हिंदी पत्रकारिता का धर्म : अतीत, वर्तमान और भविष्य

डा. अजीत कुमार पुरी

सहायक प्रोफेसर,काशी हिंदू

विश्वविद्यालय, वाराणसी

सम्पर्क- 9968637345

ईमेल- akpuri.bhu@gmail.com

सारांश हिंदी पत्रकारिता ने मानव-मूल्य,जीवन-मूल्य,सृष्टि के समस्त जीवों के उत्थान के लिए, उसके संरक्षण के लिए काम किया। इसलिए यदि संसार के पत्रकारिता के इतिहास को देखा जाए, भिन्न-भिन्न भाषाओं में जो पत्रकारिता हुई है, तो कहीं ना कहीं हिंदी की जो पत्रकारिता है, उसका जो इतिहास है, उसमें जो जीवन मूल्यों को संरक्षित करने की उसकी प्रवृत्ति है,उसका एक बहुत गौरवपूर्ण स्थान दिखाई देता है।

बीज शब्द: पत्रकार, पत्रकारिता, धर्म, समाज

शोध आलेख

आज की परिस्थितियों को देखते हुए इस विषय पर विचार किया जाना चाहिए। जहां तक हिंदी पत्रकारिता की बात है, इसका इतिहास अत्यंत गौरवशाली रहा है। वैसे यदि हम भारत की चिंतन परंपरा में सूचनाओं के आदान-प्रदान की बात करते हैं तो सर्वप्रथम महर्षि नारद का नाम लेते हैं। इस उपलक्ष्य में नारद जयंती भी मनाते हैं। पत्रकारिता के आदिपुरुष के रूप में महर्षि नारद जी को स्वीकार किया जाता है। लेकिन हिंदी पत्रकारिता की जो बात है वह आधुनिक काल में प्रेस के अविष्कार से हुआ। ब्रिटिशर्स के आगे पीछे जैसे डच,पुर्तगाली,फ्रांसीसी आदि चारों आए तो इन्होंने बाइबल का भारतीय भाषाओं में अनुवाद करके ईसाईयत के प्रचार प्रसार करने का जो उपक्रम तथा अभियान चलाया। जिसकी प्रतिक्रिया में,प्रत्युत्तर में भारतीय नवजागरण अपने देशीय स्वरूप में पनपा। सभी को आवश्यकता थी,अपने विचारों के प्रचार-प्रसार करने की; ईसाइयत भारत में अपनी जड़ें जमाना चाहती थी और उस समय के भारतीय जो बुद्धिजीवी थे ,भारतीय संस्कृति चेता जो थे, वह उनका प्रतिकार करना चाहते थे। ऐसी परिस्थितियों में भारत देश में पत्रकारिता जन्म लेती है। अंग्रेजी पत्रकारिता की प्रथम भाषा बनी। धीरे धीरे बंगाल पत्रकारिता का प्रमुख क्षेत्र बनता है। हिंदी भाषा-भाषी संपूर्ण भारत में व्याप्त रहे हैं। एक समय था कि बंगाल में उनका बड़ा बोलबाला था तो हम देखते हैं कि हिंदी पत्रकारिता हिंदीतर प्रांतों से प्रस्फुटित होती है।

30 मई 1826 हिंदी पत्रकारिता की दृष्टि से कालजयी तिथि है,जब युगल किशोर शुक्ल “उदंत मार्तंड” का संपादन करते हैं। यह एक क्रांतिकारी एवं महत्वपूर्ण पत्रिका थी। किंतु अर्थ की समस्या से जूझते हुए यह अल्पावधि में ही बंद हो गई। लेकिन इस पत्रिका ने जो अक्षुण्ण अलख जगाई,वह भारतीय जनमानस में दैदीप्यमान रहा। कालांतर में अपनी सीमित संसाधनों के बावजूद भारतीय बौद्धिक चेतना अपनी जगह बनाती है। फिर बंगाल से निकलकर के पूरा भारत हिंदी पत्रकारिता का क्षेत्र बन जाता है। इसी क्रम में १८२५ में शिवप्रसाद सितारे हिंद “बनारस”अखबार निकालते हैं। भारतेंदु युग का आविर्भाव हिंदी पत्रकारिता के आविर्भाव का युग था। हम सभी जानते हैं कि भारतेंदु मंडली के साहित्यकार एक प्रबुद्ध साहित्यकार होने के साथ-साथ प्रखर पत्रकार भी थे। बालकृष्ण भट्ट,बालमुकुंद गुप्त,प्रताप नारायण मिश्र आदि कवि एवं साहित्यकार के साथ-साथ समर्थ पत्रकार भी रहे। तदुपरांत द्विवेदी युग के प्रारंभ में महावीर प्रसाद द्विवेदी जी 1903 में सरस्वती का प्रकाशन करते हैं तो उनके ध्येय में भी हिंदी साहित्य के साथ साथ हिंदी पत्रकारिता के प्रति निष्ठा और सेवा का भाव अंतर्निहित रहा । गणेश शंकर विद्यार्थी, श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी, माखनलाल चतुर्वेदी आदि अनेक बुद्धिजीवी लोग पत्रकारिता के माध्यम से साहित्य में प्रवेश करते हैं।

