वर्ण व्यवस्था के बंधन तोड़ती दलित आत्मकथाएं

निर्मल सुवासिया, शोधार्थी (हिंदी), मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर

प्राध्यापक

शिक्षा विभाग, राजस्थान

E-mail – suwasiyanirmal@gmail.com

शोध सार

दलित आत्मकथाएँ दलित समाज में व्याप्त धार्मिक बंधनों एवं जकड़नों पर प्रहार करती है। धार्मिक रुढियों को जिस प्रकार दलित आत्मकथाएँ प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करती है वह जातिगत साजिशों को अनावृत करने का कार्य भी करता है। जातिगत भेदभाव की यह मानसिकता कैसे शोषण को धर्म की आड़ में सहनीय बना देती है, इसका बेबाक चित्रण दलित आत्मकथाओं में किया गया है।

बीज शब्द: दलित, शोषण, समाज, व्यवस्था, प्रभाव, शिक्षा

शोध आलेख

अखिल वैश्विक समाज में धर्म और संस्कृति का जो ताना बाना बुना गया है उस से एक बात स्पष्ट है कि धर्म की जड़ताओं ने मनुष्य को धर्मांधता में जकड़े रखा है। भारतीय समाज में धार्मिक आस्था जीवन के हर पहलू में ऐसे गुंथी हुई है कि उसे पृथक कर पाना संभव ही नहीं है क्योंकि धर्म की मान्यताओं तथा कर्मकांडों का समाज पर व्यापक प्रभाव है। इनके प्रति आस्था, अंधविश्वास की हद तक है। समाज के शिक्षित-अशिक्षित, गरीब-अमीर प्रायः हर वर्ग में इसका प्रभाव देखा जा सकता है। यह भारतीय समाज में सदियों से चला आ रहा है। लोक-परलोक, आत्मा-परमात्मा, भाग्य, कर्मफल, पुनर्जन्म, मोक्ष आदि इनके ऐसे तत्त्व हैं जिनके बारे में तरह-तरह की कथाएँ प्रचलित हैं। यह बातें लोगों के दिलों-दिमाग में इतनी गहरी उतर चुकी हैं कि चाहे किसी भी परिस्थिति में हो, उक्त मान्यताओं के बंधन से बाहर ही नहीं निकल पाते। समय की गति के साथ-साथ शिक्षा और जागरूकता में हो रही वृद्धि के कारण लोगों में तार्किकता का विकास होने के कारण ऐसे लोगों की मानसिकता और जीवन शैली में बदलाव आते जा रहे हैं किंतु दूसरी सच्चाई यह भी है कि चाहे वैश्वीकरण, उदारीकरण, सूचना क्रांति आदि की लाख दुहाई दें, गांव की हालत में आज भी उचित सुधार की दरकार है। देश की ज्यादातर आबादी गाँव में रहती है इसलिए गाँव की परिस्थितियों में समुचित सुधार आए बिना देश की हालत में सुधार की बातें करना बेमानी है।

भारतीय समाज में वर्ण और जाति व्यवस्था गहरे तक विद्यमान है। इन सब की जड़ों में पौराणिक ग्रंथों द्वारा समर्थन करने वाला धर्म है। सवर्ण व्यवस्था के तहत मंदिर में वही जा सकते हैं जिन्हें उनके धर्म ने मान्यता दी है। ऐसे में दलितों का मंदिर जाना वर्जित था। अगर कोई दलित भगवान की पूजा करता है तो उसे भी दंड दिया जाता था। यहां ध्यान देने की बात है कि दलितों के अपने देवी देवता हुआ करते थे। उल्लेखनीय है कि दलितों के देवी देवता उन्हीं के समाज के वे पात्र होते थे जो दलितों में दुस्साहसिक कार्य करते थे, बाद में मिथिकीय शक्ति से देवता में परिणत हो जाते थे। इन सब के बावजूद धार्मिक आस्था एवं धार्मिक संरचना के कारण दलित मुख्यधारा के देवी देवता के प्रति ही अधिक आस्थावान था, वे अपने ही घर में पूजा कर लिया करते थे। दलितों की पूजा के विषय में डॉक्टर आंबेडकर लिखते हैं कि, “आगरा के एक चमार ने किसी ब्राह्मण को उसके घर में विष्णु की मूर्ति की पूजा करते हुए देख अपने घर में भी ऐसा ही किया। ब्राह्मण को इसका पता चला तो वह गुस्से में लाल पीला हो उठा। उसने बहुत से गाँव वालों की सहायता से अभागे हरिजन को पटक उसकी जमकर पिटाई की और कहा तुझे भगवान विष्णु की पूजा करने की हिम्मत कैसे हुई? इसके बाद उन्होंने उसके मुंह में कीचड़ भर कर छोड़ दिया। चमार ने हताश होकर हिंदू धर्म त्याग दिया और इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया।”[1] आज भी हम देख सकते हैं कि दलितों को धर्म के प्रति कितनी यातनाएँ भुगतनी पड़ती है। वह जहाँ भी जाए उसे उसकी जाति के कारण अपमानित किया जाता है।

