कथात्मक गद्य साहित्य में प्रयुक्त चरित्र- चित्रण की प्रणालियाँ
(विशेष सन्दर्भ: जीवनी, उपन्यास और जीवनीपरक उपन्यास)
नीरज तिवारी
शोधार्थी, हिंदी विभाग
झारखण्ड केन्द्रीय विश्वविद्यालय
राँची, झारखण्ड-835222
मोबाइल: 9958603282
ईमेल: neeraj.anujtiwari@gmail.com
सारांश
कथात्मक साहित्य में रचनाकार द्वारा न्यूनाधिक मात्रा में पात्रों के चरित्र का चित्रण अवश्य किया जाता है । कारण यह है कि चित्रित व्यक्ति किसी समाज अथवा विशेष समाज से सम्बन्ध रखता हो या वह किसी साहित्यिक रचना का नायक या पात्र हो, वह अपने व्यक्तित्व के साथ अच्छा-बुरा सम्मानित या किसी न किसी चरित्र का धारक अवश्य होता है । यह बात अलग है कि कुछ ऐसे उपन्यासों की भी रचना होती है जो चरित्र प्रधान नहीं होते । ऐसे उपन्यासों में चरित्र -चित्रण को अधिक महत्व नहीं दिया जाता अपितु अन्य तत्वों को उभारने पर अधिक बल दिया जाता है । जीवनी साहित्य और जीवनीपरक उपन्यास साहित्य में चरित्र प्रधान होने के कारण चरित्र -चित्रण की उपेक्षा नहीं की जा सकती । कथा साहित्य की इन दोनों ही विधाओं में नायक के चरित्र-चित्रण को ही विशेष रूप से प्रमुखता दी जाती है । अन्य पत्रों के चरित्र -चित्रण को एक सीमा तक ही प्रमुखता दी जाती है और विशेष तौर पर यह ध्यान रखा जाता है कि वे प्रमुख पात्र या नायक के चरित्र से अधिक प्रभावशाली चित्रित न हो सकें । यह भी उल्लेखनीय है कि सहायक पात्रों के चरित्र चित्रण के अभाव में प्रमुख पात्र को प्रभावशाली ढंग से चित्रित नहीं किया जा सकता । जीवनी साहित्य और जीवनीपरक उपन्यास साहित्य के पात्रों के चरित्र-चित्रण में यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि जीवनी-नायक के चरित्र को सबल अथवा प्रभावशाली रूप में दर्शाने हेतु मानस -सृष्टि अथवा कल्पित पात्रों का सृजन संभव नहीं है । दूसरी ओर जीवनीपरक उपन्यास साहित्य में चरित्र नायक के चरित्र का मनोनुकूल चित्रण हेतु एक निश्चित सीमा तक कल्पित चरित्रों की निर्मिति की आजादी उपन्यासकार के पास अवश्य होती है ।
बीज शब्द
कथा साहित्य, चरित्र-चित्रण, प्रणाली, मनोविश्लेषण, प्रत्यक्षीकरण आदि ।
शोध आलेख
कथा साहित्य में चरित्र का विशेष महत्व होता है । चरित्र ही वह माध्यम है जिसके चित्रण के द्वारा रचनाकार अपने उद्देश्यों की पूर्ति में सफल हो पता है । कथाकार चाहे जीवनीकार हो अथवा उपन्यासकार कृति में निहित उद्देश्यों को सफलतापूर्वक प्राप्त करने के लिए नायक अथवा सहायक चरित्रों के व्यक्तित्व और क्रिया -कलाप पर निर्भर रहता है । वस्तुतः कृतिकार अपने पात्रों के गुण-दोषों का वर्णन स्वयं अपने शब्दों की सहायता से करता है । इसके लिए वह अपने नायक के चरित्र-चित्रण हेतु विविध प्रकार की प्रणालियों को प्रयोग में लाता है । गद्य साहित्य की कथात्मक विधा में चरित्र-चित्रण हेतु अनेक प्रणालियाँ विकसित हुई हैं । इन प्रणालियों का आलोचानात्मक विवेचन समय-समय पर अनेक विद्वानों ने की है जिसे निम्न बिन्दुओं के माध्यम से समझा जा सकता है-
सारणी संख्या-01
