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हिंदी-उर्दू विवाद की प्रमुख बहसें

कुलदीप सिंह

एम. फिल. शोधार्थी

भारतीय भाषा केंद्र, भाषा साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन संस्थान

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली

ई-मेल – ks7040204@gmail.com

सारांश

साहित्यिक विवादों में हिंदी-उर्दू का विवाद बहुत पुराना एवं चर्चित विवाद रहा है। जितना अधिक विवाद हिंदी-उर्दू के बीच हुआ है शायद ही अन्य किसी भारतीय भाषाओं के बीच हुआ हो। उन्नीसवीं शताब्दी इस भाषिक विवाद की उत्सर्ग भूमि है। यह हिंदी – उर्दू का झगड़ा अंग्रजों के भारत आगमन के साथ शुरू हुआ था और आज तक यह विवाद कायम है। यह हिंदी – उर्दू  विवाद, भारतीय उपमहाद्वीप की भाषा का स्वरूप क्या हो? क्या हिंदी-उर्दू दो नहीं एक ही भाषा है? क्या हिंदी से उर्दू या उर्दू से हिंदी का जन्म हुआ है? जैसे प्रश्नों के साथ शुरू हुआ और धीरे – धीरे यह विवाद दो सम्प्रदायों, दो विचारधाराओं, दो संस्कृतियों के टकराहट में बदल गया। इसी हिंदी – उर्दू विवाद की परिणीति हिन्दू-मुस्लिम विवाद के रूप में हुई। प्रस्तुत शोध पत्र का मुख्य उद्देश्य हिंदी-उर्दू विवाद के कारणों का और इस विवाद से संबंधित प्रमुख बहसों का विश्लेषण है।

बीज शब्द: भाषा, विवाद, संप्रदाय, संस्कार, इतिहास

शोध आलेख

भारत भूमि भाषाओं का संगम है। यहाँ एक नहीं अनेक भाषाओं में इंसान गाता है, हँसता है, रोता है। यही इस जमीं की खूबसूरती है। भाषाएं किसी भी समाज के लिए फ़क़त अभिव्यक्ति मात्र का साधन नहीं होती बल्कि भाषाओं से समाज बनता भी है और संस्कारित भी होता है। भारतीय समाज गंगा जमुनी तहज़ीब से बना समाज है और गंगा जमुनी तहज़ीब ही इसकी पहचान है। हिंदी और उर्दू महज़ भाषाएं नहीं हैं ये भारतीय समाज के दो दिल हैं जिनका ज़मीर एक है जिनका इतिहास एक है। शम्भुनाथ सिंह हिंदी-उर्दू के संबंध में बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कहते हैं – “हिंदी और उर्दू दो एकदम अलग-अलग परम्पराएँ नहीं थीं,  क्योंकि इनका अभ्युदय एक ही जातीय वातावरण में हुआ था। इनका स्वरूप धार्मिक नहीं था। लोक-जीवन में ये जुबान पर आज भी एक हैं, शिष्ट समुदायों में कलम तक आकर भले दो हो जाया करें। इतिहास में कई बार संस्कृति की सहज मिश्रित धाराओं को राजनिनीतिक चालें पुनः अलग-अलग कर देती हैं।”[1] यह दोनों भाषाएं ठीक वैसे ही हैं जैसे हिंदुस्तान और पाकिस्तान का कभी एक ही हुआ करता था और आज राजनीतिक चालों के कारण ही दो देश हैं। आज हम जिसे हिंदी – उर्दू दो भाषाओं के रूप में जानते हैं यदि हम इतिहास में पीछे की और जाएंगे तो पता चलेगा कि हिंदी-उर्दू कभी दो नहीं एक ही भाषा हुआ करती थीं। जिसे हिंदवी या रेख़्ता के नाम से जाना जाता था। अमीर ख़ुसरो इसी हिंदवी अर्थात रेख़्ता के प्रवर्तक माने जाते हैं। विद्वानों ने भी अमीर खुसरों से ही हिंदी-उर्दू जुबां की परंपरा को स्वीकार किया है। रामधारी सिंह दिनकर ने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में  लिखा है कि  “भारत के सांस्कृतिक इतिहास में खुसरों ने बहुत बड़ी क्रांति की और, सत्य ही, वे हिंदी और उर्दू के प्रवर्तक कहलाने योग्य हैं।”[2] अतः यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि अमीर खुसरों खड़ी बोली हिंदी के ही नहीं उर्दू के भी पहले कवि हैं।

हिंदी-उर्दू उत्पत्ति संबंधी विवाद

‘हिंदी’ एक फारसी शब्द ‘हिंद’ से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ होता है- ‘सिंधु नदी का सीमावर्ती क्षेत्र’। भारत में हिंदी का उद्भव और विकास 7वीं शताब्दी के आस-पास संस्कृत की पाली एवं प्राकृत भाषाओं के अपभ्रंश के रूप में हुआ। हिंदी को कई नामों से जाना जाता है। आज भी इसके कई नाम प्रचलित हैं जिसे कहीं विशेषण के रूप में तो कहीं विशेष्य के रूप में प्रयोग किया जाता है जैसे देवनागरी या नागरी, आर्य भाषा, राष्ट्र भाषा या राजभाषा। लेकिन हिंदी ही अधिक पुराना नाम है। अमीर खुसरों की रचना ‘खालिकबारी’ को हिंदी – उर्दू का सबसे पुराना कोश माना जाता है। उसमें सभी जगह कुल बारह बार ‘हिंदी’ और पचपन बार ‘हिंदवी’ शब्द का प्रयोग हुआ है। हिंदी’ का अर्थ है हिंद की भाषा, और ‘हिंदवी’ से मतलब है हिंदुओं या हिंदुस्तानियों की भाषा। ‘खालिकबारी’ में कहीं भी उर्दू या रेख़्ता जैसे शब्द का ज़िक्र नहीं हुआ है। लेकिन कुछ उर्दू के हिमायतियों का मानना है कि यह हिंदी या हिंदवी उर्दू का ही पुराना रूप है, जो उचित एवं तर्कयुक्त नहीं लगता। हिंदी से उर्दू या उर्दू से हिंदी के संदर्भ रामधारी सिंह दिनकर का मत उल्लेखनीय है – “जो लोग यह कहते हैं कि हिंदी से उर्दू निकली है, उन्हें यह भी कहना चाहिए कि हिन्दुतान अरब और ईरान के पेट में था। वहीं से कढ़कर वह हिमालय और हिन्द महासागर के बीच फैला है। हिंदी से उर्दू बनी है, उर्दू से हिंदी नहीं। हिंदी में अरबी, फारसी, तुर्की शब्द बढ़ा देने और फ़ारसी मुहावरे चला देने से उर्दू का जन्म हुआ है। वस्तुस्थिति यह है कि हिंदी के बिना उर्दू एक पग नहीं धर सकती और उर्दू के बिना हिंदी के महाग्रंथ लिखे जा सकते हैं।”[3] ऐसे अनेक तर्क मिल जाएंगे जिनके आधार पर एकमत होकर स्वीकार किया जा सकता है कि उर्दू, हिंदी से बनी है,  हिंदी, उर्दू से नहीं।