हिंदी पत्रकारिता अपना एक “निज-धर्म”लेकर चलती है । आजकल देखा जाए तो भारत में बहुत लोगों का मन धर्म को लेकर खराब हो जाता है । बहुतों की स्थिति “छुई-मुई” जैसी हो जाती है।[1] धर्म की बात अर्थात सत्य सनातन की बात । धर्म कोई रिलीजियस या पंथवादी एकनिष्ठ विचार नहीं है । हर व्यक्ति का, हर समूह का एक अपना धर्म होता है अर्थात अपना एक कर्तव्य होता है । उदाहरण स्वरूप जब श्री लक्ष्मण को शक्ति लगती है और सुषेण वैद्य को हनुमान जी लेकर आते हैं तो वह कहता है कि “मुझे चिकित्सा नहीं करनी चाहिए मैं लंकाधिपति का राजवैद्य हूं। मुझे शत्रु की चिकित्सा नहीं करनी चाहिए; और आपको भी मेरे ऊपर विश्वास नहीं करनी चाहिए क्योंकि मैं तो विरोधी पक्ष का वैद्य हूं।” [2] इस पर हनुमान जी एवं विभीषण आदि वैद्य के धर्म की बात करते करते हैं और कहते हैं कि”वैद्य और रोगी के बीच में एक अदृश्य संबंध होता है,विश्वास उसका आधार होता है इसलिए वैद्य को यह नहीं देखना चाहिए कि रोगी का काल, देश, परिस्थितियां क्या हैं? वह कौन है? कहां का है? किस कुल और वंश का है? इस आधार पर तो रोगी की चिकित्सा हो ही नहीं सकती; रोगी केवल रोगी होता है उसके प्रति वैद्य का धर्म है कि वह रोगी को हर प्रकार से निरोग करें। रोगी का परिचय तो द्वितीयक है । रोगी के निरोग होने के उपरांत भी परिचय प्राप्त किया जा सकता है।” ठीक उसी प्रकार हम भारतीय ज्ञान परंपरा में देखते हैं-राजधर्म, लोकधर्म आदि का उल्लेख एवं चर्चा विशद रूप में प्राप्त होती है।

ऐसे में पत्रकारिता का धर्म क्या हुआ? इस पर भी विचार करना चाहिए । इस संदर्भ में बार-बार आख्यान-व्याख्यान होने ही चाहिए । भारतीय स्वाधीनता आंदोलन जब चल रहा था उस समय तक ब्रिटिश राज्य लगभग आधे भारत पर व्याप्त था; शेष देशी रियासतें स्वतंत्र थी ।[3] उनकी अपनी प्रशासनिक व्यवस्थाएं थी । ब्रिटिशों से उनका अपना अनुबंध था; जैसे कि आज भारत ब्रिटिश राष्ट्रमंडल का सदस्य होकर के भी एक स्वतंत्र राष्ट्र है, ठीक उसी प्रकार देशी रियासतों का संबंध भी अंग्रेजों से था । अंग्रेजी राजदूत देशी प्रांतों में आते जाते थे किंतु उनकी आंतरिक संरचना एवं उनका शासन उनके ही अनुकूल था ।1857 के बाद ब्रिटिश संसद के द्वारा अनुमोदित ब्रिटिश शासन उतने ही हिस्सों तक था जहां तक लार्ड डलहौजी ने राज्य हड़पने की नीति के तहत ले लिया था । शेष भारत अपने अनुसार जीवन जी रहा था। तत्कालीन समय में जो उस समय की पत्रकारिता थी, वह ब्रिटिश शासन का विरोध इसलिए नहीं कर रही थी कि ब्रिटिशर्स अन्य है और उनके हर विचार का विरोध करना चाहिए। वह विरोध इसलिए कर रहे थे क्योंकि अंग्रेज झूठ से, छल से,कपट से भारत के लोगों को ठग करके एन केन प्रकारेण हिंसा से ,उत्पात से अपना शासन यहां बना रहे थे जो कि मानवोचित नहीं था ,यह असभ्यता थी । यह किसी सभ्यता का सूचक नहीं था , मानव धर्म के विरुद्ध था , सृष्टि के नियमों के विरुद्ध था ; इसलिए तत्कालिक पत्रकारों ने ब्रिटिश शासन का पुरजोर विरोध किया ।

