‘काल खड़ा सिर ऊपरे’: आज के संदर्भ में कबीर
डॉ. बिमलेंदु तीर्थंकर
एसोसिएट प्रोफेसर
हिंदी विभाग, हिंदू कॉलेज
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली – 110007
bimlendu@hinducollege.du.ac.in
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सारांश
कबीर को पढ़ना और जानना है तो सबसे पहले जानना होगा उनके समय के समाज को और उसके भीतर के अंतर्विरोधों को। कबीर की कविता सार्वकालिक कविता है। कबीर सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परिवर्तन की अपार संभावना के साथ अग्रसर होते हैं। उनकी सबसे बड़ी खासियत है कि वह चुनौतियों को भी स्वीकार करते हैं और चुनौती भी देते हैं। कबीर अतिरेक के कवि नहीं हैं, विवादधर्मी अक्खड़ के रूप में दिखाई देते कबीर संवाद की संस्कृति के वाहक हैं। बात-बात पर साधो, भाई, अवधु, पांडे जैसे संबोधन इसके गवाह हैं।
बीज शब्द
संस्कृति, समय, समाज, कबीर, मुक्ति, संघर्ष
शोध आलेख
आज कबीरदास के बिना हर बात अधूरी रहेगी, कबीरदास हमारे समय की अनिवार्यता हैं। हमारे समय में उपजे सवालों के उत्तर कबीरदास के यहां सीधे-सीधे मिलते हैं। आधुनिक काल में सबसे अधिक इस संत कवि को पढ़ा और गुना जा रहा है। कबीर संज्ञा हैं, कबीर ज्ञान और अनुभव के प्रतीक हैं। प्रतिष्ठित आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल लिखते हैं – “कबीर को पढ़ने के लिए उन्हें अजूबा बनाने के प्रलोभनों से मुक्त होना सबसे पहले जरूरी है। मध्यकाल में होते हुए भी कबीर, अजीब बात है कि आधुनिक से लगते हैं। निरक्षर होते हुए भी कबीर, अजीब बात है कि ‘ज्ञानी जी’ कहे जाते हैं। मुसलमान वंश में जन्म होने पर भी अजीब बात है कि रामानंद के शिष्य बनते हैं। … इस तरह की अजब-गजब मार्का बातों के आदि स्रोतों की खोज स्वयं ही रोचक और रोमांचक है। यह खोज तभी की जा सकती है, जबकि आप देश भाषा स्रोतों पर कृपा करने की बजाए उनका सांस्कृतिक सार और आज से समझने की कोशिश करेंगे। मैंने यही कोशिश की है। मैंने कबीर को ‘चकित’ होकर पढ़ने या उनका मनमाना इस्तेमाल करने की कोशिश नहीं, उन्हें ऐसे लगाव से पढ़ने की कोशिश की है, जिसमें जिरह के लिए विख्यात कवि से जिरह की भी पूरी गुंजाइश है। कबीर को धर्मगुरु बनाने की बजाय उनके कवि व्यक्तित्व के साथ संवाद करने की कोशिश की है।”[1] यह एक बनता हुआ रास्ता है जिसके माध्यम से कबीर के पास पहुंचा जा सकता है। पुरुषोत्तम अग्रवाल ऐसे समय में कबीर को लेकर उपस्थित होते हैं जब समय पीछे की दिशा में चलने की तैयारी कर रहा है। दरअसल, इस उत्तर-औपनिवेशिक समय में मध्यकालीन संतों की बेतरह याद आती है। यह समय हमारी आत्मशक्ति, आत्मविश्वास और आत्म बोध को कमजोर कर रहा है। सवाल यह है कि इसके बिना हम क्या कर सकते हैं ? सहस्त्र वर्षों की साधना-तपस्या के बाद आत्मविश्वास अर्जित होता है। बाहरी सत्ता से टकराना थोड़ा कठिन होता है किंतु आत्मा के द्वंद्व से लड़ना सबसे भयावह और कठिन होता है।
