स्त्री पर पारिवारिक हिंसा का दंश और दलित आत्मकथाएँ

डॉ. रितु अहलावत

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सारांश – ‘पारिवारिक हिंसा’ रिश्तों के बीच हुई हिंसा से संबंधित है इसके अंतर्गत यौन उत्पीड़न, आर्थिक संसाधनों से वंचित करना, हिंसा, मार-पिटाई, स्वास्थ्य को हानि पहुँचाना, मजाक उड़ाना, अश्लीलता, दुष्कर्म, महिला को निर्बुद्धि सिद्ध करना या अपमानित करना, अपशब्द कहना, उसको मानसिक रूप से उत्पीड़ित करना आदि आता है । महिलाओं के साथ होने वाले इस प्रकार के व्यवहार में केवल भारत ही नहीं बल्कि पूरा विश्व ही कटघरे में खड़ा है । वहीं दलित महिलाएँ तो सामाजिक और पारिवारिक दोनों प्रकार की हिंसा झेलती नजर आती हैं । परिवार के भीतर वे शारीरिक मानसिक, आर्थिक और यौन हिंसा का शिकार बनाई जाती हैं । वे इसके खिलाफ आवाज भी नहीं उठा पाती क्योंकि पितृसत्ता के चलते यह सब झेलना उसे संस्कारगत सिखाया जाता है । बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक वह जीवन के सभी पड़ावों में किसी न किसी रूप से हिंसा झेलने को विवश रहती है । दलितों द्वारा लिखी गयी सभी आत्मकथाओं में चाहे वह पुरुष द्वारा लिखी गयी हो या स्वयं स्त्री द्वारा पारिवारिक हिंसा के किससे बड़ी संख्या में मौजूद हैं । वहीं दलित स्त्री द्वारा लिखी गयी आत्मकथाओं में तो दलित स्त्री जीवन का मूल दंश पारिवारिक हिंसा नजर आता है ।