उर्दू मूलतः तुर्की भाषा का लफ़्ज़ है जिसका कोशगत अर्थ है लश्कर या छावनी का बाज़ार। वह बाज़ार जहाँ सब तरह की चीज़ें बिकती हों। हिंदी भाषा का वह रूप जिसमें अरबी, फ़ारसी और तुर्की आदि के शब्द अधिक हों और जो फ़ारसी लिपि में लिखी जाए। उर्दू फ़क़त एक भाषा का नाम नहीं है यह एक तहज़ीब, एक संस्कृति की पहचान है। उर्दू भाषा का इतिहास बेहद जटिल रहा है और उर्दू शब्द की उत्पत्ति भी बड़ी ही विवादस्पद रही है। आज तक ठीक ठीक निर्णय कर पाना संभव नहीं है कि उर्दू का प्रयोग पहली मर्तबा कब और किस रूप में किया गया। उर्दू भाषा के आलिम  मीर ‘अम्मन’ के अनुसार उर्दू का जन्म अकबर के समय में हुआ और ‘अबे हयात’ के लेखक मुहम्मद हुसैन आज़ाद उर्दू की उत्पत्ति ब्रज भाषा से मानते हैं। लेकिन कोई ऐसे तथ्य देखने को नहीं मिलते हैं जिसके आधार पर उर्दू की उत्पत्ति प्रामाणिक रूप से स्वीकार की जा सके। हिंदुस्तानी अकादमी, इलाहाबाद से प्रकाशित पंडित पदम् सिंह शर्मा की अंतिम साहित्यिक कृति ‘हिंदी, उर्दू और  हिंदुस्तानी’ में यह उर्दू उत्पत्ति संबंधी समस्या दर्ज है – “उर्दू भाषा के अर्थ में कब से प्रयुक्त और प्रचलित हुआ, यह विषय अबतक विवादास्पद बना हुआ है। इसका ठीक निर्णय किसी पुष्ट प्रमाण के आधार पर अभी नहीं हो सका है। कुछ विचारशील विद्वानों का कथन है कि आमतौर पर उर्दू शब्द भाषा के लिए अठाहरवीं सदी के अंत में इस्तेमाल होना शुरू हुआ।”[4] अठाहरवीं सदी के अन्त तक हिन्दी, हिन्दवी, उर्दू, रेख़्ता, देहलवी, हिन्दुस्तानी, आदि लफ़्ज़ों  का समान रूप में प्रयोग होता रहा किंतु अठाहरवीं सदी के उत्तरार्ध में उर्दू शब्द के कुछ उदाहरण उर्दू ग़ज़लगों की शायरी में दिखाई देने लगते हैं –

ख़ुदा रक्खे ज़बाँ हम ने सुनी है ‘मीर’ ओ ‘मिर्ज़ा’ की

कहें  किस मुँह से हम  ऐ  ‘मुसहफ़ी’  उर्दू  हमारी है। – मुसहफ़ी ग़ुलाम  हमदानी

नहीं खेल ऐ ‘दाग़’ यारों से कह दो

कि  आती है उर्दू ज़बाँ  आते आते। – दाग़ देहलवी

उर्दू भाषा की उत्पत्ति के संदर्भ में रामधारी सिंह दिनकर महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए लिखते हैं कि – “उर्दू का जन्म खड़ी बोली में से संस्कृत और हिंदी के शब्दों को निकालकर हुआ है। यह भी ध्यान देने की बात है कि जब तक खड़ीबोली  में हिंदी और संस्कृत के शब्द बने रहे, तब तक उसका प्रचलित नाम भी हिंदी, हिंदवी अथवा रेख़्ता ही रहा। किंतु, जब इस भाषा पर फ़ारसी और अरबी का पूरा प्रभुत्त्व हो गया, तब से वह उर्दू कहलाने लगी।”[5] वहीं एहतेशाम हुसैन लिखते हैं कि “प्रत्येक भाषा की तरह उर्दू को भी सामाजिक आवश्यकताओं ने जन्म दिया, जिसमें धीरे – धीरे – धीरे सांस्कृतिक विचारों और साहित्यिक कृतियों का प्रवेश हुआ।”[6] अरबी फ़ारसी के प्रभाव से ही उर्दू भाषा का जन्म हिन्दू-मुस्लिम एकता की भाषा के रूप में हुआ और यही हिंदी मुस्लिम की एकता गंगा जमुनी तहज़ीब के रूप में जानी गयी। किंतु इस एकता की भाषा में उन्नीसवीं शताब्दी के शुरुआती दौर में भाषिक संक्रमण पैदा हुआ। जिसे हिंदी – उर्दू विवाद के रूप में जाना गया।