आत्म संघर्ष की लड़ाई में हमें मध्यकाल की संत परंपरा सहायक प्रतीत होती है। संतों की वाणियों से साहस मिलती है, आत्मविश्वास और आत्म-शक्ति संवर्धित होती है, हमारे पैरों में बल आ जाता है। कबीरदास आत्मबोध के कवि हैं। यद्यपि किन्हीं अर्थों और प्रसंगों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल उनके योगदान को स्वीकार तो करते हैं किंतु कवि होने पर संदेह व्यक्त करते हैं – “भाषा बहुत परिष्कृत और परिमार्जित न होने पर भी कबीर की उक्तियों में कहीं-कहीं विलक्षण प्रभाव और चमत्कार है। प्रतिभा उनमें बड़ी प्रखर थी इसमें संदेह नहीं।”[2] आचार्य रामचंद्र शुक्ल कबीर की प्रतिभा से बेहद प्रभावित थे। किंतु उनकी भाषा पर सवाल खड़ा कर रहे थे। बतौर कवि शुक्ल जी ने तुलसी को प्रतिष्ठित किया है। दरअसल, कबीरदास का यह मूल्यांकन एक समय के लिए उन्हें ओझल कर देता है। किंतु बदले हुए समय में, कबीर एक नए रूप में हमारे सामने आते हैं और उन्हें सभी ने स्वीकार भी किया है। लेकिन कबीर अनभै सांचा के संत कवि थे। इनकी वाणी से भारत की सम्यक सांस्कृतिक इतिहास उद्घाटित होता था। पुरुषोत्तम अग्रवाल कबीर को पूर्णतः कवि मानते हैं और साथ ही उनकी कविता के बारे में दो टूक राय भी देते हैं – “कबीर की कविता में प्रखर सामाजिकता और नितांत निजी प्रेमानुभूति तेल और पानी की तरह नहीं जल और बूंद की तरह दीख पड़ती है। उनका ज्ञानकोष हिंदू परंपरा और नाथपंथी साधना के साथ-साथ इस्लाम से भी अच्छे खासे परिचय का प्रमाण देता है। … कबीर की काव्य संवेदना राम भावना, काम भावना और समाज भावना को एक साथ धारण करती है। इन तीनों के सर्जनात्मक सह-अस्तित्व को पढ़े बिना कबीर को पढ़ने के दावे व्यर्थ हैं।”[3]
कबीर को पढ़ना और जानना है तो सबसे पहले जानना होगा उनके समय के समाज को और उसके भीतर के अंतर्विरोधों को। कबीर की कविता सार्वकालिक कविता है। कबीर सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परिवर्तन की अपार संभावना के साथ अग्रसर होते हैं। उनकी सबसे बड़ी खासियत है कि वह चुनौतियों को भी स्वीकार करते हैं और चुनौती भी देते हैं। कबीर अतिरेक के कवि नहीं हैं, विवादधर्मी अक्खड़ के रूप में दिखाई देते कबीर संवाद की संस्कृति के वाहक हैं। बात-बात पर साधो, भाई, अवधु, पांडे जैसे संबोधन इसके गवाह हैं। कबीर ने हर तरह की चोट खाई थी। इसलिए वे बहुत संवेदनशील हैं। यह अनायास नहीं है कि जब आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर को लेकर आते हैं तो उनका परिचय कुछ इस तरह कराते हैं – “भक्ति के अतिरेक में उन्होंने कभी अपने को पतित नहीं समझा; क्योंकि उनके दैन्य में भी आत्मविश्वास साथ नहीं छोड़ देता था। उनका मन जिस प्रेम रूपी मदिरा से मतवाला बना हुआ था, वह ज्ञान के गुण से तैयार की गई थी। इसलिए अंधश्रद्धा, भावुकता और हिस्टारिक प्रेमोन्माद का उनमें एकांत अभाव था। युगावतारी शक्ति और विश्वास लेकर पैदा हुए थे और युग प्रवर्तक की दृढ़ता उनमें वर्तमान थी। इसलिए वे युग प्रवर्तन कर सके थे। एक वाक्य में उनके व्यक्तित्व को कहा जा सकता है: वह सिर से पैर तक मस्त मौला थे – बेपरवाह, दृढ़, उग्र, कुसुमादपि कोमल, वज्रादपि कठोर।”[4]
