छायावादी कविताओं में मातृभूमि का चित्रण
डॉ. जाहिदुल दीवान
पोस्ट डॉक्टरल फेलो
भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसांधान परिषद
नई दिल्ली
सारांश
आधुनिक हिंदी साहित्य का स्वर्णिम काल छायावादी काव्य में ही दृष्टिगोचर होता है। छायावादी काव्य साहित्य का जन्म उथल-पुथल भरी परिस्थितियों में हुआ था । इस धारा को जन्म के समय से ही पूर्ण विकास काल तक अपनी पहचान बनाने हेतु बड़े-बड़े झंझाबातों का सामना करना पड़ा। जबकि छायावादी काव्य में राष्ट्रीय जागरण, विश्व बंधुत्व, उदात्त भावनाओं की जैसी सुंदर संभावना है वैसे किसी भी काव्यधारा के साहित्य में दुर्लभ है। छायावादी काव्य गांधी युग की मिट्टी में अंकुरित पुष्पित पल्लवित हुआ । गांधी युग राष्ट्रीय चेतना का उत्कर्ष काल था। भारत के स्वर्णिम अतीत का गौरव गान, भारत के वर्तमान दयनीय दशा का चित्रांकन एवं भारत के उज्जवल भविष्य का रूपांकन; इन तीनों भावों को एक सूत्र में बांधने वाला कालक्रम है छायावाद। इस प्रकार स्पष्ट है कि छायावादी काव्य में राष्ट्रीय चेतना की समुचित अभिव्यक्ति हुई है।
बीज शब्दः
राष्ट्रीय चेतना, मातृभूमि, पुनर्जागरण, स्वतंत्रता, विश्व बंधुत्व
शोध आलेख
जननि जन्मभूमि स्वर्गोदिपि गरियसी
प्राचीन काल से लेकर आज तक के इतिहास को देखा जाए तो व्यक्ति अपनी मातृभूमि के प्रति पूर्ण निष्ठावान और आत्म बलिदान एवं समर्पण की भावना से प्रेरित होता दिखाई देता है। यही आत्मसमर्पण एवं बलिदान की भावना ही उसे अपने अस्तित्व के प्रति जागृत करती है। आधुनिक हिंदी साहित्य का स्वर्णिम काल छायावादी काव्य में ही दृष्टिगोचर होता है छायावादी काव्य साहित्य का जन्म उथल-पुथल भरी परिस्थितियों में हुआ था । इस धारा को जन्म के समय से ही पूर्ण विकास काल तक अपनी पहचान बनाने हेतु बड़े-बड़े झंझाबातों का सामना करना पड़ा। एक तरफ तो विदेशी साम्राज्य की क्रोधदृष्टि का शिकार बनना पड़ा तो दूसरी तरफ से हिंदी साहित्य के तथाकथित मठाधीश और महान आलोचक एवं विद्वानों के विद्वेष-भावना और पक्षपात का शिकार होना पड़ा । जबकि छायावादी काव्य में राष्ट्रीय जागरण, विश्व बंधुत्व, उदात्त भावनाओं की जैसी सुंदर संभावना है वैसे किसी भी काव्यधारा के साहित्य में दुर्लभ है।
छायावाद हिंदी साहित्य के कि वह काव्यधारा है जो लगभग सन 1918 से 1936 तक की प्रमुख युगवाणी रही। जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा इस काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। छायावाद नामकरण का श्रेय मुकुटधर पांडेय को जाता है। इन्होंने ‘श्री शारदा’ पत्रिका में एक निबंध प्रकाशित किया था जिस निबंध में उन्होंने छायावाद शब्द का प्रथम प्रयोग किया था।
