लेख

पूर्वोत्तर भारत का भाषिक परिदृश्य और हिंदी का भविष्य

वीरेन्द्र परमार

सारांश

पूर्वोत्तर भारत अनेक धर्मों, जातियों, सभ्यताओं और संस्कृतियों का संगम स्थल है। पूर्वोत्तर की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो शेष भारत से इसे अलग करती हैं। समन्वयकारी भावना इस क्षेत्र की अद्भुत विशेषता है। इस क्षेत्र में भारत और विश्व के विभिन्न क्षेत्रों से अलग-अलग मत और संस्कृति के लोग आए और इस समन्वयकारी संस्कृति में घुलमिलकर एकरूप हो गए। इस पुण्य भूमि में अनेक संस्कृति, सभ्यता, विचारधारा और परम्परा घुलमिलकर दूध में पानी की तरह एकाकार हो गईं। विभिन्न कालखंडों में यहाँ आर्य, द्रविड़, तिब्बती आदि आए और यहाँ के लोकजीवन के अंग बन गए। इसलिए यदि भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र को देश की सांस्कृतिक प्रयोगशाला कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। भाषा की दृष्टि से पूर्वोत्तर भारत अत्यंत समृद्ध है। इस क्षेत्र में 220 से अधिक भाषाएँ–बोलियाँ अस्तित्व में हैं, लेकिन अधिकांश भाषाएँ लिपिविहीन हैं।

बीज शब्द: असम, मणिपुर, त्रिपुरा, नागालैंड, पूर्वोत्तर, लोक

शोध आलेख

पूर्वोत्तर भारत अनेक धर्मों, जातियों, सभ्यताओं और संस्कृतियों का संगम स्थल है। पूर्वोत्तर की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो शेष भारत से इसे अलग करती हैं। समन्वयकारी भावना इस क्षेत्र की अद्भुत विशेषता है। इस क्षेत्र में भारत और विश्व के विभिन्न क्षेत्रों से अलग-अलग मत और संस्कृति के लोग आए और इस समन्वयकारी संस्कृति में घुलमिलकर एकरूप हो गए। इस पुण्य भूमि में अनेक संस्कृति, सभ्यता, विचारधारा और परम्परा घुलमिलकर दूध में पानी की तरह एकाकार हो गईं। विभिन्न कालखंडों में यहाँ आर्य, द्रविड़, तिब्बती आदि आए और यहाँ के लोकजीवन के अंग बन गए। इसलिए यदि भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र को देश की सांस्कृतिक प्रयोगशाला कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस क्षेत्र में लगभग 400 समुदायों के लोग रहते हैं और वे 220 से अधिक भाषाएँ बोलते हैं। पूर्वोत्तर की अधिकांश भाषाओं के पास अपनी कोई लिपि नहीं है, लेकिन लोककंठों में विद्यमान लोकसाहित्य अत्यंत समृद्ध और बहुआयामी है। संस्कृति, भाषा, परंपरा, रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार, वेश-भूषा आदि की दृष्टि से यह क्षेत्र अत्यंत वैविध्यपूर्ण, रंगीन, उत्सवधर्मी और जटिल है । सैकड़ों आदिवासी समूहों और उनकी अनेक उपजातियाँ, असंख्य भाषाएँ, भिन्न-भिन्न प्रकार के रहन-सहन, खान-पान और परिधान, अपने-अपने ईश्वरीय प्रतीक, धर्म और अध्यात्म की अलग-अलग संकल्पनाओं के कारण इस क्षेत्र का अपना सांस्कृतिक महत्व है। भाषा की दृष्टि से पूर्वोत्तर भारत अत्यंत समृद्ध है। इस क्षेत्र में 220 से अधिक भाषाएँ–बोलियाँ अस्तित्व में हैं, लेकिन अधिकांश भाषाएँ लिपिविहीन हैं। असमिया और अंग्रेजी असम की राजभाषाएँ हैं। असम की बराक घाटी में स्थित जिलों की राजभाषा बंगला है जबकि कार्बी आंगलोंग के स्वायत्त जिलों तथा नार्थ कछार के जिलों की राजभाषा अंग्रेजी है। कोकराझार और अन्य बोडो बहुल जिलों में बोड़ो भाषा को सहभाषा के रूप में मान्यता दी गई है। शिक्षा के क्षेत्र में त्रिभाषा सूत्र लागू है जिसके अंतर्गत असमिया के अतिरिक्त बंगला, हिंदी, बोड़ो तथा अंग्रेजी को भी सहयोगी भाषा के रूप में मान्यता दी गई है। मेघालय में खासी, जयंतिया और गारो तीन प्रमुख आदिवासी समुदाय के अतिरिक्त तिवा, राभा, हाजोंग, लाखेर, कार्बी, बाइते, कुकी आदि जनजातियों के लोग निवास करते हैं । मेघालय राज्य भाषा अधिनियम 2004 के