अशिक्षा और गरीबी के मकड़जाल में घिरे लोगों में यह देखा जा सकता है कि वे धर्म के नाम पर अंधविश्वास जनित कर्मकांडों में जकड़े हुए हैं तथा स्वाभाविक समस्याओं का समाधान भी वे उन्हीं जड़ मान्यताओं और कर्मकांडों में ढूंढते हैं जो किसी भी तरह से व्यवहारिक एवं तार्किक नहीं होते हैं। धर्म का समाज में परंपरागत रूप से किस तरह प्रभाव है, दलित वर्ग उससे किस तरह प्रभावित होता आ रहा है। उसकी दयनीय स्थिति, पिछड़ेपन और शोषण के लिए यह तत्त्व किस तरह जिम्मेदार है, इनके कारण पैदा होने वाली जीवन का परिस्थितियों से आत्मकथाकारों के जीवनानुभव अपने वर्ग के लाखों-करोड़ों लोगों की तरह कितने दग्ध है इन सब का आत्मकथाओं में अत्यंत यथार्थ पूर्वक एवं मार्मिक चित्रण हुआ है। डॉक्टर आंबेडकर ने बौद्ध धर्म ग्रहण करते हुए अपनी 22 प्रतिज्ञा में सबसे पहली प्रतिज्ञा धर्म की नकारने की करते हैं। क्योंकि दलित साहित्य अम्बेडकरवादी चेतना से निर्मित है इसीलिए दलित साहित्यकार सीधे तौर पर धर्म को नकार देते हैं। धर्म को नकारने की वजह से धर्म से निर्मित आत्मा, परमात्मा, भाग्य, मोक्ष, कर्मकांड, वर्ण-व्यवस्था इत्यादि का स्वतः ही नकार हो जाता है। दलित आत्मकथाएँ दलित समाज में व्याप्त धार्मिक बंधनों एवं जकड़नों पर प्रहार करती है। धार्मिक रुढियों को जिस प्रकार दलित आत्मकथाएँ प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत करती है वह जातिगत साजिशों को अनावृत करने का कार्य भी करता है। जातिगत भेदभाव की यह मानसिकता कैसे शोषण को धर्म की आड़ में सहनीय बना देती है, इसका बेबाक चित्रण दलित आत्मकथाओं में किया गया है।

पौराणिक मान्यता के अनुसार भारतीय समाज अपने प्रारंभिक दौर में चार वर्णों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में विभाजित रहा है। इसके साथ ही प्रत्येक वर्ग का कार्य विभाजन भी हुआ है और उन्हें भिन्न भिन्न जिम्मेदारियाँ आवंटित की गई जो मूल रूप से भेदभाव पूर्ण है। इन वर्णों की उत्पत्ति के संबंध में स्पष्ट रूप से मनु स्मृति में लिखा गया है “संसार की वृद्धि के लिए मुख, बाहु, जया और चरण से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद को उत्पन्न किया।”[2] इसी क्रम में इनकी श्रेष्ठता और निकृष्टता का भी निर्धारण किया गया। वर्ण-व्यवस्था असमानता पर आधारित है तथा इसमें कुछ विशेष वर्ग को सामाजिक व्यवस्था में उच्चतम पायदान पर रखा गया है। तार्किक दृष्टि से देखा जाए तो यह मान्यता ही अस्वीकृत होनी चाहिए। मनुस्मृति एवं बाद की टीकापरक व्याख्याओं ने वर्ण-व्यवस्था को स्थापित किया। वर्ण-व्यवस्था को कालान्तर में अपने हितों के लिए स्थापित किया गया। यही वर्ण व्यवस्था आगे चलकर जाति व्यवस्था में तब्दील हो जाती है जहाँ से सामाजिक अन्याय एवं शोषण अपने चरम पर पहुंच जाता है। मानवशाखी डी.एन. मजूमदार का मानना है कि “परिस्थिति किसी व्यवसाय का परिणाम नहीं है बल्कि उस धार्मिक व्यवसाय के साथ जुड़ी रहती है। झाडू बुहारना, मृतक का दाहकर्म, मृत पशुओं के शरीर से चमड़ा उतारना आदि अपावन व्यवसाय धार्मिक दृष्टि से अपवित्र होते हैं, अतः ये नीची परिस्थिति के परिचायक है।”[3] मनुष्य द्वारा की जाने वाली नौकरी को भी सवर्ण मानसिकता के अनुसार पवित्र अपवित्र घोषित कर सामाजिक हैसियत का निर्धारण कर दिया गया। जाति व्यवस्था में यह सवर्णवादी मानसिकता ही दिखाई देती है।

