पेरियार ललई सिंह के साहित्य में चित्रित लोक-संघर्ष के आख्यान का अवलोकन

मुकेश कुमार यादव

शोधार्थी हिन्दी विभाग,

लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ

devmukesh17@gmail.com

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सारांश

पेरियार ललई सिंह के नाटकों में जाति-व्यवस्था का जो रूप देखने को मिलता है। वह भारतीय पौराणिक साहित्य में उपस्थित आख्यानों से व मौजूदा समाज के उदाहरण को आधार बनाकर कर लिखा गया है। उन आख्यानों में जो लोकसंघर्ष देखने को मिलता है। वह समाज के क्रमिक विकास का हिस्सा है। उनके नाटकों का ऐतिहासिक व समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में इस शोध आलेख में अवलोकन किया गया है।

बीज शब्द: लोक, आख्यान, नाट्य, लोकजीवन, लोक संघर्ष, सामाजिक भेदभाव, जाति व्यवस्था, सबाल्टर्न।

शोध आलेख

हिंदी में ‘आख्यान’ शब्द प्राय: साधारण कथा या वृत्तांत के रूप में ही प्रयोग किया जाता रहा है। यह ‘आख्यान’ शब्द मौखिक परम्परा या श्रुति परम्परा के रूप में विकसित हुआ है। आख्यानपरक काव्यों के अंतर्गत कथा (सत्यवती कथा), चरित (मधुमालती चरित), वार्ता (छिताई वार्ता), दूहा (ढोला मारूरा दूहा), चौपाई या चउपई (माधवानल कामकंदला चउपई), रास (बीसलदेव रास) आदि सभी काव्य विधाएँ प्राप्त होती हैं। काव्य की इन शैलियों में भारतीय अतीत की गाथाएं विभिन्न रूपों में आयी हैं। अतीत की गाथाओं को अक्सर मिथक के रूप में देखा जाता है। आख्यान या मिथक के अर्थ को परिभाषित करते हुए डॉ. अमरनाथ लिखते हैं कि “हिंदी में मिथक के लिए ‘पुरावृत्त’, ‘पुराकथा’ ‘कल्पकथा’, ‘देवकथा’, धर्मकथा’, ‘पुराणकथा’, ‘पुराख्यान आदि अनेक शब्द प्रयुक्त होते रहे हैं।”[1] आख्यानों की सत्ता का प्रमाण सबसे पहले हमें मौखिक रूप से ऋग्वेद में देखने को मिलता हैं। वेदों में संकलित श्लोक अलग-अलग समय में लिखे गए हैं। इसके संदर्भ में यह कहा जाता है कि इसके मंत्रों को पीढ़ी दर पीढ़ी याद करके संरक्षित किया गया था। जिसे श्रुति परंपरा कहा जाता है। वेदों की व्याख्यान प्रणाली के विभिन्न संप्रदायों में यास्क ने ऐतिहासिक संप्रदाय का अनेक बार उल्लेख किया है जिसमें देवों के अधिपति इंद्र के साथ घोर संघर्ष और तुमुल संग्राम का वर्णन इसमें देखने को मिलता है। वेद और पुराण के व्याख्याकारों की दृष्टि में वेदों में महत्वपूर्ण आख्यान विद्यमान हैं। ऋग्वेद में इंद्र तथा अश्विन के विषय में अनेक आख्यान ऐसे मिलते हैं जिनमें इन देवों की वीरता, पराक्रम तथा उपकार की भावना अंकित की गई है। इसके अलावा दानस्तुतियों में अनेक राजाओं के नाम उपलब्ध हैं जिनसे दान पाकर अनेक ऋषियों को उनकी स्तुति में मंत्र लिखने की प्रेरणा मिली। इन स्तुतियों में भी कतिपय आख्यानों की ओर स्पष्ट संकेत मिलते हैं। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि आख्यानों में दो वर्गों के बीच होने वाले संघर्ष किस तरह अपने विकास क्रम में विपुल सामग्री रामायण और महाभारत के रचयिताओं को उपलब्ध कराती है। इन्हीं पौराणिक आख्यानों से कथानक लेकर, आख्यानों में मौजूद लोक संघर्ष का विश्लेषण पेरियार ललई सिंह ने अपने लेखन में किया है।