अनुसार अंग्रेजी यहाँ की राजभाषा है। ईस्ट खासी हिल्स, वेस्ट खासी हिल्स, जयंतिया हिल्स और रि-भोई जिलों में खासी भाषा सहायक राजभाषा है। इसके अतिरिक्त ईस्ट गारो हिल्स, वेस्ट गारो हिल्स औए साऊथ गारो हिल्स जिले में गारो भाषा सहायक राजभाषा है। मेघालय में खासी भाषा बोलनेवालों की संख्या सबसे अधिक है। यहाँ लगभग 48 प्रतिशत लोग खासी और 32 प्रतिशत लोग गारो भाषा बोलते हैं। इसके अतिरिक्त बंगला, नेपाली, हिंदी, मराठी और असमिया भाषा भी बोली जाती है। मिज़ो, जाहू, लखेर, हमार, पाइते, लाई, राल्ते इत्यादि मिजोरम की प्रमुख भाषाएँ हैं। मिजोरम की राजभाषा मिज़ो है। मिज़ो भाषा चीनी-तिब्बती परिवार की भाषा है। यह मिज़ोरम और म्यांमार के चीन हिल राज्य में बोली जाती है। इसे दुहलियन भाषा के नाम से भी जानते हैं। मिज़ो भाषा मुख्य रूप से लुसेई बोली पर आधारित है, लेकिन इस भाषा में मिजोरम के अन्य आदिवासी समूहों की बोलियों के शब्द भी घुलमिल गए हैं। मिज़ो भाषा मिज़ोरम और उसके आसपास के क्षेत्रों जैसे, असम, त्रिपुरा और मणिपुर के कुछ हिस्सों में बोली जाती है। इस भाषा में पावी, पाइते, मार आदि भाषाओं के शब्द ही नहीं बल्कि काव्य-परंपरा भी उपलब्ध है। नागालैंड की एक समृद्ध भाषिक परंपरा है। नागालैंड की प्रत्येक जनजाति की अलग–अलग भाषा है और इन भाषाओँ के भीतर भी अनेक बोलियाँ हैं जो एक-दूसरे के लिए अबूझ हैं । उदाहरण के लिए, अंगामी जनजाति की अंगामी भाषा है और अंगामी भाषा की भी अनेक बोलियाँ है। इन बोलियों में भी अंतर है। किसी गाँव में एक बोली के भीतर भी भिन्नता है। भौगोलिक परिवर्तन के साथ यह भिन्नता उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। भाषाओँ–बोलियों का यह अंतर अन्य समुदायों और जनजातियों के बीच के संचार को बहुत कठिन बना देता है। नागालैंड की कोई भी स्थानीय भाषा सम्पूर्ण प्रदेश में नहीं बोली जाती है। अतः अंग्रेजी को नागालैंड की राजभाषा बनाया गया है जबकि नागामीज बोलचाल की भाषा बन गई है। Top of Formनागालैंड में लगभग 16 भाषाएं बोली जाती है। इसके अतिरिक्त इन भाषाओं की भी अनेक बोलियाँ है। जितनी जनजातियाँ उससे अधिक भाषाएँ। इस भाषाई परिदृश्य में परस्पर विचार–विनिमय कठिन हो जाता है। एक गांव की भाषा पड़ोसी गांव के लिए अबूझ है। इसलिए नागालैंड के निवासियों ने एक संपर्क भाषा विकसित कर ली है जिसका नाम नागामीज है । यह असमिया, नागा, बांग्ला, हिंदी और नेपाली का मिश्रण है। जार्ज ग्रियर्सन ने नागामीज को असमी का टूटा–फूटा रूप माना है, लेकिन भाषा वैज्ञानिक एम.वी.श्रीधर ने इसे ‘पिजन’ (Pidgin) भाषा कहा है। ‘पिजन’ का अर्थ है विभिन्न भाषाओँ के शब्दों के मेल से बनी ऐसी भाषा जो किसी समूह के लोगों के बीच संपर्क भाषा का काम करती हो। ‘पिजन’ की परिभाषा है “दो या दो से अधिक भाषाओँ के मिश्रण से विकसित ऐसी भाषा जिसका उपयोग ऐसे लोगों द्वारा किया जाता है जो एक–दूसरे की भाषा नहीं बोल–समझ सकते हों।” अतः नागामीज को पिजन भाषा कहना अधिक सार्थक और व्यावहारिक है। नागालैंड में नागामीज का उपयोग शिक्षित–अशिक्षित सभी लोगों द्वारा किया जाता है। प्रारंभ में यह मुख्य रूप से बाज़ार और व्यापार-संचार की माध्यम भाषा के रूप में विकसित हुई। राज्य की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी होने के बावजूद नागामीज संपर्क भाषा का कार्य करती है। यह कमोबेश सम्पूर्ण नागालैंड में बोली जाती है। समाचार और रेडियो स्टेशन, शिक्षा, राजनीतिक और सरकारी क्षेत्रों सहित आधिकारिक मीडिया में भी इसका उपयोग किया जाता है। इसे नागालैंड के सबसे बड़े शहर दिमापुर में बोडो-कछारी समुदाय की मातृभाषा के रूप में भी जाना जाता है। यद्यपि नागा लोगों की