कौशल्या बैसंत्री जी को दोहरा अभिशाप में ऐसा ही अनुभव हुआ है। जब नाम लिखवाने के बाद स्कूल जाती है तो रास्ते में मंदिर देखकर उसके अंदर मंदिर में जाने की इच्छा बलवती होती है। एक बार वह हिम्मत करके जाती है। कौशल्या जी लिखती हैं, “गणपति के मंदिर में सिर्फ ब्राह्मण या ऊंची जाति वाले ही जाते थे। अस्पृश्यों को मंदिर में प्रवेश नहीं था… वहां के पुजारी को हमारे ऊपर शक नहीं आया नहीं तो मार पड़ती।”[4] इस तरह दलित समाज का मंदिर में जाना या प्रसाद लेना मना था। हिंदू धर्म ने दलितों के मन-मस्तिष्क पर कब्जा कर रखा था क्योंकि दलित वर्ग भी सवर्ण हिंदुओं का अनुकरण कर घर में अलग देवताओं की पूजा किया करते थे। भारतीय धार्मिक व सामाजिक व्यवस्था संस्कृति के नाम पर उत्पीड़न, अत्याचार और अंधविश्वास को बढ़ावा ही देती रही।

सूरजपाल चौहान ने अपनी आत्मकथा तिरस्कृत इस तरह के अविवेकपूर्ण मानसिकता का जबरदस्त प्रतिरोध किया है। आत्मकथा के आरंभ में ही सूरजपाल चौहान ने भंगी भक्तों द्वारा अपनी मां की हत्या का अत्यंत मार्मिक चित्रण करते हुए लिखा है, “मां ठीक होने की बजाय और अधिक बीमार होती गई। पिता ने भक्तों के कहने पर सभी देवी देवताओं की मनौतियाँ मानी। कुल आपवन, बुलाखी मसान व नेता खईस को खुश करने के लिए मुर्गे, बकरे, घों घोंटिया और दारू की बेटे चढ़ाई। आगरा जाकर बुलाखी मसान और गुड़गाँव जाकर ललिता भवानी की जोत जलायी। पिता ढोंगी-भक्तों के चक्कर में पूरी तरह कर चुके थे।”[5] दलित समाज परंपरागत रूढ़ियों, अंधविश्वासों और कुरीतियों के बीच फंसा हुआ था। इन आत्मकथाओं में इस जकड़न की फांस और इनकी पहुँच देखी जा सकती है इसलिए दलित आत्मकथाकार इसके खिलाफ खड़ा होता है। सूरजपाल चौहान ने भी अपनी आत्मकथा में इन सभी का पुरजोर विरोध किया है।

मोहनदास नैमिशराय ने अपने-अपने पिंजरे’ आत्मकथा में बताया है कि उस समय दलितों को मंदिर के अंदर जाने की इजाजत नहीं होती थी। अगर कोई जाता तो दंड भी दिया जाता था। इसी तरह के एक प्रश्न के बारे में जिक्र करते हुए लिखते हैं- “उनकी बस्ती के किनारे भी एक मंदिर था और उस में दलितों को जाने का अधिकार नहीं था। मंदिर भी उनकी जड़ खरीद संपत्ति थी। जिसके जरे -जरे पर उनका अधिकार था। हमारी बस्ती के लोग मंदिर को आते-जाते ही दूर से देखकर संतोष कर लिया करते थे।”[6] इस तरह दलितों को मंदिर के अंदर जाकर दर्शन करने का अधिकार नहीं था किंतु दलितों के बच्चों में धर्म व वर्ण व्यवस्था की समझ विकसित ना होने के कारण दूसरे बच्चों के साथ मंदिर जाने का मन करता था, मंदिर से प्राप्त प्रसाद को चखने का मन करता था। जिस आस्था के नाम पर उन्हें शोषित किया जाता था उसी आस्था में उनका हिस्सा तक नहीं था, ऐसे में कई बार उन्हें जातिगत तानों से अपमानित भी किया जाता है। नैमिशराय जी लिखते हैं कि, “तू चमार का है न सब कुछ भरपेट कर दिया। कितनी बार कहा तुम ढोरों से, प्रसाद दूर से लिया करो।”[7] ऐसी हालत में दलित बालकों पर कैसा प्रभाव पड़ा होगा वही जानते हैं। दलित बच्चों को बचपन से ही धार्मिक और जातिगत शोषण और अपमान का अनुभव हो जाता है।