मूल संस्कारों के रूप में हिंदी पर संस्कृत के वृक्ष की परछाईं है तो उर्दू पर फ़ारसी, अरबी के वृक्ष की परछाईं। अधिकतर विद्वानों का मानना है कि हिंदी में अरबी, फ़ारसी, तुर्की शब्द बढ़ा देने और फारसी मुहावरे चला देने से ही उर्दू का जन्म हुआ, यह बिल्कुल सच है। जो यह मानते हैं कि हिंदी, उर्दू से निकली है उनकी की आलोचना करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ में लिखा है   – “कुछ लोगों का यह कहना या समझना कि मुसलमानों के द्वारा ही खड़ी बोली अस्तित्व में आई और उसका उसका मूल रूप उर्दू है जिससे आधुनिक हिंदी गद्य की भाषा अरबी फारसी शब्दों को निकालकर गढ़ ली गई, शुद्ध भ्रम या अज्ञान है।”[7] हिंदी-उर्दू के जो इतिहास लिखे गए हैं उनमें हिंदी के इतिहासकार उर्दू को नयी भाषा मानते हैं तो उर्दू के इतिहासकार हिंदी को नयी मानते हैं। उर्दू अदीबों ने तो यह तक सिद्ध कर दिया कि “भाषा के लिए हिंदी शब्द के सर्वप्रथम नामकरण का सारा श्रेय मुसलमान लेखकों और कवियों को ही दिया जा सकता है। हिंदुओं का इसमें ज़रा हाथ नहीं। इस बात को सभी आधुनिक उर्दू इतिहासलेखकों ने स्वीकार कर लिया है – ‘उर्दू-ए-क़दीम’, ‘तारीख़े नस्र उर्दू’, ‘पंजाब में उर्दू’, इत्यादि ग्रंथों के विद्वान लेखकों ने बड़ी खोज के साथ यह साबित कर दिया है कि उर्दू का सबसे पुराना नाम ‘हिंदी’ ही है।”[8] यह उचित नहीं लगता है। ऐसा मानने में इतिहासलेखकों और पाठकों के बीच आपसी समझदारी की कमी का अभाव ही नज़र आता है। फ़क़त समझ का फेर  है।

अतः  उम्र के लिहाज से नयी भाषा हिंदी नहीं, उर्दू है। उर्दू भाषा एवं साहित्य का सफ़र हिंदी-उर्दू विवाद के उथल-पुथल से भरा हुआ है। हिंदी-उर्दू के जन्म को लेकर जो विवाद है वह उपर्युक्त मतों के आधार पर ख़ारिज हो जाता है। कहा जा सकता है कि उर्दू, हिंदी से ही निकली है।

राष्ट्रीय एकता की कड़ी हिंदी ही जोड़ सकती है उर्दू नहीं। आज यहां 1652 मातृभाषायें तथा 5000 से ज्यादा बोलियां प्रचलित हैं। भारतीय संविधान में हिंदी सहित कुल 22 भारतीय भाषाओं को आधिकारिक भाषा के तौर पर आठवीं अनुसूची में जगह दी गई है। हिंदी यहां के 77 प्रतिशत से ज्यादा लोगों द्वारा बोली तथा समझी जाती है। भारत की संविधान सभा नें 14 सितंबर 1949 को सर्वसम्मति से इसे ‘राजभाषा’ का दर्जा प्रदान किया था। देश भर में हिंदी भाषा के प्रचार- प्रसार और संवर्धन को प्रोत्साहन देने के लिए वर्ष 1953 से, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के प्रयासों से 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है।

हिंदी-उर्दू बनाम हिंदुस्तानी का झगड़ा

तत्कालीन भाषा का एक नाम हिंदुस्तानी भी था। जिसका नामकरण यूरोपियन लोगों ने किया। सत्रहवीं-अठारहवीं सदी के दौरान जब विदेशी लोग भारत आए तो उन्होंने हमारे यहाँ कि भाषा को ‘इंडोस्तान'(Indostan) नाम दिया। फोर्टविलियम कॉलेज के हिंदी उर्दू अध्यापक जान गिलक्राइस्ट ने हिंदुस्तानी भाषा से संबंधित सोलह किताबें लिखीं, जिसमें ‘अंगरेजी-हिंदुस्तानी डिक्शनरी’ और ‘हिंदुस्तानी भाषा का व्याकरण’ किताब मशहूर हुई। गार्सा द तासी ने भी हिंदी-उर्दू के जिस नाम का प्रयोग किया वह ‘हिंदुस्तानी’ ही है। लेकिन बाद में उसे हिन्दू-मुस्लिम की साझी भाषा के नाम से जाना जाने लगा। हिंदुस्तानी नाम पर “सरकारी सनद की बाकायदा छाप उस समय लगी जब (सन् 1803 ई. में) कलकत्ते के फोर्टविलियम कॉलेज में, डॉक्टर जान गिलक्राइस्ट की देख रेख में, ईस्ट इंडिया कंपनी के यूरोपियन कर्मचारियों को देशी भाषा सिखाने के लिए एक महकमा कायम किया गया और हिंदू मुसलमान विद्वानों से उर्दू-हिंदी में पुस्तकें लिखवाई गईं। हिंदी-लेखकों में पंडित सदल मिश्र और पंडित लल्लूलाल जी प्रमुख थे, और मुसलमानों में मीर ‘अम्मन’ देहलवी आदि थे।”[9] ऐसा कहा जाता है कि जिस समय हिंदी उर्दू का झगड़ा चल रहा था और एक ओर वह संस्कृत-गर्भित हो रही थी, और दूसरी ओर फ़ारसी, अरबी शब्दों से लबरेज, उस समय एक तीसरी भाषा की उत्पत्ति हुई, उसी का नाम हिंदुस्तानी था। हिंदी-उर्दू बनाम हिंदुस्तानी का जो झगड़ा था उसके संदर्भ में गांधी जी का यह भी मानना था कि ‘हिंदी और उर्दू’ नदियां हैं और हिंदुस्तानी सागर है। हिंदी और उर्दू दोनों को आपस में झगड़ा नहीं करना चाहिए।’

