जनजातियों के देशज ज्ञान में संचार के स्वरूप की उपलब्धता

वैभव उपाध्याय

पी-एच.डी. शोधार्थी, जनसंचार विभाग

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा, महाराष्ट्र

ईमेल – drvaibhavupadhyay@gmail.com

मोबाइल – 9415147731

शोध सारांश :

भारत में लगभग 700 जनजाति समूह व उप-समूह हैं। इनमें लगभग 80 प्राचीन जंजातियाँ हैं। भारत की जनसंख्या का 8.6% जितना एक बड़ा हिस्सा जनजातियों का है। भारत के अनुसंधान एवं प्रयोगों में देशज ज्ञान की खोज आज के दौर में नई प्रवृति के रूप में उभरा है। जनजाति समाज के देशज ज्ञान परंपराओं का अध्ययन करना जरूरी है। किसी भी समुदाय या संस्था में संचार के तीन तत्व का होना अनिवार्य होता है जिसमें संचारक, संदेश और माध्यम मुख्य रूप से होते हैं। जनजातीय समुदाय में भी यह संतुलन देखने को मिलता है। परंपरागत संचार माध्यमों या लोक संचार माध्यमों की जड़ें जनजाति क्षेत्रों में गहरी पैठी हैं। इनके माध्यम से न सिर्फ आदिवासी जन-जीवन की सामाजिक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति होती है बल्कि यह माध्यम समाज के संरक्षण एवं संवर्धन में भी साहयक हो सकती हैं। जनजातियों का संचार उनका आपस में एकजुटता का प्रतीक एवं समाज का सबसे सशक्त माध्यम है। जनजाति समाज में कई प्रथाएँ ऐसी मिलेंगी जो संचार का बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। जैसे – हलमा या घोटूल प्रथा। इस शोध के माध्यम से ऐसे ही सशक्त संचार माध्यमों की पड़ताल करते हुये इसका संकलन किया गया।

शोध शब्द – जनजातीय, संचार, संचार पद्धति, देशज ज्ञान

पृष्टभूमि :

शाब्दिक जुड़ाव की दृष्टि से जनजाति दो शब्दों ‘जन’ और ‘जाति’ से मिलकर बना है। (गुप्ता, 2017) जन का शाब्दिक अर्थ है लोग, किंतु जाति के एक निश्चित शाब्दिक अर्थ को दे पाना जटिल कार्य है। इसके अर्थ की व्याख्या में प्रायः विद्वानों द्वारा अंग्रेजी के ‘कास्ट’ शब्द की सहायता ली जाती है। इस व्याख्या में एक से अधिक पर्याय और विशेषताएं देखने को मिलती हैं, किंतु व्यावहारिक प्रयोग की दृष्टि से यह ‘पहचान’ के रूप में अर्थ प्रदान करते दिखाई पड़ती है। भारत में लगभग 700 जनजाति समूह व उप-समूह हैं। इनमें लगभग 80 प्राचीन जनजातियाँ हैं (आहूजा, 2000)। भारत की जनसंख्या का 8.6% (10 करोड़) जितना एक बड़ा हिस्सा जनजातियाँ का है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में जाति एक जटिल अवधारणा है, जिसे विभिन्न अनुशासनों द्वारा अलग-अलग रूपों में परिभाषित किया गया है। इसके अर्थ को प्राप्त करने में संदर्भों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है उदहारण स्वरूप श्यामाचरण दूबे (1985) जाति की अर्थ स्थापना के समय इसके तीन अर्थों पर बल देते हैं, जो अलग संदर्भगत विशेषता को धारण किए होती है और वही इनके पहचान प्रदर्शन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। संदर्भ विशेष के साथ संबद्धता ही ‘जातीय पहचान’ बन जाती है, उदहारणस्वरूप, ‘जन्मना प्रस्थिति’ अथवा ‘अन्तर्विवाही’। आहूजा (2000) ‘जाति’ को परिभाषित करते हुए लिखते हैं, “जाति एक ‘अनुवांशिक’ सामाजिक समूह है, जो अपने सदस्यों को सामाजिक गतिशीलता (यानी सामाजिक प्रस्थिति बदलने) की अनुमति प्रदान नहीं करती। इसमें जन्म के अनुसार प्रस्थिति अथवा श्रेणी निर्धारित होती है, जो व्यक्ति के व्यवसाय, विवाह और सामाजिक संबंधों को प्रभावित करती है (पृ.33)।” भारतीय सामाजिक संरचना पर दृष्टि डाले तो इस प्रकार की पहचान धारण किए हुए स्थानीय, क्षेत्रीय तथा राष्ट्रीय स्तर पर असंख्य जातियां है (दूबे, 1985)। डब्लू.एच. रिवर्स के अनुसार, ‘जनजाति एक सरल सामाजिक समूह है, जिसके सदस्य एक आम बोली का प्रयोग करते हैं तथा युद्ध एवं अन्य प्रकार के क्रियाकलापों के साथ-साथ कार्य करते हैं (पांडेय, 2007)।

