‘कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए’: पूर्वी बंगाल की दास्तान’

डॉ. प्रियंका

सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग

माउंट कार्मल कॉलेज, स्वायत्त, बैंगलोर

ईमेल-prix3030@gmail.com

सारांश

‘कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए’ उपन्यास पूर्वी बंगाल की उस दास्तान को साहित्य में दर्ज करवाता है जिसकी आहट साहित्य में इससे पहले महसूस नहीं की गई थी। बंगाल विभाजन के समय बंगाल को दो हिस्सों में बाँटा गया पूर्वी और पश्चिमी बंगाल। यही पूर्वी बंगाल देश विभाजन के पश्चात पूर्वी पाकिस्तान एवं भारत-पाक युद्ध के पश्चात बांग्लादेश नाम से संबोधित किया गया। वर्तमान बांग्लादेश के अतीत की कहानी को जिसमें अन्धाधुन्ध क़त्लेआम और अपना सबकुछ छोड़कर दूसरे देश में शरणार्थी का जीवन जीने की विवशता, ऑपरेशन सर्चलाइट जैसे अमानवीय कृत्य शामिल हैं, इन्हें सहने के लिए वे निर्दोष लोग मजबूर थे जिन्हें पता ही नहीं था कि आखिर उनका कसूर क्या है!

बीज शब्द

फ़रमान, शरणार्थी, विभाजन, नजरबंद, मूल निवासी, गिरफ्तार, दंडकारण्य, न्याय, रियायत, जब्त, दोहन, ऑपरेशन सर्चलाइट।

शोध आलेख

‘भारत’ एक ऐसा शब्द जिसे सुनते ही सभ्यता, संस्कृति, संस्कार का बोध हो जाता है। जो भी यहाँ आया वह यहीं का होकर रह गया, उसे माँ की गोद का सुकून यहीं मिला। अनेक संस्कृतियों, सभ्यताओं, धर्मों, परंपराओं, रीति-रिवाजों, खान-पान आदि को अपने में समेटे ‘भारत देश’ है। हम अपने देश को ‘भारत माता’ कहकर पुकारते हैं। इसने अपनी ही गोद में अपने बच्चों को खून से लथपथ कटते, मिटते, तड़पते, मरते और विभाजित होते देखा है। मूल विषय पर आने से पूर्व उस इतिहास को जानना जरूरी होगा, जिसके दर्द की अभिव्यक्ति इसके केन्द्र में निहित है।

19 जुलाई 1905 को वायसराय कर्जन के द्वारा बंगाल विभाजन का एलान किया गया था। जिसका उद्देश्य एक मुस्लिम बहुल प्रान्त का सृजन करना था। भारत सरकार के गृहसचिव रिसले ने 6 दिसंबर 1904 को एक टिप्पणी में लिखा- ‘‘एकजुट बंगाल अपने-आप में एक शक्ति है। बंगाल और विभाजित हो तो सभी भागों की दिशाएँ अलग-अलग होंगी।’’1 उनका उद्देश्य यहीं खत्म नहीं हो जाता, वे आगे लिखते हैं- ‘‘हमारा एक उद्देश्य हमारे शासन के विरोधियों को तोड़ना और इस प्रकार उन्हें कमजोर करना है।’’2 रिसले महोदय का यह स्वप्न पूरा भी हुआ। 1947 में विभाजन के बाद बंगाल भी दो भागों में विभाजित हो गया। हिन्दू बहुल इलाका भारत को और मुस्लिम बहुल इलाका पाकिस्तान को मिला। यानी कि भारत का बंगाल ‘पश्चिम बंगाल’ और पाकिस्तान का बंगाल ‘पूर्वी बंगाल’ कहलाया। 1955 में पाकिस्तान सरकार ने इसका नाम पूर्वी बंगाल से पूर्वी पाकिस्तान कर दिया।

पूर्वी पाकिस्तान का पश्चिमी पाकिस्तान से कोई जमीनी संबंध नहीं था। केन्द्रीय सरकार के सभी उच्च अधिकारी पश्चिमी पाकिस्तान से ही थे। जहाँ लोग उर्दू और पंजाबी बोलते थे, वहीं, पूर्वी में बंगाली भाषा अधिक बोलने वाले थे, जिनपर उर्दू भाषा को थोपने की कई कोशिशें की गईं लेकिन 7-8 वर्षों के कड़े संघर्ष के बाद 1956 में बांग्ला को आधिकारिक दर्जा मिला। शुरू से ही पूर्व के साथ पश्चिम का रवैया कुछ ठीक नहीं रहा, लेकिन आबादी की दृष्टि से पूर्वी की जनसंख्या पूरे पाकिस्तान की 60 प्रतिशत थी, फिर भी बजट का केवल 30 प्रतिशत ही उस पर खर्च किया जाता था। निर्यात के द्वारा भी उसका जबरदस्त शोषण हो रहा था। पश्चिमी पाकिस्तान के द्वारा एक भेदभाव पूर्ण नीति पूर्वी पाकिस्तान के साथ शुरूआत से ही अपनाई गई, जिसके चलते वहाँ अवामी लीग का गठन हुआ। जिसके नेता शेख मुजीबुर्रहमान थे। जिनके नेतृत्व में 1966 में एक आंदोलन शुरू हुआ, जिसे 6 पाइन्ट मूवमेन्ट कहा जाता है। जिसमें 6 माँगें रखी गईं, जिनका मुख्य उद्देश्य पश्चिमी पाकिस्तान द्वारा पूर्वी पाकिस्तान के शोषण को समाप्त करना था-