स्वाधीनता यदि अंग्रेजों के लिए प्रिय है, फ़्रेंच के लिए प्रिय है, जर्मन के लिए प्रिय है तो भारत के लिए भी प्रिय होनी चाहिए । समग्रता में प्रत्येक देश के लिए प्रिय होनी चाहिए । इसलिए भारतीय पत्रकारिता ने उस समय का जो अपना धर्म निभाया या अपनाया वह था- अनाचार का, अत्याचार का, झूठ का, छल का,कपट का विरोध-प्रतिरोध करना था । उसने वह किया और सफलतापूर्वक किया। इसलिए ब्रिटिश राज्य के उन्मूलन के केंद्र में कहीं ना कहीं जो हिंदी पत्रकारिता,हिंदी प्रदेशों में व्याप्त थी उसका भी बहुत बहुत बड़ा योगदान है।

पत्रकारिता के इसी ताप के भय से अंग्रेजों ने बहुत से नियम बनाएं पत्रकारिता पर रोकथाम करने के लिए; मुख्य था-वर्नाकुलर एक्ट। इस एक्ट के तहत उस समय कई सारे समाचार पत्रों को बंद कर दिया गया जैसे ‘प्रताप’ ‘युवक’ आदि। “हिंदी प्रदीप” 33 वर्षों तक निकला बालकृष्ण भट्ट की अगुवाई में प्रयागराज से । विचारणीय है कि उस समय इतने अल्प संसाधनों के बावजूद इतने लंबे लंबे समय तक पत्र पत्रिकाएं निकलते थे। उसमें पत्रकार प्रमुखता से यह ध्यान रखता था कि “किस तरह से अपने पत्र में संसार भर की चिंतन के क्षेत्र की जो उत्कृष्ट चीजें हैं उसको ले आए,भारत की जो मूल समस्या है उसको रखे; नवजागरण की जो वाणी प्रस्फुटित हो रही थी स्वामी दयानंद के नेतृत्व में उसको स्थान दे । हिंदी भाषा का जो स्वरूप बन रहा था खड़ी बोली के माध्यम से, उसको भाषाई रूप से सजाएं सवारें सुगठित करें। इस तरह से देश काल में उपस्थित परिस्थितियां थीं- भाषायी, धार्मिक,सांस्कृतिक,राजनैतिक। और उस समय जो पत्रकारिता की भूमिका थी, उस में पत्रकारों ने अपना योगदान दिया और समय की मांग की पूर्ति का, पुरजोर प्रयास किया । जिसका परिणाम है कि अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा।

पत्रकारिता के प्रयास ने बहुत बृहद् स्तर पर आंदोलनों को खड़ा किया। कांग्रेस ने समझौते और आंदोलन दोनों की नीति अपनाई। परिणाम यह हुआ कि अंग्रेज कांग्रेस को समझौते के तहत राज्य देकर चले गए। स्वतंत्रता के पूर्व; जो स्वप्न पत्रकारों, आंदोलनकारियों ने देखा था,उस स्वप्न को साकार करने के लिए पत्रकार लिखते रहे,जो योजनाएं होनी चाहिए उस पर लेखन जारी रहा ।