प्रो. खुदीराम टोप्पो ने अपने एक लेख में जनजातियों की शासन व्यवस्था में भागीदारी विषय पर लिखते हुये बताया कि “देश के सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र का 20 प्रतिशत भाग जनजातीय प्रदेश है”। साहित्यिक ग्रन्थों में जनजाति को आदिवासी नाम से भी संबोधित किया जाता रहा है। पुरातन संस्कृत ग्रंथों में आदिवासियों को ‘अत्विका’ नाम से संबोधित किया गया एवं महात्मा गांधी ने आदिवासियों को गिरिजन (पहाड़ पर रहने वाले लोग) से संबोधित किया (एल्विन, 2007)। भारतीय संविधान में जंजातियों के लिए ‘अनुसूचित जनजाति’ पद का उपयोग किया गया है। किसी भी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में शामिल करने के निम्न आधार हैं- आदिम लक्षण, विशिष्‍ट संस्‍कृति, भौगोलिक पृथक्‍करण, समाज के एक बडे भाग से संपर्क में संकोच या पिछड़ापन। वर्जिनियस झाझा की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय कमिटि का गठन 2013 में किया गया था। इस कमिटि के द्वारा जनजाति में मूल शब्द “जाति” को विस्तृत रूप से परिभाषित किया गया। विख्यात मानवशास्त्री नदीम हसनैन ने अपनी पुस्तक ‘जनजातीय भारत’ में भारतीय जनजाति समुदाय से जुड़े विभिन्न मुद्दों के बारे में लिखा है। उन्होंने पुस्तक में जनजातीय समुदाय से संबंधित मानव विज्ञान के दृष्टिकोण से तथ्यों का संकलन किया है। तथा भारत में जनजातीय समाज के ज्ञान और उनको स्वरुप को समझाने का भी प्रयास किया गया। V.S. Upadhyay ने अपनी पुस्तक Tribal Development in India में जनजातीय विकास से संबंधित इतिहास की की विस्तृत चर्चा की है।

जनजाति विकास में पैसा कानून एक बेहतर भूमिका निभा रहा है। इसके तहत ग्राम सभा की सिफारिशें मानने के लिए पंचायतें बाध्य हैं। यह कानून जंजातियों को उनके अपने संसाधन के उपयोग एवं नियम की स्वतन्त्रता देता है। यह कानून सैद्धांतिक रूप से गांवों को स्वायत्तता देता है। सही अर्थों में इसकी व्याख्या की जाए तो पता चलेगा कि गांव में प्रवेश के लिए ग्राम सभा की अनुमति जरूरी है।

टिकाऊ विकास और संचार के लिए सहयोगी आधुनिक ज्ञान प्रणाली और देशज ज्ञान प्रणाली की आवश्यकता पूरे विश्व को समझ आने लगी है जो इस शोध की पृष्ठभूमि को तैयार करती है। उच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में कहा था कि संभवतः जनजातीय देश के मूल निवासी हैं। अतः इनकी संस्कृति-सभ्यता भी सबसे पुरातन होगी जिसके संयोजन की ज़िम्मेदारी पूर्ण रूप से वर्तमान समाज पर होती है। खास तौर पर यह तब और महत्वपूर्ण हो जाता है जब दो या अन्य समुदायाओं के मध्य विकास का असंतुलन स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहा हो।

