भारतेंदु की आलोचना दृष्टि

विवेक विक्रम सिंह

शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय

संपर्क: 9717238820

शोध सार

भारतेंदु मुख्य रूप से नाटककार और निबंधकार है। इसके अलावा मुख्य रूप से कविवचन सुधा, हरिश्चंद्र मैगजीन और बालाबोधिनी पत्रिका का संपादन करते हैं। ‘नाटक’ नामक निबंध और इन पत्रिकाओं में उनके द्वारा व्यक्त किये गए विचार ही प्रमुख रूप से उनकी आलोचना दृष्टि के परिचायक है। भारतेंदु मध्यममार्गी आलोचक है। भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा से जरुरत के अनुसार चीजों को ग्रहण करते हैं और पश्चिमी ज्ञान की नवीन दृष्टि से भी प्रभावित दिखाई पड़ते हैं। नाटक में वध, आलिंगन के प्रयोग तथा पारसी कंपनियों के सस्ते फूहड़पन का भी भरसक विरोध करते हैं। जरुरत पड़ने पर अंग्रेजों की प्रशंसा करते हैं और जहाँ उनकी नीतियों से असहमत है वहां उनकी आलोचना भी करते हैं। राजभक्ति और राष्ट्रभक्ति दोनों भारतेंदु में दिखाई पड़ता है। ‘निज-भाषा’ के विकास की वकालत भारतेंदु जोर-शोर से करते हैं।

बीज शब्द: नाटक, निबंध, पत्रिका, आलोचक, प्रयोग, भाषा

शोध आलेख

आधुनिक हिंदी साहित्य में आलोचना का आविर्भाव भारतेंदु युग से होता है, जिसमें भारतेंदु का ‘नाटक’ नामक निबंध प्रमुख है। वैसे रीतिकाल में भी लक्षण ग्रंथों की परंपरा मिलती है, जहां कवि या आचार्य लक्षण ग्रंथों की रचना करते हैं परंतु उनका आधार संस्कृत काव्यशास्त्र है। आधुनिक युग में भारतेंदु के उदय के साथ हिंदी साहित्य पर पाश्चात्य प्रभाव पड़ने लगा था जिसका प्रभाव भारतेंदु के साहित्य पर भी दिखाई पड़ता है। वैसे मूलतः भारतेन्दु नाटककार थे शायद इसी कारण से ‘नाटक’ निबंध में उनका दृष्टिकोण इतना व्यापक है। इसके अलावा पत्र-पत्रिकाओं में भी उनकी आलोचक दृष्टि दिखाई पड़ती है। ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ और ‘कविवचनसुधा” में विविध विषयों से संबंधित लेख प्रकाशित होते थे। कुंवरपाल सिंह के अनुसार- “सन 1873 ई. में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ‘हरिश्चंद्र मैगजीन’ नामक मासिक पत्र निकाला। इस पत्र का कागज तथा छपाई बहुत सुन्दर थी। इस पत्र ने ‘कविवचनसुधा’ की भांति एक बार फिर हिंदी पत्रकारिता जगत में धूम मचा दी। यह विविध विषयों को लेकर चलने वाली पत्रिका थी लेकिन इसमें मुख्यतः राजनीतिक और सामाजिक लेख अधिक संख्या में प्रकाशित होते थे।”1

भारतेंदु ने जीवन और साहित्य के प्रति सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाया। उन्होंने परंपरागत संस्कृत शिक्षा शास्त्र में युग के अनुरूप परिवर्तन करने में कोई संकोच नहीं किया। नाटकों की रचना के संदर्भ में वे युग प्रवृत्ति के अनुकूल परिवर्तन के पक्ष में थे। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा- “वर्तमान समय में इस काल के कवि तथा सामाजिक लोगों की रूचि उस काल की अपेक्षा अनेकांत में विलक्षण है। इससे संप्रति प्राचीन मत अवलंब करके नाटक आदि दृश्य काव्य लिखना युक्तिसंगत नहीं बोध होता।”2