ऐतिहासिक दृष्टि से जिसे गांधी युग कहा जाता है साहित्यिक दृष्टि से उसे ही छायावादी युग की संज्ञा दी जाती है। तात्पर्य यह है कि छायावादी काव्य गांधी युग की मिट्टी में अंकुरित पुष्पित पल्लवित हुआ । गांधी युग राष्ट्रीय चेतना का उत्कर्ष काल था। उस समय भारतीय जनमानस में राष्ट्रप्रेम का समुद्र हिलोरें मार रहा था। छायावादी काव्य से यह आशा करना स्वाभाविक ही था कि वह अपने युग का प्रतिनिधित्व करते हुए राष्ट्रीय चेतना की पूर्ण अभिव्यक्ति करें ।
छायावादी काव्य में राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति के मुख्य तीन भाव भूमियाँ हैं- भारत के स्वर्णिम अतीत का गौरव गान, भारत के वर्तमान दयनीय दशा का चित्रांकन एवं भारत के उज्जवल भविष्य का रूपांकन। इन तीनों भावों को एक सूत्र में बांधने वाला कालक्रम ही नहीं मनोवैज्ञानिक क्रम भी है छायावाद।
शताब्दियों से गुलामी के बंधन में जकड़े हुए भारतवासियों में व्याप्त हीनता की भावना को दूर कर उसमें आत्म गौरव और आत्मविश्वास का संचार करने के लिए भारत के स्वर्णिम अतीत का गौरव-गान आवश्यक था । इसे अपनी पूर्णता तक पहुंचाने के लिए मातृभूमि वंदना, राष्ट्रीय एवं जागरण संदेश के गीतों को भी जोड़ा गया है, महाकवि निराला ‘खंडहर के प्रति’ नामक कविता में भारत के महामानवों का स्मरण दिलाते हुए कहते हैं-
आर्त भारत! जनक हूँ मैं
जैमिनि पतंजलि व्यास ऋषियों का
मेरी ही गोद पर सहसा विनोद कर
तेरा ही बढ़ाया मान
राम-कृष्ण भीमार्जुन देश में नर देवों ने ।
छायावादी कवियों की राष्ट्रीय गीतों में राष्ट्रप्रेम और मातृभूमि वंदना की सीधी और सहज अभिव्यक्ति हुई है। प्रसाद के ‘हिमाद्रि तुंग श्रृंग से आंगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार’, निराला के ‘भारति देश जय भारत देश’ तथा ‘भारत माता ग्रामवासिनी’ आदि गीतों को प्रमाण स्वरूप प्रस्तुत किया जा सकता है। मातृभूमि की वंदना करते हुए प्रसाद जी गा उठते हैं-
अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहां पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता है एक सहारा ।
वसुदेव कुटुंबकम का आदर्श पंत जी की इन पंक्तियों में द्रष्टव्य है- क्यों न एक हो मानव मानव सभी परस्पर, मानवता का निर्माण करें जग में लोकोत्तर। इस प्रकार स्पष्ट है कि छायावादी काव्य में राष्ट्रीय चेतना की समुचित अभिव्यक्ति हुई है। आजादी की लड़ाई के दौर के साहित्य का प्रमुख भाव देशप्रेम और राष्ट्रीयता की भावना ही थी । देश प्रेम का सीधा संबंध मातृभूमि के प्रति अनुराग और दायित्व बोध से होता है । निराला की कविताएं मातृभूमि के प्रति अनुराग भाव से भरी पड़ी है । कभी अपनी वाणी को मातृभूमि की वेदना से गौरवान्वित करते हैं और हर कंठ से जन्मभूमि की पुकार सुनना चाहता है । जिससे चारों दिशाओं में जन्मभूमि की वंदना की लहरें उठती महसूस हों-
बंदू पद सुंदर तव
छंद नवल स्वर गौरव ।
जननी, जनक- जननी- जननी,
मातृभूमि भाषे।
जागो नव अंबर भर, (गीतिका)
विदेशी आक्रांता उसे पद दलित जन्मभूमि के चरणों में जीवन समर्पित करके उसके आंसुओं को पोछ देने की कामना कवि करता है-
नर जीवन के स्वार्थ सकल
बली हो तेरे चरणों पर माँ
मेरे श्रम-संचित सब फल
……………………………….