पेरियार ललई सिंह अपने नाट्य लेखन में मिथकीय आख्यानों का चुनाव दलित व वंचित वर्ग में चेतना जागृत करने के रूप में करते हैं। भारतीय समाज में वर्ण-जाति के भेदभाव को मिटाने व शोषित वर्ग के मानवीय अधिकारों के लिए ज्योतिबा फुले, डॉ. भीमराव अंबेडकर, पेरियार ई.वी. रामासामी, चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, रामस्वरूप वर्मा, बौद्ध भिक्षु महास्थिविर ऊँ चंद्रमणि आदि समाज सुधारकों, चिंतकों ने मिथकीय आख्यानों को आधार बनाकर ( जो हिंदू धर्म ग्रंथ समझे जाने वाली पुस्तकों में संरक्षित हैं) शोषित जनों (सबाल्टर्न) के दृष्टिकोण से उसका अध्ययन एवं विश्लेषण किया है। जिसका प्रभाव हम स्पष्ट रूप से पेरियार ललई सिंह के रचनाओं में देख सकते हैं। पेरियार ललई सिंह (1911-1993) एक मानवतावादी व समाजसुधारक थे। जिन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन में समाज के बीच होने वाले सामाजिक (वर्ण और जाति संबंधी भेदभाव), आर्थिक (‘सिपाही की तबाही’ में चित्रित सैनिक का परिवार), शारीरिक (किसान मजदूर नेता जसमा) एवं मानसिक शोषण (एकलव्य, वीर संत माया बलिदान) आदि को होते हुए देखा तो ऐसे तमाम मसलों पर गंभीर अवलोकन, अध्ययन एवं उसकी छानबीन की। सामाजिक भेदभाव के कारणों को जानने के क्रम में वे उस समय के विद्वानों, चिंतकों को सुनने, उनकी संगति करने लगे। इसी क्रम में उपरोक्त चिंतकों के संपर्क में आए।

पेरियार ललई सिंह ने जब यह अनुभव किया कि समाज में, जिसके साथ भी उत्पीड़न या शोषण हो रहा है, वे लोग एक खास वर्ग विशेष से ताल्लुक रखने वाले हैं। इस बारे में वे कहते हैं कि “हमारे आदिनिवासी (पिछड़े, अनुसूचित, आदिम जाति, अल्पसंख्यक व स्त्रियाँ आदि) भाईयों और बहनों का जो आर्य लोग धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व दैहिक दोहन-शोषण प्रतिदिन करते हैं। आदिनिवादियों को इस बात का एहसास नहीं होने देते हैं कि तुम्हारा भी कोई मानवीय अधिकार है।”[2] ऐसी स्थिति में शोषण करने वाले लोगों / वर्गों के खिलाफ उन्होंने न केवल आवाज उठाया बल्कि उसके लिए आजीवन संघर्ष भी किया। इसी सिलसिले में वे भारतीय समाज में प्रचलित लोक आख्यानों को आधार बनाकर नाटकों की रचना करते हैं। जिसके माध्यम से उन्होंने यह दिखाने की कोशिश की है कि इन नाटकों के मंचन के द्वारा लोक-संघर्ष से समाज को रूबरू कराया जाए क्योंकि आख्यानों में मौजूद शोषित, प्रताड़ित लोगों का एक बड़ा वर्ग मौजूद है। जिनके अधिकार छीने गए और उनको मूलभूत जरूरतों से वंचित किया गया। उनका मानना था कि मानव समाज में हिस्सेदारी और अधिकार के मसलों पर सभी का बराबर हक है। वे यह भी चाहते थे कि हर मनुष्य राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ- साथ सामाजिक रूप से भी स्वतंत्र रहे। “राजनीतिक स्वतंत्रता की आवश्यकता इसलिए होती है कि मनुष्य को सामाजिक स्वतंत्रता हो। मनुष्य, दूसरों की स्वतंत्रता में बाधक न होकर स्वेच्छानुसार खा-पी सके, पहन-ओढ़ सके, चल-फिर सके, मिल-जुल और ब्याह-शादी कर सके। यदि सामाजिक स्वतंत्रता नहीं है तो राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं रह जाता… इसलिए सामाजिक समता और सामाजिक स्वतंत्रता ही हमारा मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। राजनीतिक स्वतंत्रता तो उसमें सहायक होने के कारण ही वांछनीय है।”[3] पेरियार ललई सिंह ने अपने साहित्य सृजन के लिए जिन कथानकों का चुनाव किया है, वे सब लोक स्मृति के जरिए आख्यान या कहानी के रूप में अभिव्यक्त हुई हैं। उन लोक आख्यान के कथानक को अलग-अलग समय एवं संदर्भों में घटित घटनाओं से लिया है।