बीज शब्द – दलित स्त्री, दलित आत्मकथाएँ, पारिवारिक हिंसा, पितृसत्ता ।

भूमिका – परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई है । परिवार पति, पत्नी और बच्चों के सामूहिक संगठन को कहते हैं । मैकाइवर और पेज के अनुसार “परिवार एक ऐसा समूह है, जो पर्याप्त रूप से निश्चित लैंगिक संबंध पर आधारित होता है और जो इतना स्थायी होता है कि उस द्वारा बच्चों के जन्म व पालन-पोषण की व्यवस्था हो जाती है ।”[1] परिवार एक समूह मात्र नहीं वरन यह रिश्तों में बंधा एक मजबूत गठबंधन है जिसे बाँधे रखने के लिए किसी ड़ोर, सूत्र या ज़ंजीर की आवश्कता नहीं है । परिवार मनुष्य जीवन की आधारशीला है जिसमें रहकर वह जीवन आचार, संस्कार और अपनी पहचान को ग्रहण करता है । “मनुष्य अपने जीवन का प्रारम्भ परिवार द्वारा ही करता है और उसी से अपने उन गुणों व विशेषताओं को विकसित करता है, जो प्रत्येक व्यक्ति के अंतर्निहित विद्यमान रहता है ।”[2] परिवार में निर्भरता का जीवन जीने वाले मनुष्य का वास्तविक रूप परिवर्तन तब हो जाता है जब वह विवाह कर एक परिवार के मुखिया के रूप में उभरता है । पारिवारिक जीवन की जिम्मेदारियों को अपनाकर वह एक पूर्ण मनुष्य होने का दावेदार बन जाता है । इसके साथ ही वह अपने माता-पिता, भाई-बहन और अन्य रिश्तेदारों के साथ भी अपना संबंध पूर्णत: निभाता है । परिवार में रहकर अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करते समय मनुष्य कभी-कभी हिंसक भी हो उठता है । पारिवारिक हिंसा के शिकार मुख्य रूप से स्त्री, बच्चे और वृद्धजन बनते हैं । अधिकतर पारिवारिक हिंसा पुरुष द्वारा उनके रक्त संबंधियों पर की जाती है । साथ ही विवाह के बाद बने रिश्तों में वर्चस्ववादी व्यक्ति द्वारा भी हिंसा की जाती है, जैसे पति-पत्नी का रिश्ता, ननद, सास-ससुर, जेठ-जेठानी, देवर-देवरानी आदि द्वारा नव विवाहिता पर की जाने वाली हिंसा आदि । महिलाओं के साथ घर में होने वाले अन्याय, अत्याचार, उत्पीड़न और पारिवारिक हिंसा का लम्बा चौड़ा इतिहास रहा है । विश्व भर में स्त्री पितृसत्ता से उत्पीड़ित है । “व्यक्ति पहले राष्ट्र के संबंध में हिंसक हुआ, उसके बाद अपने समाज के संबंध में, आजकल तो हद यह है कि उसने अपने घर-परिवार को भी हिंसा का शिकार बनाना प्रारंभ कर दिया है ।”[3] पारिवारिक हिंसा के अंतर्गत यौन उत्पीड़न, आर्थिक संसाधनों से वंचित करना, मार-पिटाई, स्वास्थ्य को हानि पहुँचाना, मजाक उड़ाना, अश्लीलता, दुष्कर्म, महिला को निर्बुद्धि सिद्ध करना या अपमानित करना, अपशब्द कहना, उसको मानसिक रूप से उत्पीड़ित करना, मन मुताबिक निर्णय न लेने के लिए मानसिक दबाव बनाना, किसी कार्य को करने के लिए दबाव डालना, आत्महत्या के लिए उकसाना, तलाक देने की या घर से निकालने की धमकी देना, दहेज़ के नाम पर स्त्री को और उसके परिवरजनों को अपमानित करना आदि अनेकों प्रकार की शारीरिक,मानसिक और आर्थिक हिंसा आती है । विभा देवसरे मानसिक हिंसा के विषय में लिखती हैं “कुकर्मी द्वारा की जा रही मानसिक हिंसा में लगातार मौखिक गाली-गलौज, सताना, अत्यधिक अधिकार प्रदर्शन, महिला को मित्रों और परिवार के सदस्यों से अलग रखना, भौतिक और आर्थिक साधनों को कम कर देना और व्यक्तिगत संपत्ति को नष्ट करना-समिल्लित है।”[4] महिलाओं को अपने पूरे जीवन में इनमे से अनेकों हिंसा का सामना करना पड़ता है । दलित महिला की बात करें तो वह हमारे समाज में परिवार और वर्ग में हाशिए पर जीवन जीने को विवश है । “एक स्त्री के दलित-बोध की पीड़ा, स्त्री होने की पीड़ा के साथ मिलकर और बड़ी हो जाती है । स्त्रियों के मामले में सवर्ण पुरुषों की सोच और दलित पुरुषों की सोच में कोई अंतर नहीं ।”[5] वह समाज में जातिवादी हिंसा झेलने के साथ ही पितृसत्ता के चलते पारिवारिक हिंसा भी झेलती को मजबूर है । दलित महिला को आजीविका और अपने अस्तित्व के लिए जीवनभर संघर्ष करना पड़ता है परन्तु उसे अवहेलना और तिरस्कार ही प्राप्त होता है । मौजूदा ढांचों पर सवाल उठाने या फिर असमानता और दमन को चुनौती देने पर उन्हें हिंसा, अपमान, दुर्व्यवहार व यातना सहनी पड़ती है । दलित महिलाओं को बलात्कार, यौन कर्म, निर्वस्त्र कर घुमाना, डायन घोषित करना आदि अनेकों हिंसा झेलनी पड़ती है । इसके साथ ही वे अशिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ भी झेलने को विवश हैं । हिन्दी की दलित आत्मकथाओं में दलित स्त्री पर होने वाली असंख्य हिंसा के स्वर सुनाई पड़ते हैं ।

ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाले अपराधों में अधिकतम संख्या महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा की होती है, फिर चाहे वह सामाजिक हिंसा हो या पारिवारिक हिंसा । महिलाओं को जीवन के हर स्तर पर पारिवारिक हिंसा से जूझना पड़ता है । पुरुषों की तुलना में शारीरिक रूप से स्त्री का कमजोर होना इसका सबसे बड़ा कारण नजर आता है । इसी कारण जब पुरुष कुछ गलत कार्य करता है और स्त्री उसे रोकती है तो स्त्री को पुरुष द्वारा हिंसा झेलनी पड़ती है । मोहनदास अपनी आत्मकथा में नूर मुहम्मद नाम के कसाई के विषय में बताते हैं कि वह वैश्यालय में जाया करता था । जब उसकी पत्नी अज्जन इस बात का विरोध करने कोठे पर पहुँच जाती तो वह अपनी पत्नी पर हिंसा करता है- “घर आकर वह अज्जन को अपनी जवान बेटियों के सामने ही बुरी तरह से मारता-पीटता था…। रात में जब सब सो जाते तब यह मार-कुटाई होती थी । अज्जन उस बकरी की तरह चीखती थी जिसकी गर्दन पर छुरी चलाई जा रही हो ।”[6] ऐसा बोला जाता था कि नूर मुहम्मद तेल लगी लाठी से अपनी पत्नी को नंगा कर के पीटता था । उसके कसाई वाले पेशे ने उसके भीतर की संवेदनाओं को खत्म कर दिया था, वह जानवर और स्त्री में अंतर नहीं समझता था ।