उत्पत्ति का निर्धारण करना मुश्किल है, लेकिन आमतौर पर इतिहासकारों का मानना है कि नागालैंड में नागा जनजातियों का आगमन अनेक कालखंडों और अनेक समूहों में हुआ। चीन और अन्य जगहों से विभिन्न नागा जनजातियों ने बर्मा होते हुए नागा पहाड़ियों में प्रवेश किया और नागालैंड और पूर्वोत्तर के अन्य प्रदेशों में अपना निवास बनाया। नागालैंड बीस से अधिक स्वदेशी नागा समूहों के साथ ही कई अन्य आप्रवासी समूहों का निवास है। ये सभी समूह अलग-अलग भाषाएँ बोलते थे। असम के मैदानी क्षेत्रों में नागालैंड के विभिन्न भाषाई समूह के सदस्यों और असम के मैदानी इलाकों में वस्तु विनिमय-व्यापार केंद्रों में संपर्क के कारण नागामीज मुख्य रूप से एक संपर्क भाषा के रूप में विकसित हुई। अहोम शासक नागाओं पर हमला करने और उस क्षेत्र को अपने अधीन करने के लिए अक्सर अभियान चलाया करते थे जिससे अलग-अलग समय में नागा और असमियों के बीच तनाव और शत्रुता पैदा होती थी । 14 वीं शताब्दी के अंत तक अहोम शासकों पर ब्राह्मणवादी हिंदू प्रभाव बढ़ता गया और धीरे-धीरे असमिया भाषा का उपयोग बढ़ने लगा। इसके बाद ताई भाषा का उपयोग पूरी तरह से बंद हो गया और इंडो-यूरोपीय असमिया भाषा राज्य के भीतर बोली जानेवाली मुख्य भाषा बन गई, लेकिन उस समय में भी नागामीज नागा हिल्स की संपर्क भाषा थी जो अधिकांश लोगों द्वारा बोली जाती थी। 1930 के दशक के बाद एक भाषा के रूप में नागामीज का प्रचार-प्रसार आगे बढ़ा। अंग्रेजी को नागालैंड की एकीकृत आधिकारिक राज्य भाषा के रूप में चुना गया था, लेकिन 5% से कम आबादी धाराप्रवाह अंग्रेजी बोल पाती थी। निश्चित रूप से अंग्रेजी बोलनेवालों की संख्या अत्यल्प थी। शिक्षक अक्सर कक्षा की चर्चाओं में और विषय वस्तु को ठीक से समझाने के लिए नागामीज का उपयोग करते थे । ज्यादातर नागा बच्चे अंग्रेजी की अपेक्षा नागामीज से परिचित थे और धाराप्रवाह नागामीज बोलते थे। आगे चलकर बहुसंख्यक आबादी द्वारा व्यापक रूप से नागामीज का इस्तेमाल होने लगा। वर्ष 1970 के दशक की शुरुआत में एम.वी.श्रीधर ने नागामी शैक्षिक सामग्री के निर्माण के इरादे से मानकीकरण प्रक्रिया शुरू करने की मांग की। उन्होंने नागा नेताओं और संबंधित अधिकारियों के साथ परामर्श किया जिसका उद्देश्य देवनागरी, असमिया, रोमन और बंगला लिपियों में से किसी एक लिपि को नागामीज के लिए अंगीकार करना था । इस बात पर सहमति बनी कि नागामीज के लिए रोमन लिपि को अपना लिया जाए। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान नागालैंड की अधिकांश जनसंख्या ईसाई धर्म को अपना चुकी थी और आमतौर पर रोमन लिपि से परिचित थी। इसलिए सभी लोग रोमन लिपि को अंगीकार करने पर सहमत हो गए । जातीय संघर्ष के बावजूद नागा और गैर-नागा लोगों के बीच संचार की आवश्यकता ने नागामीज के विकास और उपयोग के लिए प्रेरित किया । नागामीज धीरे-धीरे पूरे क्षेत्र और राज्य के विभिन्न भागों में फैल गई और वर्तमान में दैनिक जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में इसका उपयोग किया जाता है। अब यह व्यापक संचार की भाषा बन गई है। कालांतर में नागामीज का शब्द भंडार भी समृद्ध हो गया है और वक्ता किसी भी विषय पर इस भाषा में अपनी बात प्रस्तुत करने में सक्षम हैं। अनौपचारिक बातचीत के अलावा नागामीज भाषा का प्रयोग धार्मिक समारोहों, शिक्षा संस्थानों, अस्पतालों में भी किया जाता है । नागामीज ग्रामीण क्षेत्रों में संचार की पसंदीदा भाषा बन गई है। नागामीज में दो कारक और दो काल हैं । इसमें कोई लिंग नहीं होता है, हालांकि हिंदी प्रभाव के कारण विशेष रूप से हिंदी शब्दों और अभिव्यक्तियों में व्याकरणिक लिंग दिखाई देता है। इसमें 26 व्यंजन और 6 स्वर हैं। इसमें