अयोध्या प्रसाद खत्री हिंदुस्तानी भाषा का जन्मदाता उन लोगों को मानते हैं, जो उक्त दोनों विचारों के विरोधी थे और जो लिखित भाषा को बोलचाल की हिंदी के अनुकूल अथवा निकटवर्ती रखना चाहते थे। राजा शिवप्रसाद भी कुछ हद तक इसी विचार के थे। वास्तव में हिंदी-उर्दू के मिश्रित रूप से ही हिंदुस्तानी भाषा की निर्मिति हुई। हिंदुस्तानी भाषा को लेकर जो मुख्य विवाद था वह राष्ट्रभाषा और राजभाषा के संदर्भ में था। स्वतंत्रता आंदोलन की पृष्ठभूमि में यह विवाद तेज हुआ कि राष्ट्रभाषा हिंदी हो या उर्दू? राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा के मुद्दे पर हस्तक्षेप करते हुए गांधी जी ने हिंदुस्तानी का समर्थन किया। गांधी जी हिंदी-उर्दू की जगह उस हिंदुस्तानी भाषा का समर्थन करते थे जिसे उत्तर भारत के शहरों और गांवों में हिंदू, मुसलमान आदि बोलते हों, समझते हों और आपस के कारोबार में बरतते हों और जिसे नागरी और फ़ारसी दोनों में लिखा-पढ़ा जाता हो।

हिंदुस्तानी भाषा के पीछे अंग्रेज़ों का जो षड्यंत्र काम कर रहा था उसके संदर्भ में हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक शंभुनाथ लिखते हैं “उपनिवेशवाद एक तरफ हिंदी को उर्दू हिंदुस्तानी से लड़ाकर, दूसरी तरफ उसे भारत के दूसरे क्षेत्रों मराठी-बांग्ला-गुजराती-पंजाबी आदि की शब्द-पंरपरा और अर्थ-परंपरा से काट कर, तीसरी तरफ उसे हिंदी समूह की विभिन्न भाषाओं-उपभाषाओं, ब्रज, अवधि, मैथिली, भोजपुरी  आदि की विरासत से तोड़कर  किनारे कर देना चाहता था।”[10] सन् 1946 में कांग्रेसी मंत्रिमंडलों की स्थापना हुई, जिसमें हिंदुस्तानी भाषा नीति को रखा गया जो असफल रही। 15 अगस्त 1947 को देश विभाजन के साथ उर्दू पाकिस्तान की भाषा  बन गई। इससे हिंदुस्तानी का जो विवाद था कमज़ोर पड़ गया। हिंदी के समर्थकों का मानना था कि हिंदुस्तानी की आवश्यकता नहीं है। पर्याप्त विचार-विमर्श के बाद 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने नागरी में लिखी जानेवाली हिंदी भाषा को राजभाषा के रूप में स्वीकार कर लिया गया।

हिंदी-उर्दू विवाद :  नागरी और फ़ारसी लिपि 

भाषा को जिस रूप में लिखा जाता है उसे लिपि कहते हैं। लिपि से ही भाषा का  लिखित अस्तित्व जुड़ा होता है। लिपि के बिना भाषा का जो रूप हम देखते हैं वह वाचिक रूप कहलाता है। हर भाषा की अपनी एक अलग लिपि होती है। जो लिपि जितनी सरल एवं सुगम्य होगी वह भाषा उतनी ही समाज में लोगों के द्वारा सहज ही स्वीकार की जाएगी। हिंदी और उर्दू दोनों की लिपि क्रमशः देवनागरी एवं फ़ारसी है। देवनागरी लिपि को बाएं से दाएं लिखा जाता है तो फ़ारसी लिपि दाएं से बाएं की ओर। अक्सर कहा जाता है कि हिंदी और उर्दू को जो चीज़ अलग करती है वह लिपि ही है। लिपिभेद के कारण ही विद्वानों ने हिंदी और उर्दू को अलग-अलग माना है अन्यथा दोनों भाषाओं में इतनी अधिक समानता है कि शायद ही भारत की अन्य किसी दो भाषाओं में हो। व्याकरण ही किसी भाषा को अन्य भाषा से अलग करता है लेकिन यहाँ तो  हिंदी-उर्दू का व्याकरण समान है, दोनों के सर्वनाम एवं क्रियापद भी एक ही हैं। ऐसा कभी भी दो अलग भाषाओं में देखने को नहीं मिलता। उदाहरण के तौर पर देखें तो हिंदी और बांग्ला भाषा के व्याकरण अलहदा हैं। लिपिभेद ही इस हिंदी-उर्दू विवाद के सबसे बड़े मुद्दों में से एक था। जिसने इस विवाद को और ज्यादा गति प्रदान की। तत्कालीन समाज में सरकारी महकमों में कामकाज के लिए जो लिपि प्रयोग में लाई जा रही थी वह फ़ारसी लिपि थी। सरकारी महकमों में सेवाएं देने वालों में समाज के जो लोग शामिल थे उनमें हिंदू मुस्लिम की बहुलता अधिक थी। जब यह भाषिक विवाद शुरू हुआ तो लिपिगत भेद इसके केंद्र में था।