  1. संघीय प्रणाली

  2. रक्षा एवं विदेशी मामले को छोड़कर, बाकी सभी मामलों में कानून बनाने की ताकत राज्य को होनी चाहिए।

  3. एक अलग मुद्रा और एक अलग राजकोषीय नीति।

  4. कराधान की शक्ति

  5. बाहरी देशों के साथ व्यापार करने की शक्ति तथा विदेशी मुद्रा आरक्षित यानी कि विदेश के साथ जो भी व्यापार करेंगे, उससे जो भी पैसा आएगा वह पूर्वी और पश्चिमी पाक के लिए अलग हो क्योंकि पहले पूर्वी पाक का पैसा पश्चिमी पाक में पलायन कर जाता था।

  6. अलग फौज और अलग नेवी

इन्हीं सब माँगों के पश्चात् पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खान ने शेख मुजीबुर्रहमान को जेल में डलवा दिया। अयूब खान ने 1969 तक सत्ता में रहने के पश्चात् तानाशाही याहया खान को सत्ता सौंपी। इन्होंने आते ही यह ऐलान किया कि अब चुनाव के आधार पर ही सत्ता के उम्मीदवार का चुनाव होगा, क्योंकि अभी तक सत्ताधारी चुनावी गतिविधियों से होकर नहीं गुजरता था। अर्थात् 1970 में राष्ट्रीय सभा और प्रांतीय विधानसभा के बीच में चुनाव होने वाले थे। उस समय पाकिस्तान में एक पार्टी थी ‘पाकिस्तान पीपल्ज़ पार्टी’ इसके उभरते हुए नेता जुल्फ़िक़ार अली भुट्टो थे। जो कि अयूब खान के कार्यकाल में विदेश मंत्री पद पर रह चुके थे। वे भी चुनाव के लिए खड़े हुए। इन चुनावों में सीट का बँटवारा जनसंख्या के आधार पर हुआ। जहाँ पूर्व की आबादी 6.8 करोड़ एवं पश्चिम की 6 करोड़ थी। पहली बार राष्ट्रीय सभा के पाकिस्तान में चुनाव होने जा रहे थे।

1970 में चुनाव से पहले ही पूर्वी पाक में दो प्राकृतिक आपदाएँ आईं। बाढ़ और चक्रवर्ती तूफान (भोला तूफान) जिसके कारण 3 से 5 लाख लोगों की मौत हुई। याहया खान ने पूर्व पाक को इन आपदाओं के समय किसी भी प्रकार की सहायता मुहैया नहीं कराई। भारत एवं अन्य देशों द्वारा मदद की पेशकश को भी ठुकरा दिया। परिणामतः पूर्वी लोगों का गुस्सा दिसम्बर-जनवरी में होने वाले चुनावों पर फूटा। फलतः अवामी लीग ने 162 में से 160 सीटें जीत लीं। दूसरी ओर जुल्फ़िक़ार अली भुट्टो की पार्टी ने 138 में से 81 सीटों पर कब्जा किया। नतीज़े के आधार पर अवामी लीग के नेता शेख मुजीबुर्रहमान को प्रधानमंत्री बन जाना चाहिए था, लेकिन पश्चिमी पाक कैसे मंजूर कर लेता! इन चुनावों को स्थगित कर दिया गया। याहया खान, जुल्फ़िक़ार अली भुट्टो, शेख मुजीबुर्रहमान के बीच कई वार्तालापें हुईं, जिनका नतीजा कोई सार्थक नहीं निकल सका। याहया खान के भीतर यह भय अवश्य पैदा हो गया कि भुट्टो और मुजीबुर्रहमान की नजदीकियाँ मुझसे सत्ता छीन लेगीं, इसी भय के चलते दोनों को जेल में डलवा दिया। मुजीबुर्रहमान को जेल में डालते ही पूर्व पाक में हड़ताले, धरने, विरोध प्रदर्शन शुरू हुए। अवामी लीग ने इसी समय मार्च 1970 से ही अर्ध सरकार के रूप में कार्य करना शुरू कर दिया। यानी कि वे अब अपने ऊपर पश्चिमी पाक का शासन नहीं चाहते थे। पाकिस्तानी आर्मी द्वारा इस विरोधपूर्ण गतिविधि को दबाने के लिए कई लोगों पर अन्धाघुन्ध गोलियाँ बरसाई गईं। जिसे देखते हुए अवामी लीग ने 26 मार्च 1971 को घोषणा की कि आज से हम पाकिस्तान से अलग हो रहे हैं। घोषणा के तुरंत पश्चात् पाकिस्तानी आर्मी ने ऑपरेशन सर्चलाइट जैसा अमानवीय कृत्य शुरू कर दिया। मार्च से दिसम्बर 1971 तक पाकिस्तानी आर्मी ने बड़ी संख्या में बंगाली बुद्धिजीवियों, राष्ट्रवादियों, छात्रों, अवामी लीग के समर्थकों और हिन्दुओं को मारा। जिसमें लगभग 3-5 लाख लोगों ने अपनी जान गँवाई। लाखों महिलाओं के साथ दुष्कर्म हुए। इसके पीछे कारण यह था कि पढ़े-लिखे लोगों को मार दो जिससे यह सोच अपने-आप खत्म हो जाए। इस ऑपरेशन सर्चलाइट के खिलाफ पूर्वी पाक के लोगों ने हथियार उठाए और मुक्ति वाहिनी सेना का गठन किया। उन्होंने पाकिस्तानी सेना के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध की तकनीक इस्तेमाल की।