उपर्युक्त बिन्दुओं के आलोक में यह पड़ताल की आवश्यकता है कि इन पद्धतियों में से मात्रात्मक दृष्टि से किन पध्दतियों को प्रयुक्त करके चरित्र-चित्रण को प्रभावी बनाया जा सकता है । साथ ही इन प्रणालियों का उपयोग जीवनी , उपन्यास और जीवनीपरक उपन्यास साहित्य में किस मात्रा में हो सकता है ।
1 . अंतरंग चित्रण प्रणाली :
किसी पात्र के चरित्र को पूर्ण रूपेण चित्रित करने के लिए अंतर और बाध्य दोनों चरित्रों का चित्रण अनिवार्य है । “ मनुष्य का जो रूप दूसरों पर प्रकट होता है वही उसका वास्तविक रूप नहीं होता उसके व्यक्त रूप से अधिक महत्वपूर्ण और रहस्यमय उसका वह रूप होता है जो जाने या अनजाने अभिव्यक्ति पाने से बचा रहता है और उसके व्यक्त रूप को प्रेरित करता है । मनुष्य के व्यक्त आचार-विचार और व्यवहार में उसके चरित्र का एक अंग ही प्रतिबिंबित हो पाता है । शेष का तो उसकी व्यक्त चेष्टाओं में आभास तक नहीं मिल पाता ।…..मानव चरित्र हिमनग के समान है जिसका केवल नवयांश ही जल के ऊपर दिखायी देता है और शेष पानी के भीतर छिपा रहता है । मनुष्य के उस अव्यक्त चरित्र को जाने बिना, जो उसके समूचे रूप को प्रेरित करता है, मनुष्य को पूरी तरह समझना संभव नहीं ।” (रांग्रा, 1971) एक कुशल रचनाकार अपने पात्र चरित्र को पूर्णरूपेण उजागर करने के लिए अन्तरंग चित्रण को माध्यम बनाता है ।अंतरंग चित्रण पात्र-के व्यक्तित्व को आवश्यकतानुकूल ढालने में सहायक सिद्ध होता है । डॉ. रणवीर रांग्रा के मतानुसार अंतरंग चित्रण को दो प्रमुख वर्गो में विभाजित किया जा सकता है –
क. अंतःप्रेरणाओं का चित्रण
ख. अंतर्द्वन्द्व का चित्रण
- अंतःप्रेरणाओं का चित्रण
मानव जीवन विविध बाधाओं और विसंगतियों का वाहक होता । इन बाधाओं और विसंगतियों से संघर्ष कर मानव व्यक्तित्व और चरित्र को सौन्दर्य प्रदान करने में अंतः प्रेरणाओं की महती भूमिका होता है । “वस्तु जगत में किसी व्यक्ति के व्यक्त आचरण के पीछे छिपी भीतरी प्रेरक को पहचान पाना बड़ा कठिन होता है । प्रायः हम उसके बारे में ठीक-ठीक अनुमान नहीं लगा पाया करते और वह व्यक्ति हमारे लिए एक पहेली बना रहता है । पर उपन्यासकार अपने पात्रों का स्रष्टा होने से बह्यांतर से भली प्रकार परिचित होता है और उनके चरित्र विकास की प्रत्येक दिशा के अव्यक्त प्रेरकों से परिचित होता है इसीलिए वह अपने पात्रों की व्यक्त क्रिया प्रक्रिया उनके अनुभाव आदि के चित्रण के साथ-साथ उनको प्रेरित करने वाली अन्तः प्रेरणाओ को भी प्रकाश में लाता रहता है | ऐसा किये बिना उसके पात्रो का चरित्र चित्रण अधूरा और असंगत रह जाता है| पत्रों के अन्तः प्रेरणाओ के चित्रण द्वारा ही तो उपन्यासकार अपने पात्रों के बहुरूपी और परस्पर विरोधी आचरण में एक रूपता लाकर उन्हें युक्ति युक्त ठहराता है और उनमें संगति बैठाता है ।” (रांग्रा, 1971)