आनुनासिक स्वर नहीं हैं । सिक्किम सरकार ने प्रदेश की 11 भाषाओँ को राजभाषा घोषित किया है–नेपाली, लेपचा, भूटिया, तमांग, लिंबू, नेवारी, खम्बु राई, गुरुंग, मांगर, शेरपा और सुनवार। इन भाषाओँ के अतिरिक्त भी सिक्किम में अनेक बोलियाँ बोली जाती हैं जिनमें थमी, भुजेल, कुलुंगे, खलिंगे आदि प्रमुख हैं। नेपाली सिक्किम की प्रमुख भाषा है। इसे पहाड़ी और गोरखाली भी कहा जाता है। इसकी लिपि देवनागरी है। भूटिया, लेपचा और अन्य समुदाय भी नेपाली बोलते–समझते हैं। सिक्किम की लगभग 80 प्रतिशत जनता नेपाली बोलती–समझती है। वर्ष 1924 में दार्जिलिंग में नेपाली साहित्य सम्मलेन की स्थापना की गई थी जिसके बाद नेपाली भाषा का बहुआयामी विस्तार हुआ। अनेक नेपाली पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हुआ जिनमें “सिक्किम हेराल्ड” (1959), “कंचनजंघा” (1957), “तीनतारा” (1958) और “सिक्किम” (1966) प्रमुख हैं। इन पत्र–पत्रिकाओं ने नेपाली भाषा और साहित्य के विकास में उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह किया। सिक्किम का भूटिया समुदाय भूटिया भाषा बोलता है। भूटिया भाषा को सिक्कमी, तिब्बती और ड्रेनजोंग्पा भी कहा जाता है। यह सिक्किम की प्राचीनतम भाषाओँ में से एक है। यह पूर्ण रूप से तिब्बती मूल की भाषा है। लेपचा समुदाय लेपचा भाषा बोलता है। यह तिब्बती–बर्मी मूल की भाषा है। लेपचा भाषा की अपनी लेपचा लिपि है। लेपचा भाषा का प्रथम व्याकरण वर्ष 1876 में जेनरल जी.बी.मेनवारिंग द्वारा लिखा गया था। चागदोर नामग्याल ने 18 वीं शताब्दी के आरंभ में लेपचा लिपि की रूपरेखा तैयार की थी। लिंबू एक तिब्बती–बर्मी भाषा है जिसकी लिपि ‘सिरिजुंगा’ है। लिंबू भाषा और साहित्य बहुत समृद्ध है। श्री जे.आर. सुब्बा ने अपनी पुस्तक “हिस्ट्री एंड डेवलॉपमेंट ऑफ़ लिंबू लैंग्वेज” (2002) में पाठ्यपुस्तकों को छोडकर वर्ष 1951 से 2001 तक प्रकाशित 47 पुस्तकों एवं 34 पत्रिकाओं की सूची बनाई है। लिंबू भाषा में अनेक शब्दकोश भी प्रकाशित हो चुके हैं तथा वर्ष 1983 में आकाशवाणी, गंगटोक से लिंबू भाषा में प्रसारण भी आरंभ हो गया। लिंबू लोकसाहित्य, निबंध, कविता, उपन्यास आदि प्रकाशित हो चुके हैं। तमांग एक तिब्बती–बर्मी भाषा है जिसकी अपनी लिपि है। तमांग “संभोता” लिपि में लिखी जाती है जिसे “तमयक लिपि” भी कहते हैं। श्री बुद्धिमान मोकतन द्वारा लिखित “तमांग वंशावली” को तमांग भाषा की प्रथम पुस्तक माना जाता है। वर्ष 1957 से 1997 तक तमांग भाषा, संस्कृति, परंपरा और लोकजीवन पर लगभग 99 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सिक्किम में अभी छह तमांग भाषा विद्यालय संचालित किए जा रहे हैं। वर्ष 1995 में सिक्किम सरकार ने “खम्बु राई” भाषा को राजभाषा का दर्जा दिया। “खम्बु राई” भाषा की अपनी लिपि है। यह भाषा अभी अपनी शैशवावस्था में है, लेकिन दो विद्यालयों में इस भाषा में शिक्षा आरंभ कर दी गई है। नेवारी तिब्बती–बर्मी समूह की भाषा है जो “रंजना” लिपि में लिखी जाती है। “रंजना” लिपि का विकास ब्राह्मी लिपि से हुआ है। मांगर भी तिब्बती–बर्मी समूह की भाषा है जो मांगर लिपि में लिखी जाती है। मांगर लिपि को “अखरिका” लिपि के नाम से भी जानते हैं। यह सिक्किम की प्राचीनतम लिपि है। सिक्किम सरकार द्वारा घोषित मान्यता प्राप्त ग्यारह भाषाओँ में मांगर भी शामिल है। अखिल सिक्किम मांगर एसोसिएशन सिक्किम में मांगर भाषा के उन्नयन के लिए प्रयत्नशील है। सुनवार भाषा भी तिब्बती–बर्मी समूह की भाषा है जो सुनवार लिपि में लिखी जाती है। शेरपा भाषा भी तिब्बती–बर्मी समूह की भाषा है जो “संभोता” लिपि में लिखी जाती है। इस भाषा के विकास के लिए सरकारी और निजी स्तर पर