भारत में लगभग 1 करोड़ शरणार्थी पूर्वी पाक से आ चुके थे। जिनके लिए कैम्प, खान-पान की व्यवस्था करना भारत के लिए चुनौतीपूर्ण कार्य था। भारत ने शुरू में तो पूर्व का खुलकर समर्थन नहीं किया, जिसके पीछे कारण यह था कि नागा-मिजो आदिवासी स्वयं को भारत से अलग करने की बात कर रहे थे। ऐसे समय में यदि पूर्वी पाक की स्वतंत्रता का समर्थन भारत करता तो उसे नागा-मिजो को भी स्वतंत्र करना पड़ता। लेकिन भारत पश्चिमी पाक पर दवाब बनाने की कोशिश लगातार करता रहा, जिसमें संयुक्त राष्ट्र ने उसका साथ दिया। जब इस दबाव का कोई असर पश्चिमी पाक पर नहीं हुआ तो भारत ने अप्रैल 1971 को स्पष्ट शब्दों में ऐलान कर दिया कि हम बांग्लादेश के लोगों के साथ हैं। नवम्बर माह से भारत-पाक की सेनाएँ सीमाओं पर संगठित होना शुरू हुईं। 3 दिसम्बर को पाकिस्तानी फोर्स ने भारत के पश्चिमी हिस्से के हवाई ठिकानों पर अचानक से आक्रमण कर दिया। इसके तुरन्त बाद ही भारत ने पूर्वी और पश्चिमी सीमा पर हमला कर दिया। परिणामतः 13 दिनों के भीतर भारत ने ढाका पर कब्जा कर लिया। 16 दिसम्बर को ढाका में पाकिस्तानी सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया। भारत के जनरल लेफ्टिनेंट जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने पाकिस्तान के जनरल लेफ्टिनेंट अमीर अब्दुल्ला खान निआजी के साथ नब्बे हजार सैनिकों ने भी आत्मसमर्पण किया। 12 जनवरी 1972 को शेख मुजीबुर्रहमान सत्ता में लौटे एवं उन्हें बंगबंधु की उपाधि से नवाज़ा गया। 1975 में उन्हें उनके पूरे परिवार समेत मार दिया गया। उनकी दो बेटियाँ बचीं जो कि उस समय विदेश में थी, उनमें से ही एक बेटी बांग्लादेश की वर्तमान प्रधानमंत्री शेख हसीना हैं।

भारत विभाजन एक ऐसी घटना थी जिसका असर कई वर्षों तक, लाखों-करोडों जिन्दगियों पर पड़ा। जिन कठिनाइयों, संघर्षों, भयंकर स्थितियों, दर्दनाक हादसों का सामना उन लोगों को करना पड़ा उन्हें व्यक्त करने के लिए शब्दों की सार्थकता भी कम जान पड़ती है। विभाजन का दर्द, जान बचाने के लिए घर-द्वार छोड़कर दर-दर ठोकरे खाना, शरणार्थी का जीवन जीने को विवश हो जाना, अपने अतीत को ऐसे दिलो-दिमाग से साफ कर देना जैसे तेजाब से कीडे़-मकोड़ों को, एक ही झटके में लावारिशों की तरह जीवन काटने को विवश हो जाना। वर्तमान बांग्लादेश के इसी अतीत की कहानी को जिसमें अन्धाधुन्ध क़त्लेआम और अपना सबकुछ छोड़कर दूसरे देश में शरणार्थी का जीवन जीने की विवशता की दास्तान लेखिका अल्का सरावगी ने अपने उपन्यास ‘कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए’ में की है।