राष्ट्रधर्म 1947 में लखनऊ से प्रकाशित हुआ और अद्यतन अधुनातन बना हुआ है। भाउराव देवरस और दीनदयाल उपाध्याय की योजना थी कि एक ऐसा पत्र निकले जो राष्ट्र की आकांक्षा कोई स्थान दे। यहां “राष्ट्र” शब्द पर विचार करना आवश्यक है । अंग्रेजी भाषा का दुष्प्रभाव होने से, अंग्रेजी रूपांतरण करके लोग इसका अर्थ निकाल लेते हैं कि राष्ट्र ‘नेशन’ है। जबकि ‘नेशन’ राष्ट्र नहीं है। राष्ट्र तो वह अमूर्त चेतना है जो किसी निश्चित भूभाग में रहने वाले लोगों के हृदय में निवास करती है । भारत में इस चेतना का विकास लाखों वर्ष पूर्व हो चुका है। संकल्प पाठ हम करते आ रहे हैं उसमें सृष्टि की पूरी आयु की गणना होते-होते वर्तमान काल तक आ करके फिर हम संकल्प लेकर कोई काम करते हैं। संकल्प पाठ क्या है? उसे भी समझना चाहिए। मेरे कहने का आशय यह है कि जो राष्ट्र धर्म है वह राष्ट्र की जो आकांक्षा है,चेतना है उसको वाणी देने का जो उद्योग है वो होना चाहिए। ऐसा पंडित दीनदयाल उपाध्याय जो भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्यों में से थे और प्रख्यात विचारक थे तथा भाउराव देवरस तत्कालीन सर संघचालक थे;दोनों का मानना था। कालांतर में राष्ट्र धर्म के संपादक का दायित्व अटल बिहारी वाजपेयी जी के मजबूत कंधों पर आ गया। वाजपेयी जी ने हिंदू तन मन हिंदू जीवन जैसे दिव्य पंक्तियों के साथ राष्ट्रधर्म का संपादन प्रारंभ किया । राष्ट्रधर्म का अपना एक ऐतिहासिक अवदान रहा है। हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में जो आज भी अद्यतन बना हुआ है। इस तरह से राष्ट्रधर्म भी हिंदी पत्रकारिता के जो बनाए हुए मार्ग थे जिस पर चलकर के भारत ने स्वाधीनता की लड़ाई मानव मात्र की आजादी की लड़ाई को लड़ा और स्वाधीनता प्राप्त किया, पर चला । स्वाधीनता के बाद राष्ट्र कैसा हो? इसको लेकर के विचार चलता रहा । स्वर्गीय दीनानाथ मिश्र, भानुप्रताप शुक्ल आदि राष्ट्रधर्म के प्रख्यात स्तंभ लेखक रहे, जिनके विचारों का प्रभाव रहा कि भारत की स्वाधीनता के बाद भारत में एक द्वितीय नवजागरण आया कि जब भारत अपने खोए हुए स्वरूप को पाने के लिए चल पड़ा । और हम देखते हैं कि 1992 तक आते-आते जो असंभव से कार्य थे, जो यह माने जाते थे कि भारत उस स्थिति को प्राप्त नहीं कर सकता, वह अपना खोया हुआ गौरव नहीं प्राप्त कर सकता; ये जो स्वतंत्रता के बाद की भारतीय पत्रकारिता और उसकी जो राष्ट्र के प्रति समर्पण है उसके प्रभावस्वरूप एक ऐसा जन आंदोलन,जो अयोध्या जन आंदोलन के नाम से विख्यात है, चला । इसको हम नकार नहीं सकते; यह भारतीय हिंदी पत्रकारिता का ही एक प्रभाव है,उसका बल है जिसमें उच्च कोटि के लेखकों ने एक ऐसा जनमानस तैयार किया कि आज हम देख पा रहे हैं कि अयोध्या अपने पुराने गौरव को प्राप्त कर रही है । वह जो एक ढांचा, टीस दे रहा था हिंदू समाज को, 450 वर्षों के पश्चात भी, उसको हटा दिया गया जनता द्वारा ; और फिर लंबी लड़ाई के बाद न्यायालय के द्वारा वह स्थान हिंदू समाज को प्राप्त हुआ। तो क्या इसमें हिंदी पत्रकारिता का कोई योगदान नहीं है? यह ऐसे ही हो गया? यह ऐसे ही नहीं हुआ,यह चिंतक, विचारशील जो लेखक थे,पत्रकार थे, जिन्होंने चीजों को बार-बार सामने रखा, अदम्य निष्ठा से तो उस के नाते यह सब संभव हुआ।

जहां तक वर्तमान पत्रकारिता है यदि उसकी स्थिति को देखा जाए तो चिंतनीय भी है,उत्साहजनक भी है; दोनों स्थितियां हमारे सामने दिखाई देती है । लेकिन इससे पहले अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे दो शब्द हैं मैं उनकी व्याख्या करना चाहूंगा, जहां भारतीय पत्रकारिता उसका सामना नहीं कर पा रही, उसका जवाब नहीं दे पा रही; वह शब्द है- भीड़ और दंगा । अंग्रेजों का भारतीय समाज के साथ कोई लगाव नहीं था और लगाव हो भी नहीं सकता था क्योंकि वे नौकरी करने के लिए पहले यहां आए और उसके बाद झूठ का सहारा लेकर ईस्ट इंडिया कंपनी के जो लुटेरे चोर उचक्के टाइप के थे, उन्होंने भारतीय राजनैतिक परिस्थितियों का लाभ उठा कर के यहां शासन ले लिया । उनके लिए समाज में घटने वाली जो घटनाएं थी तीज , त्यौहार थे, व्रत थे, उपवास थे, कुंभ का स्नान आदि किसी भी पर्व में यदि बहुत बड़ी संख्या में लोग इकट्ठे हो रहे थे तो उसको भी भीड़ के रूप में देखते थे; क्योंकि वह तो आत्मीयता से शुन्य थे इसलिए अंग्रेजों ने उन्हें चिन्हित करने का कष्ट भी नहीं उठाया । अतः भीड़ बोल कर के काम चला लेते थे । भेड़ और भेड़ में बहुत अंतर नहीं है; भीड़-भेड़‌- एक के पीछे एक।