दृग जल से पा बल, बलि कर दूँ
जननि, जन्म-श्रम-संचित फल ।
बलिदान चाहती है जन्मभूमि खेलोगे जान ले हथेली पर (महाराज शिवाजी का पत्र) अपना पूरा जीवन, पूरी शक्ति देश के लिए लगा देने की इच्छा। कठिन परिस्थितियों को झेल सकने, प्राण निछावर कर देने की कामना ही जैसे कवि के जीवन का लक्ष्य है। वह ईश्वर से प्रार्थना करता है तो भी अपने लिए नहीं भारत की स्वतंत्रता के लिए सरस्वती की वंदना करते हुए कहता है कि देश को वरदान दो कि हर तरफ स्वतंत्रता का अमृत मंत्र गुंजायमान होता सुनाई दे । भारत का नवनिर्माण करो जिससे हर तरह के अज्ञान और अंधकार के बंधन नष्ट हो जाए, इसके जीवन में नई गति नया कंठ और नयी मुक्ति का अवसर भर दो –
वर दे वीणा वादिनी वर दे ।
प्रिय स्वतंत्र- रव अमृत -मंत्र नव
भारत में भर दे।
छायावादी काव्य में यह राष्ट्रीयता मुख्यतः सांस्कृतिक धरातल पर प्रतिष्ठित हुई है । कविवर पंत ने इस ओर संकेत करते हुए लिखा है “छायावादी युग में हिन्दी काव्य भारतीय पुनर्जागरण की चेतना तथा लोक जागरण के आह्वान के साथ सांस्कृतिक परम्पराओं को भी युगबोध के अनुरूप नवीन वाणी दे सका है और उसका सृजन अपना अलग महत्व रखता है।” सांस्कृतिक जागरण की अभिव्यक्ति प्रसाद की ‘प्रथम प्रभात ‘ ‘अब जागो जीवन के प्रभात ‘ ‘बीती विभावरी जाग री ‘आदि कविताओं में है । इसकी अभिव्यक्ति हम पंत, निराला और महादेवी वर्मा की ‘जाग तुझको दूर जाना’ जैसी कविताएं इस दृष्टि से विचारणीय है। लहर में संकलित प्रसाद की कविता ‘अब जागो जीवन के प्रभात’ पर विचार करें तो प्रसाद की राष्ट्रीय चेतना स्वच्छंदतावाद की मूल चेतना से अभिन्न जान पड़ेगी-
अब जागो जीवन के प्रभात
वसुधा पर ओस बने बिखरे ।
हिमकन आंसू जो क्षोभ भरे
उषा बटोरती अरुण गात।।
कवि जयशंकर प्रसाद उपर्युक्त पंक्ति के माध्यम से देशवासियों को जगाने की बात कर रहे हैं। वह देशवासियों को राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होने को प्रेरित कर रहे हैं। वह कह रहे हैं कि जिस प्रकार सूर्य रात के अंधकार को समाप्त करता है , उसी प्रकार तुम भी जागो और पराधीनता रूपी रात को समाप्त करो। अभी तक के विश्लेषण पर ध्यान दें तो लगेगा कि हम राष्ट्रीय चेतना को छायावाद में एक सांस्कृतिक चेतना के रूप में ही देख रहे थे।
प्रसाद का मातृभूमि प्रेम स्वदेश के सौंदर्य के अछूते चित्रों के रूपों में व्यक्त हुआ है। संपूर्ण भारत उनके लिए सौंदर्य का भंडार है। भारत के प्राकृतिक सौंदर्य पर मुग्ध होकर कवि ने भाव विभोर हो देश के सौंदर्य का चित्रण किया है-
अरुण यह मधुमय देश हमारा ।
जहां पहुंच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।
कवि के प्यारे देश में जब जब विदेशी शक्ति का आधिपत्य या आक्रमण हुआ , तब तब कवि की लेखनी दृढ़ होकर लोगों के जनमानस तक पूर्ण संग्राम में बलवीर बनकर शामिल होने के लिए पुकारती रही ।ऐसी ही पुकार सिकंदर के आक्रमण के उपरांत प्रणय गीत में देखने को मिलती है-