पेरियार ललई सिंह ने पेरियार ई. वी. रामासामी से उनकी द्वारा लिखित ‘रामायाना : ए ट्रू रीडिंग’(1968) को हिन्दी भाषा में अनुवाद करने के लिए अनुमति मांगी। अनुमति मिलने के बाद राम आधार से हिन्दी में अनुवाद करवाया और अपने ‘अशोक पुस्तकालय’ प्रेस से ‘सच्ची रामायण’(1968) नाम से प्रकाशित किया। यह पुस्तक संस्कृत महाकाव्य रामायण के उन घटनाओं पर प्रकाश डालती है। जिसमें राम को रावण, बालि, शंबूक जैसे प्रभावशाली व्यक्तियों से लड़ाई करनी पड़ी। इसके अतिरिक्त तीन ऐसे नाटक लिखे जिसके कथानक पुराण, महाभारत एवं रामायण से लिए गए हैं। उन नाटकों में क्रमशः ‘नागयज्ञ’(1966) एकलव्य’(1968) तथा ‘शंबूक वध’(1962) है। इसके अलावा उन्होंने एक अन्य नाटक ‘अंगुलीमाल’(1964) भी लिखा है, जो अंगुलीमाल के चरित्र एवं उसके स्वभाव, स्त्री-पुरुष संबंधों पर लिखा गया है। अंगुलीमाल बौद्धकालीन एक किवदंती है जिसको आधार बनाकर ‘अंगुलिमालीय महायान सूत्रम’ लिखा गया है। भारतीय सामंतयुगीन समाज की एक घटना जो भाटों के लोक आख्यान में प्रचलित है, को आधार बनाकर ‘संत माया बलिदान’(1960) नामक एकांकी भी लिखा है। पहले तीन नाटकों का कथानक जहां से लिया गया है, उन आख्यानों में आर्य-अनार्य, सुर-असुर संघर्ष, सत्ता एवं शिक्षा के अधिकार से वंचित वर्ग, स्त्री-पुरुष संबंध, युद्ध-नीति जैसे प्रमुख बिन्दु उभरकर सामने आते हैं। उन आख्यानों में मानवीय पक्ष भी उपलब्ध हैं। जिसे ‘विश्व मैत्री भावना’ के रूप में देखा गया है। मानव के विकास क्रम में वर्ग की अवधारणा अभी हाल ही की समझी जाती है, जबकि पेरियार ललई सिंह अतीत की कहानियों को समेटे आख्यानों में भी वर्ग एवं उनके मध्य होने वाले संघर्ष को इन नाटकों के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इन लोक आख्यानों में मौजूद दो तरह के लोगों की वैचारिकी वर्ग-संघर्ष का आधार बनती है।

सिपाही की तबाही (1946)

पेरियार ललई सिंह वर्ग संघर्ष संबंधी आख्यानों के बारे में जानना तब शुरू किया जब वे ग्वालियर रियासत या राज्य के लिए युद्ध लड़ने के लिए ‘हाई कमांडर’ के रूप में नियुक्त हुए। उसी दौरान उन्होंने शासक एवं सैनिक के मध्य हुए संघर्ष को देखा। संभवतः इसी संघर्ष की अभिव्यक्ति ‘सिपाही की तबाही’ के रूप में हुई। इस रचना को अपूर्ण माना जाता है। ‘सिपाही की तबाही’(1946) लिखने से पहले वे यह महसूस करते हैं कि वर्तमान राजा की सेना में जो सैनिक काम कर रहे हैं उनका शोषण किया जा रहा है। जिसके विरुद्ध सैनिकों को एकजुट करके उन्होंने मोर्चा खोला तथा हड़ताल करवायी। जिसके कारण उन्हें बंदी भी बनाया गया। संघर्ष एवं शोषण से जुड़े तथ्यों की जब उन्होंने तहकीकात की तो पाया कि इसका संबंध इतिहास की जड़ों से जुड़ा हुआ है। पेरियार ललई सिंह ने शोषण की उस स्वानुभूति को इस नाटक के माध्यम से व्यक्त किया है। वर्ग संघर्ष का सिद्धांत उनके लेखन में कहीं न कहीं कार्ल मार्क्स के विचारों से प्रेरित होकर आया है। जिसका जिक्र वे अपने एक साक्षात्कार में करते हैं। वे कहते हैं कि “मैं समाजवाद को नहीं मानता। समाजवाद तो स्वार्थवाद है। साम्यवाद के बारे में मेरे निजी विचार भी कुछ पृथक हैं, क्योंकि शोषितों की क्षतिपूर्ति वहाँ भी पूर्णतः सम्भव नहीं है। फिलहाल साम्यवादी तरीके से समता का मार्ग अवश्य प्रशस्त किया जा सकता है।”[4] यहां पर यह उल्लेखनीय है कि साम्यवाद की स्थापना वर्ग संघर्ष पर ही आश्रित है। भारतीय समाज में वर्ग, जातीय रूप में मौजूद है। इसी कारण पेरियार ललई सिंह के ऊपर मार्क्स के साथ-साथ अम्बेडकर, पेरियार का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। अतः इससे स्पष्ट है कि वे समाज में साम्यवाद की स्थापना वैज्ञानिक समाजवाद के माध्यम से करने के पक्ष में थे। वर्ग संघर्ष की तहकीकात करने के क्रम में भारत के अतीत या आख्यानों को खंगालते हुए उसका पुनः सृजन करते हुए देखे जा सकते हैं।