भारतेंदु की प्रतिभा का पूर्ण विकास नाटकों में देखा जा सकता है। ये नाटक हिंदी गद्य साहित्य को भारतेंदु की बहुत बड़ी देन है। नाटकों की रचना में उन्होंने समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाया। संस्कृत नाट्यशास्त्र, बांग्ला की नाटक पद्धति तथा अंग्रेजी नाटक विधान सभी के संयोग से उन्होंने अपना नाट्यादर्श उपस्थित किया। उन्होंने ‘गर्भांक’ को ‘दृश्य’ के अर्थ में स्वीकार किया और बंग्ला नाटकों की ओर संकेत करते हुए कहा कि- “प्राचीन की अपेक्षा नवीन की परम मुख्यता बारंबार दृश्यों को बदलने में हैं और इसी हेतु एक-एक अंक में अनेक-अनेक गर्भांकों की कल्पना की जाती है।”3

नंदी पाठ, प्रस्तावना, विष्कंभक, प्रवेशक, अंकावतार, अंकमुख आदि की योजना पर उन्होंने अधिक बल नहीं दिया है। वध, आलिंगन, स्नान, यात्रा, मृत्यु आदि भारतीय नाट्य शास्त्र के अनुसार वर्जित दृश्यों की योजना भी की है। भारतेंदु ने प्राचीन संस्कृत नाटकों की चरित्र चित्रण पद्धति का अनुगमन किया; फलस्वरूप पात्रों का स्वरूप आदर्शात्मक ही रहा। पात्रों में अंतर्द्वंद्व का अभाव लक्षित होता है। अपने नाटकों में उन्होंने निम्नवर्गीय पात्रों का चित्रण नहीं किया। जहां उनका चित्रण किया भी, वहां उनका उत्थान-पतन नहीं दिखाया।

वे पारसी कंपनियों के प्रभाव को भरसक प्रयत्न करके भी पूर्णतया नहीं हटा सकें। फलस्वरूप पद्यात्मक संवादों की परंपरा उनके नाटकों में मिल जाती है। उनके नाटकों में आवश्यकतानुसार प्रयुक्त कविताओं पर रीतियुग का प्रभाव भी दिखता है। प्राचीन संस्कारों का पूर्ण परित्याग वे नहीं कर सके। गंभीरतापूर्वक विचार किया जाए तो स्पष्ट देखा जा सकता है कि ‘भारतेन्दु’ के नाटकों की आत्मा संस्कृत नाट्यशास्त्र के अधिक निकट है। संस्कृत नाट्य-विधान को उन्होंने युग की आकांक्षा के अनुकूल थोड़ा शिथिल अवश्य कर दिया है। विश्वनाथ त्रिपाठी के अनुसार- “भारतेंदु ने नाटक संबंधी विचार नाटककार की हैसियत से व्यक्त किए हैं, समीक्षक या आलोचक की हैसियत से नहीं। वे लेख में आद्यंत रचना पर बल देते हैं और नाटककार को किन बातों पर ध्यान देना उचित है, यह बताते रहते हैं। इस लेख में उनके सर्जक का चिंतक रूप प्रकट हुआ है। अन्य काव्यांगों में जो वर्णन हम पढ़ते या सुनते हैं उसे दृश्य काव्य हमें दिखा देते हैं इसी से इसमें अधिक आनंद होता है।”4

भारतेंदु की आलोचना दृष्टि पत्र-पत्रिकाओं में भी देखने को मिलती है। पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से भारतेंदु युग में साहित्य के सभी रूपों को विकसित होने का एक नवीन माध्यम मिला। इन्हीं पत्रों के माध्यम से हिंदी आलोचना का एक नया रूप भारतेंदु युग में देखने को मिला। भारतेंदु द्वारा संपादित ‘कविवचनसुधा’ और ‘हरिश्चंद्र चन्द्रिका’ में समीक्षा के स्तंभ भी रहते थे। भारतेंदु युग के अन्य पत्र हिंदी प्रदीप, भारत मित्र, ब्राह्मण, आनंद कादंबिनी आदि में भी पुस्तकों की समीक्षाएं प्रकाशित की जाती थी। इन समीक्षाओं द्वारा नए ढंग की व्यावहारिक आलोचना का सूत्रपात हुआ, जो भारतीय आलोचना के विकास में सर्वथा नवीन थी। तात्पर्य है कि एक ओर तो भारतेंदु युग में परंपरागत संस्कृत समीक्षा सिद्धांतों को विकसित करने की स्थिति निर्मित हुई और दूसरी ओर नवीन ढंग की व्यावहारिक समीक्षा का सूत्रपात हुआ। भारतेंदु ने स्त्रियों के उपयोग की दृष्टि से ‘बालबोधिनी’ पत्रिका निकाली जो चार वर्षों तक चली।