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती ।।
प्रणय गीत में देशवासियों को शत्रु का डटकर सामना करने की प्रेरणा दी गई है। भारत के अमर वीरों तथा साहसी युवाओं का आह्वान किया गया है कि वह देश में घुस आए विदेशी शत्रुओं का वीरतापूर्वक सामना करें। कवि जयशंकर ने ‘ बीती विभावरी जाग री’ के माध्यम से भी लोगों को जागृत करने के लिए प्रेरित किया है-
बीती विभावरी जाग री
अंबर पनघट में डुबो रही
तारा घट उषा नागरी।।
कवि इन पंक्तियों में भी जनमानस को स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने को प्रेरित कर रहा है। कवि का कहना है कि अब गुलामी रूपी रात को छटने का समय आ गया है । अब आजादी रूपी उषा का फैलना है। अतः सभी देशवासी एक साथ मिलकर विदेशियों का सामना कर उन्हें अपने देश से भगा दें और सूर्य की तरह अपने मातृभूमि पर फैल जाए। छायावादी कवियों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से अपने मातृभूमि के प्रति प्रेम को अभिव्यक्त किया है। माखनलाल चतुर्वेदी अपनी कविता पुष्प की अभिलाषा में लिखते हैं-
चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं,
चाह नहीं, प्रेमी माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव पर हे हरि,डाला जाऊं,
चाह नहीं, देवों के सिर पर चढू,भाग्य पर इठलाऊं
मुझे तोड़ लेना बनमाली, उस पथ में देना तुम फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक ।
आचार्य शुक्ल ने कविता क्या है नामक निबंध में लिखा है कि जो अपने देश के वन, नदी पर्वतों से प्रेम नहीं करते वह हजार बार देश प्रेम, देश प्रेम रटते रहे उनकी देश भक्ति अवास्तविक ही होती है । भारत के प्राकृतिक भूगोल के भीतर भारत माता की कल्पना वास्तव में नवजागरण के साहित्य की विशिष्ट उपलब्धि है। भारत का ऐसा ही चित्र खींचते हुए उसके बौद्धिक, प्राकृतिक , सांस्कृतिक उत्थान, समृद्धि और विजय की कामना निराला करते हैं । महाकवि निराला ने युगीन आवश्यकता को दृष्टिगत रखकर राष्ट्रीयता को संस्कृति के स्वरूप में ढ़ालकर चित्रित किया । भारती वंदना, यमुना के प्रति, मातृवन्दना, जागो फिर एक बार, दिल्ली, खण्डहर के प्रति, छत्रपति शिवाजी का पत्र, राम की शक्ति पूजा, तुलसीदास आदि में राष्ट्रीयता का भव्य स्वरूप दृष्टिगोचर होता है । भारत भूमि को माता मानकर स्तुति करते हुए लिखते हैं-
भारति, जय विजय करे
कनक-शस्य-कमल धरे
लंका पद-तल-शत दल
गर्जितोर्मि सागर जल
धोता शुचि चरण युगल
स्तव कर बहु अर्थ भरे ।1
भारत की गरिमामय संस्कृति की उपेक्षा एवं तिरस्कार करके पाश्चात्य सभ्यता की चकाचैंध के मोहजाल में आत्म विस्मृत हो अंधाधुंध दौड़ती भारतीय पीढ़ी को चेतावनी देते हुए उसे सर्व संहारक बताया है-