क्र.सं. निवास क्षेत्र जनजाति
1. उत्तर तथा पूर्वोत्तर क्षेत्र कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, द. उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड एवं पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में बकरवाल, गुर्जर, थारू, बुक्सा, राजी, जौनसारी, शौका, भोटिया, गद्दी, गारो, खासी, जयंतियां, लेपचा, रामा, मेचा, काछारी एवं मिकिर, गारो, खासी, आका, दाफला एवं भीरी, कोंयक, रंगपात, रोमा, आगामी, चंग और रेम आदि
2. मध्य क्षेत्र मध्य प्रदेश, दक्षिण राजस्थान, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ भील, गोंड, रेड्डी, सबरा, उरांव, गड़बा, बोपंडों, हो, संथाल, मुंडा, विरहोर, खरिया बैंगा, मुरिया और मांडिया गौंड, कोल, कोरकू, सहरिया, बंजारा आदि
3. दक्षिणी क्षेत्र कर्नाटक, तमिलनाडु केरल, अंडमान निकोबार और अन्य चेंचू, टोड़ा, कोटा, पनियन, ईरुला, कादर, माला (भील एवं भिलाला), निकोबारी, ओंग, जारवा, शाम्पेन एवं अंजमानी आदि
4. पश्चिमी क्षेत्र भील एवं खासा आदि

स्रोत- शोधार्थी द्वारा प्राप्त आंकड़ों की सारणीयन

भारत के अनुसंधान एवं प्रयोगों में देशज ज्ञान की खोज आज के दौर में नई प्रवृति के रूप में उभरा है। जनजाति समाज के देशज ज्ञान परंपराओं का अध्ययन करना जरूरी है। उनकी देशज ज्ञान परंपरा से आधुनिक समाज को बहुत कुछ सीखने की जरूरत है (रणेन्द्र, 2014)। जंजातियों का जीवन प्रकृति के ज्यादा नजदीक होता है। उनके दर्शन में प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाकर चलने का आदर्श होता है (रणेन्द्र, 2014)। न्यू मैक्सिको के प्यूबलो आदिवासी समाज के प्रोफेसर ग्रेगरी कजेटे ने अपनी पुस्तक ‘नेटिव साइंस: नेचुरल लॉ ऑफ इंटरडिपेंडेंस’ में यह बताने का प्रयास किया है कि उनके समाज के विज्ञान का दार्शनिक आधार आधुनिक विज्ञान से अलग है। जनजाति समाज में ज्ञान को जीवन से अलग नहीं माना गया है। बल्कि, ज्ञान को संगीत, कला और साहित्य में ही समाहित माना जाता है (मीणा, 2020)। अंडमान के जारवा जनजातियों के साथ वर्षों तक काम करने वाले डॉक्टर रतन चंद कार ने अपने लेख में बताया कि ये बेहद संजीदा लोग हैं। इनके रहन-सहन और तौर तरीके में बेहद सादगी और वैज्ञानिकता है (रणेन्द्र, 2014)। इन्हें जंगल के पेड़-पौधों और उनके औषधीय गुणों का अद्भुत ज्ञान है (एल्विन, 2007)। गोंड जनजाति की ज्ञान परंपरा पर काम करने वाली शोधार्थी नीलम केरकेट्टा का मानना है कि आदिवासी के पास बीजों और पेड़-पौधों से संबन्धित अद्भुत ज्ञान है, इस तरह के ज्ञान पर उन्होंने पुस्तकों का सृजन तो नहीं किया है, लेकिन उनके गीतों, कलाओं और दैनिक जीवन के क्रिया-कलापों में वह संकलित है। नामबिया में जुस्सी एस जौहिईनें (Jussi S. Jauhiainen) और लौरी हूली(Lauri Hooli) ने देशज ज्ञान से जनजातीय समाज में जागरूकता विषय पर शोध किया, इस शोध में यह बात निकल कर आयी कि विकाशील देशों के लिए नवचार का उपयोग स्वदेशी ज्ञान के आधार पर पारस्परिक सहयोग से लक्ष्य को और बेहतर बनाया जा सकता है।

शोध उद्देश्य :

  • शोध का मुख्य उद्देश्य जनजातीय समुदाय के संचार स्वरूप को खोजना है।
  • जनजातियों के देशज ज्ञान परंपरा में संचार का रूप क्या है इसे जानने के लिए।

शोध प्रश्न :

  • जनजतियों के देशज ज्ञान परंपरा में संचार पद्धति का स्वरूप क्या है?