चरित्र चित्रण की इस प्रणाली को आधार मानकर जीवनी साहित्य और जीवनपरक उपन्यास साहित्य की समीक्षा करें तो हम पाते हैं कि जीवनी साहित्य में चरित्र चित्रण की इस प्रणाली का प्रयोग संभव नहीं है । ऐसा इसलिए क्योंकि जीवनी साहित्य ऐतिहासिक सत्य पर आश्रित होता है और वह ऐतिहासिक सत्यता को प्रतिबिंबित करने हेतु बाध्य है । जीवनीकार के लिए जीवनी नायक की अंतःप्रेरणाओं से उत्पन्न ऐतिहासिक सत्य को जान पाना एक कठिन कार्य है| दूसरी और जीवनीपरक उपन्यास साहित्य के लिए मूल में ही चरित्र नायक के अंतर बाध्य जीवन की प्रस्तुति है । जीवनीपरक उपन्यास साहित्य सृजन के आधार स्तंभ के रूप में नायक के समग्र व्यक्तित्व का चित्रण होता है और समग्र व्यक्ति का निर्माण अंतर और बाह्य दोनों चरित्रों के मेल से ही संभव है ।
- अंतर्द्वंद्व का चित्रण
मानव मन का ‘किंकर्तव्यविमूढ़’ स्थिति तक पहुँच जाना ही अंतर्द्वंद्व का उदय कहलाता है । जब कोई पात्र अपने जीवन में किसी ऐसे मोड़ पर जा पहुँचता है जहाँ उसके समक्ष दो परस्पर विरोधी दिशा में जाने वाले दो रास्ते हों और वह परिस्थितिवश उन दोनों में से किसी एक मार्ग पर चलने के लिए बाध्य हो, पर दोनों को सामान रूप से उपयोगी और अनुपयोगी समझकर यह निश्चय करने में स्वयं को अक्षम महसूस करे कि किसे अपनाए और किसे छोड़े तो उसके मन में एक अकथनीय द्वंद्व छिड़ जाता है जो उसे प्रतिक्षण बेचैन करता रहता है । किसी पात्र के इसी मनःस्थिति को अंतर्द्वंद्व कहा जाता है । पात्र के अंतर्द्वंद्व के दो स्तर माने जाते हैं-
I.चेतन मन का अंतर्द्वंद्व
II. अवचेतन मन का अंतर्द्वंद्व
चेतन अंतर्द्वंद्व के अंतर्गत पात्र दो परस्पर विरोधी स्थितियों के मध्य चयन के प्रश्न को लेकर अनिर्णय की स्थिति में होता है ऐसे में उसके अंतर्मन का द्वन्द्व उसे निरंतर निर्णय हेतु प्रेरित करता रहता है । वहीं अवचेतन मन के द्वन्द्व के अंतर्गत मानव यह समझ पाने में असमर्थ होता है कि उसे क्या करना है? क्या नहीं, अथवा क्या चाहिए क्या नहीं ? ऐसे में वह एक अस्पष्ट और अनिर्णय की स्थिति में पहुँच जाता है । कई बार वह ऐसा कृत्य कर बैठता है जो करना नहीं चाहता था अर्थात् उसकी सोच और क्रिया में अंतर स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है ।
साहित्य की कथात्मक विधा का रचनाकार अपने चरित्रों की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति के लिए इस प्रणाली को उपयोग में लाता है । कथालेखक पात्र के चेतन मन में चल रहे अंतर्द्वंद्व को अवचेतन मन में चल रहे द्वंद्वों की अपेक्षा अधिक सरलता से अंकित कर सकता है । वहीं अवचेतन मन के द्वंद्व को चित्रित करने के लिए काफी श्रम की आवश्यकता होती है । कथाकार इसके लिए मनोविश्लेषकों द्वारा उपयोग में लायी जाने वाली प्रणाली यथा- मनोविश्लेषण, निराधार प्रत्यक्षीकरण विश्लेषण, स्वप्न विश्लेषण , प्रत्यावलोकन विश्लेषण , सम्मोह विश्लेषण, पूर्ववृत प्रणाली, शब्द सह स्मृति परीक्षा आदि का आश्रय ग्रहण करता है । कई बार इन प्रणालियों को हू-ब-हू प्रयोग में लाता है तो कभी आवश्यकतानुकूल इसमें परिवर्तन भी करता है । इन प्रणालियों के उपयोग के सन्दर्भ में एक मनोविश्लेषक अथवा मनोचिकित्सक का उद्देश्य पीड़ित को चिकित्सकीय सुविधा उपलब्ध कराकर इन मनोविकारों से मुक्त कराना होता है, वहीं लेखक का उद्देश्य इससे भिन्न होता है । रचनाकार अपने पाठक को पात्र के आचरण की मूल भावनाओं से परिचित कराने हेतु इन प्रणालियों को उपयोग में लाता है ।