वास्तव में भारतीय हिंदू समाज कई श्रेणियों, वर्गों, खापों, पंचायतों इन सब भौतिक इकाइयों में बंटा हुआ है अर्थात संयोजित है । जैसे शरीर के विभिन्न अंग हैं, वैसे ही सब समाज के अंग हैं । भारत में यह परंपरा रही है कि समूह को उसके नाम से संबोधित करना । वर्णाश्रम में चार समूह बनाए- ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,शूद्र। कर्म के आधार पर संयोजित यह एक बड़ा वर्ग था। फिर जैसे जैसे पेशे बनते गए वैसे वैसे जातियां बढ़ती गई; वैसे-वैसे संबोधन बढते गए। और आश्रमों में तो विदित है-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ,वानप्रस्थ, संन्यास यह सभी संबोधन हुए । विद्यार्थी,शिक्षक आदि अन्य कर्मगत संबोधन भी हुए, होते रहे हैं । कोई ऐसा वर्ग नहीं था जिसकी कोई पहचान न हो । उसके पहचान के साथ उसका संबोधन करना हमारा अपना तरीका रहा है । नहीं कुछ तो आत्मिक संबंध से “भाई” कहकर संबोधित कर लेते हैं। “संतो! आई ज्ञान की आंधी” [4] कबीर कहते हैं न; इसमें भी संबोधन है। लेकिन अंग्रेजों ने जो एक शब्द दे दिया क्योंकि वह तो आत्मिक संबंध शून्य थे; भीड़!! अब फिर वह भारतीय पत्रकारिता में चल पड़ा। अंग्रेजों को गए 73-74 साल हो गए 1947 के बाद से, लेकिन आप समाचार पत्र उठाकर देखें तो पत्रकार और समूह के बीच की जो दूरी है,खाई है वह आपको दिख जाएगी । वह लिखता है-लाखों की भीड़ इकट्ठी हो गई । जबकि वह देख रहा है कि वह एक भेष में,चिंतन में,एक विचार में जा रहे हैं चाहे वे कांवडिए हों, चाहे कुंभ के यात्री हों, चाहे अन्य देशाटन करने वाले हों । लेकिन आज भी समाचार पत्र एक बार उठा कर के देखें तो संबोधन क्या मिलेगा कि भीड़ !! हजारों की भीड़ इकट्ठी हो गई । ऐसे में जो संबंध है वह तो दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है । एक परायेपन के साथ संवाददाता जो है, खबर को अपने ही देश के एक दूसरे भाग में प्रस्तुत कर रहा है । वर्तमान हिंदी पत्रकारिता में यह जो परायेपन की स्थिति है, इसको विदा होना चाहिए। एक संवाददाता के लिए यह आवश्यक है कि वो उस समूह को उसके नाम से संबोधित करके, समाचार या खबर बना करके, उसको प्रस्तुत करे।

पत्रकारिता से इसी तरह एक और शब्द पनपा है- दंगा । अब यह किस भाषा का शब्द है? कहां से निकला है? उसकी खोज की जानी चाहिए । ईस्ट इंडिया कम्पनी जो थीं, जब समाज में स्थितियां हिंसक रूप ले लेती थी,हिंदू और मुसलमान समुदाय के बीच संघर्ष की स्थिति बन जाती थी,तो वे इसे दंगे शब्द का उपयोग करते थे । इससे चीजें स्पष्ट नहीं हो पाती हैं कि समस्या के मूल में क्या है?, अंग्रेजों को तो समस्या का समाधान करना नहीं था, उनके लिए तो कोई हिंदू हो या मुसलमान उनसे कोई मतलब नहीं था । उनको तो अधिक से अधिक कर इकट्ठा करना था, धन का दोहन करना था। और इसलिए लॉ एंड ऑर्डर के नाम पर ऐसे चीजों को वे दबा देना चाहते थे। भारतीय प्रशासन फिलहाल अभी उसी “मूड” में है। जब भी कोई उपद्रव होता है तो कर्फ्यू लग जाता है । समाचार पत्र ऐसी स्थितियों का जो चित्रण करते हैं,खबर बनाते हैं; तो छपते क्या हैं कि फला जगह में दंगा हो गया। अब आप पता करते रहिए, खोजते रहिए कि समस्या क्या है? तथा उसका मूल क्या है? उसमें दो पक्ष कौन है? झगड़ा क्यों हुआ? आपको पता ही नहीं चलेगा, आप एक भ्रम का शिकार होकर रह जाएंगे।[5]

हिंदी पत्रकारिता के लिए यह बहुत दयनीय स्थिति है । घटना जिस प्रकार से घटे उसको समाज के सामने उसी रूप में आना चाहिए और घटना शुरू कैसे हुई? घटना का अभियुक्त कौन है? इसका विवरण स्पष्ट रूप से समाज के सामने आना चाहिए; ताकि समाज को सही चीज का बोध हो सके। ‘दंगा’ शब्द भ्रम का निर्माण करता है । ‘भीड़’ भी भ्रम का निर्माण करती है । लेकिन हम जब इसका एक पक्ष और देखते हैं,तो पाते हैं कि हिंदी पत्रकारिता में ऐसा वर्ग भी,ऐसा समूह भी उभरा, राष्ट्रीय चेतना के विकास के साथ-साथ जिसने चिन्हित किया चीजों को; और अयोध्या आंदोलन जब तक चला, एक बहुत विशाल समूह जो श्री राम मंदिर की आकांक्षा लेकर आंदोलन करता था; उस समूह को “कारसेवक” के रूप में चिन्हित किया गया । विश्व हिंदू परिषद ने उस समय “कारसेवक” नाम से उपक्रम चलाया तो कारसेवक एक नया शब्द भारतीय हिंदी पत्रकारिता में प्रवेश कर गया। और इसके समानांतर “रामभक्त” शब्द भी चला;जैसे रामभक्तों ने यहां सभा की, यहां आंदोलन किया, यहां रैली निकाली। इस तरह से राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत जो समूह रहा,राष्ट्रधर्म उसकी अगुवाई कर रहा था;उसने हिंदी पत्रकारिता में नए नए शब्द गढ़े।