शोध प्रविधि :

प्रस्तुत शोध पूर्ण रूप से विश्लेषणात्मक (Descriptive) शोध है। इस प्रविधि का प्रयोग तथ्यों के निष्कर्षण के लिए किया गया है। इसके लिए विवेचनात्मक (Inductive) एवं विश्लेषणात्मक (Analytical) दृष्टियों का प्रयोग किया गया। इसके अंतर्गत अवलोकन पद्धति (Observation Method) का प्रयोग किया गया। इस विधि के अंतर्गत शोध क्षेत्र में भ्रमण कर जनजातियों के देशज ज्ञान परंपरा से परिचित होने के साथ ही संचार पद्धति की उपलब्धता का पता लगाया गया। इसके तहत अर्द्धसहभागी अवलोकन किया गया।

विश्लेषण :

विश्लेषणात्मक रूप से देखने को मिलता है कि जनजातियों में कई ऐसी पद्धति एवं प्रणाली विद्यमान है जिसका संचार की दृष्टि से वृहद रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। यह संचार पद्धतियाँ संवाद के स्वरूप एवं सामाजिक/सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को अपने अंदर समाहित किए होती है। इन पद्धतियों के अंतर्गत कुछ संचार व्यवस्था का विश्लेषण शोध की दृष्टि से किया गया जो निम्न है। विश्लेषणात्मक रूप से यह देखा गया कि जनजाति के दो महत्वपूर्ण संस्थागत व्यवस्थाएं हैं जिसका जिक्र बाद के संचार व्यवस्थाओं में प्राप्त होता है। हलमा और घोटूल सामाजिक एवं सांस्कृतिक मुद्दों पर चर्चा परिचर्चा का आयोजन करता है जो निम्न है।

संचार पद्धति :

संचार पद्धति की उपयोगिता और उपस्थिती एवं प्रयोग लगभग हर समुदाय में होती है। बिना संचार के किसी भी योजनाओं का प्रयोग एवं क्रियान्वयन संभव नहीं हो सकता है। संचार एक ऐसी प्रक्रिया है जो सतत चलती रहती है। किसी भी समुदाय या संस्था में संचार के तीन तत्व का होना अनिवार्य होता है जिसमें संचारक, संदेश और माध्यम मुख्य रूप से होते हैं (राजगढ़िया, 2008)। जनजातीय समुदाय में भी यह संतुलन देखने को मिलता है। ओसाम मंजर ने देश के प्रतिष्ठित समाचारपत्र समूह हिंदुस्तान टाइम्स के हिंदी पत्र हिंदुस्तान के पोर्टल पर जनजातीय समुदाय में संचार माध्यमों के विस्तार नहीं किए जाने पर चिंता जताई उन्होने बताया कि डिजिटल माध्यम जनजाति समुदायों के बीच की दूरी को कम करने में प्रभावी साबित हुआ है पर यह तथ्य केंद्र व राज्य स्तरों के जनजातीय विकास कार्यक्रमों में गायब है। हेराल्ड लॉसवेल का मॉडल जनजाति क्षेत्रों में बहुत पहले से कार्य करता प्रतीत होता है। हेराल्ड लॉसवेल के मॉडल में क्या, कौन, किस माध्यम से, किससे और कैसे सूचनाओं का संप्रेषण किया जाता है समाहित है। यह मॉडल यह तय करता है कि सूचना लक्षित समुदाय को कितना और कैसे प्रभावित करती है? आदिवासी समाज में यह सिद्धान्त बहुत पहले से कार्य कर रहा है। जनजातियों का संचार उनका आपस में एकजुटता का प्रतीक एवं समाज का सबसे सशक्त माध्यम है। जनजाति समाज में कई प्रथाएँ ऐसी मिलेंगी जो संचार का बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। जैसे – हलमा या घोटूल प्रथा।