बलात्कार अथवा स्त्री की इच्छा के विरुद्ध शारीरिक संबंध बनाना, अप्राकृतिक तरीके से संबंध बनाना, अश्लील साहित्य पढ़ने या चित्र और वीडियो देखने को विवश करना या बच्चों के साथ लैंगिक व्यवहार, अश्लील इशारे कर स्त्री को अपमानित करना आदि यौन हिंसा कहलाती है । अधिकांश महिलाएँ पति द्वारा की गयी इस प्रकार की हिंसा के प्रति किसी से कुछ नहीं कह पातीं क्योंकि भारतीय संस्कृति में एक पतिव्रता स्त्री का अपने पति की खामियों को जगजाहिर करना असामाजिक, अशिष्ट और अपमानजनक माना जाता है । पत्नी को यह संस्कार दिए जाते हैं कि उसे अपने साथ हो रहे दुर्व्यवहार को घर की चार दिवारी से बाहर नहीं जाने देना चाहिए । मोहनदास के बगल वाले घर में रहने वाली महिला अपने पति द्वारा प्रताड़ित किए जाने पर रात में अक्सर ऐसी आवाजें निकालती जो पड़ोसी भी सुनते रहते । ऐसे में मोहनदास की ताई उसे डाँटती है- ““अरी रात भर क्यों चिल्लावे है? तेरा खसम ही तो है ।” वह जवाब में कहती, “मइया भौत जुलम करै है ।” मौसी प्यार से समझाती-पगली यह जुलम थोड़ी है प्यार करै है ।” “पर ऐसा कैसा प्यार…?” वह बीच में बोल उठती । “सभी मरद ऐसई करै है । तुझे पता नई ।“ मौसी फिर कहती।””[7] इस प्रकार उसे समझा कर उसकी आवाज को दबा दिया गया, सब सहन करना ही उसकी नियति बताया गया । “महिलाओं के विरुद्ध हिंसा का एक भयानक रूप है घरेलू हिंसा जो प्राय: समाज और जनता के सामने जल्दी नहीं प्रकट हो पाता … । एक विडंबना यह है कि घरेलू हिंसा का एक बहुत बड़ा जाल घरों के अंदर बचा हुआ है, जो घर के बाहर नहीं आ पाता है । उत्पीड़ित महिला पति के भय, लोक-लाज के भय और समाज में प्रतिष्ठा कम होने के भय से अपना मुँह नहीं खोलती है ।”[8] इस वजह से स्त्री-जीवन में पारिवारिक हिंसा खत्म होने का नाम नहीं ले रही है । वे हिंसा को मूक बन बर्दाश्त करती हैं और घुट-घुट कर जीती हैं ।

स्त्रियों के विषय में जब कोई बात परिवार के पुरुषों को अखरती है तो वे उनसे बात करने और उनका पक्ष समझने के स्थान पर उनपर हिंसा करने पर उतारू हो जाते हैं । ओमप्रकाश अपना एक अनुभव बताते हैं कि एक दिन उनके पिता और बड़े भाई कुछ वार्तालाप करते हुए बाहर से घर में दाखिल हुए- “अचानक पिताजी गुस्से में उबल पड़े । आंगन में एक डंडा पड़ा हुआ था, उसे उठाकर उन्होंने चाची की पीठ पर जड़ दिया । इस अचानक प्रहार से चाची दोहरी हो गयी थी । उसके मुँह से भयानक चीख निकली थी ।”[9] ऐसी स्थिति में किसी भी स्त्री का सकपकाना स्वाभाविक है अत: चाची की भी कुछ ऐसी ही प्रतिप्रिया थी, वह ओमप्रकाश जी की माँ से लिपट गयी और स्वयं को बचाने की गुहार लगाने लगी । आत्मकथा में इस हिंसा का कारण नहीं बताया गया परन्तु यहाँ एक पुरुष का वर्चस्व ही नजर आता है जो बिना किसी वार्तालाप के एक स्त्री को सजा देता हुआ नजर आ रहा है ।