इस प्रकार हम देख सकते हैं कि हिंदी पत्रकारिता का आज का जो धर्म है,उसका जो कर्तव्य है,उस पर तो कुछ समूह निसृह भाव से चल रहे हैं,राष्ट्र में अपनी भूमिका निभा रहे हैं; किंतु दूसरा पक्ष भी है जो पत्रकार के भेष में क्रीतदास का आचरण कर रहे हैं । क्रीतदास अर्थात धन लेकर के चीजों को करना । अगर हम प्रकाशित समाचार पत्रों की बात करें तो वर्तमान में जो उसकी स्थिति है; अगर भाषा के स्तर पर देखें, तो एक समय में वह उर्दू से आक्रांत रही, अरबी-फारसी और हिंदी के शब्द से मिलकर एक भाषा बनी जो उर्दू कहलाई; हम सब जानते ही हैं वह कोई नई भाषा नहीं थी, लिखने की स्क्रिप्ट उसकी पर्शियन थी, इसलिए केवल इतना अंतर होने से उसे उर्दू के नाम से अभिहित किया गया। इसी आधार पर पाकिस्तान बना है;यह सारा देश,समाज जानता है। अरबी-फारसी के शब्दों की भरमार हिंदी में हो जाए,ऐसा एक वर्ग चाहता था; और उसके लिए यत्न भी करता था। लेकिन आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी जैसे प्रतापी, तपस्वी पुरुषों का यह अवदान है,उनका श्रम है,उनका पुरुषार्थ है, तप है कि खड़ी बोली हिंदी इन षड़यंत्रों से मुक्त हुई और विशुद्ध रूप से उसका एक स्वरूप बना, साहित्य में,पत्रकारिता में और काव्य में । ऐसे में हिंदी पत्रकारिता ने हिंदी भाषा को अपने उत्कर्ष तक पहुंचाया। हिंदी के पत्रकारों ने उस समय तो लड़ लिया,किंतु आज उर्दू तो नहीं,पर अंग्रेजी भाषा जो है, वह हिंदी को आक्रांत कर रही है। मुझे याद है 1995 में जब मैं दिल्ली गया था, तो नवभारत टाइम्स प्रकाशित होता था वहां से हिंदी में ; और आज 25 वर्षों के बाद भी जारी है। अगर आपको प्रतियां मिल जाए तो आप देखें दोनों को,आपको समझ में नहीं आएगा कि यह जो प्रतियां अब निकल रही हैं,क्या वह 25 साल पहले ऐसा था? 25 साल पहले के नवभारत टाइम्स की शब्द योजना उसके आलेख और उसकी भाषा का स्तर मिलता है क्या? क्या वह आज भी है? नहीं ! आज पूरी तरह से नाममात्र के हिंदी के शब्द और रोमन शब्द को देवनागरी में रख करके उस अखबार ने हिंदी भाषा की हत्या करने का एक संकल्प ले लिया है,ऐसा लगता है । और उसका दुष्प्रभाव यह है कि जो अन्य अखबार हैं, वह भी जाने अनजाने में अंग्रेजी भाषा के शब्दों को ला रहे हैं।

भाषा विचारों की वाहिका होती है। अगर वह बिगड़ेगी,तो विचार भी बिगड़ेगा। और हम देख रहे हैं कि जैसे जैसे शब्द जो हैं समाज से,अन्य चीजों में प्रवेश कर रहे हैं,पत्रकारिता के भी क्षेत्रों में प्रयोग में लाये जा रहे हैं। इससे जो पत्रकारिता की नींव रखी गई थी; हमारे पूर्वजों ने,हिंदी के पत्रकारों ने,आज डावांडोल हो रही है; संकट आ रहा है उस पर। इसलिए आज आवश्यकता है कि हिंदी पत्रकारिता का एवं पत्रकारों का जो धर्म है,उसे पुनः स्थापित करें; उसको हिंदी के पत्रकार निभाए; भाषा को बिगड़ने ना दें। पत्रकारिता में राष्ट्र विरोधी तत्वों का प्रवेश आज हो चुका है। अगर आप इलेक्ट्रॉनिक चैनलों को देखें तो आपको समझ नहीं आएगा कि एक ही घटना की व्याख्या कैसे कर रहे हैं? एक जगह आप देखेंगे तो वह चीज आपको सही दिखाई देगी, दूसरी जगह कोई पत्रकार उसकी गलत व्याख्या करेगा, वह गलत दिखाई देगी। ऐसे में सत्य क्या है? उसका पता लगाना कठिन हो जाता है। पत्रकार का मूल धर्म है-वस्तु स्थिति को बयां करना। लेकिन आज के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का जो पत्रकार है वह खबर नहीं परोस रहा, खबर देने के साथ वह उसका व्याख्याता भी हो जा रहा है। वहीं तत्काल वह व्याख्या करने लग जा रहा है। यह नहीं कि कुछ समय लेकर विचार-विमर्श करे जो उसका धर्म है; करना चाहिए। लेकिन ऐसा उद्यम न कर के वहीं तत्काल वह व्याख्या करने लग जा रहा है; जिससे एक भ्रम बन जा रहा है, जिससे जो पाठक या श्रोता है,वह जान ही नहीं पा रहा है कि सत्य क्या है?