परंपरागत संचार माध्यमों या लोक संचार माध्यमों की जड़ें जनजाति क्षेत्रों में गहरी पैठी हैं (रणेन्द्र, 2014)। इनके माध्यम से न सिर्फ आदिवासी जन-जीवन की सामाजिक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति होती है बल्कि यह माध्यम समाज के संरक्षण एवं संवर्धन में भी साहयक हो सकती हैं। लोकगीत, लोकसंगीत, लोकनृत्य, नौटंकी, कटपुटली आदि आदिवासी संचार के मूल पद्धति हैं। ये माध्यम आदिवासी समाज के मध्य संवाद एवं संचार का सीधा माध्यम हैं।

देशज ज्ञान :

यहाँ देशज ज्ञान से सीधा आशय स्थानीय ज्ञान से है। एक ऐसा ज्ञान जो संबन्धित स्थानीय सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश से संबंधित हो। देशज ज्ञान के माध्यम से जनजातीय समाज में जागरूकता विषय पर शोध करते हुये प्रो. केरकट्टा ने बताया कि जनजातियों द्वारा उस विकास को जल्दी स्वीकार किया गया जो उसकी संस्कृति से जुड़ा था (Bharti, 2015)। इस शोध में यह भी निकल कर आया कि विकाशील देशों के लिए नवचार का उपयोग स्वदेशी ज्ञान के आधार पर पारस्परिक सहयोग से लक्ष्य को बेहतर बनाया जा सकता है। ‘Indigenous Knowledge: Implications in Tribal Health and Disease’ विषय पर हुये एक शोध में यह देखा गया कि सामाजिक अनुसन्धान और मानव विज्ञान में देशज ज्ञान की खोज ने आज के दौर में नई प्रवृति के रूप में जन्म लिया है।

हलमा :

हलमा एक ऐसी प्रथा है जिसके तहत समाज के जरूरतमन्द के लिए समूहिक एकत्रीकरण होता है (White, Nair, Ascroft, 1994)। इस प्रथा के तहत लोग उस स्थान पर पंहुचते हैं जहां किसी आदिवासी परिवार, समाज, संस्था की मदद करनी होती है। शोध क्षेत्र में गोंड आदिवासी समाज ने जल संरक्षण केंद्र बनाने के लिए हलमा के अंतर्गत ज़िम्मेदारी ली, लोगों ने आह्वान किया कि इस बार धरती माँ हलमा बुला रही है यानि मदद के लिए बुला रही है। देखते-ही-देखते तय स्थान पर भारी संख्या में आदिवासी इकट्ठा हुये और बिना किसी शुल्क के तीन दिन तक एक ही स्थान पर रुक कर हजारों जल संरक्षण केंद्र बना दिये। यह समूहिक और डिजास्टर संचार का बेहतरीन उदाहरण है।

हलमा एक तरह की प्रशिक्षण कार्यशाला भी है। प्रशिक्षण इस लिए क्योंकि हलमा के माध्यम से आदिवासी अपने अगली पीढ़ी के लिए ये सारे गुण काश्तकारी के माध्यम से सिखाते हैं। चुकी आदिवासी ज्ञान का एक मात्र संकलन मौखिक होता है इस लिए भी यह परंपरा प्रशिक्षण कार्यशाला के रूप में जानी पहचानी जाती है। आदिवासी अपने देशज ज्ञान का प्रसार या कहें कि संरक्षण इसी पद्धति से करते हैं। यही कारण है कि आदिवासी अपने तीज त्योहार इत्यादि का इस्तेमाल प्रशिक्षण कार्यशाला के रूप में करते हैं। ऐसे कार्यशाला के माध्यम से एक तो समूहिक समाधान होता है दूसरा उस समाज के नई पीढ़ी के सदस्य उससे परिचित होते हैं। यही कारण है कि इस प्रकार की तमाम परम्पराएँ आदिवासी जीवन का हिस्सा अनिवार्य रूप से हैं। हलमा की संरचना में समाज केंद्र में होता है और उसकी परिधि आदिवासियों के श्रम से सिंचित होती है।

स्रोत- शोध की आवश्यकता एवं परिणाम के लिए शोधार्थी की दृष्टि

घोटूल :