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में हिंदी-उर्दू के साथ फ़ारसी-नागरी लिपि का द्वंद भी शुरू हुआ। मुसलमानों के द्वारा उर्दू-फ़ारसी के हक़ में दलीलें दी जा रही थीं। पहली मर्तबा जब सैयद अहमद खां ने 1867 में पश्चिमीमोत्तर प्रांत में एक देशी भाषा में विश्वविद्यालय खोलने के लिए प्रस्ताव रखा (जिसके पीछे उनकी उर्दू भाषा की मंशा काम कर रही थी) और उर्दू की वकालत हेतु ‘अंजुमन-ए-तरक्क़ी-ए-उर्दू’ जैसे संगठन की स्थापना की तो वहीं दूसरी ओर हिंदू हिमायतियों के द्वारा फ़ारसी के स्थान पर नागरी लिपि के प्रयोग पर जोर दिया गया। अहमद खां के बाद राजा शिव प्रसाद सितारे हिंद ने  1868 ई. में तत्कलीन सरकार को एक प्रतिवेदन  ‘मेमोरण्डम कोर्ट कैरेक्टर इन द अपर प्रोविन्स ऑफ़ इंडिया’ लिखा जिसका उद्देश्य फ़ारसी लिपि को हटाकर नागरी लिपि बनाना था। कहते हैं कि यहीं से हिंदी-उर्दू विवाद की नींव डली और यहीं से लिपि आंदोलन की शुरुआत भी हुई। जिसके मुख्य प्रस्तोता सैयद अहमद खां और राजा शिव प्रसाद सितारे हिंद थे। जिन्होंने इस लिपिगत आंदोलन को मुक़म्मल आवाज अर्थात ज़मीन प्रदान की। हिंदू ‘हिंदी’ और मुसलमान ‘उर्दू’ के पक्ष में खड़ा था। दोनों ही हर तरह से अपनी अपनी भाषा को बचाए रखने के लिए जोर लगा रहे थे। आचार्य रामचंद्र  शुक्ल ने लिखा है कि “मुसलमानों की ओर से इस बात का घोर प्रयत्न हुआ कि दफ्तरों में हिंदी रहने न पाये, उर्दू चलाई जाये। उनका चक्र बराबर चलता रहा।”[11]

यह बात भी बिल्कुल सही है कि हिंदी – उर्दू  विवाद को समाधान देने वालों में बहुत ही गिने चुने लोग थे। बल्कि विवाद को बढ़ाने वालों की संख्या बेहद ज्यादा थी। तत्कालीन समय के न्यायमूर्ति शारदा चरण मित्र को यह मालूम हो गया था कि एक लिपि के बिना यह विवाद ख़त्म नहीं हो सकता और हिंदी-उर्दू तो क्या हिन्दू-मुस्लिम में भी एकता संभव नहीं। एकता के उद्देश्य से उन्होंने ‘एकलिपि विस्तार परिषद’ की स्थपना की और देवनागर पत्र आदि भी निकाले। किंतु इस संदर्भ में न तो उन्हें हिंदू ही और न ही मुस्लिमों का कोई ख़ास सहयोग मिला, तत्कालीन ब्रिटश सरकार तो यह एकता बिल्कुल भी नहीं चाहती थी। उनका एकलिपि का सपना  मुक़म्मल मंज़िल तक न पहुँच सका और असफ़ल रहा। हिंदी-उर्दू विवाद मूल रूप में लिपि संबंधी विवाद का विस्तृत रूप है। पदम् सिंह शर्मा के ठीक लिखा है कि “हिंदी उर्दू को दो भिन्न भागों में विभक्त करने का प्रधान कारण लिपि का भेद है। हिंदी उर्दू के विरोध की बुनियाद लिपि-भेद पर ही कायम हुई ; विरोध का महल इसी पर खड़ा है – दोनों भाषाओं में यही भेद एकता नहीं होने देता। यह लिपि-भेद यदि दूर हो जाय, तो हिंदी-उर्दू विवाद के बखेड़े कभी न हों, सब विरोध शांत हो जाय।”[12]

हिंदी-उर्दू और ब्रिटिश कूटनीति 

हक़ीक़त यह है कि हिंदी और उर्दू की वास्विक लड़ाई अंग्रेज़ों के भारत आगमन के साथ शुरू होती है। अंग्रेज़ हिंदी-उर्दू के आधार पर हिन्दू मुस्लिम को बांटना चाहता थे। इस हिंदी-उर्दू को अलग-अलग भाषा के रूप में स्थापित करने में फोर्ट विलियम कॉलेज की केंद्रीय महत्ता स्वीकार की जाती है। ब्रिटिश कूटनीति ‘फूट डालो और शासन करो” की नीति ने ही उन्हें एक दूसरे का दुश्मन बना दिया।  हिंदी-उर्दू विवाद महज़ एक भाषा या लिपि का विवाद भर नहीं था बल्कि यह एक ख़ास किस्म की सोच का विवाद रहा है। “खड़ी बोली हिंदी के विकास काल में हिंदी उर्दू का भद्दा झगड़ा पैदा हुआ, जो स्वाधीनता आंदोलन के काल से ही सांप्रदायिक राजनीति के साथ-साथ अब तक चल रहा है।”[13] इस हिंदी-उर्दू के विवाद को बढ़ाने में जितना योगदान ब्रिटिश कूटनीति का था उससे भी कई अधिक राजनीतिक एवं सांप्रदायिक भावनाओं ने इस विवाद की अग्नि में घी का काम किया है।  बहुत पहले गिलक्राइस्ट ने हिंदी को ‘गँवारू और हिंदुओं की भाषा’ कहा था। दरअसल हिंदी और उर्दू के बीच बढ़े फासले की मुख्य वजह आम जन का सांप्रदायिक विभजान नहीं था, यह उपनिवेशवाद का खेल था। जिसे फ्रेंच विद्वान गार्सा द तासी के माध्यम से समझा जा सकता है। जो  उन्होंने कहा वह औपनिवेशिक’ फूट डालो शासन करो’ की नीति का उदाहरण है – “हिंदी में हिंदू धर्म का आभास है – वह हिंदू धर्म जिसके मूल में बुतपरस्ती और उसके आनुषंगिक विधान हैं।… मैं सैयद अहमद खां जैसे विख्यात मुसलमान विद्वान की तारीफ में और ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहता। उर्दू भाषा और मुसलमानों से मेरा जो लगाव है वह कोई छिपी बात नहीं है… इस वक्त हिंदी की हैसियत भी एक बोली की – सी रह गई है, जो हर गाँव में अलग-अलग ढंग से बोली जाती है।”[14]