प्रयास किए जा रहे हैं। गुरुंग समुदाय अपनी भाषा को “तमु” कहता है जो तिब्बती– बर्मी समूह की भाषा है। यह “खेमा” लिपि में लिखी जाती है। अखिल सिक्किम गुरुंग (तमु) बौद्ध संघ इस भाषा के विकास के लिए प्रयास कर रहा है। नेपाली इस प्रदेश की संपर्क भाषा है। नेपाली को भारतीय संविधान की अष्टम अनुसूची में शामिल किया गया है। बंगला और कोकबोरोक त्रिपुरा की राजभाषा है । यहाँ अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं जिनमें बंगला, कोकबोरोक, चकमा, लुशाई, मुंडारी, गारो, कुकी प्रमुख हैं। हिंदी भी व्यापक रूप से यहाँ बोली जाती है। चकमा समुदाय द्वारा चकमा भाषा बोली जाती है। चकमा भाषा में इंडो-आर्यन, तिब्बती-चीनी और मुख्य रूप से अराकान भाषा के शब्दों का मिश्रण है। उनकी भाषा को टूटी-फूटी बंगला और असमिया भाषा भी कहा जाता है। चकमा भाषा के पास अपनी बर्मी लिपि है, लेकिन उनका उपयोग नहीं होता है। येलोग बंगाला लिपि का उपयोग करते हैं। गारो समुदाय के लोग गारो भाषा बोलते हैं। गारो भाषा की असम में बोली जानेवाली बोडो कछारी, राभा, मिकिर आदि भाषाओँ से बहुत समानता है। भाषिक दृष्टि से गारो भाषा तिब्बती–बर्मी परिवार की भाषा है। ग्रियर्सन ने इसे बोडो वर्ग की भाषा बताया है। हलाम समुदाय के लोग अपनी हलाम भाषा बोलते हैं। जातीय रूप से हलाम समुदाय कुकी-चीन जनजाति मूल के हैं । उनकी भाषा भी कमोबेश तिब्बती-बर्मी परिवार की तरह ही है। हलाम को ‘मिला कुकी’ के रूप में भी जानते हैं, लेकिन भाषा, संस्कृति और जीवन शैली की दृष्टि से हलाम समुदाय कुकी जनजाति से बिल्कुल भिन्न है। जमातिया समुदाय के लोग कोकबोरोक भाषा बोलते हैं। मुंडा प्रोटो-ऑस्ट्रलॉइड जनजाति हैं। उनकी भाषा मुंडारी है जो ऑस्ट्रो-एशियाई परिवार से संबंधित है। ओरंग जनजाति के लोग टूटी-फूटी हिंदी में बात करते हैं। इनकी भाषा आस्ट्रेलियन भाषा समूह की भाषा है, लेकिन त्रिपुरा में वे अपनी भाषा में बात नहीं करते हैं, वे हिंदी मिश्रित बंगला भाषा बोलने में सहज महसूस करते हैं । जातीय रूप से त्रिपुरी समुदाय भारतीय-मंगोलियाई मूल के और भाषाई रूप से तिब्बती-बर्मी परिवार के हैं । वे कोकबोरोक भाषा बोलते हैं और लिखने के लिए बंगला लिपि का उपयोग करते हैं। त्रिपुरी समुदाय का एक वर्ग बंगालियों के संपर्क में आया जिसके कारण उसकी भाषा और संस्कृति पर बंगालियों का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है। कोकबोरोक भाषा बोरोक समुदाय की मातृभाषा है। बोरोक को त्रिपुरी भी कहा जाता है। बोरोक समुदाय की नौ उपजनजातियों अथवा कुल के लोगों द्वारा कोकबोरोक भाषा बोली जाती है। ये उपजनजातियां अथवा कुल हैं–देबबर्मा, रियांग, जमातिया, त्रिपुरी, नोआतिया, कलई, मुरासिंग, रूपिनी और उचई। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार कोकबोरोक बोलनेवालों की संख्या 8,80,537 (कुल जनसंख्या का 23.97 %) है। इस भाषा के पास गौरवमयी सांस्कृतिक परंपरा और समृद्ध लोकसाहित्य है। वर्ष 1897 में दौलत अहमद द्वारा प्रथम कोकबोरोक व्याकरण लिखा गया जिसका नाम “कोकबोरोमा” था। इसके बाद 1900 ई. में राधा मोहन ठाकुर की कोकबोरोक व्याकरण पुस्तक “कोकबोरोकमा” शीर्षक से प्रकाशित हुई। राधा मोहन ठाकुर की व्याकरण पुस्तक को त्रिपुरा सरकार ने प्रथम कोकबोरोक प्रकाशन के रूप में मान्यता दी है। कोकबोरोक त्रिपुरा में बोली जानेवाली वृहत चीनी–तिब्बती परिवार के बोडो– गारो उपवर्ग की भाषा है। पड़ोसी देश बांग्लादेश में भी यह बोली जाती है। असम की बोडो, दिमासा और कछारी भाषाओं से कोकबोरोक की बहुत निकटता है। ‘कोक’ का अर्थ भाषा और ‘बोरोक’ का अर्थ ‘मनुष्य’ है। इस प्रकार ‘कोकबोरोक’ का अर्थ मनुष्य की भाषा है। पहले ‘कोकबोरोक’ को ‘तिप्रा’ कहा जाता था। बीसवीं शताब्दी में इसका नाम परिवर्तन हुआ। पहली शताब्दी से कोकबोरोक के साक्ष्य मिलते हैं जब से तिप्रा राजाओं के ऐतिहासिक अभिलेख लिखे जाने लगे । कोकबोरोक की लिपि को “कोलोमा” कहा जाता था। राजरत्नाकर नामक पुस्तक मूल रूप से कोकबोरोक भाषा और कोलोमा लिपि में लिखी गई थी। बाद में दो ब्राह्मण, सुक्रेश्वर और वनेश्वर ने इसका संस्कृत में अनुवाद किया और फिर 19 वीं शताब्दी में इसका बंगला भाषा में अनुवाद किया गया । वर्ष 1979 में त्रिपुरा सरकार द्वारा कोकबोरोक को त्रिपुरा राज्य की आधिकारिक भाषा घोषित किया गया । इसके बाद 1980 के दशक से त्रिपुरा के स्कूलों में प्राथमिक स्तर से उच्च माध्यमिक स्तर तक इसकी पढ़ाई होने लगी। त्रिपुरा विश्वविद्यालय में वर्ष 1994 से कोकबोरोक में सर्टिफिकेट कोर्स और 2001 में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा कोर्स शुरू किया गया । त्रिपुरा विश्वविद्यालय द्वारा वर्ष 2015 से कोकबोरोक में एम.ए. का पाठ्यक्रम शुरू किया गया । कोकबोरोक भाषाभाषियों द्वारा इस भाषा को संविधान की 8 वीं अनुसूची में शामिल करने की मांग निरंतर की जा रही है । कोकबोरोक एक भाषा नहीं है, बल्कि त्रिपुरा में बोली जानेवाली कई भाषाओं और बोलियों का मिश्रण है। मणिपुर में मैतै के अतिरिक्त 29 आदिवासी समुदाय रहते हैं। यहाँ के निवासियो को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-(1) मैतै अथवा मणिपुरी और (2)आदिवासी। आदिवासी समुदायों को भी दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है–नागा समूह के आदिवासी और कुकी–चीन समूह के आदिवासी। मणिपुर में मणिपुरी अथवा मैतै आम बोलचाल की भाषा है। यहाँ के लगभग 54 % लोग मैतै बोलते हैं। मैतै इस राज्य की राजभाषा एवं संपर्क भाषा है। इसे मणिपुरी भाषा के नाम से जानते हैं। मीतैलोन मणिपुर की मैतै जाति की मातृभाषा है। मणिपुरी भाषा को अधिकांश भाषावैज्ञानिकों ने चीनी–तिब्बती भाषायी परिवार के अंतर्गत तिब्बती बर्मन भाषायी वर्ग की कुकी चीन भाषा के रूप में वर्गीकृत किया है। मणिपुरी भाषा की उत्पत्ति के संबंध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। ऐसी मान्यता है कि मणिपुरी भाषा उतनी ही प्राचीन है जितनी मैतै जाति। घाटी में रहनेवाले लोगों को मीतै अथवा मैतै कहा जाता है और उनकी भाषा को मैतेलोन/ मीतैलोन कहा जाता है। आदिवासियों की भाषा उन आदिवासियों के नाम से जानी जाती है, जैसे–तंगखुल, कुकी, पाइते इत्यादि। फिर भी मणिपुरी घाटी के लोगों के साथ–साथ पहाड़ी लोगों की भी संपर्क भाषा है। टी. सी. हडसन का मानना है कि मणिपुरी आसपास के पहाड़ी आदिवासियों के वंशज हैं और उनकी भाषा मणिपुरियों और आदिवासियों के बीच जुड़नेवाली कड़ी है। डॉ ग्रियर्सन की मान्यता है कि मणिपुरी कुकी–चीन भाषाओँ की दो शाखाओं में से एक है जो तिब्बती–बर्मी परिवार का एक भाषासमूह है। मीतै भाषा की लंबी और गौरवपूर्ण साहित्यिक परंपरा है। पहली शताब्दी से ही इसके साहित्य मिलते हैं। मीतै भाषा में विभिन्न विधाओं के लगभग एक हजार पांडुलिपियों की खोज हुई है। प्राचीन और मध्यकालीन साहित्य को ‘मीतै मयक’ लिपि में लिखा गया है जबकि आधुनिक साहित्य बंगला लिपि में लिखा गया है। ‘मीतै मयक’ लिपि की उत्पत्ति अस्पष्ट है। मीतै समुदाय के अतिरिक्त आदिवासी समाज के लोग भी मीतै अथवा मणिपुरी भाषा बोलते हैं। सभी आदिवासी समुदायों की अपनी अलग–अलग भाषाएँ और बोलियाँ हैं जिनका प्रयोग वे आपस में बातचीत के लिए करते हैं। पाइते जनजाति के पास अपनी पाइते भाषा है। ये लोग पाइते भाषा बोलते हैं जिसके दस रूप हैं। अधिकांश पाइते ‘तेईजंग’ और ‘दपजर’ भाषा रूपों का प्रयोग करते हैं। पाइते