जीवनी, उपन्यास और जीवनीपरक उपन्यास साहित्य में अंतर्द्वंद्व प्रणाली के प्रयोग की बात करें तो उपन्यास और जीवनीपरक उपन्यास साहित्य में उपन्यासकार अपनी सुविधा और कथानक की मांग के अनुरूप इस प्रणाली को प्रयुक्त करता है परन्तु जीवनी साहित्य में इसका अनुप्रयोग संभव नहीं है क्योंकि यदि जीवनीकार नायक के चरित्र चित्रण हेतु इस प्रणाली को प्रयोग में लाता है तो रचना अपने विधा से इतर की रचना बनकर रह जाएगी । अर्थात् वह जीवनी साहित्य के अंतर्गत परिगणित न होकर जीवनीपरक उपन्यास की कोटि में गण्य होगी । इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि उपन्यास चाहे किसी श्रेणी का हो उसमें अंतर्द्वंद्व प्रणाली का प्रयोग हो सकता है, किन्तु जीवनी साहित्य में यह प्रयोग संभव नहीं है ।
2 . बहिरंग चित्रण प्रणाली :
साहित्य की कथात्मक विधा के किसी भी पात्र का प्रथम परिचय उसके क्रिया-क्लापों और वाह्य -व्यवहारों से मिलता है । ऐसे उपकरण जिसकी सहायता से लेखक पात्रों के वाह्य चरित्र को प्रकट करता है उसे बहिरंग प्रणाली के नाम से जाना जाता है । चरित्र-चित्रण की इस प्रणाली को मूलतः पाँच भागों में बाँटा जा सकता है । जो निम्नवत हैं-
I.पात्रों के नामकरण द्वारा
कथा साहित्य में रचनाकार अपने पात्रों का सृष्टिकर्ता होता है अतः वह अपने पात्रों के आचरण और क्रिया-क्लापों तथा उसके चरित्रगत विशेषताओं पूर्णतः परिचित होता है । “अधिकांश उपन्यासकार अपने पात्रों के भावी जीवन के संबंध में अनभिज्ञ नहीं होते. इसलिए अपने पात्रों का नाम रखते समय उनके सामने पात्रों का समूचा चरित्र विकास आ जाता है और वे उसके चरित्र के किसी उभरे हुए गुणावगुण के आधार पर उसका नाम रख देते हैं ।” (रांग्रा, 1971) यद्यपि इस प्रकार पात्रों के नामों द्वारा उनकी चरित्र की विशिष्टता को व्यक्त करने की प्रवृति न्यूनाधिक रूप में सभी उपन्यासकारों में विद्यमान रहती है तो भी उपन्यासकार इससे जितना बच सके उतना ही श्रेयस्कर है क्योंकि इस प्रकार के चरित्र-चित्रण में अस्वाभाविकता तो आ ही जाती है साथ ही आवश्यकता से पहले पात्रों की चारित्रिक विशिष्टताओं के प्रकट हो जाने से उसके चरित्र विकास के प्रति पाठकों की उत्सुकता भी मंद पड़ जाती है ।
उपरोक्त विचारों के आधार पर यदि जीवनी, उपन्यास और जीवनीपरक उपन्यास की चर्चा करें तो हम पाते हैं कि चूकि कथा साहित्य से संबद्ध कृतियों के चरित्र (पात्र) रचनाकार के मानस सृष्टि माने जाते हैं इसलिए वह अपने पात्रों का नामकरण इस प्रकार करता है कि उनमें उसकी चारित्रिक विशेषताएँ समाहित हो सकें । साधारणतः नामकरण की यह स्वतंत्रता एक उपन्यास को पूर्ण रूप से प्राप्त होती है, वहीं जीवनीपरक उपन्यास और जीवनी साहित्य के रचनाकारों के लिए इस सुविधा-प्रयोग पर कुछ बंदिशें लागू होती हैं । जीवनीकार को चरित्र गढ़ने और उसके नामकरण की स्वतंत्रता बिलकुल भी नहीं होती । इसलिए चरित्र निर्माण हेतु इस प्रणाली के उपयोग से जीवनीकार वंचित ही रह जाता है । उसे अपने पात्रों के नामकरण के क्रम में कृति नायक के ऐतिहासिक सत्य और उपलब्ध तथ्य का आश्रय लेना पड़ता है; परन्तु जीवनीकार की अपेक्षा जीवनीपरक उपन्यास के रचनाकार को अपने सहायक पात्रों और गौण पात्रों के नामकरण की आजादी प्राप्त होती है । अतः यह कहा जा सकता है कि जीवनीपरक उपन्यासकार चरित्र चित्रण की इस प्रणाली से कुछ सीमा तक लाभान्वित हो सकता है ।