स्वयं दलित स्त्रियों द्वारा लिखी गयी आत्मकथाओं में भी पारिवारिक हिंसा का लम्बा-चौड़ा उल्लेख किया गया है । पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री का जीवन पग-पग पर विपदाओं से घिरा रहता है । उसकी प्रतिष्ठा का तो कहीं नामोनिशान तक नहीं होता । “पारिवारिक हिंसा में ऐसी अनेक प्रताड़नाएं सम्मिलित हैं जिन्हें गंभीरता की कसौटी पर रखा जा सकता है और इस कसौटी की सबसे जघन्य परिणति ‘महिला की हत्या है ।”[10] पितृसत्तात्मक व्यवस्था में स्त्री के पास कोई अधिकार नहीं होते यदि स्त्री अपने साथ हो रहे अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाती है तो सजा उसी को मिलती है । ‘दोहरा अभिशाप’ में कौशल्या बैसंत्री ने अपनी नानी के साथ होने वाली हिंसा का कई स्थानों पर उल्लेख किया है साथ ही अपने समाज का एक और उदाहरण वे देती हैं कि सखाराम की पत्नी को कार्यस्थल पर एक पुरुष छेड़ता था । जब औरत ने सखाराम से उसकी शिकायत की तब उसने अपनी पत्नी को ही रात भर घर में घुसने नहीं दिया गया और अगली सुबह उस स्त्री के साथ बहुत हिंसक व्यवहार किया गया – “उसके बदन पर सिर्फ चोली थी और वह एक छोटा सा कपड़ा पहने थी । उसके माथे पर सफ़ेद रंग की बिंदिया लगाई गयी और उसके गले में चप्पलों की माला पहनाई गयी । उसे गधे पर बिठाकर पूरी बस्ती में घुमाया गया । बस्ती के लोग हो-हल्ला मचाकर उसे बस्ती के बाहर निकालकर आए… रात में वह बस्ती के कुँए में कूद गयी ।”[11] अपने ही पति के द्वारा उसके साथ ऐसा मानवता को शर्मसार कर देने वाला व्यवहार उसे कुँए में कूदकर आत्महत्या कर देने को विवश कर देता है । डॉ. मंजू सुमन के अनुसार दलित समाज सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यधिक पिछड़ा होता है और परिवारों में स्त्रियों की स्थिति कुछ ऐसी होती है- “परिवार में किसी प्रकार का संकट, परेशानी और दिक्कत आने पर अंत में समस्या का समाधान लात-घूसों और डंडों से पिटाई करके किया जाता है । इस प्रकार की स्थितियाँ जब सर के ऊपर होकर गुजर जाती हैं, तो वे फांसी लगाकर, विष खाकर, कुँए-तालाब में छलांग लगाकर आत्महत्याएँ कर लेती हैं ।”[12] स्पष्ट है कि दलित स्त्री घर के बाहर तो असुरक्षित है ही परन्तु वह घर के भीतर भी सुरक्षित नहीं रहती । ‘पत्नी’ यह एक ऐसा ओहदा है कि जिसके किसी स्त्री को मिलते ही बहुत सी जिम्मेदारियाँ भी स्वाभाविक रूप से उसे मिल जाती हैं । जिन्हें पूर्ण करने की कोशिशों में स्त्री का पूरा जीवन खप जाता है परन्तु तब भी पति को उसकी सेवाओं से संतुष्टि मिल ही जाएगी इसकी कोई गारंटी नहीं होती । वह घर के हजारों काम बिना शिकायत किए चुपचाप करती है, इस आधार पर उसे एक नौकरानी का दर्जा दे देना न्यायसंगत नहीं, परन्तु कुछ लोग इस बात को नहीं समझते । कौशल्या को अपने जीवन में यह सब झेलना पड़ा । पति(देवेन्द्र) उनका शारीरिक शोषण व हिंसा करता था । कौशल्या लिखती हैं- “अपने मुंह से कहता कि मैं शैतान आदमी हूँ । उसने मेरी इच्छा, भावना, ख़ुशी की कभी कद्र नहीं की । बात-बात पर गाली, वह भी गन्दी-गन्दी और हाथ उठाना । मारता भी था बहुत क्रूर तरीके से । उसकी बहनों ने मुझे बताया था कि वह माँ-बाप, पहली पत्नी को भी पीटता था… देवेन्द्र को पत्नी सिर्फ खाना बनाने और उसकी शारीरिक भूख मिटाने के लिए चाहिए थी ।”[13] अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए वह कौशल्या जी को पत्नी बना कर घर में लाया था । जब पुरुष एक स्त्री को पत्नी बनाकर अपने घर ले आता है, तो उसका भी यह फर्ज बनता है कि वह स्त्री की भी जरूरतों का ध्यान रखे । परन्तु कौशल्या के पति देवेन्द्र ऐसा नहीं करते थे । वे कौशल्या जी के खर्चों का खयाल न रखकर उनपर आर्थिक हिंसा करते थे । देवेन्द्र घरेलू जरूरत का सामान भी अलमारी में बंद रखता और कहते- “मैंने तुम्हें पालने का ठेका नहीं लिया है । मैंने कहा, शादी के बाद पत्नी को पालने की जिम्मेदारी पति की होती है । मैं भी यहाँ मुफ्त में नहीं खाती । यहाँ काम करती हूँ । तब कहता बाहर जाकर काम करो और खाओ । पत्नी को वह स्वतंत्रता सेनानी भी दासी के रूप में ही देखना चाहता था ।”[14] यहाँ यह बात जरूर अखरती है कि जहाँ कौशल्या जी की नानी और माँ अनपढ़ होते हुए भी स्वावलंबी बनी वहीं यह उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद आत्मनिर्भर न बन सकीं । इतने लम्बे अरसे तक वे पति का दुर्व्यवहार सहती रहीं । कौशल्या को जब पाँचवी संतान होने वाली थी तब देवेन्द्र उनके साथ नहीं रुके- “मेरी प्रसूति के दिन एकदम नजदीक थे फिर भी दौरे का कार्यक्रम बनाया । जिस दिन दौरे पर गया हाथ में तीस रूपय पकड़ा दिए और कहा, अस्पताल चली जाना ।”[15] इनकी बेटी को भी 102 बुखार था, बावजूद इसके वह कौशल्या के सर पर सारी जिम्मेदारी छोड़ कर चले गये । प्रसूति के बाद वह होस्पिटल में आया और बिना कौशल्या से मिले और बिल अस्पताल का बिल चुकाए वापस लौट गये । वे ड्राइवर को तीस रुपए देकर चले गये जबकि बिल दौ सौ रूपये का था ।