भारतेंदु के विचार उनके नाटकों में परोक्ष रूप से और निबंधों में प्रत्यक्ष रूप से व्यक्त हुए हैं। सन 1884 ई. में उन्होंने बलिया में ददरी मेले के अवसर पर ‘भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है’ विषय पर ओजस्वी एवं सारगर्भित भाषण दिया था। इस भाषण में भारतेंदु के दृष्टिकोण का निचोड़ आ गया है। उनके इस भाषण तथा अन्य निबंधों एवं लेखों के आधार पर कहा जा सकता है कि वे एक सच्चे समाज सुधारक और मध्यममार्गीय दृष्टिकोण रखने वाले व्यक्ति थे। डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार- “भारतेंदु ने ‘नाटक’ नाम के निबंध में आलोचना के कुछ मूल सिद्धांत स्थिर किए हैं जो हमारे लिए बहुत ही मूल्यवान हैं। उनके अनुसार मनुष्य की वृत्तियां शाश्वत न होकर परिवर्तनशील है। परिवर्तित वृत्तियों का ध्यान रखकर नाटक लिखना चाहिए। आधुनिक काल में देश-प्रेम और समाज संस्कार के नाटक लिखे जाने चाहिए। साहित्य में अलौकिक विषयों की जगह लौकिक विषयों को जगह देनी चाहिए। पुराने नियमों को युग की आवश्यकताओं के अनुसार परखकर अपनाना चाहिए। नाटक लिखने के लिए समाज का व्यापक अनुभव होना बहुत जरूरी है।”5

भारतेंदु भाषा पर भी लोगों को हिदायत देते हैं और स्वभाषा अपनाने की सलाह देते हैं-

निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।

बिनु निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को सूल।।

भारतेंदु कई भाषाओं के जानकार थे। उनके द्वारा लिखित नाटकों की विषय-वस्तु विविधरूपी है। भारतेंदु का जीवन कम वर्षों का रहा लेकिन उतने में ही भारतेंदु ने अपने युग को एक रास्ता दिखाया। रामविलास शर्मा अपनी पुस्तक ‘परम्परा का मूल्यांकन’ पुस्तक में भारतेंदु पर विचार करते हुए लिखते हैं- “वे अंग्रेजी के अलावा बांग्ला, उर्दू आदि अनेक भारतीय भाषाएँ अच्छी तरह जानते थे। उनमें ज्ञान की अदम्य पिपासा थी। उन्होंने नाटक से लेकर पुरातत्व तक अनेक विषयों पर कलम चलाई थी। उनके जो नाटक, पद्य और निबन्ध संकलित किये गए हैं, उनका परिणाम काफी है। किन्तु इनसे बहुत बड़े परिणाम में उनका वह गद्य है, जो ‘कविवचनसुधा’ आदि पत्रिकाओं में है किन्तु असंकलित है। उन्होंने हजारों पत्र लिखे थे जिनमें कुछ बच रहे हैं, शेष नष्ट हो गये हैं। यह सब उन्होंने 34 वर्ष की छोटी उम्र में ही कर डाला। उनका सा परिश्रम करने वाले हिन्दी में बिरले ही हुए हैं।“6