एक समस्या और आई जो कि समय की देन है। एक समय था, जब पत्रकार अपने पत्र का स्वामी स्वयं हुआ करता था। गणेश शंकर विद्यार्थी ‘प्रताप’ के प्रकाशक,मुद्रक सब थे। उस समय भी वैतनिक-अवैतनिक पत्रकार हुआ करते थे। लेकिन अधिकांश के स्वामी पत्रकार स्वयं ही हुआ करते थे। आज की स्थिति बदल गई है। पत्रकारिता भी एक बहुत बड़ा व्यवसाय हो गया है,चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो, बहुत बड़ी मात्रा में निवेश करके चलाई जा रही है। हिस्सेदारी बनती बिगड़ती रहती है पूंजीपतियों की। पत्रकार की स्थिति डांवाडोल है। आज इस अखबार में हैं तो कल उस अखबार में, आज इस चैनल में हैं, तो कल उस चैनल में हैं। ऐसे में पत्रकार के सामने एक बहुत कठिन चुनौती है कि ऐसी कठिन परिस्थितियों में वह किस प्रकार से अपने बातों को रखे, सत्य का उद्घाटन करे, समाज की सेवा करे; और जो एक पत्रकार का मूल धर्म है- मानव हितों की बात करना, सृष्टि के हितों की बात करना, सत्य का साथ देना, अन्याय और अत्याचार का विरोध करना; जो हिंदी पत्रकारिता की नींव रही है, उसको निभाए। इस समय यह कठिन सा है क्योंकि पत्रकार तो मात्र संपादक है, स्वामी तो कोई और ही है। यह प्रारंभिक समय में भी था,थोड़ा कम था। किंतु अब तो यह ज्यादा है। इसलिए जहां तक भविष्य की बात है, हिंदी पत्रकारिता का भविष्य तो चुनौतीपूर्ण है। अंधकारमय तो मैं नहीं कह सकता क्योंकि भारत आज की स्थिति में समर्थ है,विश्व में इसकी पूछ है, और हिंदी भाषा बिना किसी सरकारी सहायता के, बिना किसी राजकीय संरक्षण के भी अपनी शक्ति से खड़ी है, अपनी चुनौतियों को दूर करने का प्रयास कर रही है, विकसित हो रही है,गतिशील हो रही है। इसका प्रमाण यह है कि आप जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया देखते हैं , तो हर प्रांत के जो नेता हैं या वहां के जो निवासी हैं; वह बड़े सहज भाव में हिंदी भाषा में अपनी बात रखते हैं। 25-30 साल पहले ऐसी स्थिति नहीं थी ।अगर कोई बाइट रखता था मीडिया के सामने, तो वह क्षेत्रीय भाषा में बोलते थे अथवा अंग्रेजी में बोलते थे। लेकिन अब हिंदी की व्याप्ति है इतनी कि अरुणाचल,केरल आदि सब जगहों पर इसका विस्तार हो रहा है। इसके विकास में हिंदी पत्रकारिता की जो भूमिका है वह बहुत बड़ी है। पत्रकारिता का धर्म चुनौतियों से घिरा हुआ उस समय भी था,जब इस का जन्म हो रहा था। लेकिन उस समय मेधावी पत्रकारों ने अपने त्याग से, तप से पत्रकारिता के धर्म को बचाए रखा, सत्य का उद्घोष किया,असत्य को निर्भीक होकर कहने का साहस रखा। विदित है कि कैसे बालमुकुंद गुप्त ने नाम[6] बदलकर “भारतमित्र” में तत्कालीन वायसराय का विरोध किया, खंडन किया, उस पर व्यंग किया था। “शिव शंभू के चिट्ठे” नाम से तो संग्रहित किए गए। उसी तरह से “चक्रपाणि शर्मा ‘द्विरेफ’ के नाम से महावीर प्रसाद द्विवेदी जी लिखा करते थे। इस तरह से विषम परिस्थितियों में भी हिंदी के पत्रकारों ने अपने धर्म को नहीं छोड़ा अर्थात् अपने कर्त्तव्य को नहीं छोड़ा था, अर्थात् जो पत्रकारिय दायित्व है उसको छोड़ा नहीं,उसको निभाया। राष्ट्रधर्म भी उस पर चलता हुआ आगे बढ़ा। उसके साथ जो पांचजन्य साप्ताहिक पत्रिका निकलती थी,उसने भी अपना योगदान दिया।