कबीरदास ने रूढ़ अर्थों में चीजों को स्वीकार नहीं किया बल्कि रूढ़ियों को तोड़ने का काम किया। कबीर किसी के सपने के देश में नहीं जीना चाहते थे बल्कि अपने सपनों का देश बनाने के लिए आजीवन संघर्ष करते रहे। यही बात परंपरावादियों को परेशान करती है। किंतु ध्यान देने की बात है कि कबीर बुद्ध से होते हुए गांधी तक में दिखाई देते हैं। कबीर ने बुद्ध के सपनों को बढ़ाया था और गांधी ने बुद्ध और कबीर के सपनों को। गांधी जी का चरखा प्रयोग और ग्राम स्वराज कबीर के सपनों का विस्तार था। कबीरदास सपनों की दुनिया के यूटोपिया को सबके सामने उपस्थित कर रहे थे। अहिंसा, सत्याग्रह, सेवा भावना, मानवता, कर्म पर विश्वास, गुणों का विकास आदि राष्ट्रीय आंदोलन का मूल मंत्र बन सका तो इसके पीछे कहीं न कहीं कबीर दिखाएं पड़ते हैं। कबीर के भीतर यायावरी संस्कार थे। इस यायावरी ने इन्हें दुनिया से जोड़ रखा था। गांधी जी के होने में कबीर की बड़ी भूमिका थी। कबीरदास पवित्रता को हथियार बना रहे थे। कबीर का स्वप्नलोक, समतामूलक समाज और मनुष्य को उपस्थित करने के लिए प्रयत्नशील था। मध्यकालीन समय और समाज के भीतर गुलामी के कई स्तर बने हुए थे और उनके रहते मुक्ति की बात सोचना भी कठिन था। कबीर लौकिक मुक्ति के हिमायती थे। इसलिए कबीर की कविता के भीतर से लोक-मुक्ति की अनुगूंज बहुत साफ सुनाई पड़ती है। उन्होंने राम के माध्यम से मुक्ति संघर्ष का बिगुल फूंका। कबीर अमानवीय होती व्यवस्था को बहुत साफगोई के साथ उद्घाटित भी करते हैं और उससे मुक्ति का आह्वान भी करते हैं। अस्वीकार और असहमति का अपार साहस कबीर के भीतर था। यही कबीर को कबीर बनाता है। मध्यकालीन संतों में कबीर-सा साहस विरले संतों में था। कबीर उस गांव में रहने से इंकार कर देते हैं जो गांव अमानवीयता और शोषण का प्रतीक रूप में मौजूद है। कहना न होगा गांव आज भी लगभग उसी रूप में हैं। यही वजह है कि आज भी गांवों से पलायन जारी है – “बाबा अब न बसहु इहु गाउ। / घरी-घरी का लेख मांगे काइथु चेतू नाउ। / धर्मराय जब लेखा मांग बाकी निकसी भारी।। / पच क्रिसनवा भागि गए लै बाध्यौ जोउ दरबारी।। / कहहि कबीर सुनहू रे संतहु खेतहि करौ निबेरा।। / अबकी बार बखसि बंदे को बहुरि न भव जल फेरा।।”[5] इस ग्लोबल होती दुनिया के भीतर के गांवों के भीतर आज भी शोषण जारी है। इसलिए आज फिर कबीर याद आते हैं और कबीर का अमर देशवा भी याद आता है। कबीर कहते हैं कि इस गांव से बेहतर हमारा ‘अमर देसवा’ है, वह एक ऐसा देश है जहां समतामूलक समाज व्यवस्था है – “जहवां से आयो अमर वह देसवा। / पानी न पान धरती अकसवा, चांद न सूर न रैन दिवसवा। / बाम्हन न छत्री न सूद्र बैसवा, मुगल पठान न सैयद सेखवा। / आदि जोति नहिं और गनेसवा, ब्रह्म विस्नु महेश न सेसवा। / जोगी न जगम मुनि दरवेसबा / आदि न अंत न काल कलेसवा। / दास कबीर ले आए संदेसवा / सार सब्द गहिं चलौ वहि देसवा।”[6]