एक पल में अपना घर-द्वार, गाँव-शहर, व़तन को छोड़ देना और दर-दर ठोकर खाने को मोहताज हो जाना, भागते-भागते जो अपने पीछे छूट गए, उनकी ओर पलट कर न देखना, दिल को कड़ी जंजीरों से जकड़ लेना। लेकिन क्या फिर भी अपना घर, द्वार, गली, मोहल्ले, गाँव, माटी को भूलाया जा सकता है! भले ही सात समुन्दर दूर बसेरा बन जाए लेकिन वह जो पीछे छूट गया है दिल के उतने ही करीब लगता है। ‘‘सच भूषण, गंगा किनारे का हमारा कुष्टिया का घर अभी भी सपने में आता है। घर तो वहीं खड़ा होगा। जाने कौन मुसलमान रहता होगा उसमें? कैसे हम लोग रातों-रात सब कुछ छोड़ कर चले आए थे।’’3 घर तो करीब लगता है लेकिन यह सोचकर रूह भी तड़प जाती होगी जब यह ध्यान आता होगा कि अब उस घर में उसी शख्श का डेरा होगा जिसकी यातनाओं का परिणाम यह वर्तमान दुर्दशा है। यह पीड़ा ऐसी है जिसे भुक्तभोगी खुद के खून को भी महसूस कराने में असमर्थ है। शायद कुलभूषण भी अपने बेटे प्रशान्त को यह एहसास दिलाने में असमर्थ ही है। ‘‘प्रशान्त को क्या मालूम कि देश और काम छिन जाना क्या होता है? बिना एक तिनके के सहारे जीना क्या होता है?’’4 पूर्वजों के बसाये हुए बसेरों को छोड़ना सब के बस की बात नहीं होती। वह बसेरा हमारे वजू़द के होने को ज़ाहिर करता है। कुछ तो विपत्ति के समय घर-द्वार छोड़कर वहाँ से पलायन कर लेते हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं जो आखिरी साँस तक वहीं जमे रहते हैं। ‘‘देखो गोबिन्दो, मेरे दादा हरमुखरायजी और मेरे पिता भजनलालजी राजस्थान के बिसाऊ से यहाँ एक लोटा-डोरी लेकर आए थे। उन्होंने बहुत मेहनत से तिल-तिल कर अपना कारोबार खड़ा किया।’’5 यह कथन उपन्यास के केन्द्रीय पात्र ‘कुलभूषण’ के पिता का है जो अपने बेटों को पत्नी समेत बांग्लादेश की सीमा से परे भारत भेज देते हैं लेकिन स्वयं कुष्टिया नहीं छोड़ते। भला अपने बाप-दादा की खून-पसीने की कमाई को एक झटके में छोड़ कर चले जाना सब के बस की बात नहीं होती।

यह कैसा नया देश बना था! जो न तो ज़मीनी और न ही भावनात्मक स्तर पर एक था। कोई अपने आधे अंग को भला और आधे को बुरा कैसे कह सकता है! एक माँ अपने लाल को दो विपरीत संज्ञाओं से कैसे पुकार सकती है! इसका जवाब देना उतना आसान नहीं है। पश्चिमी पाकिस्तान द्वारा अपने ही आधे अंग पूर्वी पाकिस्तान की अवहेलना करना कहाँ की बुद्धिमत्ता का कार्य था? ‘‘पश्चिम पाकिस्तानी बंगालियों को चावल खानेवाले, काले, नाटे, पिलपिले लोग समझते हैं। उन्हें ‘बिंगो’ कहकर मज़ाक बनाते हैं। यहाँ के इस्लाम को भी घटिया क़िस्म का इस्लाम समझते हैं। बांग्ला भाषा को घटिया भाषा समझते हैं।’’6 अरे मूर्खों के सरताज मानव पहले तू स्वयं धर्मों के चंगुल में फँसकर प्रसन्न हुआ फिर अपने ही धर्म को घटिया भी कहने लगा, ज़रा तो बुद्धिमत्ता दिखाई होती। कुछ व्यक्तियों के दुष्कर्मों के कारण पूरी कौम को बुरा नहीं कहा जा सकता। जेहल भाई अपने ही धर्म के असलम खान के बुरे मनसूबों से कार्तिक बाबू के बचाव के लिए श्यामा से कहते हैं- ‘‘कार्तिक बाबू को उससे सावधान रहने को कहें। पर मेरा नाम कहीं आना नहीं चाहिए। असलम खान सोचता है कि मैं मुसलमान होने के नाते उसका ही साथ दूँगा। उसका ऐसा ही सोचते रहना सबके लिए ठीक है।’’7 धर्म तबाही नहीं फैलाता, तबाही फैलाती है बुरी सोच, जो असलम खान जैसे लोग धर्म की आड़ लेकर उस सोच को अंजाम देने के कार्य करते हैं।

शरीर के दो टुकड़े किए, फिर उस लाश के आधे टुकड़े के भी कई टुकड़े किए जाएँ, इससे भयंकर दरिंदगी और किसे कहेंगे! विभाजन के पश्चात् पूर्वी पाक के पास अपनी भाषा यानी की मातृभाषा का सहारा था। जिसे बोलकर माँ से बिछुड़ने का एहसास कम हो जाता है, अगर उसी मातृभाषा को बदलकर अपरिचित भाषा से पहचान कराई जाए तो दर्द आकस्मिक बढ़ जाता है। ‘‘पाकिस्तान वाले बांग्ला भाषा को हटाकर उर्दू लाना चाहते थे। स्कूलों से सुबह की प्रार्थना बांग्ला की जगह अचानक उर्दू में होने लगी थी। कुछ समझ में नहीं आता था कि जो बोला जा रहा है, उसका मतलब क्या है?’’8 यह शारीरिक-मानसिक यातना से आगे आत्मिक यातना का कष्ट था।