II.पात्रों के प्रथम परिचय के माध्यम से
वस्तु जगत में असंख्य लोग हमें हैं परन्तु सबके प्रति हम आकृष्ट नहीं हो पाते । लम्बी अवधि तक साथ रहने पर भी कई लोगों के प्रति हमारे मन में आकर्षण भाव जागृत नहीं हो पाता । वहीं कई लोगों के प्रथम दर्शन से ही हम उनसे प्रभावित हो जाते हैं । यही बात औपन्यासिक पात्रों के विषय में भी कही जा सकती है । “औपन्यासिक पात्रों के चरित्र चित्रण की सफलता इसी में है कि पात्र उपन्यास में पदार्पण करते ही पाठकों को अपने में उलझा लें । इसलिए श्रेष्ठ उपन्यासकार अपने किसी पात्र हो उपन्यास के रंगमंच पर तब तक नहीं लाता जब तक कि उसके करने के लिए कोई महत्वपूर्ण काम नहीं होता ।” (रांग्रा, 1971) इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि पात्रों के प्रथम परिचय में पाठकों को मुग्ध करने की क्षमता होनी चाहिए । न्यूनाधिक मात्रा में यह सिद्धांत संपूर्ण कथा साहित्य के पात्रों पर लागू होता है । यह रचनाकार के लेखन कौशल पर आश्रित है कि वह अपने पात्र के किस छवि की झाँकी किस मात्रा तक प्रस्तुत करता है । वस्तुतः एक कुशल लेखक की यह विशेषता होती है कि वह अपने पात्रों के प्रथम परिचय में ही पाठक के समक्ष पात्र के भावी चरित्र का रहस्योद्घाटन कर दे । पात्रों के प्रथम परिचय में उसके चारित्रिक गुणों-अवगुणों से पाठक को परिचित कराने की सुविधा साधारण उपन्यासकार को तो है ही साथ ही जीवनीकार और जीवनीपरक उपन्यासकार को भी यह सुविधा है कि वह नायक अथवा अपने अन्य पात्रों का प्रथम परिचय इस प्रकार प्रस्तुत करे जिससे पात्रों के चारित्रिक स्वरूप का आभास पाठक आसानी से कर ले ।
III. आकृति-वेशभूषा द्वारा पात्र परिचय
आज के बदलते परिवेश में जहाँ सामाजिक मूल्य परिवर्तनशील है, केवल आकृति या परिधान अथवा वेशभूषा से किसी के व्यक्तित्व के संबंध में अथवा उसके चारित्रिक गुण-दोषों के संबंध में अनुमान लगाना भ्रामक हो सकता है । तथापि किसी नए व्यक्ति के प्रथम दर्शन में हमारा ध्यान सर्वप्रथम उसकी आकृति और वेशभूषा पर ही जाता है । जब तक हमारे समक्ष उस व्यक्ति की क्रिया-प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं होती उसके चरित्र के आकलन हेतु आकृति और वेशभूषा के अतिरिक्त हमारे पास कोई अन्य माध्यम उपलब्ध नहीं होता ।
जीवनी साहित्य, उपन्यास और जीवनीपरक उपन्यास साहित्य का रचनाकार जब अपनी कृति के किसी चरित्र अथवा पात्र को पाठक के समक्ष उपस्थित करता है तो वह इस सत्य से पूर्णतः अवगत होता है कि उसके पात्र का भावी स्वरूप किस प्रकार का होगा । यदि कोई रचनाकार ऐसा करने में असफल होता है तो यह असफलता उसके चरित्र-चित्रण की कला के दोष के रुप में परिगणित होगी । वस्तुतः अधिकांश रचनाकार द्वारा प्रथम परिचय में ही अपने पात्रों के शारीरिक आकृति-प्रकृति के साथ-साथ वेशभूषा एवं चाल-ढाल के माध्यम से उन की चारित्रिक विशेषताओं का उद्घाटन कर दिया जाता है । पात्र परिचय के संदर्भ में इस पद्धति का प्रयोग जीवनी, उपन्यास और जीवनीपरक उपन्यास तीनों ही विधाओं के लिए किया जा सकता है ।