क्या यह आश्चर्य में डालने वाली बात नहीं है कि इस उत्तर-आधुनिक समय में तमाम कोशिशों के बाद भी ऐसा देश नहीं बन पा रहा है (स्वप्नलोक में ही सही) यह समय विषमता और विभेद से स्तरीकृत समाज व्यवस्था को मिटा पाने में असफल रहा है, इस बात को स्वीकार करना चाहिए। और फिर इसके समाधान हेतु रास्ते की तलाश भी करनी चाहिए। शायद इस अंधेर समय में कबीर का अमर देसवा एक सही विकल्प बनकर दुनिया को बदल सके। कबीर कल्पना के भाव लोक में खोए रहने के बजाय यथार्थ के धरातल पर उतरते हैं वह भी पूरे दमखम के साथ। कबीर नारा नहीं गढ़ते हैं बल्कि संघर्ष की जमीन तैयार करते हैं। जान-बूझकर पटरी बैठाने के लिए समन्वय का रास्ता नहीं पकड़ते हैं। वे टकराते हैं उन मूल्यों से, उन संस्थानों से, उन सत्ताओं से जो हमारी अस्मिता और आत्मविश्वास को कमजोर कर वर्चस्व की सत्ता कायम करने की कोशिश करती है। कबीर उनके लिए चुनौती हैं तो आम आदमी के लिए मुक्ति के वाहक हैं। इस टकराव से पहले कबीर आह्वान करते हैं अपने समाज को, उनके भीतर चेतना फूंकते हैं। दरअसल सोए हुए समय और समाज के सहारे कौन-सा मुक्ति संघर्ष संभव है ? इसलिए कबीर चेतावनी के अंदाज में कहते हैं – “काल खड़ा सिर ऊपरे, जागु बिराने मीत। / जाका घर है गैल में, सो कस सो निचीत।”[7] (पद संख्या 204)
कई बार कबीर को पीड़ा भी होती है। वह भी दुख फलक पड़ता है – “सुखिया सब संसार है खाये अरु सोवै। दुखिया दास कबीर है जागे अरु रोवै।।”[8] (पद संख्या 200)
कबीर समष्टिवादी कवि हैं। वे सामूहिक मुक्ति की बात करते हैं। अज्ञानता और अबोधता भयंकर रोग है। कबीर के सामने कई तरह की चुनौतियां थीं। लोकतंत्र और आधुनिकता के जमाने में जब हमारे भीतर भ्रम की टाटी लगी हुई है, तो वह राजशाही और मध्यकालीन दौर था। यथास्थितिवादी समय में कबीर का सारी चीजों को बेपर्द करना और सच को साहस के साथ रखना कम बड़ी बात नहीं थी। कबीर के पास कोई सीधा-साधा फॉर्मूला नहीं था और न ही कोई बड़ा मठ था जिसका भरोसा रख वह आगे बढ़ रहे हों। उनके मन में भी संशय था इसलिए वह भी आग्रह करते हैं उस ईश्वर से जो जीवनहार बन सकता था। उससे पूछते हैं – “कैसे दिन कटिहैं जतन बताये जइयो। / एहि पार गंगा ओहि पार जमुना,। बिचवां मड़इया हमका छवाय जइयो। / अंचरा फारिके कागज बनाइन, / अपनी सुरतिया हियरे लिखाये जइयो। / कहत कबीर सुनो भाई साधो, / बहियां पकरि के रहिया बताये जइयो।”[9] (पद संख्या 185)
