नज़र आती है। जिसमें अपने अस्तित्व और आत्मसम्मान का संघर्ष है। वे लिखती हैं-
“घर मेरा सबसे कमज़ोर दुश्मन है! / मैं भीगी बरसाती की तरह
अपना वजूद टांग देती हूँ / घर में घुसने के पहले / बाहर वाली खूँटी पर!
और वे मेरे चौकीदार, मेरे दुश्मन,/ मुस्कुराते हैं मूंछों में!”[14]
समकालीन हिंदी कविता की मुख्य विशेषता रही है कि समाज के सभी वर्गों के आतंरिक एवं बाह्य रूपों को प्रस्तुत करती है। इसी क्रम में अल्पसंख्यक समुदाय की गतिविधियों, समस्याओं तथा पहचान पर मंडरा रहे संकट को समकालीन हिंदी कविता में ज़िक्र हुआ है। ‘अल्पसंख्यक’ को समझने के लिए दो महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर चर्चा करना आवश्यक है। एक है- भाषाई आधार और दूसरा-धार्मिक आधार। दरअसल यहां भाषाई अल्पसंख्यकों के विकास के लिए संविधान द्वारा विशेष अधिकारी नियुक्त किये जाने का प्रावधान है। भारतीय संविधान द्वारा 1957 में विशेष अधिकारी हेतु कार्यालय की स्थापना की गई जिसे आयुक्त नाम दिया गया। इसमें आयुक्त की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है। आयुक्त का कार्य एवं उद्देश्य भाषाई अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, विकास संबंधी कार्यो का अनुसंधान और इन कार्यो का राष्ट्रपति को प्रतिवेदन करना है। उसका लक्ष्य भाषायी अल्पसंख्यको को समाज के साथ समान अवसर प्रदान कर राष्ट्र की गतिशीलता में उनकी सहभागिता दर्ज करना है। वहीं किसी देश, प्रांत या क्षेत्र की जनसंख्या में जिस धर्म के मानने वालों की संख्या कम होती है, उस धर्म को अल्पसंख्यक धर्म तथा उसके मानने वालों को धार्मिक अल्पसंख्यक कहा जाता है। मुख्य रूप से इस समाज में मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध और जैन आते हैं। 2011 जनगणना के अनुसार भारत में हिन्दुओं की जनसंख्या कुल 79.8% है। अर्थात भारत का सबसे बड़ा बहु संख्यक समाज। अल्पसंख्यक समाज के हितों और सामजिक स्तर सुधारने हेतु 29 जनवरी सन 2006 में ‘अल्पसंख्यक मंत्रालय का गठन किया। “अल्पसंख्यक समुदायों अर्थात् मुस्लिम, ईसाई, बौद्घ, सिक्ख, पारसियों तथा जैनों से संबंधित मामलों पर बल देने के लिए किया गया। मंत्रालय का अधिदेश अल्पसंख्यक समुदायों के लाभ के लिए समग्र नीति तैयार करना और योजना, समन्वयन, मूल्यांकन, विनियामक ढांचे एवं विकास संबंधी कार्यक्रम समीक्षा करना है।”[15] वर्तमान समय में अल्पसंख्यक समाज अनेक चुनौतियों एवं समस्याओं से जूझ रहा है। जिनमें मुख्य रूप से- आर्थिक पिछड़ापन, असुरक्षा की भावना, आधुनिकीकरण एवं शिक्षा का अभाव, मोब लिंचिंग, अस्मिता का संकट, साम्प्रदायिक दंगे, आदि हैं। 11 सितम्बर 2001 के बाद अल्पसंख्यक समाज का एक बड़ा तबका ‘मुस्लिम’ राष्ट्रीय स्तर से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक शक के दायरे में आया है। इस समाज का व्यक्ति अपनी अस्मिता, पहचान व आत्मसम्मान को लेकर बड़ा चिंतित है। दरअसल समाज की निगाह में एक आरोपी की छवि को लेकर जीवन बिताने के लिए विवश है। इसकी पीड़ा और अस्मिता के संकट को समकालीन हिंदी कविता में चर्चा की गई है। समकालीन कवयित्री ‘अनामिका’ की कविता ‘दंगे और कर्मकांड’ इसका प्रमाण है। एक आम मुसलमान की पीड़ा को व्यक्त करती हुई कविता की ये पंक्तियाँ मार्मिक हैं।
“मैं इन दिनों काफी परेशान हूँ-
शक करते हैं मुझ पर मेरे ही हाथ
जब ये दुआ में उठते हैं!
ठन्न ठमक जाता है माथा
जब बंदगी में ये झुकता है।”[16]
अत: समकालीन हिंदी कविताएँ भारतीय समाज का यथार्थ प्रस्तुत करने में महत्वपूर्ण हैं। जिसमें समकालीन हिंदी कवि दलित, किसान, मजदूर, आदिवासी, स्त्री एवं अल्पसंख्यक समाज की गतिविधियों, विसंगतियों, समस्याओं तथा चुनौतियों को उजागर करने की चेष्टा की है। साथ ही परम्परावादी मानसिकता का खंडन करते हुए वर्चस्ववादी विचार एवं व्यवस्था का भी पर्दाफाश किया है। कवि की संवेदनाएं, विद्रोही स्वर तथा सामाजिक सरोकार इन कविताओं में दिखाई देते हैं। ये कविताएँ ज़मीन से जुड़ी होने तथा यथार्थ को चित्रित करने के साथ-साथ जनांदोलनों, साम्प्रदायिक सद्भाव, लोकतांत्रिक आदि मूल्यों से भी परिचित कराती हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ
डॉ. दोड्डा शेषु बाबु, ‘हिंदी दलित आत्मकथाओं में चित्रित उत्पीड़न की समस्या: प्राथमिक शिक्षा के सन्दर्भ में’ शोध संचार बुलेटिन, अंक-जुलाई-सितम्बर-2020, पृ.225 ↑
ओमप्रकाश वाल्मीकि, अब और नहीं, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 2009, पृ.69 ↑
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http://thewirehindi.com/73261/supreme-court-tribals-forced-eviction-modi-government/ ↑
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अनामिका, खुरदरी हथेलियाँ, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, पहला संस्करण 2005, पृ.123 ↑