दलित समाज ने हजारों वर्ष की सामाजिक यात्रा में जो भोगा है, उनके जो अनुभव है उनसे सामाजिक व्यवस्था के प्रति नकार की भावना उत्पन्न हो गई है। भारतीय समाज व्यवस्था में दलित ही है जो सदियों से विषमतावादी जाति व्यवस्था के शिकार रहे हैं। यही कारण है कि उन्हें पशुवत जीवन जीने पर विवश किया गया। सुशीला टाकभौर ने अपने जीवन में प्रताड़ना व शोषण के कई स्तरों को सहा है। वह बचपन में शिक्षा के दौरान तथा अध्यापन के दौरान कई तरह की प्रताड़नाओं से गुजरी हैं। कार्यस्थल पर लोग इन्हें दलित समझकर महत्व नहीं देते थे। हमेशा शिकायत करने के फिराक में रहते थे। सोचते थे कि कुछ ऐसी बात कहूँ कि यह अपमानित हो जाएँ। सच्चाई तो यही है कि समाज किसी वी को प्रगति की तरफ जाते हुए नहीं देख सकता और यदि वी दलित हो तो उनका शिकंजा और भी कस जाता है। एक अध्यापक द्वारा ड्राय लैट्रिन सिस्टम के समर्थन करने पर वह लिखती हैं- “तब इस काम को कौन करेगा? यदि वर्ण व्यवस्था द्वारा निश्चित कार्यों को पलट दिया जाए- शूद्र शिक्षा देने का काम करें और ब्राह्मण सफाई का काम करें तो कैसा रहेगा? वर्ण व्यवस्था बनाए रखिए, काम बदल कर करके देखिए। इस पीड़ा को, जाति व्यवस्था के इस अभिशाप को स्वयं भी भोग कर देखिए।”[8] वर्ण व्यवस्था का ऐसा विरोध दलित चेतना से ही उत्पन्न होता है और वास्तविकता में यही दलित चेतना का प्रतिरोधी स्वर भी है। सुशीला जी को सामाजिक व्यवस्था की बहुत अच्छी समझ है वह अपने आसपास के समाज को बहुत पैनी निगाह से देखती हैं और एक अच्छी व्यवस्था को लाने की कोशिश करती हैं। असल में इस व्यवस्था को समझना और उसका विरोध करना ही आंबेडकरवादी चेतना है। इस चेतना की स्पष्ट एवं निर्मम अभिव्यक्ति दलित आत्मकथा में दृष्टिगोचर होती है। सुशीला जी दलितों की दयनीय अवस्था के बारे में चिंतन करते हुए लिखती हैं- “कब मिलेगी वर्ण-भेद जाति भेद से मुक्ति। बरसों पहले दलित आंदोलन शुरू हुआ है, मगर इसका लाभ हमें नहीं मिल सका| सच यह है कि इसका लाभ हमारे लोग नहीं ले सके। वेद धर्म, ईमान और कर्तव्य को महत्व देते हैं। उन्हें जो काम सौंपा गया वे पीढ़ी दर पीढ़ी उसे ही धर्म और कर्तव्य समझ कर रहे हैं। यह आस्था, विश्वास और चिंतन हिंदू धर्म प्रचारकों ने ही उनके मन में भरा है। इन्हीं बातों को मानते हुए चल रहे हैं इसलिए पिछड़े हैं।”[9] इस प्रकार सुशीला जी अपने लोगों के प्रति एक आलोचनात्मक दृष्टि भी रखती हैं। यह दलित समाज के लिए अत्यंत आवश्यक है कि वह अपने अंतर्विरोधों को बार-बार आत्मालोचित करे। दलित चिंतन इस बात को पहचाने की यह आंतरिक अंतर्विरोध किस तरह दलित समुदाय को पिछड़ा बनाए हुए है। 

ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी आत्मकथा में वर्ण-व्यवस्था द्वारा किए गए भेदभाव का बेहद सटीक वर्णन किया है। बाल्यावस्था से मृत्यु तक एक दलित को वर्ण व्यवस्था का शिकार होना ही पड़ता है। चाहे पाठशाला हो, गाँव हो, कार्यालय हो, दलित समाज को जातिगत अपमान का घूंट पीना ही पड़ता है। वाल्मीकि जी अपनी आत्मकथा में अपने स्कूली जीवन का अत्यंत मार्मिक चित्रण करते हैं। वह बताते हैं कि विद्यालय में उनसे झाइ लगवाया जाता था और साफ सफाई भी करवाई जाती थी। स्कूल के अध्यापक सवर्ण समाज से थे। जातिगत मानसिकता उनके अंदर कूट-कूट कर भरी थी। वह बलपूर्वक बालक वाल्मीकि से स्कूल के प्रांगण की तथा कमरों की साफ-सफाई करवाते थे। गौर करने की बात यह है कि एक अध्यापक जिसके लिए सभी बच्चे समान होने चाहिए, जिसका एकमात्र कर्तव्य छात्रों को समान शिक्षा का अवसर प्रदान करना होना चाहिए किंतु जातिवादी मानसिकता का इतना असर है कि एक अध्यापक भी अपने छात्रों से जातिगत भेदभाव करता है। अपनी आत्मकथा में एक प्रश्न का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि एक बार जब वह झाड़ू लगा रहे थे तभी उनके पिता आ गए। बालक ओमप्रकाश वाल्मीकि पिताजी को देखकर रोने लगे। पिता पूछते हैं कि मुंशी जी यह क्या कर रहा है?” पिताजी को देख कर रोना आ गया और उन्हें रोते हुए देख कर पिताजी फिर पूछने लगे कि मुंशी जी रोते क्यों हैं? ठीक से बोल क्या हुआ है। इन्होंने पूरी बात बताई। सुनते ही पिताजी को गुस्सा आया और चीखने लगे। “काँणसा मास्टर है, वह द्रोणाचार्य की औलाद जो मेरे लड़के से झाडू लगाते हैं- पिताजी की आवाज सुनकर सभी मास्टर बाहर आए और पिताजी को धमकाने लगे। लेकिन धमकी का कोई असर नहीं हुआ। हेडमास्टर ने तेज आवाज में कहा ‘ले जा इसे यहां से चूहड़ा होकर पढ़ाने चला है। जा चला जा नहीं तो हाड़गोड़ दूंगा। मास्टर हो इसलिए जा रहा हूं- पर इतना बाद रखिए ये चूहड़े का पड़ेगा इसी मदरसे में और यो ही नहीं इसके बाद और भी आयेंगे पढ़ने।”[10] उस दिन पिता हार कर निराश लौट आए कुछ भी खाए-पिए बिना रात भर बैठे रहे। बाद में प्रधान जी की सहायता से बेटे को स्कूल भेजने की व्यवस्था की गई। यह प्रसंग केवल एक व्यक्ति को ही परेशान होते हुए नहीं दिखाता बल्कि यह संपूर्ण दलित समाज की सच्चाई है जहाँ पर उन्हें प्रत्येक क्षण, प्रत्येक कदम पर शोषण और अपमान का सामना करना पड़ता है। वर्ण-व्यवस्था निश्चित तौर पर यथास्थिति को बनाए रखने की ऐसी धर्मगत साजिश है जो सवर्ण समुदाय को किसी भी तरीके से लाभ की स्थिति में रखना चाहती थी। वर्ण व्यवस्था को बनाए रखने के लिए धर्म का सहारा लिया गया और ऐसे प्रावधान किए गए कि दलित समुदाय उसी में उलझा रहे। दलित समुदाय सदियों से इन प्रपंचों में उलझा हुआ है और इस शोषण को अपनी नियति मान बैठा है। दलित आत्मकथाएँ इस के खिलाफ़ मुखरता से प्रतिरोध दर्ज करने का कार्य करती है।

संदर्भ सूची

बाबा साहेब अम्बेडकर, संपूर्ण वांग्मय, खंड 9, पृ. 9

गणेशदत्त पाठक, मनुस्मृति टीका, पृ. 37

डी.एन. मजुमदार, सामाजिक मानवशास्त्र, पृ. 194

कौशल्या वैसंत्री, दोहरा अभिशाप, पृ. 27

सूरजपाल चौहान, तिरस्कृत, अनुभव प्रकाशन, पृ. 10

मोहनदास नैमिशराय, अपने अपने पिंजरे, पृ. 30

वही, पृ. 6

सुशीला टांकभौरे, शिकंजे का दर्द, पृ. 246

वही, पृ. 264

ओमप्रकाश वाल्मीकि, जूठन, पृ. 15

कौशल्या वैसंत्री, दोहरा अभिशाप, पृ. 27 सूरजपाल चौहान, तिरस्कृत, अनुभव प्रकाशन, पृ. 10

मोहनदास नैमिशराय, अपने अपने पिंजरे, पृ. 30

वही, पृ. 6

सुशीला टांकभौरे, शिकंजे का दर्द, पृ. 246