बँटवारे, भेदभाव, अपना-पराया की नौबत क्यों आती है? क्योंकि बनानेवाले ने धरती बनाई जिसे सरहदों में बांट दिया गया, इंसान बनाया तो उसे धर्म, जाति, रंग-रूप, लिंग के आधार पर बांट दिया। वाह रे इंसान तेरी कलाकारी की क्या दाद दी जाए! कहीं न कहीं लेखिका इससे परे अपनी दृष्टि रखती हैं और कल्पना करती हैं- ‘‘अगर सारी दुनिया में सबका एक ही रंग होता, सब एक ही बोली बोलते और सबका एक ही धर्म और एक ही जाति होती, तो कितना बखेड़ा खत्म हो जाता।’’9 अगर ऐसा होता तो इंसान सच में इंसान कहलाने योग्य हो जाता। आखिर धर्म को क्यों मानते हैं? इसीलिए कि जीवन भर उस परमसत्ता का हाथ ऊपर बना रहे, जीवन समाप्त होने पर परमसत्ता का सान्निध्य प्राप्त हो सके। धर्म को मानने का शायद मूल कारण यही है! लेकिन यह क्यों भूल जाते हैं कि अन्य धर्म को मानने वाला व्यक्ति भी तो उस खु़दा, परमसत्ता, गुरु, ईशु के सामने इसी मुराद को पूरी करने के लिए उसे पुकार रहा है। रंग, रूप, लिंग के आधार पर इतनी दरिंदगी क्यों! जो इंसानियत की सारी सीमाओं को लांघ जाती है। ‘‘उनमें से एक ने कहा-अरे यहाँ कोई बंगालिन तो मिली नहीं। इन मुसलमानों को असली मुसलमान बनाना है। हमारे बीज से इनके बच्चे पैदा होंगे, तभी यहाँ पाकिस्तान बनेगा।’’10 लड़ाई का कारण चाहे कोई भी हो, लेकिन औरत का शरीर बीच में कैसे भी आ ही जाता है। लेखिका अनामिका ने अपने उपन्यास ‘आईनासाज़’ में लिखा है-‘‘युद्ध हों या दंगे-फ़साद-सबसे क्रूरतम कोप झेलता है औरत का शरीर, उसका मन, उसका संवेदन’’11

व्यक्ति अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए कड़े संघर्ष करता है। उसका यही उद्देश्य होता है कि अपने घर-परिवार की दैनिक जरूरतों के अलावा उनके भविष्य को भी सुरक्षित कर सकूँ। वह कड़ी मेहनत-संघर्षों के पश्चात् जब काबिल बन जाता है, फिर अचानक एक दिन उसे सब कुछ पीछे छोड़कर अपनों के साथ जान बचाते हुए भागना पड़ता है, उस मनः स्थिति को कौन समझ सकता है! ‘‘क्या बताऊँ? मुझे देखकर कौन कहेगा कि यह ढाकेश्वरी कॉटन मिल नम्बर दो का हेड सुपरवाइजर सुभाष दास है, जिनके नीचे पाँच सौ लोग काम करते थे! ये जो शरीर पर कपड़े हैं न, ऐसे गन्दे कपड़े सुभाष दास ने कभी नहीं पहने। पर बीती बातें तो बीत गयीं। यहाँ आर.आर. डिपार्टमेंट से मदद मिल जाए, तो रायपुर के पास माना कैम्प में चला जाऊँगा। वहाँ सरकार रिफ़्यूजियों को ज़मीन दे रही है। मकान बनाने के लिए लोन दे रही है और काम करने के लिए भी।’’12 व्यक्ति अपने पूरे जीवनभर संघर्ष स्वयं के लिए नहीं बल्कि परिवार की खुशी के लिए करता है। वह संघर्ष बच्चों के भविष्य के लिए, अगर बेटी है तो संघर्ष के बारे में कहा ही क्या जाए! हर पिता की तरह रमाकान्त के मन में भी ये भाव अवश्य ही रहे होंगे कि बेटी ललिता का जीवन सँवारकर एक दिन संपन्न घर में उसकी शादी कर सकूँ। उसे क्या पता था कि यह यथार्थ भी एक दिन सपना बन जाएगा। वह और उसका पूरा परिवार शरणार्थी के रूप में अपना जीवन जीने के लिए अभिशप्त होगा। उसकी बीबी कुलभूषण से कहती है- ‘‘बाबू, तुम तो देख ही रहे हो। मेरी बेटी ललिता चौदह साल की हो गई है। इधर-उधर खाने का जुगाड़ करती फिरती रहती है। फ़रीदपुर में रहते, तो क्या उसे ऐसा करने देते? अब तक तो ब्याह हो जाता। मैं उसे क्या दोष दूँ? वह आठ साल की थी तब हम कलकत्ता के सियापदह प्लेटफ़ार्म पर आकर कई महीने पड़े रहे। तभी वह पेट के लिए जुगाड़ करना सीख गई थी। एकदम सुबह-सुबह धापा के खेतों से ठेलागाड़ी में सब्जियाँ आतीं। ललिता उसमें से गोभी-बैंगन चुराकर ले आती। डाँटने पर कहती-पेट तो सब्जी से ही भरता है।’’13