तुम ने मुख फेर लिया,
सुख की तृष्णा से अपनाया है सरल,
ले बसे नव छाया में
नव स्वप्न ले जगे
भूले वे मुक्तगान, सामगान, सुधापान ।
महाप्राण निराला की युग चेतना से अनुप्राणित कविता में भारत की राजनैतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियों को आत्मसात करने वाली मिली है । ‘तुलसीदास’ में इतिहास पर नयी दृष्टि डालते हुए कवि ने कुसंस्कारों के वशीभूत हो पतन के कगार पर खड़ी भारतीय संस्कृति की तुलना को तत्कालीन स्थिति से करके भारत के सांस्कृतिक वैभव के सूर्य के अस्त होने का चित्रण कर सावधान किया-
भारत के नभ का प्रभा पूर्य
शीतलच्छाय सांस्कृतिक सूर्य
अस्तमित आज के – तमस्तूर्य दिड़मंडल ।
हिंदी साहित्य में छायावादी कविता के उद्भव के सौ वर्षों (1918-2018) बाद भी छायावादी काव्य आज भी इतर काव्य विधाओं के मध्य अपनी कलात्मक और अलंकृत भावाभिव्यक्ति के लिए कालजयी काव्य साहित्य के रूप में विद्यमान है।
छायावादी काव्य में शक्ति के आवाहन का एक और रूप इस युग के जागरण गीतों में मिलता है। पुनर्जागरण चेतना की बड़ी सूक्ष्म और प्रीतिकर अभिव्यक्ति इन गीतों में हुई है। मनुष्य की और प्रकृति की भी सुप्त चेतना को जगाने का उपक्रम यहाँ कवि ने सामान्यतरू प्रशमित और कभी-कभी ओज की मुद्रा में किया है। छायावादी काव्य में एक बड़ी संख्या इन प्रभाती और जागरण गीतों की है, जिनमें एक और शक्ति और चैतन्य का आवाहन है और एक दूसरे तथा समकालीन संदर्भ में वे राष्ट्रीय स्वाधीनता के संघर्ष से जुड़े हैं। ‘प्रथम प्रभात, आँखों से अलख जगाने को, अब जागो जीवन के प्रभात!, बीती विभावरी जाग री!’ (प्रसाद), ‘जागो फिर एक बार, प्रिय, मुद्रित दृग खोलो!, जागा दिशा ज्ञान, जागो जीवन धनिके!’ (निराला), ‘जाग बेसुध जाग, जाग तुझको दूर जाना!‘ (महादेवी)’, ‘प्रथम रश्मि, ज्योति भारत’ (सुमित्रानंदन पंत), जैसी अनेक जागरण की कविताएँ स्मरण हो आती हैं। इनमें से कुछ गीतों में व्यक्तिगत प्रणय और राष्ट्र-जागरण के भाव एक-दूसरे में घुल-मिल गए हैं। मानवीय प्रणय और देश-प्रेम का संश्लिष्ट रूप वस्तुतरू छायावादी काव्य से पहले ही श्रीधर पाठक, नरेश त्रिपाठी आदि स्वच्छंदतावादी कवियों की रचनाओं में मिलने लगता है, रामनरेश त्रिपाठी के खंड काव्य ‘पथिक‘ और ‘स्वप्न‘ का विधान मुख्यतरू इसी वस्तु पर विकसित हुआ है। मुख्य बात यह है कि छायावादी काव्य के इस बहुत बड़े अंश में पुनर्जागरण की चेतना सीधे प्रकट होती है। गीतों के अतिरिक्त लंबी कविताओं के खंडों में जागरण का यह स्वर गूँजता है। ‘आँसू‘ के परवर्ती हिस्से में एक पूरे का पूरा खंड प्रातरूकालीन बिंबों के बीच जागरण-बेला का चित्रण करता है-
वह मेरे प्रेम विहंसते
जागो, मेरे मधुवन में
फिर मधुर भावनाओं का
कलरव हो इस जीवन में!
मेरी आहों में जागो
सुस्मित में सोने वाले!