जब पारिवारिक झगड़ों के चलते परिवार दो खेमों में बँट जाता है तो एक पक्ष का व्यक्ति दूसरे पक्ष के व्यक्ति के लिए मन में इर्ष्या भाव रखने लगता है जिसके चलते परिवार में हिंसा की स्थिति उत्पन्न हो जाती है । सूरजपाल के पारिवारिक झगड़े में इनकी बेटी मधुर इनके पक्ष में खड़ी थी जो इनकी पत्नी और बेटे भानु को बर्दाश्त नहीं था । वह अपनी बेटी मधुर से नफरत करने लगी थी । वह समय-समय पर उसे परेशान करती और मारती-पीटती । एक बार मधुर पापा के लिए चाय बनाने रसोई में जाने लगी तो- “विमला ने उसपर थप्पड़ों की बरसात शुरू कर दी । मैं मधुर को छुड़ाने आगे बढ़ा ही था कि भानु ने सोचा कि शयद मैं विमला से झगड़ने जा रहा हूँ, उसने बिना सोचे-समझे मेरे सर के बाल पकड़कर सोफे में दबोच दिया ।”[16] यह सब देखकर सूरजपाल अपना मानसिक संतुलन खो बैठे थे । कुछ समझ नहीं आता था कि आखिर यह सब क्यों हो रहा है ।

शहरों में पढ़ी-लिखी स्त्री भी हर-रोज न जाने कितनी बार घरेलू हिंसा का शिकार होती है । वे अपने अधिकार और परिवार में अपना स्थान जानते हुए भी अपने साथ हो रही हिंसा के प्रति मौन साधे रहती है । ऐसे में ग्रामीण क्षेत्रों की निरक्षर और अधिकारों के प्रति ज्ञान हीन महिलाओं की स्थिति का अनुमान सहजता से लगाया जा सकता है । ग्रामीण महिलाएँ तो हिंसा को अपनी नियति मान लेती हैं और पुरुष वर्ग हिंसा करने को अपनी मर्दानगी की पहचान मानता है । रूपनारायण के गाँव में हरिशंकर अवस्थी नाम का ब्राह्मण रहता था जो बेहद क्रूर व्यवहार वाला था । गाँव के लोगों के अनुसार वह अपनी पत्नी पर बहुत अत्याचार करता था- “गाँव में गुप-चुप कहा जाता था कि हरिशंकर अवस्थी अपनी पत्नी पर भी अत्याचार करता था जिनको देख-सुन कर लोगों के रोयें खड़े हो जाएँ । वह जलती बीड़ी और सिगरेट से अपनी पत्नी के उरोज और गुप्तांग जलाया करता था ।”[17] परिवार चाहे सवर्ण हो या दलित उसमें स्त्री को पितृसत्तात्मकता का सामना करना ही पड़ता है । पितृसत्तात्मक मानसिकता से ग्रसित पुरुष चाहे सवर्ण हो या दलित, स्त्री के सम्बन्ध में उनके विचार एक जैसे ही होते हैं । समाज में अपना सम्मान बचाए रखने और पति के द्वारा की जाने वाली हिंसा के भय से वह स्त्री चुप्पी साधे रहती । इस प्रकार की बीमार मानसिकता वाले व्यक्ति स्त्री का जीवन नरक बना देते हैं । ऐसी पुरुषवादी मानसिकता के लोग अपनी बहनों को भी मारते-पीटते हैं । रूपनारायण बताते हैं कि हरिशंकर अवस्थी की बहने छत पर खड़ी थीं- “वहाँ मैंने देखा कि वह छत के ऊपर टहल रही अपनी खूबसूरत बहन को जोर-जोर से मुक्कों से मारते हुए जीने से होकर नीचे के कमरे में ले गया। उसको बांध कर खूब मारा । उसके रोने की आवाजें खूब सुनाई दे रहीं थी ।”[18] उसे देख कर घर की स्त्रियाँ काँपती थी । ऐसे व्यक्ति अपनी ताकत और रौब के नशे में परिवार की सभी स्त्रियों को प्रताड़ित किया करते हैं । “महिलाओं के प्रति घरेलू हिंसा हमारे पारिवारिक और सामाजिक जीवन की गंभीर और चिंताजनक वास्तविकता है ।”[19] घर की स्त्रियों पर चिल्लाना, उन्हें गालियाँ देना, दहशत में रखना आदि यही ऐसे पुरुषों का जीवन व्यवहार होता है ।