उपन्यास के केन्द्रीय पात्र कुलभूषण की स्थिति भी कुछ ज्यादा अच्छी नहीं थी। वह ऐसा पात्र है जो न तो स्वयं को अपने भाईयों की तरह यहाँ का मूल निवासी ही कह सकता है और न ही शरणार्थी। वह सुभाष दास से अपनी स्थिति कुछ इस प्रकार व्यक्त करता है- ‘‘दादा, मेरी हालत आपसे ज़्यादा अच्छी नहीं है। मेरे बड़े भाई लोग कलकत्ता में पहले से ही आकर बस गए थे। अब मैं माँ को लेकर आया हूँ तो उनकी आँखों में काँटे की तरह चुभ रहा हूँ। रोज़ मुझे नालायक, आवारा, कामचोर जैसी उपाधियाँ मेरे मुँह पर ही दी जाती हैं।’’14 यहाँ तक कि उसे अपना गुजारा करने के लिए किसी अन्य नाम को अपने साथ ढोना पड़ता है-‘‘नॉर्थ कलकत्ता के तेलीपाड़ा में भाड़े के छोटे-से मकान के एक तल्ले पर कोई गोपाल चन्द्र दास रहता है, कुलभूषण जैन नहीं।’’15 प्रिंटिंग मशीन में काम करते हुए जब उसपर चोरी का इल्जाम लगाया गया, जिसके लिए उसे चार दिनों की जेल यात्रा भी करनी पड़ी। उस समय वह जज से कहता है- ‘‘साहब शक्ल पर मत जाइए। यह शक्ल आपकी भारत माता की दी हुई है, जिसने अपने ही लोगों को मारे और लूटे जाने के लिए एक दूसरी सरकार के हवाले कर दिया।’’16 अगर कुलभूषण शरणार्थी यह बात उस देश के कानून से कह रहा है, जो देश उसका अपना देश है, लेकिन वह वहाँ शरणार्थी बना न्याय की गुहार लगा रहा है, तो ज्यादा इसमें असमंजस की बात नहीं है। इसका सामना एक नहीं बल्कि लाखों कुलभूषण को करना पड़ा, वही कुलभूषण जब आँसू बहाता है तो कोई नहीं जानता इसके पीछे कारण क्या है-‘‘पर कुलभूषण जैन ही जानता था कि वह सिर्फ़ और सिर्फ़ ईस्ट बंगाल की अपनी गंगा-‘गोराई’ नदी के लिए रो रहा है।’’17 बात केवल पूर्व पाकिस्तान के कुलभूषण द्वारा अपनी गंगा-गोराई नदी के लिए आँसू बहाने की नहीं, वह पश्चिमी पाकिस्तान से भारत आने वाले कुलभूषण की भी है, भारत से पश्चिम या पूर्व पाकिस्तान गए कुलभूषण की भी है, विभाजन का दर्द किसी एक ही दिशा ने झेला ऐसा नहीं, बल्कि देश की चारों दिशाओं ने झेला था।

जब पूर्वी पाक के हालात बद से बदत्तर होते चले जा रहे थे, फिर भी कुछ कार्तिक बाबू जैसे भी लोग थे जिन्हें भरोसा था कि उनके साथ सरकार कोई अन्याय नहीं करेगी। कार्तिक बाबू अपने इसी विश्वास से कहते हैं-‘‘जागेश्वरी मिल मेरे दादा कालीप्रसन्न चक्रवर्ती की पचास साल पहले बनाई हुई मिल है। यहाँ के सारे मुसलमान कालीबाबू को देवता की तरह मानते हैं। तुम जानते ही हो, डिप्टी मजिस्ट्रेट हो या पुलिस के बड़े अधिकारी बराबर मुझसे मिलने आते रहते हैं। वे मेरा कोई नुकसान कभी नहीं होने देंगे।’’18 यह विश्वास ज्यादा लम्बे समय तक नहीं अडिग रह पाता वह जल्द ही टूटता है, जब गिरफ्तार करते समय कार्तिक बाबू को सुनने को यह शब्द मिले-‘‘आप पाकिस्तान के दुश्मन हैं।’’19 इन शब्दों ने विश्वास की तो जैसे इमारत सहित बुनियाद को ही ढहा दिया हो। हमदर्दी कुछ इस प्रकार से पाकिस्तान सरकार द्वारा कार्तिक बाबू को दी गई-‘‘श्रीमान कार्तिक बाबू को हम उन्हीं के घर में कै़द करके नज़रबन्द रखेंगे। उनके बदले उनके बेटे को गिरफ्तार कर जेल ले जाया जाएगा। पाकिस्तान सरकार देश के दुश्मनों के साथ इससे ज़्यादा कोई रियायत नहीं कर सकती।’’20 इतना बड़ा दिल जिसके आगे समुन्दर की गहराई भी कम पड़ जाए। एक पिता तो वैसे ही मौत को एक दिन गले लगा लेगा जिसे यह ज्ञात हो कि उसका बेटा जेल की सलाखों के पीछे है। कार्तिक बाबू के भाई तो पूर्वी पाक से भागकर भारत आ गए थे, उन्होंने यहाँ आकर अपना जीवन पुनः शुरू कर लिया था लेकिन वे पीछे जागेश्वरी मिल के मालिकों में अपना नाम छोड़ आए थे, उन्हें क्या पता था कि इसकी सजा उनके भाई को भुगतनी थी। ‘‘जागेश्वरी मिल के मालिकों में कार्तिक बाबू के कलकत्ता वाले भाईयों के भी नाम हैं। इसी आधार पर उन्हें भी इंडियन माना जा रहा है यानी देश का दुश्मन कहा जा रहा है।’’21 यहाँ तक कि कार्तिक बाबू का बैंक खाता एवं घर भी सरकार के फ़रमान से ज़ब्त कर लिया गया। यह उस व्यक्ति के साथ किया जा रहा था जिसके बाप-दादाओं ने उस समाज के लिए बहुत कुछ किया। ‘‘कार्तिक बाबू के दादा ने पचास साल पहले जागेश्वरी मिल बनायी। इतने सारे घर-मकान, मिल-पाड़ा, बगीचे, मन्दिर, स्कूल, क्लब, पुस्तकालय बनवाये। वे देश के दुश्मन कैसे हो सकते हैं?’’22 इंसानियत की विभाजन की आड़ में कैसे धज्जियाँ उड़ायी गईं, कार्तिक बाबू के संग बीतीं अनेक कहानियों द्वारा यह जग ज़ाहिर होता है।

‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ इतिहास का एक ऐसा शब्द जिसके साथ लाखों मासूमों की चीखें गूँजती हैं। जो पश्चिमी पाकिस्तान की ओर से पूर्वी पाकिस्तान पर की गई थी। ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ यानी कि पूर्वी पाक के एक-एक व्यक्ति को चुन-चुनकर मारना। इस दरिंदगी को प्रकृति कुछ ऐसे समेट रही थी- ‘‘घोर नरक था। चारों तरफ़ पूरी दुनिया जैसे श्मशान बन गई थी। आकाश में चील, कौवे और गिद्ध मँडरा रहे थे। हर तरफ़ जलने की गन्ध, खून की गन्ध, जलते मांस की गन्ध पूरे नारायणगंज में फैली थी।’’23 कुष्टिया में जब ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ खुलेआम क़त्लेआम का माहौल बना हुआ था, उस समय अंजान श्यामा का पिता गोबिन्दो कुष्टिया से बाहर था। वह हँसी-खुशी नौका से 6-7 लोगों के साथ कुष्टिया की भूमि पर नाव से पैर रखने ही वाला था- ‘‘तभी अचानक गोलियाँ चलने की आवाज़ से नदी का किनारा गूँज उठा। कोयल झप से उड़ गयी। एक पल में जो लोग हँस-बोल रहे थे, नदी की रेत पर तड़पते हुए या एकदम शान्त पड़े हुए नज़र आए।’’24

भारत के जब दो टुकड़े हुए उसका भयंकर परिणाम भी भारत को ही देखना पड़ा। हर दिन बढ़ती शरणार्थियों की संख्या को जीवनयापन की सुविधाएँ मुहैया कराना भारत के लिए कोई आसान काम नहीं था। ननीगोपाल साहा कुलभूषण से कहता है कि-‘‘पार्टीशन के बाद से ही इसी काम में लगा हूँ। उसी समय कलकत्ता में हरेक सौ आदमी में सत्ताईस ईस्ट बंगाली रिफ़्यूजी थे। कितने रिफ़्यूजी कैम्प खोले गए। पर बंगाल में और कितने आदमी समाते? तब सरकार ने मध्यप्रदेश, उड़ीसा, आन्ध्र प्रदेश में जगह खोजी जहाँ इन लोगों को बसाया जा सके।’’25 उस समय देश किन परिस्थितियों से गुजरा होगा, इसका एहसास सहज ही किया जा सकता है। पूर्वी पाकिस्तान उर्फ़ पूर्वी बंगाल या बंगाल क्या नाम कहकर संबोधित किया जाए क्योंकि तीनों ही नाम एक ही शख्स के हैं और चौथा नाम उसे ‘बांग्लादेश’ भी मिला। लेकिन मूल नाम बंगाल ही मान लें इस स्थिति में कि दर्द सहकर बेटा माँ की गोद में ही चैन महसूस करता है। पूर्वी पाक गए बेटे की वह माँ थी पश्चिम बंगाल जहाँ से वह अब दूर होना नहीं चाहता था लेकिन उस माँ की मजबूरी कुछ ऐसी हो गई थी कि उससे बिछुडे़ कई लाल एक साथ गोद में आन पड़े जिनके लिए उसका आँचल छोटा पड़ गया था। ‘‘पाँच साल पहले यहाँ के लगभग सारे, सौ से ऊपर रिफ़्यूजी कैम्प बंगाल की सरकार ने बन्द कर दिए। कहा कि दण्डकारण्य जाओ, वरना सरकारी सहायता बन्द कर दी जाएगी। कैम्प से भगाने के लिए टयूवबेल तक बन्द कर दिए गए। लोग भूखे-प्यासे मर रहे थे, पर जुलूस बनाकर नारे लगाते रहे कि हम बंगाल से बाहर नहीं जायेंगे।’’26 भारत में उन शरणार्थियों को बसाने के लिए प्रकृति का दोहन आरंभ होना तो स्वभाविक था। ‘‘एक बड़ी जगह में बड़ी-बड़ी मशीनों से शाल-महुआ-आम-चम्पा के बड़े-बड़े पेड़ धक्का मार-मारकर गिराए जा रहे हैं। जिन पक्षियों के बसेरे टूट रहे थे, वे चीखते-चिल्लाते इधर-उधर उड़ रहे थे।’’27