सर सैय्यद अहमद ने मुस्लिम समाज में जो हलचल पैदा की, उसके परिणाम बेशक एकायामी नहीं हैं। प्रारंभ  में उनका दृष्टिकोण बिल्कुल असांप्रदायिक था, जो बाद में सांप्रदायिक तो हुआ, लेकिन आखिरी दौर में उन्होंने गहरी आत्मालोचना की  – “मैं हिंदुओं और मुस्लिमों को एक ही आँख से देखता हूँ और उन्हें एक दुल्हन की दो आंखों की तरह देखता हूँ। राष्ट्र से मेरा अर्थ केवल हिंदू और मुस्लिम है तथा और कुछ भी नहीं। हम हिंदू और मुस्लिम एक साथ एक ही सरकार के अधीन समान मिट्टी पर रहते हैं। हमारी रुचि और समस्याएं भी समान। हैं अतः दोनों गुटों को मैं एक ही राष्ट्र के रूप में देखता हूँ”[15] दरअसल सैय्यद अहमद जी की जो हिंदू-मुसलमान को लेकर एक दुल्हन की दो सुंदर आँखें वाली भावना थी। वह जज़्बा बाद में ख़ुद नहीं बिखरा, हिंदुओं ने नहीं बिखेरा, अंग्रेजों ने उसे सभ्यताओं की टकराहट का ग्रास बना लिया था। बाद में उन्होंने मुसलमानों के प्रवक्ता के रूप में अपना रूपांतरण कर लिया। “उन्होंने 1869 में कहा, फारसी  बलिपि में  लिखी  हुई उर्दू  मुसलमानों की निशानी  है”[16] उसी समय से उर्दू मुसलमानों के लिए महज एक भाषा नहीं, उनकी संस्कृति, उनका इतिहास, यहाँ तक कि उनका मजहब बन गई। सैय्यद अहमद की  आलोचना करते हुए वीरभारत तलवार ने ठीक ही लिखा है कि “उर्दू को इस्लाम से जोड़ने की प्रक्रिया भी दिलचस्प थी। 18 वीं सदी के उत्तरार्ध से पहले उर्दू इस्लाम का प्रतीक कभी नहीं रही। उलटे वह एक गैरइस्लामिक जुबान समझी जाती थी। ज्ञान और कविता की भाषा फ़ारसी थी और धर्म की भाषा अरबी, जिसे समझने वाले आम मुसलमान तो क्या, पढ़े-लिखे मुसलमान भी बहुत कम थे।”[17] सैय्यद अहमद का  जो हिंदू-मुसलमानों को दो आँखों से देखने का नज़रिया था वह बाद में बदला था और उन्हें इस बात की पीड़ा बड़ी सताती रही कि अंग्रेज़ों ने उनका इस्तेमाल किया ।

इधर बाद में जो हिंदी आंदोलन चला उसमें बड़े-बड़े विद्वानों तथा संस्थाओं ने भाग लिया। हिंदी के हक़ में जो संस्थाएं खड़ी थीं उनमें आर्य समाज, दयानंद एंग्लो-वैदिक संस्थाएं, नागरी प्रचारिणी सभा, हिंदी साहित्य सम्मेलन आदि शामिल थे और सर सैयद अहमद खां, अंजुमन-ए-तरक्की उर्दू, मुसलिम लीग आदि द्वारा उर्दू का पक्ष लिया जा रहा था। हिंदी के विद्वानों की धारणा उर्दू के प्रति और उर्दू आलिमों की हिंदी के प्रति बेहद नकारात्मक और अश्लील हो चली थी। स्वयं भारतेंदु हरीशचंद्र जिन्होंने उर्दू में अनेक ग़ज़लें लिखीं, ने उर्दू को वेश्याओं और नाचने गाने वाले गँवारों की भाषा कहा। भारतेंदु ने ‘उर्दू का स्यापा’ लिखकर उसका मज़ाक बनाया। यही बात भारतेंदु मंडल के प्रतापनारायण मिश्र ‘उर्दू बीवी की पूंजी’ नामक निबंध में कहते हैं जिसमें वे उर्दू की तुलना तवायफ के कोठे से करते हैं। बाल कृष्ण भट्ट तो  हिंदी-उर्दू के विवाद को छोड़, मुसलमान को ‘माह जघन्य, नीच और परले सिरे के दुष्ट’ कहकर हिंदू-मुस्लिम के सांप्रदायिक सौहार्द को ठेस पहुँचाते हैं। यही नहीं वे हिंदी प्रदीप (जुलाई, 1881) में एक जगह तो यह कहने से परहेज भी नहीं करते कि ‘आर्यों के एकांत विरोधी मुसलमानों को अपना भाई समझना भूल है। यह वो समय था जब हिंदी-उर्दू का विवाद हिंदू-मुस्लिम के रूप बदल रहा था। भारत-पाकिस्तान का बंटवारा जो मुख्यतः हिंदुस्तानी क्षेत्र का बंटवारा था। नागरी लिपि के मामले में हिंदी का संघर्ष उर्दू के खिलाफ नहीं था, पर इसे यही रंग दिया गया और दीवारें खड़ी की गई।