छायावादी कवियों ने परतंत्र युग में आँखे खोली थीं। उस समय भारत में स्वाधीनतावादी आंदोलन अपने चरमोत्कर्ष पर थे। वस्तुतः छायावाद का जन्म ही स्वाधीनता की चेतना से हुआ। ब्रिटिश सरकार ने राष्ट्रीय आंदोलनों को कुचलने के लिए रोलेट ऐक्ट, जलियाँवाला बाग हत्याकांड, साइमन कमीशन, भगत सिंह को फाँसी जैसे वीभत्स कार्यों को अंजाम दिया। परिणामस्वरूप भारतीय जनता में अंग्रेज सरकार के प्रति आक्रोश और बढ़ता गया। समाज का प्रत्येक वर्ग आजादी के लिए बेचैन हो उठा। यह बेचैनी छायावादी काव्य में भी सर्वत्र देखी जा सकती है। छायावादी कवियों पर अपने वर्तमान से पलायन का आरोप भी लगाया जाता है जो कदापि उचित नहीं है। प्रसाद, पंत, निराला आदि ने भारतीय जनमानस में मातृभूमि-प्रेम, राष्ट्रीयता, आत्म-गौरव, बलिदान एवं स्वाधीनता की भावना को जगाने का साहसी कार्य किया। इन कवियों मातृभूमि के प्रति प्रेम के स्वर को अद्योपरांत सर्वत्र देखा जा जकता है। छायावादि कवियों ने अपने वर्तमान से आँखे मूँदकर अतीत के स्वर्णिम आलोक में ऊर्ध्वगमन नहीं किया। उनके ऐतिहासिक तथा पौराणिक प्रबंध काव्यों का भाव-बोध भी तदयुगीन समाज की यथार्थपरक भूमि पर आधारित है। ‘राम की शक्ति पूजा’ एवं ‘तुलसीदास’ नामक लम्बी कविताओं में भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की अद्भुत झलक है। छायावादी कवियों में निराला का व्यक्तित्व सर्वाधिक क्रांतिकारी है, उन्होंने बादल के माध्यम से विप्लव कर आह्वान कर दीन-हीन शोषित जनता में क्रांति की भावना का संचार किया –
जीर्ण बाहु, है शीर्ण शरीर,
तुझको बुलाता कृषक अधीर,
ऐ विप्लव के वीर !
चूस लिया है उसका सार,
हाड़-मात्र ही है आधार है,
ऐ जीवन के पारावार!
मुख्यतः निराला के क्रांतिकारी काव्य की विषय-वस्तु सर्वहारा वर्ग के दलित, गरीब, मजदूर, किसान रहे हैं। छायावादी युग में रचित ‘वह तोड़ती पत्थर’, ‘दीन’, ‘गरीबों की पुकार’, ‘भिक्षुक’, ‘दीन’, ‘विधवा’ आदि कविताएँ इसका ज्वलंत प्रमाण हैं। ‘जन्मभूमि’ ‘स्वाधीनता पर’, ‘बादल-राग’, ‘महाराज शिवाजी का पत्र’, ‘राम की शक्तिपूजा’, ‘तुलसीदास’, ‘दिल्ली’ ‘जागो फिर एक बार’, ‘आवाहन’ आदि कविताएं भारतीय स्वाधीनतावादी आंदोलन से अनुप्रेरित हैं। निराला की भाँति अन्य छायावादी कवियों ने भी अपने काव्य के माध्यम से स्वाधीनतावादी आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इनमें प्रसाद, पंत, रामकुमार वर्मा आदि ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। इन्होंने प्राचीन भारतीय इतिहास के स्वर्णिम वृतांतों के माध्यम से संस्कृति की