परिवार में स्त्री पर जब चाहे कोई इल्जाम लगा कर उसकी पिटाई की जा सकती है । श्यौराज सिंह बेचैन ‘मेरा बचपन मेरे कन्धों पर’ में बताते हैं कि उनके सौतेला पिता बहुत गुस्से वाला था और वह बात-बात पर उनकी माँ पर हिंसा करता था- “भिकारी अम्मा को लाठी-डंडे, क्लाबूत या फरहे से मारता-पीटा करता था.”[20]“पारिवारिक हिंसा का सबसे मुख्य कारण यह भी है कि पुरुष का व्यक्तित्व पूर्ण रूप से विक्सित नहीं हो पाता और अपने क्रोध पर नियंत्रण न कर पाने की वजह से या तो हिंसक हो जाता है या नशे का शिकार हो जाता है जिसके कारण हिंसा की प्रवृत्ति और अधिक बढ़ती जाती है.”[21] श्यौराज सिंह के चाचा भी इनकी माँ पर हिंसा करते थे । एक बार उन्होंने अपने सौतेले चाचा की जेब से एक रुपया चुरा लिया था । चाचा ने चोरी का इल्जाम उनकी माँ पर लगाया और उनकी बहुत पिटाई की, वे लिखते है- “उसकी कमर पर भिकारी ने पहला वार फरहे से किया । उसके बाद डालचंद ने भी माँ के शरीर पर लाठियाँ बरसाई थीं । उसने सिर बचा कर माँ का सारा शरीर तोड़ दिया था ।”[22] उनकी माँ की चीखें ऐसे निकल रही थीं जैसे वे किसी कसाई द्वारा काटी जा रही हों । उन्हें इतनी क्रूरता से मारा गया था कि पूरे शरीर पर घावों के निशान हो गये थे । इस आत्मकथा में स्त्री के साथ पति द्वारा किए गये अन्याय भी देखने को मिलते हैं । लोधी राजपूत नाम का पुरुष अपनी पत्नी चमेली और दो बच्चों के घर में रहते हुए दूसरी औरत को घर ले आया जिससे दुखी होकर चमेली आत्महत्या का प्रयास करती है । यह एक पत्नी के प्रति मानसिक हिंसा ही है । “दूसरे तरह की हिंसा में मानसिक हिंसा प्रमुख है । इस प्रकार की हिंसा कभी-कभी शारीरिक हिंसा से अधिक घातक होती है । इसमें शब्दों का प्रहार महत्वपूर्ण होता है । इसका परिणाम कभी-कभी आत्महत्या के लिए विवश कर देता है ।”[23] चमेली के साथ भी मानसिक हिंसा हुई थी जिसके परिणामस्वरूप उसने स्वयं को आग लगा ली जिससे उसका चेहरा और शरीर जल गया । वह अंधी हो गयी और दर-दर की ठोकरें खाने व भीख माँगने को मजबूर हो गयी ।

बुरे काम के लिए किसी ऐसे व्यक्ति को दोषी ठहराना जो उसने किया ही न हो मानसिक हिंसा का कारण बनता है । डॉ. धर्मवीर बहुत से स्थानों पर अपनी बेटियों पर रोक लगाते और उनपर झूठे इल्जाम लगाते नजर आते हैं । वे अपनी बेटियों को न केवल पहरे में रखते थे बल्कि उनको किसी से बात भी नहीं करने देते थे जिसे उन्होंने स्वयं अपनी आत्मकथा ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’ में लिखा है- “मैंने छत पर चारों ओर छह फुट ऊँची जालीदार दीवार कर रखी है । उस दीवार के बनाने का मतलब यही था कि कोई मेरी लड़कियों को बाहर से न देख सके और ये भी किसी से बात न करें ।”[24] मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है परन्तु डॉ. धर्मवीर अपनी बेटियों को समाज से काट कर रखना चाहते थे । इतना ही नहीं उनके बताए एक और किस्से से उनकी बिमार मानसिकता और भी स्पष्ट हो जाती है, जब वे लिखते हैं कि उनकी बेटी अनीता अपने पड़ोस के एक नवजात बच्चे को बहुत खिलाने लगी थी जो उन्हें बिल्कुल भी पसंद नहीं था- “मुझे अनीता का उस बालक को खिलाना तब बुरा लगा जब वह उसे उस के पिता से लेती या देती थी । यह मेरे लिए एक घिनौनी बात थी । यह बाप के लिए बर्दाश्त से बाहर की बात थी कि कोई जवान आदमी मेरी जवान बेटी को अपना बच्चा हाथों में थमाए । यह जिस्म से छेड़-छाड़ थी ।”[25] इस प्रकार किसी भी स्त्री पर बेतुके आरोप लगाकर उसे समाज में अपमानित करना उसका मान मर्दन करना मानसिक हिंसा के अंतर्गत आता है ।