वीर संत माया बलिदान (1960)

पेरियार ललई सिंह के अन्य नाटकों में भी वर्ग संघर्ष के बीज बिन्दु मौजूद हैं। ‘वीर संत माया बलिदान’ की भूमिका में वे लिखते हैं कि “वीर सन्त माया बलिदान भाटों द्वारा वर्णित एक सच्ची कहानी है, जो आज भी अपनी भग्नावशेष जीर्ण-शीर्ण दशा से स्वतः प्रमाणित है।… कुछ भाटों का मत है कि ‘वीर सन्त माया’ का बलिदान नरमेध यज्ञ के ढंग पर हुआ, फलस्वरूप वरुणदेव ने नीचे से पाताल तोड़कर तालाब को पानी से लबालब भर दिया। यह मत अन्धविश्वास पर आधारित होने के कारण अमान्य है। दक्षिण भारत में उस समय ऐसी बलि प्रथा प्रचलित थी।”[5] इस नाटक में पाटण (गुजरात) के सामंती समाज का चित्रण महाराज सिद्धिराज के माध्यम से किया गया है। जो भोग, विलास की प्रवृत्ति से घिरा हुआ है। सिद्धराज (सामंत), संत माया (बौद्ध भिक्षु), जसमा (मजदूर नेता), केशोमाधो (राज पुरोहित) के माध्यम से ब्राह्मण और बौद्ध संप्रदाय के मध्य होने वाले वैचारिक मतभेद को चित्रित किया गया है। मंदिरों में शूद्र वर्ग के लोगों का प्रवेश, मुखिया द्वारा शूद्र संत माया से मंदिर में आरती कराना जिसके परिणामस्वरूप सवर्ण एवं शूद्रों के मध्य संघर्ष की स्थिति बन जाती है। इस नाटक में वर्ग संघर्ष की दूसरी स्थिति शासक वर्ग एवं तालाब खोदने वाले मजदूरों के मध्य हुए संघर्ष में देखने को मिलती है। संत माया ब्राह्मण धर्म से खिन्न होकर बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेता है। मानव समाज में आए अकाल की समस्या से पीड़ित गरीब, मजदूर, शिल्पकार के हित के लिए संत माया अपना बलिदान दे देता है।

शंबूक वध (1960)

भारतीय लोक मानस में राम की कहानी साहित्य के अलग-अलग रूपों से होती हुई नाटक में आयी है। नाटक की परम्परा लोक संस्कृति के गीतों, नृत्यों, वाद्ययंत्रों के समन्वय से विकसित हुई है। ‘लोक’ शब्द से अभिप्राय उस ग्रामीण अंचल से है जिसमें राम की कहानी को ‘रामलीला’ के माध्यम से दिखाया जाता है। ग्रामीण अंचलों में यह कहानी कब पहुंची इसका स्पष्ट उत्तर मिल पाना मुश्किल है ? लेकिन जब लोक की स्मृतियों को खंगाला जाता है तो उसमें से कुछ अविस्मरणीय कहानियां मिलती हैं। जैसे शंबूक वध, देवासुर संग्राम, उर्वशी-पुरुरवा संवाद आदि। शंबूक वध से जुड़ी कहानी में शिक्षा व्यवस्था से जुड़ें मानवीय अधिकार का सवाल उभर कर आता है। जाति व्यवस्था इसके पीछे क्या भूमिका निभाती है ? क्या कारण रहा है इसका रूप उस समय खूब फलता-फूलता है ? इन्हीं सवालों को उठाया गया है, ‘शंबूक वध’ नाटक में। ‘शम्बूक वध’ नाटक को छापने के मुख्य उद्देश्य को बताते हुए वे कहते हैं- “नाटक के छापे जाने की पहली मंशा है अधिकार वंचित शूद्र व महाशूद्र अपने अधिकार समझें। मांगे! छीने। इसी स्थिति के कारण मैं बार-बार कहता हूँ कि ‘अधिकार माँगे नहीं छीने जाते हैं!’ और ‘सामाजिक अपमान गरीबी से अधिक खटकता है!’। दूसरी मंशा, इस देश के सवर्ण हिन्दू शूद्रों व महाशूद्रों को उनका मानवीय अधिकार सौंप दें। तीसरी मंशा, सरकार के लिए कड़ी चेतावनी है कि उसने यदि उन्हें प्रत्येक प्रकार के मानवीय अधिकार न दिलाए तो इस देश में गृह युद्ध का संकट सदैव बना रहेगा।”[6] इस नाटक का कथानक वाल्मीकि रामायण से लिया गया है। इस नाटक में शंबूक ऋषि को उस समय के शिक्षा से वंचित समुदाय के शिक्षक, तपस्वी एवं संत पुरुष के रूप में देखा गया है। आश्रम पद्धति पर ही वे अपने शिष्यों को समाज के अच्छे-बुरे कार्यों से अवगत कराते थे साथ ही उन्हें नैतिकता तथा अनैतिकता का पाठ पढ़ाया करते थे।