अभूतपूर्व झाँकी प्रस्तुत की तथा जनता में स्वाधीनता की भावना को जाग्रत किया। इस तरह छायावाद ने प्रत्यक्ष रूप से भी समकालीन राष्ट्रीय आंदोलन को प्रतिबिम्बित और प्रभावित करने में महत्वपूर्ण कार्य किया। यह जरूर है कि सभी कवियों ने समान रूप से इस भाव की कविताएँ नहीं लिखीं, लेकिन यह सच है कि सभी कवियों ने राष्ट्रीय आंदोलन के किसी किसी पहलू को यथाशक्ति चित्रित करने की कोशिश की। इन सबमें निराला सबसे आगे रहे।
निराला की कविता में प्रकृति, प्रेम और सौंदर्य के साथ तदयुगीन समाज, संस्कृति तथा स्वाधीनतावादी आंदोलन की झलक को भी साफ देखा जा सकता है। ‘राम की शक्ति पूजा’ ‘महाराज शिवाजी का पत्र’, ‘दिल्ली’ जैसी कविताओं में स्वाधीनतावादी आंदोलन की झलक साफ नजर आती है। निराला ने भारतीय जनमानस में आत्म गौरव, स्वाभिमान और स्वाधीनता की भावना का संचार किया। स्वतंत्रता की ऊष्मा से अभिमण्डित निराला देशी-विदेशी दासता के विरुद्ध आज तक लड़ता रहा है। अतः छायावादी कल्पनाओं की रंगीनी के साथ निराला में स्वतंत्रता की भावना का नवोन्मेष ओत-प्रेत है। अदम्य साहस, अपराजित स्वाभिमान उनकी कविता कामनी को रणचंडी बनाने के लिए पर्याप्त है। ‘दिल्ली’ कविता में इतिहास पर दृष्टि डालते हुए वह भारतीय जनमानस में आत्म गौरव, देश प्रेम एवं स्वाभिमान की भावना का संचार करते हैं – भारत के स्वाभिमान को जाग्रत कर भारतीयों को अपने इतिहास से परिचित कराना और उसके अनुकूल आचरण का संदेश देना निराला की अन्यतम विशेषता रही है । यथा-
क्या यह वही देश है-
भीमार्जुन आदि का कीर्तिक्षेत्र,
चिरकुमार भीष्म की पताका ब्रह्मचर्य दीप्त
उड़ती है आज भी जहाँ वायुमंडल में
उज्जवल, अधीर और चिरनवीन?
‘जागो फिर एक बार’ कविता में निराला ने स्वाधीनता आंदोलन का शंख फूँका है। इसमें भारतवासियों को संबोधित करते हुए वह कहते हैं कि स्वाधीनता की प्राप्ति के लिए अन्याय के विरुद्ध शेर की तरह अंग्रेजों का मुकाबला करो । बलि के लिए शेरनी का बच्चा कोई नहीं छीन पाता क्योंकि वह अत्याचार नहीं सहती, बल्कि वह अपने शत्रु पर आक्रमण करती है जबकि बकरे की माँ कायर होने के कारण अपने शिशु की रक्षा नहीं कर पाती। परिणामस्वररूप उसके बच्चे की बलि दे दी जाती है। अतः भारतवासियों को सिंह की तरह अंग्रेजों का सामना करना चाहिए क्योंकि कायर और डरपोक लोग चुपचाप रहकर अत्याचार सहते हैं। अतः निराला ने परतंत्रता से मुक्ति के लिए देशवासियों में अंग्रेजों से शेर की तरह मुकाबला करने आह्वान किया है-
सिंही की गोद से
छीनता रे शिशु कौन?
मौन भी क्या रहती वह
रहते प्राण? रे अजान!