राजा से आकस्मिक रंक में जीवन परिवर्तित हो जाए, जब वह व्यक्ति स्वयं के लिए शरणार्थी शब्द सुनता है, उसके मन में दबे कितने दर्द एक साथ उभर आते होंगे। सुभाष दास इसी दर्द को कुछ इस तरह प्रकट करते हैं- ‘‘रिफ़्यूजी शब्द सुनते ही कलेजे में जैसे घूँसा लगता है। हम जैसे इन्सान ही नहीं रहे। उससे एक दर्जा नीचे रिफ़्यूजी बन गये। लोगों को क्या मालूम कि घरबार छूटने का दर्द क्या होता है।’’28 रिफ्यूजी शब्द को लेखिका कुछ इस तरह से परिभाषित करती हैं, जिसमें उनके हृदय का अगाह दर्द छिपा हुआ है-‘‘रिफ़्यूजी तो बेचारा तक़दीर का मारा होता है। उसके गाँव का नाम पूछने भर देर है, वह आपको अपनी जन्मपत्री सुना देगा।’’29 कोई भी व्यक्ति अपने अतीत से अपना वर्तमान और भविष्य बेहतर करने की कोशिश में लगा दिखाई देता है, लेकिन रिफ्यूजी के लिए ऐसा नहीं-‘‘उनके लिए समय वर्तमान से भविष्य की ओर नहीं जाता। वर्तमान से भूतकाल की तरफ जाता है।’’30

निष्कर्ष : यह विभाजन कुछ ही व्यक्तियों की सोच का नतीजा था, करोड़ों की आबादी का नहीं। बेहतर होगा कि उस आबादी को किसी धर्म का नाम न दिया जाए। आम जन अपने मोहल्ले, परिवेश, कार्यक्षेत्र आदि स्थलों पर प्रेम से रहना चाहता है। उसके जीवन में धर्म-जाति के बंधनों से ऊपर परिवार जनों के पेट भरने की चुनौती सामने होती है। विभाजन से पहले और बाद में बात धर्म की नहीं, अपनी शक्ति दिखाने की थी। किसी को डराकर, धमकाकर, मारकर उसके अपने घर से ही उसका वजूद मिटा देना, उसे हड़प कर अपना डेरा जमा लेना, रातोंरात रईस बन जाने का कितना आसान तरीका है-‘‘या कि यह युद्ध एक बहाना है कुछ लोगों के लिए मुफ़्त में अमीर बनने का।’’31 सत्य ही तो है युद्ध किसी एक की मंशा पूरी करने के लिए लाखों मासूमों की कुर्बानी की मांग करता है। युद्ध से पहले और बाद की स्थिति में कोई ज्यादा अंतर नहीं होता, जीता हुआ भी सब कुछ हारा हुआ सा नज़र आता है और हारा हुआ सब कुछ जीता हुआ।

संदर्भ

1 विपिन चन्द्र, प्रकाशन वर्ष 2019, आधुनिक भारत का इतिहास, ओरियंटल ब्लैवस्वॉन प्राइवेट लिमिटेड प्रकाशन, हैदराबाद, पृ.-246

2 वही, पृ.-246

3 अल्का सरावगी, प्रकाशन वर्ष 2020, कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.-15

4 वही, पृ.-39

5 वही, पृ.-62

6 वही, पृ.-81

7 वही, पृ.-115

8 वही, पृ.-81

9 वही, पृ.-54

10 वही, पृ.-184-185

11 अनामिका, प्रकाशन वर्ष 2020, आईनासाज़, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.-7

12 अल्का सरावगी, प्रकाशन वर्ष 2020, कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ.-96

13 वही, पृ.-145-146

14 वही, पृ.-97

15 वही, पृ.-12

16 वही, पृ.-190

17 वही, पृ.-74

18 वही, पृ.-105

19 वही, पृ.-119

20 वही, पृ.-120

21 वही, पृ.-121

22 वही, पृ.-120

23 वही, पृ.-99

24 वही, पृ.-165

25 वही, पृ.-95

26 वही, पृ.-135

27 वही, पृ.-153

28 वही, पृ.-97

29 वही, पृ.-147

30 वही, पृ.-160

31 वही, पृ.-126

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