ऋषि शंबूक जिस दौर में एक शिक्षक की भूमिका निभा रहे थे। उस दौर में ब्रह्म का ज्ञान व जानकारी केवल ब्राह्मण वर्ग के लोगों के पास थी या फिर अन्य वर्ण के लोग भी थे, इसकी जानकारी हमें पुराणों में आए तमाम ऋषियों से मिलती है। ऋषि विश्वामित्र जो कि क्षत्रिय वर्ण से संबंध रखते थे आगे चलकर ब्राह्मण हो गए। वे एक खास वर्ग के लोगों को शिक्षित करते हुए पाए जाते हैं। ऋषि वशिष्ठ ब्राह्मण थे। वे भी अपने ही वर्ग विशेष के लोगों को शिक्षित करते हुए पौराणिक आख्यानों में चित्रित हैं। ब्राह्मण वर्ग की शिक्षा व्यवस्था जब उन्हीं के वर्ग तक सीमित है तब यह स्पष्ट है कि एक वर्ग ऐसा भी था जो इससे वंचित था।

नागयज्ञ (1966)

लोककथा महाभारत के पात्र एवं घटना को आधार बनाकर हिन्दी साहित्य में अनेकों ग्रंथ लिखे गए हैं। उन्हीं में से एक है ‘अंधा-युग’(1954)। जिसकी व्याख्या द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद उपजे समस्या को रेखांकित करने के संदर्भ में की जाती है। उससे निजात पाने के लिए अतीत की घटनाओं को उदाहरण स्वरूप देखा जाता है। युद्ध की समस्या महाभारत की घटना के समय भी थी और द्वितीय विश्वयुद्ध के समय भी। यह समस्या भविष्य में भी संभावित है। पेरियार ललई सिंह द्वारा लिखित नाटक ‘नागयज्ञ’ भी युद्ध से निजात पाने की अवधारणा से जुड़ा हुआ है और यह दो तरह के विचार या वर्ग की ओर संकेत करता है। यह युद्ध एक तरह से दो जातियों का युद्ध है जिसके कारण ‘नागयज्ञ’ नाटक में ‘नाग’ शब्द पर विशेष जोर दिया गया है। यह एक जाति विशेष के रूप में आया है। नाग जाति से जुड़ी अनेकों जातियां अभी भी महाराष्ट्र एवं देश के अन्य हिस्सों में मौजूद हैं। मिथकीय आख्यानों में आये कबीले, जाति का जो उल्लेख हमें प्राप्त होता है। उनमें किरात, निषाद, नाग का उल्लेख बहुत बार मिलता है। लेकिन नाग कौन हैं? इसकी सच्चाई क्या है ? चाहे यह सच हो या नहीं, यह ऐसा ही तथ्य है, तथा हिंदू इसमें विश्वास करते हैं। इस प्रश्न का समुचित उत्तर हमें डॉ. भीम राव अंबेडकर के इन कथनों से मिलता है। वे कहते हैं- “प्राचीन भारत के इतिहास से पर्दा हटाया जाना चाहिए। इस उद्घाटन के बिना प्राचीन भारत इतिहास-विहीन रह जाएगा। सौभाग्य से बौद्ध साहित्य की मदद से प्राचीन इतिहास को उस मलबे से खोदकर निकाला जा सकता है, जिस मलबे के नीचे ब्राह्मण लेखकों ने पागलपन में उसे दबाकर रख दिया है। बौद्ध साहित्य से बहुत हद तक मलबा हटाने व उसके नीचे छिपे तत्व बिल्कुल स्पष्ट रूप से देखने में मदद मिलती है। बौद्ध साहित्य बताता है कि ‘देव’ मानव समुदाय से थे। बहुत से देव बुद्ध के पास अपनी शंकाओं के समाधान तथा कठिनाइयां दूर करने के लिए आते थे। यदि देव मानव नहीं होते तो ऐसा कैसे हो सकता था ? इसके अलावा बौद्धों का प्रामाणिक साहित्य नागों से संबंधित जटिल प्रश्न पर समुचित प्रकाश डालता है। यह कोख से पैदा हुए नाग और अंडे से पैदा हुए नाग में भेद बताता है, और इस प्रकार यह स्पष्ट करता है कि ‘नाग’ शब्द के दो अर्थ होते हैं। इस शब्द का मूल अर्थ मानव समुदाय के लिए प्रयुक्त हुआ है। इसके अलावा, असुर भी राक्षस नहीं हैं। वे भी जन-विशेष मानव ही हैं। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार, असुर सृष्टि के निर्माता प्रजापति के वंशज थे। वे नरक-दूत कैसे बन गए, यह पता ही नहीं है। लेकिन यह तथ्य लिपिबद्ध है कि वे पृथ्वी पर आधिपत्य करने के लिए देवों से लड़े, जिन्हें देवों ने जीत लिया और जिन्हें अंततः समर्पण करना पड़ा। यह बात स्पष्ट है कि असुर दैत्य नहीं, बल्कि मानव परिवार के सदस्य थे।”[7] नाग जाति एवं उनके पर्व ‘नाग पंचमी’ के इस आख्यान को द्रविड़ सभ्यता से जोड़कर देखा जाता है। इसका उल्लेख विमलेश्वरी सिंह अपनी पुस्तक ‘नागवंश’[8] में विस्तार से करती हैं। यहां पर आर्य एवं अनार्य (द्रविड़) दो ऐसे वर्ग देखने को मिलते हैं। जिनके मध्य हुए संघर्ष का आख्यान विभिन्न ग्रंथों में आया है।

नाग जाति से जुड़े आख्यान की यह कहानी महाभारत युद्ध के बाद की है। जब पांडव परीक्षित को साम्राज्य संभालने की जिम्मेदारी देकर स्वर्ग की तरफ चले गए। इन्हीं परीक्षित को तक्षक नामक नाग ने जिस युद्ध नीति के सहारे मारा था। उसी के प्रतिउत्तर में जन्मेजय द्वारा हत्या का बदला लिया जाता है। इसी कथानक को आधार बनाकर जयशंकर प्रसाद ने भी ‘जन्मेजय का नागयज्ञ’(1926) नामक नाटक लिखा है। युद्ध से जुड़ी लोक आख्यानपरक कहानियों की चर्चा युद्ध में लड़ने वाले योद्धाओं के बीच आम बात समझी जाती है। इस तरह के युद्ध दो वर्ग की परिकल्पना को पुष्ट करते हैं। इस नाटक में युद्ध से शांति पाने के लिए ‘विश्व मैत्री भावना’ का वरण तो किया है लेकिन युद्ध हो जाने के बाद। पेरियार ललई सिंह युद्ध, राजनीति, छल-कपट, ईर्ष्या, बदले की भावना के बीच लोक संघर्ष की इस कहानी को व्यक्त करते समय कुछ प्रतीकों का निर्माण करते हैं। जिसे ‘जन्मेजय समिति’, ‘कश्यप समिति’ के रूप में देखा जा सकता है। इन समितियों के बारे में नाटक की भूमिका में वे लिखते हैं- “दृश्य 6 में वर्णित ‘उतंग समिति’ का आजकल के शब्दों में मतलब ‘गांधीवाद’ है, जो अब तक छुआछूत भी नष्ट नहीं कर पाया है। ‘कश्यप समिति’ का मतलब है ‘हिन्दूवाद’, जो आज के विज्ञान युग में भी ‘लकीर का फकीर’ है। ‘जन्मेजय समिति’ का मतलब ‘कुर्सीवाद’ है, जो शोषितों, दलितों, पिछड़ों, पीडितों और अल्पसंख्यको के रोटी-रोजी, मकान, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, दवा-दारू तथा उनकी इज्जत की समस्या भी हल नहीं कर पाया है।”[9]