समाज के नियम कायदे स्त्री वर्ग के लिए काफी कड़े रहे हैं, इसके चलते परिवार में उनपर शिकंजा कसा जाता रहा है । तुलसीराम अपनी माँ और स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियों का उदाहरण देकर इस बात की पुष्टि करते हैं । अपनी आत्मकथा मुर्दहिया में वे गाँव की एक लड़की के भाग जाने के बाद दूसरी लड़की की स्थिति कुछ ऐसी बताते हैं- “इस घटना के बाद मठिया की एक अन्य लड़की श्यामा, जो हमारे स्कूल में सातवें दर्जे में पढ़ती थी, की शामत आ गयी । लोग कहने लगे कि वह बाल खोलकर स्कूल जाती है, बेशवा हो गई है । अत: उसकी पढ़ाई छुड़ा दी गयी ।”[26] छोटी लड़कियों के ही नहीं बड़ी औरतों के साथ भी इस प्रकार के दुर्व्यवहार किए जाते थे । तुलसीराम जी अपने पिता के पितृसत्तात्मक व्यवहार के विषय में बताते हैं- “मेरी माँ बस्ती के किसी भी व्यक्ति से बात करती, पिता जी तुरंत उसके चरित्र पर ऊँगली उठाना शुरू कर देते थे । वे माँ को बहुत भद्दी-भद्दी गालियाँ देने लगते थे …वे अक्सर माँ को फरूही से मारने दौड़ पड़ते थे ।”[27] परिवार के मुखिया का ऐसा व्यवहार घर के बेटे के मन में उसके प्रति घृणा पैदा कर देता है । इसके परिणाम स्वरूप तुलसीराम भी अपने पिता के प्रति हिंसक व्यवहार कर बैठते हैं ।

भारतीय समाज की यह सबसे बड़ी विडम्बना रही है कि समाज निर्माण में बराबर का महत्व रखने वाली स्त्री को वह सदैव उपेक्षित रखता है । यहाँ तक कि स्वयं स्त्री भी स्त्री को निम्न घोषित करने में पीछे नहीं रहती । भारतीय परिवारों में अधिकतर लड़कियाँ कुपोषित पाई जाती हैं क्योंकि माताएँ दूध-घी, फल आदि जैसी चीजें केवल अपने बेटों को खाने को देती हैं बेटियों को नहीं । शहरों में स्थितियाँ सुधर गयी हैं परन्तु गाँवों में बहुत कम जागरूकता आई है । बच्चों के साथ इस प्रकार का भेदभाव करना पारिवारिक हिंसा के अंतर्गत आता है । सुशीला टाकभौरे की माँ भी उनके साथ ऐसा ही व्यवहार किया करतीं थी । सुशीला अपने भाई के प्रति माँ का अतिरिक्त प्रेम देख कर लिखती है- “माँ उसका ध्यान रखती थीं । अधिक मेहनत मजदूरी करके, पैसे जोड़ कर उसके लिए घी खरीदकर लाती । दूध और अंडा छिपाकर उसे देती । घी लोहे की कोठी में ताला लगाकर रखती …ठंडी के दिनों में माँ मेथी के दवा के लड्डू बनाकर ताले में रखती । सुबह चाय के साथ पिताजी को देती । “गरम दवाई है”-कहकर हमें नहीं देती ।”[28] सुशीला को उनके ऐसे व्यवहार पर गुस्सा आता था । पिता और भाई को दिया जाने वाला अतिरिक्त प्रेम उनके मन में हीन भावना भरता था । विभा देवसरे ऐसी स्थिति को इस प्रकार परिभाषित करती हैं- “पोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में लिंग-आधारित भेदभाव महिलाओं के अधिकारों का उल्लंघन माना गया है ।”[29] परन्तु भारतीय परिवारों में लड़कियों के साथ अक्सर ऐसा व्यवहार देखने को मिलता है जो लड़कियों के मन को कुंठा से भर देता है ।