कबीर का बहुत आत्मीय संबोधन है साधो और भाई। इसी से कबीर के मन की कोमलता को समझा जा सकता है। कबीर सबसे संवाद करते हुए आगे बढ़ते हैं। संवाद की संस्कृति टूटने नहीं देते हैं। चाहे वह विरोधी ही क्यों न हो। उससे भी जोरदार संवाद करते हैं। यह कबीर के यहां का लोकतंत्र है। यही कबीर हैं जो पांडे से पूछ बैठते हैं – “पांडे बूझि पियहु तुम पानी / x x x / वेद कतेब छांड़ि देऊ पांडे, इ सब मन के भरमा। / कहहिं कबीर सुनहू हो पांडे, ई तुम्हरे हैं करमा।।”[10] (पद संख्या 150)
कबीरदास ब्राह्मण समाज से जमकर सवाल करते हैं। उनके मुक्ति-मार्ग को भ्रामक भी बताते हैं। मूलतः कबीरदास मुक्ति की अवधारणा को नए ढंग से प्रस्तुत करते हैं, जिसका संबंध लोक से भी है और परलोक से भी है। कबीर के यहां मुक्ति इकहरी नहीं है। वह मानुष जन्म और इस लोक को बहुत ही संवेदनात्मक ढंग से महत्व देते हैं तथा इसकी सार्थकता की बात भी करते हैं। इसलिए संग्रह पर निग्रह की बात करते हैं। जन्म-जन्मों का वही खाता नहीं बनाते हैं। कई चीजें कबीर के यहां बहुत ही स्पष्ट हैं। इसलिए वह अंततः मानवीयता के पक्षधर हो जाते हैं। मनुष्यता ही हमें मुक्ति दिला सकती है। मनुष्य का सेवा धर्म उसे विशिष्ट बना सकता है। कबीरदास कहते हैं – “मानस जन्म दुर्लभ है कोइ न बारै बारि / जो बन फल पाके भुइ गिरहिं बहुरि न लागै डारि।”[11] (पद संख्या 110) “बहुरि नहिं आवना या देस / जो जोगए बहुरि नहिं आये पठवत नाहिं संदेस।”[12] (पद संख्या 137)
कबीरदास न तो उलझते हैं और न ही उलझाते हैं। इसलिए सारे बाह्याडंबरों और सामाजिक ताने-बाने को खोलकर सच से साक्षात्कार करा देते हैं। हमारे भीतर के भटकाव को एक तरफ खत्म करते हैं तो दूसरी भटकाने वाली चीजों और मान्यताओं को एक सिरे से खारिज कर देते हैं। कबीरदास राम-रहीम की एकता और गंगा जमुनी तहजीब की बात एक साथ उठाते हैं। हिंदू-मुस्लिम यह ऐसे युग्म है जिससे भारतीयता मजबूत होती है। लेकिन धर्म की राजनीति और सत्ता की आकांक्षा इसे अलगाने का काम करती है। कबीरदास बहुत साफ कहते हैं – “कोई रहीम कोई राम बखाने कोई कहे आदेस / नाना भेष बनाय सबै मिली ढूंढी फिरे चहुँ देस। / कहे कबीर अंत न पैहो बिन सतगुरु उपदेस।।”[13] (पद संख्या 137) इतना ही नहीं – “हिंदू तुरक की एक राह है, सतगुरु इहै बताई। कहंहि कबीर सुनहु हो संतो राम न कहेहु खुदाई।”[14] (पद संख्या 247) इतना प्रवाह है, इतनी समस्याएं हैं कि सबसे टकराने वाले कबीर भी कई बार यह कहते हैं – “यह जग अंधा मैं केहि समझावो।”[15] (पद संख्या 254) फिर भी कभी हार नहीं मानते हैं। कबीर अपराजेय हैं। इस आपाधापी के दौर में कबीर बार-बार एक सुंदर लोक के स्वप्न के साथ दिखाई देते हैं। कबीर का दिया हुआ स्वप्न अनहद नाद की तरह अंतस में गूज रहा है, सदैव हमें सजग सक्रिय सजीव बनाए हुए है। हमारे लिए सबसे बड़ी आशा हैं कबीर – “सखि कह घर सबसे न्यारा, जहं पूरन पुरुष हमारा / जहां न सुख, दुख, सांच झूठ नहीं पाप न पुन्न पसारा / नहिं दिन रैन चंद नहिं सूरज, बिना जोति उजियारा।”[16] (पद संख्या 236)