भारतेंदु ने किसी कवि विशेष को विषय बनाकर आलोचना नहीं लिखी हैं। किसी विषय का वर्णन करते हुए किसी कवि का जिक्र आ गया तो उनकी समीक्षा करने में संकोच भी नहीं करते थे। मध्यकालीन संतों को वे उदार मानते थे। रामविलास शर्मा के अनुसार- “भारतेंदु ने विस्तार से कवियों आदि की आलोचना नहीं लिखी, लेकिन जहाँ तहाँ उनकी टिप्पणियों से भी उनके मूल्यांकन की विशेषता दिखाई दे जाती है। कालिदास के काव्य में चरित्र चित्रण की स्वाभाविकता की उन्होंने प्रशंसा की है। कालिदास और शेक्सपियर दोनों को मानव समाज का गंभीर समलोचक दिखाया है। ‘स्वर्ग में विचार सभा का अधिवेशन’ नाम के निबंध में भारतेंदु ने ‘दादू, नानक, कबीर प्रभृति और ज्ञानी’ लोगों को देवताओं के लिबरल दल में रखा है, जिसका अर्थ है, वह संतों की विचारधारा को उदार मानते थे। वैष्णव कावियों की परम्परा के वह स्वयं अनुवर्ती थे, यह स्पष्ट ही है।“7

भारतेंदु ने विभिन्न विषयों जैसे धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और पुरातत्व आदि पर निबंध लिखे। ‘नाटक’ नाम से आलोचना लिखकर भारतेंदु ने आधुनिक हिन्दी आलोचना को जन्म दिया। हिन्दी में व्यंग्यपूर्ण आलोचना का सूत्रपात करने वाले भी भारतेंदु ही है। रामविलास शर्मा के अनुसार- “भारतेंदु ने आलोचना में ऐतिहासिक दृष्टिकोण और सोद्देश्य साहित्य रचना के सिद्धांत ही प्रतिपादित नहीं किये, उन्होंने निर्भीक और व्यंग्यपूर्ण आलोचना की परिपाटी भी चलाई।“8

भारतेन्दु ने वैसे तो अंग्रेजी राज्य की प्रशंसा की है लेकिन जरुरत पड़ने पर उनकी आलोचना करने से भी पीछे नहीं हटते। राष्ट्रभक्ति और स्वदेशी को बढ़ावा देने का प्रबल समर्थन भारतेंदु ने किया है। भारतीय धन-संपत्ति विदेश चली जा रही है इसकी वे खुली आलोचना करते हैं। ‘पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी’ से यह बिल्कुल स्पष्ट होता है। इसीलिये वे स्वदेशी को बढ़ावा देने की वकालत करते है। रामविलास शर्मा के अनुसार- “भारतेंदु ने मान-अपमान और संपत्ति-विपत्ति की परवाह न करके निर्भीकता से अंग्रेजी राज्य की आलोचना की। उत्तर भारत में वह स्वदेशी आंदोलन के जन्मदाता हैं, भारत में विदेशी पूंजी के शोषण के सबसे पहले आलोचक हैं। उनके साहित्य का मूल श्रोत देशभक्ति है। उन्होंने अपने साहित्य से साम्राज्य प्रेमी और रूढ़िवादी विचारधारा का प्रभाव संकुचित किया और जनता के आत्मसम्मान और उसकी राजनीतिक चेतना को जागृत किया।“9

भारतेंदु की आलोचक दृष्टि उनके संपूर्ण साहित्य में दिखाई पड़ती है जिसमें ‘नाटक’ नामक निबंध मुख्य है। नाटक में दृश्य और श्रव्य के संयोजन से जो प्रभाव पड़ता है, उसको विशिष्ट मानते हैं। ‘नाटक’ निबंध में भारतेंदु कहते हैं- यदि श्रव्य काव्य द्वारा ऐसी चितवन का वर्णन किसी से सुनिए या ग्रंथ में पढ़िए तो काव्य जनित आनंद होगा, यदि कोई प्रत्यक्ष अनुभव करा दे तो उससे चतुर्गणित आनंद होता है।