‘उन्नीसवीं सदी का हिंदी नावजगरण बनाम हिंदी – उर्दू  की रस्साकशी’ नामक लेख में अमिष वर्मा ने एकदम सटीक विश्लेषण किया है – “हिंदी को ‘हिन्दू’ और उर्दू को ‘मुसलमान’ करने का जो काम उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में किया गया उसका असर अपने चरम पर आज नजर आ रहा है। उन्नीसवीं सदी में होने वाले हिंदी नावजगरण के विभिन्न पहलुओं और उसके नायकों को अपने-अपने ढंग से ‘डिफेंड’ करते हुए भी आज तमाम आलोचक और इतिहासकार के इस काल-खंड में ही हिंदी के ‘सोलह संस्कार’ हुए और उर्दू की पूरी ‘मुसलमानी’ हुई। हालांकि यह काम  फोर्ट विलियम कॉलेज और ईसाई मिशनरियों ने पहले ही शुरू कर दिया था लेकिन इसे अंजाम तक पहुँचाया उन्नीसवीं सदी के हिंदी आंदोलन ने।”[18]

हिंदी-उर्दू विवाद का दंश और गलती सुधार की इक्कीसवीं सदी 

यूँ तो इतिहास में ऐसी अनेक घटनाएं, विवाद व भूलें हुई जिनका पुरअसर आज तक देखा जा सकता है। इक्कसवीं सदी का भारत हिंदी-उर्दू विवाद का दंश हिंदू-मुस्लिम विवाद के रूप जिस तरह से झेल रहा है वह अत्यंत दुःखदायी है। लेकिन इस सरजमीं पर जो घटनाएं घटीं, विवाद हुए, भूलें हुई जिन्हें आज याद कर या देख कर रूह तक कांप जाती है। तक़सीम के लिए हिंदी-उर्दू विवाद ने एक चिंगारी का काम किया है। यदि हिंदी-उर्दू में यह विवाद न होता तो शायद उस वक्त इसके कारण जो हिंदू-मुस्लिम समुदाय के बीच दुश्मनी ने जन्म लिया, और जो तक़सीम हुआ वो न होता। साहिर के मन में उस वक्त न जाने क्या रहा होगा जब सन सत्तावन के आसपास उन्होंने यह गीत लिखा – ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है… तब चाहे उनके  मन में कुछ भी रहा हो लेकिन तक़सीम के बाद उन्हें इस हिन्दुस्तां पर रोना आया होगा और फिर तभी इस गीत के बोल फूटे होंगे… आज साझा सांस्कृतिक विरासत का टूटना, सांप्रदायिकता आदि फैलना भाषा संक्रमण से पैदा हुए माहौल की परिणति है। यह बिल्कुल स्पष्ट हो चुका है हिंदी-उर्दू विवाद भाषा विवाद न रहकर एक सांप्रदायिक विवाद में बदल चुका है। हमारे मन में आज उर्दू के नाम पर मुस्लिम और हिंदी के नाम पर हिंदू धर्म की धारणा बन जाती है। यह आश्चर्य की बात नहीं कि हमारे यहां भाषा का भी धर्म है। यह भारत भूमि की खूबसूरती नहीं विडंबना है कि हर चीज़ को हिंदू-मुस्लिम में बांटा जाता है। शायर अदम गोंडवी के अशआर यहां मौजूं बैठते हैं –

जो अक्स उभरता है रसखान की नज़्मों में

क्या कृष्ण की वो मोहक तस्वीर बदल दोगे।

जायस से वो हिंदी का दरिया बहके आया,

मोड़ोगे उसकी धारा, या नीर बदल दोगे।

यह आपस में लड़ने-झड़ने का समय नहीं है बल्कि इतिहास की गलतियों को सुधारने का वक़्त है। जितनी हिंदी हमारी है उतनी उर्दू भी। आज उर्दू हाशिए पर जा पहुंची है उसे बचाना उसका संवर्द्धन करना हमारा दायित्व है। इस बाबत हमारी सरकारों का भी ध्यान जाना चाहिए और तालीम देने वाले आलिम-अध्यापकों भी चाहिए कि वे भाषा को भाषा के रूप में पढ़ायें  न कि एक धर्म विशेष का सहारा लेकर। विजय बहादुर सिंह ठीक लिखते हैं – “हिंदी-उर्दू पहले से जितनी और अधिक करीब आकर घुल-मिल सकें, यह फ़िरकापरस्ती के इस वक़्त में सबसे बड़ा राष्ट्रीय और सांस्कृतिक उपहार होगा। जिस तरह मीर और ग़ालिब ने हिंदुओं को अलग रखकर शायरी नहीं की, उसी तरह हिंदी के लोग भी अल्पसंख्यक मुस्लिम बिरादरी को अलग और उर्दू की जनता मानकर न लिखें। कोशिश करें कि जो सांस्कृतिक पुल टूट गए हैं या टूट रहे हैं, वे न टूटने पाएं और शायरी के मार्फ़त दोनों आबादियाँ करीब आएं”[19] यह टिपण्णी बड़ी महत्त्वपूर्ण है जिसे अपनाया जाना चाहिए।

निष्कर्ष

हिंदी-उर्दू विवाद जो चला उसका सबसे बड़ा कारण ब्रिटिश शासन की कूटनीति ही थी जिसे हमारे अपनो ने समझने में भूल करदी। यह कहना बिल्कुल भी अति नहीं होगा कि आज जो हिंदुस्तान-पाकिस्तान हैं उनके विभाजन की शुरुआत हिंदी-उर्दू विवाद से ही शुरू हो गई थी। हिंदी-उर्दू विवाद को लेकर दरसअल किसी ने अपने हित से परे कभी सोचा ही नहीं  केवल हिंदू हिंदी और मुस्लिम उर्दू के उद्धार के लिए संघर्ष करते रहे और उन्हें  यह भी नहीं पता चला कि हमने जो संघर्ष किया दरअसल वो हिंदी-उर्दू के लिए नहीं हिंदू-मुस्लिम का बांटने भर का संघर्ष था। जिसमें ब्रिटिश शासन अपनी उपलब्धि समझता रहा। रामधारी सिंह दिनकर ने ठीक ही लिखा और यह बहुत जरूरी भी है – “भारत की संस्कृति, आरंभ से ही, सामासिक रही है। उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम, देश में जहाँ भी जो हिन्दू बस्ते हैं, उनकी संस्कृति एक है एवं भारत की प्रत्येक क्षेत्रीय विशेषता हमारी इसी सामासिक संस्कृति की विशेषता है। तब हिन्दू  एवं मुसलमान हैं, जो देखने में अब भी दो लगते हैं, किंतु, उनके बीच भी सांस्कृतिक एकता विद्यमान है, जो उनकी भिन्नता को कम करती है। दुर्भाग्य की बात है कि हम इस एकता को पूर्ण रूप से समझने में असमर्थ रहे हैं। यह कार्य राजनीति नहीं, शिक्षा और साहित्य के द्वारा सम्पन्न किया जाना चाहिए।”[20]