एक मेषमाता ही
रहती है निर्निमे।
इस प्रकार निराला ने भारतवासियों में स्वाधीनता की भावना जगाते हुए उन्हें अज्ञान अकर्मण्यता और कायरता की नींद से जगाने का प्रयास किया है। निराला ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध भारतवासियों में स्वाधीनता की भावना का संचार करते हुए लिखते हैं-
शेरों की मांद में
आया है आज स्यार-
जागो फिर एक बार।
इसका प्रमाण उनकी सन् 1920 ई॰ में रचित ‘जन्मभूमि’ कविता है। यह उनकी प्रथम देशभक्ति पूर्ण कविता थी। इसके बाद वह लगातार देश-प्रेम एवं स्वाधीनता प्रेम से सम्बंधित कविताएं लिखते रहे। वे आर्थिक राजनीतिक तथा सामाजिक स्वतंत्रता के साथ मानसिक स्वतंत्रता को भी महत्वपूर्ण मानते हैं। ‘बाहरी स्वाधीनता और स्त्रियाँ’ नामक निबंध में उन्होंने स्त्रियों की स्वाधीनता को समाज के लिए महत्वपूर्ण माना है।
अतः निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि निराला ने स्वाधीनता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। उन्होंने सभ्य समाज के लिए राष्ट्रीय स्वाधीनता के समांतर व्यक्तिगत तथा सामाजिक स्वाधीनता पर भी विशेष बल दिया। इस प्रकार देखने से लगता है कि छायावाद काल के काव्य में स्वाधीनता प्रेम के साथ मातृभूमि के प्रति अगाध श्रद्धा देखने को मिलती है। वह स्वाधीनता के सच्चे साधक थे। वे तत्कालीन राजनीतिक, सांस्कृतिक, एवं राष्ट्रीय विचारधाराओं से परिचित एवं प्रभावित थे। उनकी कविता में प्रारम्भ से राष्ट्रीय स्वाधीनता का स्वर दिखायी देता है। वह केवल उल्लास- विलाष के ही कवि नहीं हैं, उनके काव्य में समाज के यथार्थ चित्र भी विद्यमान है।
छायावादी काव्य में मातृभूमि प्रेम की अभिव्यंजना करने वाले गीत हैं, मातृभूमि की वंदनाएँ व उद्बोधन हैं, शोषण मुक्त समाज की संकल्पना है तथा आध्यात्मिक चेतना, रहस्य व निच्छल भक्ति से पूरित भावुक भक्तिगीत भी हैं । इनके अतिरिक्त सांस्कृतिक आलोक को बिखेरने वाली उनकी लम्बी कविताएँ हैं । राष्ट्रीयता, देश की मिट्टी के प्रति प्रेम, उसकी विरासत के प्रति प्रणत भावना, उसके जन और संस्कृति के प्रति प्रेम और निष्ठा, अतीत की गरिमामय संस्कृति की गाथा, वीर पुरूषों के प्रति श्रद्धा, वर्तमान स्थिति का विश्लेषण और भविष्य के प्रति उज्ज्वल आकांक्षा आदि में प्रकट होती है ।
संदर्भ ग्रंथ सूची-
सिंह, बच्चन, क्रांतिकारी कवि निराला, विश्वविद्यालय प्रकाशन, 5वाँ संस्करण, 2003, पृष्ठ- 165।
नवल, नंदकिशोर (संपा॰), निराला रचनावली, भाग-1, राजकमल प्रकाशन, 5वाँ संस्करण, 2014, पृष्ठ- कवर पेज।
सिंह, बच्चन, क्रांतिकारी कवि निराला, विश्वविद्यालय प्रकाशन, 5वाँ संस्करण, 2003, पृष्ठ- 42।
वही,पृष्ठ-136।
उपाध्याय, विश्वम्भरनाथ, विनोद पुस्तक मंदिर, आगरा, द्वितीय संस्करण,1965, पृष्ठ-67।
नवल, नंदकिशोर (संपा॰), निराला रचनावली, भाग-1, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 5वाँ संस्करण, 2014, पृष्ठ- 281।
नवल, नंदकिशोर(संपा॰), निराला रचनावली, भाग-1, राजकमल प्रकाशन, 5वाँ संस्करण, 2014, पृष्ठ- 153
वही, पृष्ठ-153।