घोटूल संचार पद्धति एवं संचार स्वरूप की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है। यह समूह संचार का एक अच्छा एवं देशज उदाहरण पेश करता है। घोटूल परंपरा के तहत गोंड आदिवासी समाज अपनी समस्या को लेकर एक जगह इकट्ठा होते हैं और समूहिक मदद से उस समस्या का निदान करते हैं। इस एकत्रीकरण में सामाजिक सांस्कृतिक जरूरतों को पूरा किया जाता है। जनजाति समाज में विवाह संस्कार से जुड़ी चर्चा एवं साथी चुनाव के लिए भी यह माध्यम बेहद प्रासंगिक है। यह समूहिक संचार के साथ ही अंतरव्यक्तिक संचार का उदाहरण पेश करता है। घोटूल का स्तित्व लगभग सभी जनजाति समुदाय में पाया जाता है परंतु इसके स्वरूप एवं नाम में कुछ अंतर जरूर होता है। घोटूल आदिवासी समुदाय के लिए जीवन की उपयोगिता पर चर्चा करने एवं सामाजिक प्रशिक्षण का एक मंच है। गढ़चिरौली जी के मेंढ़ा लेखा गाँव के प्रमुख एवं मार्गदर्शक देवा जी तोफा ने घोटूल की चर्चा करते हुये बताया कि यह उनके गाँव के लिए सामाजिक स्वाभिमान लाने एवं जागृत करने का काम किया। उन्होने अपने गाँव के लिए घोटूल की उपस्थिति पर विस्तृत चर्चा की।

स्रोत- शोध की आवश्यकता एवं परिणाम के लिए शोधार्थी की दृष्टि

घोटूल के माध्यम से समाज के समस्याओं का समाधान किया जाता रहा है। समस्याओं का समाधान करने में संबंधित समाज के संचार स्वरूप का इस्तेमाल किया जा रहा है। स्थानीय संचार पर भाषा का प्रभाव बहुत अधिक देखा गया। गैर भाषिक समाज के लोग इस परिस्थिति में कुछ बोलने कहने से कतराते हैं।

प्रस्तुत शोध में कई ऐसे गाँव मिले जहां मोबाइल फोन और कंप्यूटर की संख्या 50 प्रतिशत तक प्राप्त हुई लेकिन वही जब इन्टरनेट आधारित इन गैजेट्स के इस्तेमाल का प्रतिशत निकाला गया तो यह मात्र 15 प्रतिशत ही रहा। इसका मतलब बहुत कम जनजाति इन क्षेत्रों में इन्टरनेट पर उपलब्ध सूचना को प्राप्त नहीं कर पा रहा है। इसी प्रकार महिला और पुरुष में भी यह आकड़े देखा गया। जो तथ्य प्राप्त हुये उसके अनुसार मात्र 7 प्रतिशत महिलाएं ऐसी हैं जो कंप्यूटर मोबाइल के साथ इन्टरनेट का इस्तेमाल कर रही हैं।

निष्कर्ष :

शोध विषय के अंतर्गत अवलोकन एवं तथ्य संकलन और साहित्य के अध्ययन के उपरांत जो बात निष्कर्ष के रूप में सामने आती है उसके आधार पर जनजतियों का देशज ज्ञान परंपरा काफी समृद्ध है। इसकी समृद्धि ही इसके शोषण का कई बार कारण भी बनती है। कई बार ऐसा हुआ कि बड़े औद्योगिक घराने के लोग जनजतियों के देशज ज्ञान को प्राप्त करने के लिए उनके साथ छल करते हैं। इसके ढेर सारे उदाहरण संबंधित क्षेत्रों में मिल जाते हैं। अतः शोध के अंतर्गत निम्न बिन्दुओं को निष्कर्ष के रूप में स्वीकृति प्रदान की गई है।

  • जनजातियों की अपनी संचार पद्धति समृद्ध रूप में उपलब्ध है।
  • जनजातियों के देशज ज्ञान में ही उनके संचार के रूप छुपे हुये हैं।
  • जनजाति अपनी देशज संचार पद्धति पर किसी भी प्रकार की संचार के लिए अधिक विश्वास करते हैं।
  • जनजातियों के देशन ज्ञान का संकलन करते हुये उनके सांस्कृतिक अभिव्यक्ति एवं सामाजिक विश्वास को बचाया जा सकता है।

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