अतः निष्कर्ष के रूप में, पदम् सिंह शर्मा के विचारों पर अमल किया जाना चाहिए जिससे हिंदी-उर्दू के विवाद को खत्म किया जा सकता है- “हिंदी वाले उर्दू साहित्य से बहुत कुछ सीख सकते हैं। इसी तरह उर्दू वाले हिंदी के खजाने से फायदा उठा सकते हैं। यदि दोनों पक्ष एक दूसरे के निकट पहुँच जायँ और भेद बुद्धि को छोड़कर भाई भाई की तरह आपस में मिल जायँ तो वह गलतफहमियाँ अपने आप ही दूर हो जायँ, जो एक दूसरे को दूर किये हुए हैं। ऐसा होना कोई मुश्किल बात नहीं है। सिर्फ मजबूत इरादे और हिम्मत की जरूरत है, पक्षपात और हठधर्मी को छोड़ने की आवश्यकता है।”[21]

संदर्भ सूची

शंभुनाथ, हिंदी नवजागरण और संस्कृति, आनंद प्रकाशन, 2004, कोलकाता, पृ. 44

दिनकर, रामधारी सिंह, संस्कृति के चार अध्याय, लोकभारती प्रकाशन, 2018, नई दिल्ली, पृ. 329

दिनकर, रामधारी सिंह, संस्कृति के चार अध्याय, पृ. 335

शर्मा, पद्मसिंह, हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी, हिंदुस्तानी अकेडमी, 1932, यू. पी., पृ. 28

दिनकर, रामधारी सिंह, संस्कृति के चार अध्याय, पृ. 333

हुसैन, एहतेशाम, उर्दू-साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, 2016, इलाहाबाद, पृ. 2

शुक्ल, रामचंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, 2019, इलाहाबाद, पृ. 281

शर्मा, पद्मसिंह, हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी, पृ. 16

शंभुनाथ, हिंदी नवजागरण और संस्कृति, पृ. 36

शुक्ल, रामचंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ. 295

शर्मा, पद्मसिंह, हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी, पृ. 70

पांडेय, मैनेजर, साहित्य और इतिहास दृष्टि, वाणी प्रकाशन, 2016, दिल्ली, पृ. 100

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तलवार, वीरभारत, रस्साकशी, सारांश प्रकाशन प्राइवेट लिलिटेड, 2006, दिल्ली, पृ. 253

  1. विजय बहादुर सिंह (2015), ‘ये हिंदी ग़ज़ल क्या चीज़ है’, अलाव, वर्ष 2015: अंक 45 (मई-अगस्त) : पृ. 48

दिनकर, रामधारी सिंह, संस्कृति के चार अध्याय, पृ. 10

  1. शर्मा, पद्मसिंह, हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी, पृ. 173
  1. शंभुनाथ, हिंदी नवजागरण और संस्कृति, आनंद प्रकाशन, 2004, कोलकाता, पृ. 44
  2. दिनकर, रामधारी सिंह, संस्कृति के चार अध्याय, लोकभारती प्रकाशन, 2018, नई दिल्ली, पृ. 329
  3. दिनकर, रामधारी सिंह, संस्कृति के चार अध्याय, पृ. 335
  4. शर्मा, पद्मसिंह, हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी, हिंदुस्तानी अकेडमी, 1932, यू. पी., पृ. 28
  5. दिनकर, रामधारी सिंह, संस्कृति के चार अध्याय, पृ. 333
  6. हुसैन, एहतेशाम, उर्दू-साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, 2016, इलाहाबाद, पृ. 2
  7. शुक्ल, रामचंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, 2019, इलाहाबाद, पृ. 281
  8. शर्मा, पद्मसिंह, हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी, पृ. 16
  9. शर्मा, पद्मसिंह, हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी, पृ. 30
  10. शंभुनाथ, हिंदी नवजागरण और संस्कृति, पृ. 36
  11. शुक्ल, रामचंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ. 295
  12. शर्मा, पद्मसिंह, हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी, पृ. 70
  13. पांडेय, मैनेजर, साहित्य और इतिहास दृष्टि, वाणी प्रकाशन, 2016, दिल्ली, पृ. 100
  14. शुक्ल, रामचंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ. 298-299
  15. https://hi.m.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80%E2%80%93%E0%A4%89%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%82_%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6; 22 फवारी 2021 को देखा गया.
  16. शंभुनाथ, हिंदी नवजागरण और संस्कृति, पृ. 39
  17. तलवार, वीरभारत, रस्साकशी, सारांश प्रकाशन प्राइवेट लिलिटेड, 2006, दिल्ली, पृ. 253
  18. https://www.hindisamay.com/
  19. विजय बहादुर सिंह (2015), ‘ये हिंदी ग़ज़ल क्या चीज़ है’, अलाव, वर्ष 2015: अंक 45 (मई-अगस्त) : पृ. 48
  20. दिनकर, रामधारी सिंह, संस्कृति के चार अध्याय, पृ. 10
  21. शर्मा, पद्मसिंह, हिंदी, उर्दू और हिंदुस्तानी, पृ. 173

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