एकलव्य (1968)

महाभारत भी एक युद्ध की कहानी है। जिसकी गूंज हमारे लोक साहित्य में भी सुनाई देती है। हालांकि प्रभाकर श्रोत्रिय ‘भारत में महाभारत’ में इससे इत्तेफाक रखते हैं। उनका मानना है कि महाभारत युद्ध की कहानी नहीं है। महाभारत के तमाम प्रसंगों के बीच ‘एकलव्य’ से जुड़ा एक आख्यान है। एकलव्य नाटक में निषाद जाति का उल्लेख हुआ है। इस नाटक एवं अन्य आख्यानों में यह जाति शृंगवेरपुर में राज्य करती थी। निषाद राज हिरणधनुष का पुत्र ‘एकलव्य’ गुरु द्रोण से धनुर्विद्या का गुण सीखना चाहता है। लेकिन गुरु द्रोण अपने ब्राह्मण वर्ग के हित के अतिरिक्त किसी भी तरह का ज्ञान किसी को नहीं देना चाहते थे। उनके द्वारा ‘एकलव्य’ को जब सिखाने से मना कर दिया जाता है तो वह उनकी एक आभासी मूर्ति बनाकर उसके सामने अभ्यास करके ऐसा गुण सीख जाता है जिसके माध्यम से वह किसी को भी युद्ध में हरा सकने की क्षमता रखता है। लेकिन एक घटना ने एकलव्य द्वारा अर्जित किए गए ज्ञान को चकनाकूर कर दिया। वह घटना यह है कि गुरु द्रोण ने अपने आभासी मूर्ति से सीखने के कारण गुरु दक्षिणा के रूप में एकलव्य का अंगूठा ले लिया। यह घटना गुरु-शिष्य परम्परा, दक्षिणा (शिक्षा शुल्क) के नैतिकता-अनैतिकता के सवाल को खड़ा करता है। इस संदर्भ में पेरियार ललई सिंह की टिप्पणी देखने योग्य है। वे कहते हैं कि “यह नाटक इस मतलब से छापा गया है कि एक ओर तो छुआ-छूत न मानने का कानून बन गया है, मगर दूसरी ओर शूद्र-विरोधी पुरानी सड़ियल भारतीय सभ्यता वाली स्मृतियाँ, रामायण, गीता व महाभारत आदि धनवानों और विदेशियों के खर्चे से सस्ती कीमत में हम लोगों को दिमागी गुलाम बनाने के लिए घड़ाधड़ छप रहे हैं।”[10] उनके इस कथन से दो वर्ग के मध्य होने वाले भेदभाव को देखा जा सकता है। एकलव्य नाटक में हम देख सकते हैं कि द्रोण एवं उनके शिष्य जिस वर्ग विशेष से ताल्लुक रखते हैं। वह एक दायरे में सीमित है। उनका दृष्टिकोण एक वर्ग विशेष के हित तक सीमित है। जो वंचित वर्ग को शिक्षा देने के पक्ष में नहीं है।

अंगुलीमाल (1964)

गौतम बुद्ध के समय में होने वाले लोक संघर्ष, समाज की शिक्षा प्रणाली, सामाजिक वर्ण भेद, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों, नैतिकता-अनैतिकता के मुख्य बिंदुओं को ‘अंगुलीमाल’ नाटक में चित्रित किया गया है। माणवक (अंगुलीमाल) पर गुरूपत्नी शैलेन्द्री के साथ ‘व्यभिचार’ करने का आरोप लगता है। जिसके दंड स्वरूप एक हजार व्यक्तियों की हत्या करके उनकी अंगुलियाँ लाने के लिए कहा गया। इस नाटक में अंगुलीमाल पर व्यभिचार का आरोप लगने के बाद दो-तीन बिंदुओं पर गौर करने की जरूरत है। पहला, गुरुपत्नी शैलेन्द्री माणवक के साथ अपनी काम इच्छा को प्रस्तुत करती है लेकिन सामाजिक मान्यताओं को देखते हुए माणवक इंकार कर देता है। जिसके कारण वह माणवक के ऊपर बलात्कार करने का आरोप लगाती है। दूसरा, माणवक द्वारा गुरु के क्रोध एवं दंड को स्वीकार करना। उस कृत्य को स्वीकर करने के जैसा है। तीसरा, गुरु मणिभद्र द्वारा यह कहना कि “हत्यारेपन की घोषणा ही सामाजिक मृत्यु है।”[11] शैलेन्द्री द्वारा प्रस्तुत प्रसंग जिसमें नियोग प्रथा के प्रचलन की चर्चा की गयी है। वह भारतीय समाज के अतीत या पौराणिक समाज का द्योतक है। इस पौराणिक समाज के मान्यताओं जिसमें अंगुलीमाल को मिला दंड भी शामिल है। जिसकी वजह से उसे डाकू, हत्यारा की उपमाएं मिली। इन उपमाओं से मुक्ति पाने में उसे बुद्ध की मान्यताएं- शिक्षा एवं ज्ञान काम आते हैं। अतः स्पष्ट है कि उस समय में समाज के बीच दो तरह की मान्यताएँ प्रचलित थी जो समाज के दो वर्गों द्वारा मान्य है। ‘अंगुलीमाल’ नाटक में जिस तरह की हिंसा या संघर्ष को चित्रित किया गया है। वह उसी वर्ग विशेष की शिक्षा व्यवस्था से उपजा हुआ है जिसे विश्वामित्र, वसिष्ठ, द्रोण जैसे ब्राह्मण ऋषियों द्वारा शुरू किया गया था। इस नाटक का कथानक रिंगचिन लुन डुब लामा तथा डॉ. भीम राव अंबेडकर की पुस्तक का क्रमशः ‘अंगुलिमालीय महायान सूत्रम’ तथा ‘भगवान बुद्ध और उनका धर्म’ से लिया गया है।