हिंसा के माध्यम से सदैव से स्त्रियों को चुप करवाया गया है । वे गलत के खिलाफ कुछ बोल न सकें इसलिए उन्हें मार पीट कर रखा जाता है । “कौशल्या बैसंत्री की आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ और सुशीला टाकभौरे की आत्मकथा ‘शिकंजे का दर्द’ में अनेक स्थान पर दर्ज हुआ है कि लेखिका पति द्वारा बार-बार पीटी जाती हैं ।”[30] सुशीला टाकभौरे के पति सुन्दरलाल टाकभौरे ने उन्हें कभी पत्नी का सम्मान नहीं दिया । सास और ननद इनके पति के सामने इनकी खूब कमियाँ निकालतीं थी और उनकी पिटाई करवातीं, वे अपनी स्थिति के विषय में लिखती हैं कि रेडियो की आवाज ऊँची कर इनकी खूब पिटाई की जाती- “मेरे साथ घर में मारपीट-गाली-गलौज सब कुछ हुआ । बाल पकड़कर खींचना, लातों से मारना, गर्दन पर मुक्के बनाकर मारना, पीठ पर घूंसे मारना-मैंने सब कुछ सहा । बेंत के निशान कई दिनों तक मेरे शरीर पर रहते थे… कई बार मुझे लगता, लगातार बाल खींचकर सर पर मारने से कहीं मैं पागल तो नहीं हो गई ।”[31] जब सुन्दरलाल इनसे गुस्सा हो जाते तो इन्हें अपमानित करने के लिए इन्हें अपने पैरों में गिरकर माफ़ी माँगने को कहते । सुशीला टाकभौरे का पारिवारिक जीवन अत्यंत वेदनापूर्ण रहा । उन्हें पति, ननद, सास व नंदोई सभी से अपमानित होना पड़ता । दर्द, यातना, उपेक्षा, अमानवीय व्यवहार आदि से उनका जीवन भरा हुआ है । सुशीला जीवन में बहुत लम्बे समय तक आर्थिक हिंसा का शिकार रहीं । सुशीला से मातृसेवा संघ में गंदे कपड़े उठाने की नौकरी करवाई जा रही थी । इनकी पूरी तनख्वा सुन्दरलाल ले लेते थे- “ननद के परिवार का पूरा खर्चा उठाने के लिए मुझसे मातृसेवा संघ की नौकरी करवाई जा रही थी । नौकरी करने के बाद भी मेरे लिए खर्चे के रूपये न होने की बात की जाती ।”[32] यह आर्थिक हिंसा नहीं तो और क्या था, इनके पास किराए के लिए या लंच के लिए भी पैसे नहीं होते थे ।

जब एक दलित स्त्री पैसा कमाने लगती हैं और अपने लिए घर खरीदने चलती है, तब वह घर उसके नहीं उसके पति या पुत्र के नाम खरीदा जाता है । यह भारतीय सामाजिक परम्परा रही है । स्त्री संपत्ति की अधिकारी नहीं हो सकती, उसे इसकी क्या आवश्यकता है । उसे केवल पुरुष वर्ग पर आश्रित रहना है । सुशीला की कमाई से खरीदे जाने वाले फ्लैट के विषय में उनके पति कहते – “मैं अपना यह फ्लैट चिंटू (बेटा) के नाम पर कर दूँगा । तू उसके दरवाजे पर, उसकी मेहरबानी की भीख मांगती हुई बैठी रहना, रिरियाती रहना ।”[33] दृष्टव्य है कि इस फ्लैट को खरीदने में सारी आर्थिक जिम्मेदारी सुशीला के ही कन्धों पर थी । पी.एफ., लोन, कर्जा आदि सबकी भरपाई सुशीला की कमाई से होनी थी, बावजूद इसके उन्हीं को भिकारी की स्थिति में पहुंचाने की बातें की जा रहीं थी, ताकि वे हमेशा उनके सामने मस्तक झुकाए रहें और उनकी सारी बातें मानें । “महिलाओं को लिंग-भेद के कारण कानूनी अधिकार, सामाजिक अधिकार और आर्थिक अधिकारों का न मिलना आज भूमंडलीकरण की एक बड़ी चुनौती है ।”[34] सुशीला को भी उनके घर में अधिकार हीनता की स्थिति में रहना पड़ा था । यहाँ तक कि अपने द्वारा लिखे काव्य संग्रह और किताबों को भी लम्बे समय तक छपवाना नहीं सकीं थीं क्योंकि उन्हें पति द्वारा घर की जिम्मेदारियाँ दिखाकर रोका जाता रहा था ।

निष्कर्ष : दलित आत्मकथाओं में परिवार में होने वाली हिंसा को काफी व्यापक तरीके से मुखरित किया गया है । महिलाओं को परिवार में अपनी भूमिका निभाने के लिए अंसख्य बार हिंसा का शिकार होना पड़ता है । पारिवारिक हिंसा का सबसे ज्यादा शिकार महिलाएँ रही हैं, बच्चों से लेकर बुजुर्ग महिलाएँ पितृसत्ता के कारण हिंसा झेलती रही हैं । दलित महिला को मजदूरी करने के बावजूद घर के भीतर भी काम करने पड़ते हैं, दोहरी श्रमिक जिन्दगी उसे गुजारनी पड़ती है । सामाजिक तौर पर देखा जाए तो दलित महिला और पुरुष को समान रूप से हिंसा झेलनी पड़ती है परन्तु पारिवारिक दृष्टि से दलित स्त्री अनेकों प्रकार की हिंसा झेलती नजर आती है । दलित महिलाओं के साथ हो रही पारिवारिक हिंसा एक चिंताजनक विषय है । ग्रामीण स्त्री हो या शहरों की शिक्षित महिला सभी को परिवार में शारीरिक, आर्थिक और मानसिक आदि सभी प्रकार की हिंसा का शिकार होना पड़ता है ।

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