समयानुसार लोगों की रुचि भी बदलती है। अतएव साहित्यकार को भी युगानुसार परिवर्तन करना चाहिए। भारतेंदु कहते हैं- जिस समय में जैसे सहृदय जन्म ग्रहण करे और देशीय रीति नीति का प्रवाह जिस रुप से चलता रहे, उस समय में सहृदयगण के अंतःकरण की वृत्ति और सामाजिक रीति पद्धति इन दोनों विषयों की समीचीन आलोचना करके नाटकादि दृश्य काव्य प्रणयन करना योग्य है।

रामस्वरूप चतुर्वेदी आलोचना को काव्य का जीवन मानते हैं और कहते हैं- “यह आलोचना काव्य का शास्त्र नहीं काव्य का जीवन है। जो बार-बार रचा जाता है। नाटक के विकास के प्रसंग में यह देखा गया था कि अपने युग की केंद्रीय रचना वृत्ति से जुड़कर आलोचना का उदय भारतेंदु के निबंध ‘नाटक'(1883) के माध्यम से होता है।“10

‘नाटक’ निबंध में भारतेंदु प्राचीन नाट्य विधान को युग की जरूरतों के अनुसार बदलने का समर्थन करते हैं। विश्वनाथ त्रिपाठी भारतेंदु को प्रथम आलोचक मानने के पक्ष में है। विश्वनाथ त्रिपाठी के अनुसार- “भारतेंदु ने नाटक पर विचार करते समय उसकी प्रकृति, समसामयिक जन रुचि एवं प्राचीन नाट्य शास्त्र की उपयोगिता पर विचार किया है। उन्होंने बदली हुई जनरुचि के अनुसार नाट्य रचना में परिवर्तन करने पर विशेष बल दिया है। भारतेंदु के नाटक विषयक लेख में आलोचना के गुण मिल जाते हैं। ऐसी दशा में उन्हें आधुनिक हिंदी साहित्य का प्रथम आलोचक कहना अनुचित न होगा।“11

इस प्रकार कह सकते हैं कि भारतेंदु आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रथम आलोचक है। वे समन्वयवादी आलोचक है। जहाँ उन्हें भारतीयों का हित दिखलाई पड़ता है वहाँ अंग्रेजी शासन की प्रशंसा करते हैं, इसके बरक्स जहाँ उन्हें लगता है कि अंग्रेज भारतीय लोगों का शोषण कर रहे हैं वहाँ उनकी भर्त्सना भी करते हैं। उनकी आलोचक दृष्टि पर संस्कृत, बांग्ला एवं पाश्चत्य का मिला-जुला असर है। उनकी आलोचना दृष्टि ‘नाटक’ निबंध में स्पष्ट तौर पर परिलक्षित होती है। इसके अलावा पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके लेख उनकी आलोचना दृष्टि के परिचायक है। भारतेंदु मुख्य रूप से नाटककार है। नाटकों में व्यक्त किये गए विचार भी भारतेंदु की आलोचना दृष्टि को समझने में सहायक है।

संदर्भ सूची

  1. भारतेंदु और भारतीय नवजागरण, सं. शंभुनाथ, भारतेन्दु की पत्रकारिता, कुँवरपाल सिंह, प्रकाशन संस्थान, 4715/21, दयानन्द मार्ग, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002, प्रथम संस्करण : 2009, पृ. 83
  2. भारतेन्दु समग्र, पृ. 599
  3. वहीं, पृ. 558
  4. हिंदी आलोचना, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002, पृ. 18
  5. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और हिन्दी नवजागरण की समस्याएँ, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002, पहला छात्र संस्करण : 2012, पृ. 149-150
  6. परम्परा का मूल्यांकन, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002, छात्र संस्करण-आवृत्ति : 2016, पृ. 106-107
  7. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और हिन्दी नवजागरण की समस्याएँ, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002, पहला छात्र संस्करण : 2012, पृ. 150
  8. वहीं, पृ. 150
  9. वहीं, पृ. 151
  10. हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, पहली मंजिल, दरबारी बिल्डिंग, महात्मा गांधी मार्ग, इलाहाबाद-211001, पृ. 169
  11. हिंदी आलोचना, विश्वनाथ त्रिपाठी, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-110002, पृ. 19