तिब्बती–बर्मी परिवार की कुकी–चीन शाखा से सम्बंधित भाषा है। शिक्षित पाइते हिंदी और अंग्रेजी भाषा का प्रयोग भी करते हैं। पाइते भाषा को लिखने के लिए रोमन लिपि का प्रयोग किया जाता है। राल्ते समुदाय के पास अपनी राल्ते भाषा है, लेकिन उसकी कोई लिपि नहीं है। वे अपने परिवार और सगे-संबंधियों से राल्ते भाषा में बातचीत करते हैं। ये लोग अन्य समुदाय के लोगों से मणिपुरी भाषा में बात करते हैं। थडाऊ समुदाय के पास अपनी थडाऊ भाषा है, लेकिन इसकी कोई लिपि नहीं है। लिपि के रूप में वे रोमन लिपि का प्रयोग करते हैं। शिक्षित लोग अंग्रेजी और हिंदी भी बोलते हैं। कुकी समुदाय तिब्बती–बर्मी परिवार की आस्ट्रो–एशियाई परिवार की भाषा बोलता है। कुकी समुदाय के सभी गोत्रों की भाषा समान है, लेकिन इसमें स्थानगत उच्चारण भिन्नता दिखाई पड़ती है। मणिपुरी भाषा से कुकी भाषा की समानता है। आईमोल समुदाय अपनी आईमोल भाषा बोलता है और लिखने के लिए रोमन लिपि का उपयोग करता है। टिड्डीमचीन समुदाय के लोग टिड्डीमचीन भाषा बोलते हैं। टिड्डीमचीन भाषा बर्मा (म्यांमार) के उत्तरी चीन हिल्स प्रांत की आम बोलचाल की भाषा है। तराव जनजाति की अपनी बोली है जिसे ‘तरावतरोंग’ कहते हैं। वेलोग मणिपुरी भाषा भी बोलते हैं और दूसरे समुदायों से मणिपुरी भाषा में बातचीत करते हैं। अनल समुदाय तिब्बती–बर्मी परिवार की भाषा अनल भाषा बोलता है और लिखने के लिए रोमन लिपि का उपयोग करता है। सांस्कृतिक दृष्टि से तंगखुल नागा जनजाति की माओ और मरम जनजाति से समानता है। पड़ोसी जनजातियों जैसे अंगामी, चाकेसांग और रेंगमा जनजाति से भी तंगखुल समुदाय की निकटता है। सामाजिक–सांस्कृतिक और जीवन शैली की दृष्टि से इन सभी जनजातियों में बहुत समानता है, लेकिन इन सभी की अपनी अलग–अलग भाषाएँ हैं। थंगल नागा समुदाय का मणिपुर की अन्य नागा जनजातियों के साथ घनिष्ठ संबंध है। सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक दृष्टि से थंगल नागा जनजाति की मरम, कबुई, जेलियांगरोंग आदि समुदायों से निकटता है। अधिकांश थंगल मरम भाषा समझ लेते हैं, लेकिन मरम लोग थंगल भाषा नहीं समझ पाते हैं। सांस्कृतिक और भाषिक दृष्टि से चीन हिल्स के निवासियों से मोनसंग समुदाय की बहुत समानता है। ये मोनसंग भाषा बोलते हैं जो तिब्बती–बर्मी भाषा परिवार की एक भाषा है। अनल भाषा से मोनसंग भाषा की बहुत समानता है। ग्रियर्सन ने मध्य चीन की भाषा से मोनसंग भाषा का संबंध स्थापित किया है जिसमें लुशाई भाषा भी सम्मिलित है। मोनसंग भाषा को लिखने के लिए हाल के दिनों तक बंगला लिपि का प्रयोग किया जाता था, लेकिन अब पढ़े–लिखे नवयुवक मोनसंग भाषा के लिए रोमन लिपि का उपयोग करने लगे हैं। इस समुदाय के लोग दूसरी जनजाति के लोगों से वार्तालाप के लिए मणिपुरी भाषा का उपयोग करते हैं। मोयोन, मोनसांग, लमगंग और अनल समुदाय की भाषाएँ पुराने कुकी समूह में शामिल हैं, लेकिन वेलोग अब स्वयं को नागा कहते हैं। सभी नागा समुदायों की अलग–अलग भाषा है। मरम जनजाति की अपनी मरम भाषा है। यह चीनी–तिब्बती भाषा परिवार की भाषा है। यह नागा–कुकी उपसमूह के तिब्बती–बर्मी भाषा परिवार की भाषा है। औपचारिक रूप से मणिपुर की दो राजभाषाएँ हैं–मणिपुरी (मैतै) और अंग्रेजी। मणिपुर के अतिरिक्त असम और त्रिपुरा के कुछ सीमित अंचलों में भी मणिपुरी बोली जाती है। इसे यूनेस्को द्वारा एक असुरक्षित भाषा के रूप में वर्गीकृत किया गया है। मणिपुरी भाषा भारतीय संविधान की अष्टम अनुसूची में शामिल है। यह मणिपुर में स्नातक स्तर तक की शिक्षा का माध्यम है। मणिपुरी को भारत के कुछ विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर स्तर तक एक विषय के रूप में पढ़ाया जाता