निष्कर्ष

पेरियार ललई सिंह अपने साहित्य लेखन में अलग-अलग समय में हुए लोक संघर्ष या हिंसा, शोषण के जिन बिंदुओं को नाटक के जरिए प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। लोक संघर्ष के उन बिन्दुओं पर ऐसा नहीं है कि केवल आज के समय में विचार किया जाता है या फिर पेरियार ललई सिंह के मानस की उपज है। बल्कि इन बिंदुओं पर गहन चिंतन एवं विचार हर समय, हर युग में हुआ है। सभी पौराणिक आख्यान एवं रामायण, महाभारत महाकाव्य अलग-अलग समय के दृष्टांत को ही प्रस्तुत करते हैं। उनमें चित्रित घटनाएं (दो वर्गों के मध्य हुए युद्ध एवं संघर्ष) वर्ग की अवधारणा को प्रस्तुत करते है। मानव के विकास क्रम में हुए ये वर्ग संघर्ष, वर्तमान समय की सबसे बड़ी समस्या पूंजीवाद के दौर में होने वाले वर्ग संघर्ष की प्रारम्भिक दृश्य मात्र हैं। इस तरह के दृश्य भारतीय समाज में धार्मिक (बौद्ध-ब्रह्मणवाद, शैव-वैष्णव, हिन्दू-मुस्लिम) तथा जातिगत, लैंगिक भेद-भाव के रूप में अभी भी देखी जा सकती है। उनके बीच होने वाले भेदभाव के कारण ही सांप्रदायिक उन्माद होते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि समाज में होने वाले भेद-भाव एवं उनके बीच होने वाले द्वंद, संघर्ष की पूरी परम्परा को प्रस्तुत करने में पेरियार ललई सिंह के नाटक पूरी तरह सफल प्रतीत होते हैं।

संदर्भ सूची

  1. डॉ. अमरनाथ, हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, पृष्ठ 282
  2. धर्मवीर यादव गगन (संपा.), पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली, खंड-3, शंबूक वध, (नाटक की भूमिका से), पृष्ठ-185
  3. संतराम बीए, हमारा समाज, नालंदा प्रकाशन, बंबई, संस्करण-1949, पृष्ठ-8
  4. धर्मवीर यादव गगन (संपा.), पेरियार ललई सिंह ग्रंथावली, खंड-4, पृष्ठ-60
  5. धर्मवीर यादव गगन (संपा.), वीर संत माया बलिदान, (नाटक की भूमिका से), पृष्ठ-102
  6. धर्मवीर यादव गगन (संपा.), शंबूक, भूमिका से, पृष्ठ-185-86
  7. बाबा साहेब डॉ. अंबेडकर संपूर्ण वांग्मय,खण्ड-12, पृष्ठ, 3-4
  8. विमलेश्वरी सिंह, नागवंश, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-15-39
  9. धर्मवीर यादव गगन (संपा.), नागयज्ञ, (नाटक की भूमिका), पृष्ठ, 315-16
  10. धर्मवीर यादव गगन (संपा.), एकलव्य, पृष्ठ-244
  11. धर्मवीर यादव गगन (संपा.), अंगुलीमाल, पृष्ठ-154

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