इस तरह से देखा जाए तो हिंदी पत्रकारिता ने मानव-मूल्य,जीवन-मूल्य,सृष्टि के समस्त जीवों के उत्थान के लिए, उसके संरक्षण के लिए काम किया। इसलिए यदि संसार के पत्रकारिता के इतिहास को देखा जाए, भिन्न-भिन्न भाषाओं में जो पत्रकारिता हुई है, तो कहीं ना कहीं हिंदी की जो पत्रकारिता है, उसका जो इतिहास है, उसमें जो जीवन मूल्यों को संरक्षित करने की उसकी प्रवृत्ति है,उसका एक बहुत गौरवपूर्ण स्थान दिखाई देता है। आज के संपादक रहे स्वनाम धन्य बाबू कृष्ण पराड़कर जी ने लिखा है कि आने वाले समय में समाचार पत्र रंगीन होंगे, चमक-दमक बढ़ेगी; लेकिन जो विचार है, वह वैसा नहीं रहेगा।[7] आज यह दिख रहा है कि क्षरण हुआ है, विचारों में कमी आई है। किस तरह से विज्ञापन भी खबर के रूप में प्रिंट होकर के सामने आ जा रहे हैं कि पता ही नहीं चल पा रहा है सामान्य पाठक को, कि वह विज्ञापन है या समाचार है; इस तरह से डिजाइन करके उसे छाप दिया जा रहा है। यह पाठक के साथ अन्याय ही तो है। इसलिए आने वाला जो भविष्य है, वह बहुत चुनौतीपूर्ण है। हिंदी के पत्रकार पहले भी चुनौतियों का सामना करके उसका प्रतिकार किए हैं, आगे भी करेंगे, ऐसी आशा है। और जैसा कि हम देख रहे हैं, “राष्ट्रधर्म” उसका नेतृत्व कर रहा है, उसका और फैलाव हो, विस्तार हो, ऐसे यत्न करना चाहिए।

संदर्भ

विद्यानिवास मिश्र – अनछुए बिंदु

रामचरितमानस लंकाकांड

1857 के युद्ध के बाद जब ईस्ट इंडिया कंपनी भंग हो गई और भारत का शासन सीधे ब्रिटिश संसद के द्वारा होने लगा था तबसे भारत कि एक इंच भूमि पर ब्रिटिश ने अतिक्रमण नहीं किया ।

श्यामसुंदरदास – कबीर ग्रंथावली

यह स्थिति आज भी बनी हुई है । पत्रकार यह बता सकने में अपने को असमर्थ पाते हैं कि आखिर कोई समूह जो हिंसा या फसाद कर रहा है तो उसकी पहचान क्या है। कानूनों जकडन बरकरार है।

बालमुकुंद गुप्त जी भारतमित्र में शिवशम्भु के छद्म नाम से लेख लिखते रहे जिसमे तत्कालीन वाइसराय कर्जन के नीतियों की समीक्षा होती थी ।

  1. पराडकर जी की किसी समय की गई उक्त टिप्पडी को तब समझा जा सकता है जब हिंदी पत्रों की स्वाधीनता से पूर्व और आज के साथ देखा जाए । पत्रकारिता और पत्रकार कहाँ पहुंच गए हैं , सहज अनुमान लगाया जा सकता है।
  1. विद्यानिवास मिश्र – अनछुए बिंदु
  2. रामचरितमानस लंकाकांड
  3. 1857 के युद्ध के बाद जब ईस्ट इंडिया कंपनी भंग हो गई और भारत का शासन सीधे ब्रिटिश संसद के द्वारा होने लगा था तबसे भारत कि एक इंच भूमि पर ब्रिटिश ने अतिक्रमण नहीं किया ।
  4. श्यामसुंदरदास – कबीर ग्रंथावली
  5. यह स्थिति आज भी बनी हुई है । पत्रकार यह बता सकने में अपने को असमर्थ पाते हैं कि आखिर कोई समूह जो हिंसा या फसाद कर रहा है तो उसकी पहचान क्या है। कानूनों जकडन बरकरार है।
  6. बालमुकुंद गुप्त जी भारतमित्र में शिवशम्भु के छद्म नाम से लेख लिखते रहे जिसमे तत्कालीन वाइसराय कर्जन के नीतियों की समीक्षा होती थी ।
  7. पराडकर जी की किसी समय की गई उक्त टिप्पडी को तब समझा जा सकता है जब हिंदी पत्रों की स्वाधीनता से पूर्व और आज के साथ देखा जाए । पत्रकारिता और पत्रकार कहाँ पहुंच गए हैं , सहज अनुमान लगाया जा सकता है।

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  1. हिंदी पत्रकारिता के अतीत, वर्तमान और भविष्य का एक सार्थक मूल्यांकन प्रस्तुत करता महत्वपूर्ण आलेख। हिंदी पत्रकारिता धर्म के आलोक में राष्ट्रधर्म की भूमिका को रेखांकित करती हुई आलेख।

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