है। मणिपुरी भाषा की अपनी लिपि है-मीतै-मएक । अरुणाचल प्रदेश में लगभग 25 प्रमुख जनजातियाँ निवास करती हैं। आदी, न्यिशी, आपातानी, हिल मीरी, तागिन, सुलुंग, मोम्पा, खाम्ती, शेरदुक्पेन, सिंहफ़ो, मेम्बा, खम्बा, नोक्ते, वांचो, तांगसा, मिश्मी, बुगुन (खोवा), आका, मिजी इत्यादि प्रदेश की प्रमुख जनजातियाँ हैं। इन सभी जनजातियों की अलग-अलग भाषाएं हैं, लेकिन लेकिन अधिकांश के पास अपनी कोई लिपि नहीं है । केवल खाम्ती भाषा की अपनी खाम्ती लिपि है, लेकिन इस लिपि का प्रयोग बहुत कम होता है। अरुणाचल की भाषाओँ में इतनी भिन्‍नता है कि एक समुदाय की भाषा दूसरे समुदाय के लिए असंप्रेषणीय है । डॉ. ग्रियर्सन ने अरुणाचल की भाषाओं को तिब्‍बती-बर्मी परिवार का उत्‍तरी असमी वर्ग माना है । यहाँ की राजभाषा अंग्रेजी है। कोई भी जनजातीय भाषा इतनी विकसित नहीं है कि उसे राज्य की राजभाषा बनाया जा सके। इसलिए अंग्रेजी को ही शासकीय कामकाज और राज्य विधानसभा के कामकाज के लिए प्रयोग किया जाता है। विधानसभा की बहस में हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओँ का प्रयोग किया जाता है। राज्य की सेवाओं में भर्ती परीक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। किसी परीक्षा में हिंदी का विकल्प नहीं है। राज्य की सेवाओं में प्रवेश के लिए अंग्रेजी का ज्ञान अनिवार्य है। राज्य सचिवालय एवं जिला स्तर पर कामकाज अंग्रेजी में होता है। केंद्र सरकार और अन्य राज्यों के साथ पत्राचार अंग्रेजी में किया जाता है। राज्य के अधिकांश कर्मचारी हिंदी पढना, लिखना एवं बोलना जानते हैं, परंतु हिंदी में प्राप्त पत्रों के उत्तर भी अंग्रेजी में दिए जाते हैं। सभी लोग संपर्क भाषा के रूप में हिंदी का प्रयोग करते है। विद्यालयों-महाविद्यालयों में व्यावहारिक रूप में माध्‍यम भाषा हिंदी है । हिंदी इस प्रदेश की संपर्क भाषा है। पूर्वोत्तर भारत के भाषायी वैविध्य के बीच हिंदी संपर्क भाषा के रूप में विकसित हो गई है। इस क्षेत्र में 220 भाषाएँ हैं और सभी एक दूसरे से भिन्न हैं। नागालैंड की आओ भाषा बोलनेवाला व्यक्ति उसी प्रदेश की अंगामी, चाकेसांग अथवा लोथा भाषा नहीं समझ सकता है। इसी प्रकार असम का असमिया भाषाभाषी उसी राज्य में प्रचलित बोड़ो, राभा, कार्बी अथवा मिसिंग भाषा नहीं समझ-बोल सकता है। इसलिए हिंदी पूर्वोत्तर भारत की आवश्यकता बन चुकी है। अपनी सरलता, आंतरिक ऊर्जा और जनजुड़ाव के बल पर हिंदी पूर्वोत्तर क्षेत्र में निरंतर विकास के पथ पर अग्रसर है। क्षेत्र के दूरस्थ अंचल तक हिंदी का पुण्य आलोक विकीर्ण हो चुका है। क्षेत्र की विभिन्न भाषाओं-बोलियों के रूप, शब्द, शैली, वचन-भंगिमा को ग्रहण व आत्मसात करते हुए हिंदी का रथ आगे बढ़ रहा है। हिंदी की विकास-गंगा पूर्वोत्तर के सभी घाटों से गुजरती है एवं सभी घाटों के कंकड़-पत्थर, रेतकण, मिट्टी आदि को समेटते तथा अपनी प्रकृति के अनुरूप उन्हें आकार देते हुए आगे बढ़ती है। यहाँ की हिंदी में असमिया का माधुर्य है, बंगला की छौंक है, नेपाली की कोमलता है, मिज़ो का सौरभ है, बोड़ो, खासी, जयंतिया, गारो का पुष्प-पराग है, आदी, आपातानी, मोंपा भाषा की सरलता है। इस क्षेत्र में हिंदी व्यापार, मनोरंजन, सूचना और जनसंचार की भाषा बन चुकी है। पूर्वोत्तर के नौ केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त राज्य के विश्वविद्यालयों में हिंदी के अध्ययन-अध्यापन व अनुसंधान की व्यवस्था है। यहाँ के हजारों मूल निवासी छात्र हिंदी का अध्ययन-अनुसंधान कर रहे हैं, यहाँ के सैकड़ों मूल निवासी हिंदी के प्राध्यापक हैं। अतः पूर्वोत्तर भारत में हिंदी का भविष्य उज्ज्वल है।

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