कबीर की कविता के करीब जाने का समय है। कबीर को नए ढंग से पढ़ने और समझने की जरूर है। राजसत्ता और पूंजीसत्ता के ‘ग्लोबल मॉडल’ से सीधे कोई टकरा रहा है तो वह है कबीर का ‘अमरपुर देसवा’। संभव है लोक में ‘अमरपुर देसवा’ की चर्चा हो। इस पर विमर्श हो तो दुनिया न सिर्फ बदल सकती है बल्कि बहुत न्यारी भी हो सकती है। समय कबीर से किनारा होने का नहीं बल्कि कबीर के पास जाने का है।
संदर्भ
अग्रवाल, पुरुषोत्तम; अकथ कहानी प्रेम की, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, चौथा संस्करण, 2016
शुक्ल, रामचंद्र; हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, सातवां संस्करण
द्विवेदी, हजारी प्रसाद; कबीर, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, नौवीं आवृत्ति, 2002, पेपर बैक
दास, श्याम सुंदर; कबीर ग्रंथावली, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2014, पपैर बैक
द्विवेदी, हजारी प्रसाद; कबीर, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, नौवीं आवृत्ति, 2002, पेपर बैक
दास, श्याम सुंदर; कबीर ग्रंथावली, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2014, पपैर बैक
- अग्रवाल, पुरुषोत्तम; अकथ कहानी प्रेम की, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, चौथा संस्करण, 2016, पृष्ठ संख्या 7 ↑
- शुक्ल, रामचंद्र; हिंदी साहित्य का इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, सातवां संस्करण, पृष्ठ संख्या 45 ↑
- अग्रवाल, पुरुषोत्तम; अकथ कहानी प्रेम की, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, चौथा संस्करण, 2016, पृष्ठ संख्या 20 ↑
- द्विवेदी, हजारी प्रसाद; कबीर, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, नौवीं आवृत्ति, 2002, पेपर बैक, पृष्ठ संख्या 135 ↑
- दास, श्याम सुंदर; कबीर ग्रंथावली, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2014, पपैर बैक, पृष्ठ संख्या – ↑
- द्विवेदी, हजारी प्रसाद; कबीर, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, नौवीं आवृत्ति, 2002, पेपर बैक, पृष्ठ संख्या 266-267 ↑
- द्विवेदी, हजारी प्रसाद; कबीर, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, नौवीं आवृत्ति, 2002, पेपर बैक, पृष्ठ संख्या 259 ↑
- वहीं ↑
- वही, पृष्ठ संख्या 254 ↑
- वही, पृष्ठ संख्या 242 ↑
- दास, श्याम सुंदर; कबीर ग्रंथावली, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2014, पपैर बैक, पृष्ठ संख्या – 243 ↑
- द्विवेदी, हजारी प्रसाद; कबीर, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, नौवीं आवृत्ति, 2002, पेपर बैक, पृष्ठ संख्या 238 ↑
- वहीं ↑
- वही, पृष्ठ संख्या 271 ↑
- वही, पृष्ठ संख्या 273 ↑
- वही, पृष्ठ संख्या 268 ↑