IV. स्थित्यंकन तथा क्रिया-प्रतिक्रिया द्वारा पात्र परिचय
चरित्र-चित्रण की इस प्रणाली में कथानक में पात्रों की स्थिति और क्रिया-प्रतिक्रिया के द्वारा पाठक को पात्र के चरित्र से अवगत कराया जाता है । सामान्य मनुष्य की परिस्थितियाँ और उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया में कार्य-कारण का संबंध रहता है । जिस प्रकार कारण की पूरी जानकारी के अभाव में कार्य का सही मूल्यांकन नहीं हो सकता उसी प्रकार अनेक कारण का ज्ञान भी कार्य को समझने में सहायक नहीं हो सकता । इसलिए कुशल उपन्यासकार अपने पात्रों के विभिन्न स्थितियों के अंकन तथा उसमें व्यस्त होने वाली क्रिया-प्रतिक्रिया के अंकन में ऐसा सामंजस्य बैठता है कि पाठकों की कल्पना में पात्र और उसकी परिस्थितियाँ साकार होती जाती हैं और उनका चरित्र विकास स्पष्ट से स्पष्टतर होता चला जाता है । जीवनी उपन्यास और जीवनीपरक उपन्यास के संदर्भ में इस प्रणाली के प्रयोग की बात करें तो हम पाते हैं कि जीवनीकार और जीवनीपरक उपन्यासकार संबंधित इतिहास अथवा इतिहास के विशेष कालखंड जिससे यह दोनों विधाएं संबद्ध हों उसे आधार बनाकर स्थित्यंकन प्रस्तुत करता है वहीं उपन्यासकार कल्पित यथार्थ के आधार पर स्थित्यंकन प्रस्तुत करता है ।
V.अनुभाव चित्रण द्वारा पात्र परिचय
विभिन्न क्रिया-प्रतिक्रिया के फलस्वरुप हमारे मानस में मनोभावों का उदय होता है । जब मनुष्य द्वारा मनोभावों का अनुसरण कर किसी निष्कर्ष तक पहुँचने के क्रम में हाव-भाव अथवा कृत्य के द्वारा अपने भावों की अभिव्यक्ति की जाती है तो वह क्रिया अनुभाव कहलाता है । इस अनुभाव के द्वारा कर्ता की भावनाओं का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है । रचनाकार द्वारा चरित्र चित्रण हेतु अनुभाव का आलंबन ग्रहण कर पात्र की मानसिक स्थितियों से पाठक को परिचित कराया जाता है । अतः हम कह सकते हैं कि किसी चरित्र के स्वभाव, गुण-धर्म आदि को समझने के लिए अनुभाव का चित्रण आवश्यक है । चरित्र को प्रभावशाली बनाने के लिए जीवनी, उपन्यास और जीवनीपरक उपन्यास साहित्य में आवश्यकतानुकूल मनोभावों का चित्रण प्रस्तुत करता है । यथा चरित्र की संपूर्ण विशेषताओं के रहस्योद्घाटन में अनुभाव चित्रण महती भूमिकाओं का निर्वहन करता है ।
3. नाटकीय चित्रण प्रणाली :
पात्रों के चरित्र का प्रभावी चित्रण के क्रम में नाटकीय चित्रण चरित्र-चित्रण प्रणाली का एक प्रमुख अंग है । मुख्यतः इस प्रणाली को पाँच वर्गों में विभाजित किया जाता है- 1.घटनाओं द्वारा 2. कथोपकथन द्वारा 3.उद्धरण शैली द्वारा 4.डायरी शैली द्वारा और 5. पत्रात्मक शैली द्वारा ।
जीवनी, उपन्यास और जीवनीपरक उपन्यास साहित्य में इस शैली के उपयोग की बात करें तो प्रायः तीनो ही विधाओं में इस शैली का उपयोग अत्यंत सरलता से संभव है । उपन्यासकार और जीवनीपरक उपन्यासकार अपनी आवश्यकता के आधार पर इस प्रणाली के सभी अंगों का प्रयोग तो करते ही हैं, जीवनीकार भी चरित्र नायक के व्यक्तित्व का प्रभावशाली अंकन हेतु नाटकीय शैली के सभी प्रकारों का उपयोग कर सकता है । परन्तु इस प्रणाली के पूर्ण प्रयोग में जीवनीकार के समक्ष बाधा यह आती है कि वह इस शैली के सभी प्रकारों के लिए ऐतिहासिक सत्यता पर निर्भर रहता है । जीवनीकार स्वकल्पना से किसी भी डायरी, पत्र या घटना आदि को निर्मित नहीं कर सकता । यही कारण है कि औपन्यासिक पत्रों के चरित्र-चित्रण जिस जीवंतता और प्रभावशीलता के साथ किए जा सकते हैं, उतनी जीवंतता और प्रभावशीलता जीवनी विधा के पत्रों के चरित्र में नहीं आ पाती । यदि जीवनीकार अपनी सृजनशील कल्पना का प्रयोग अपनी रचना में प्रभावशीलता उत्पन्न करने हेतु करता है तो जीवनी विधा की रचना जीवनी न रहकर औपन्यासिक विधा में प्रवेश कर जाएगी ।
निष्कर्ष
समग्र विवेचन के आधार पर निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि चित्रण की उक्त सभी प्रणालियाँ कलात्मक होने के कारण नाटकीयता से परिपूर्ण होती है, इसलिए इसे अभिनयात्मक प्रणाली के रूप में भी जाना जाता है । यद्यपि अभिनय मूलतः नाटक के लिए ही अंगीकृत है; तथापि अभिनय, घटना संयोजन, कथोपकथन तथा संवाद आदि जैसे अनेक तत्व हैं जिनका उपयोग जीवनी विधा का रचनाकार और उपन्यासकार अपनी कृति में कर सकता है । इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि कथात्मक गद्य साहित्य की कृति की रोचकता और सफलता में चरित्र चित्रण इन प्रणालियों का महत्वपूर्ण योग है । जीवनीपरक औपन्यासिक कृति के चरित्र चित्रण में प्रमुख पात्र तथा उनसे जुड़े अन्य तथ्य यथा- नाम, जन्म स्थान, जन्म वर्ष, माता-पिता तथा उनकी चरित्रगत विशिष्टताएँ उपलब्ध ऐतिहासिक सत्य के अनुरूप ही होते हैं । अपनी सृजनशीलता से जीवनीपरक उपन्यासकार सहायक अथवा गौण पात्रों की निर्मिति कर सकता है । वही जीवनीकार किसी भी दशा में पात्र निर्माण हेतु सृजनशील कल्पना का उपयोग करने में अक्षम है । यही कारण है कि किसी एक ही व्यक्ति पर केंद्रित जीवनी और जीवनीपरक उपन्यास में उस व्यक्ति की चरित्रगत विशेषताओं को अत्यंत जीवंतता और प्रभावोत्पादकता के साथ प्रस्तुत किया जा सकता है । इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि चरित्र चित्रण में प्रयुक्त उक्त प्रणालियाँ चारित्रिक गुणावगुणों के प्रकटीकरण में अविस्मरणीय भूमिका का निर्वहन करते हैं ।
सन्दर्भ सूची:
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- गोविन्दजी, हिंदी ऐतिहासिक उपन्यासों में चरित्र-चित्रण (1982) सन्मार्ग प्रकाशन, दिल्ली
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- झाडे, एम. एस., अमृतलाल नागर के जीवनीपरक उपन्यास (1996) अमन प्रकाशन इलाहाबाद
- गुप्त, सदानन्दप्रसाद, हिंदी साहित्य सृष्टि और दृष्टि (2022) लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
- राय, गोपाल, हिंदी उपन्यास का इतिहास (2016) राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली