गांधी जी के योगदर्शन की आधुनिक प्रासंगिकता

पवन चन्द्र

संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान

जवाहरलाल नेहरूविश्वविद्यालय नई दिल्ली

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सारांश: गांधी जी का अनासक्ति योग और एकदश महाव्रत मानव के आध्यात्मिक आचरण तथा उत्कृष्ट चरित्र के निर्माण में सहायक है। आज हम जिस समाज में रहते हैं वहाँ चारित्रिक पतन और मानवीय संवेदनाओं का ह्रास देखने को मिल रहा है। इन सभी विषयों का समाधान गांधी जी के योगदर्शन में ढूंढा जा सकता है। कैसे हम समाज में रहते हुये व्यक्तिगत परिवर्तन से समाजिक परिवर्तन की क्रान्ति को जन्म दे सकते हैं, ये सारे विषय गांधी जी के आध्यात्मिक दर्शन में प्रतिबम्बित होते हैं । हमारा अपने राष्ट्र के प्रति क्या दायित्व है? इसे अगर वास्तविक रूप में समझना है तो गांधी जी के योगमय विचारों की सूक्ष्मता को जानना भी आवश्यक है। जब तक हम अपने जीवन को योगमय नहीं बनायेंगे तब तक हम राष्ट्र के प्रति कर्मण्यता का भाव विकसित नहीं कर सकते। गांधी जी का योगदर्शन समाज के सभी वर्ग के लिये समान रूप से लागू होता है जिसमें सबके विकास तथा चरित्र के निर्माण की बात की गयी है। चरित्रवान व्यक्ति ही राष्ट्र को सही दिशा और दशा देने में सक्षम है।

शोध बीज : अनाशक्ति, योगदर्शन, महाव्रत, अष्टांगयोग, स्वदेशी , स्वधर्म, ब्रह्मचर्य ।

शोध आलेख

भारतीय ज्ञान परम्परा का केन्द्रबिन्दु अध्यात्मिक विषयों का आधार है। भारतीय साहित्य तथा इतिहास का अध्ययन इस बात का साक्षी है कि नित्य आध्यात्मिक गवेषणा और उस व्यक्ति का सम्यक् आचरण ही उसके सत्यशोधी पृथिवी-पुत्रों के जीवन का एक मात्र लक्ष्य होता है। जीवन को आध्यात्म के वक्षस्थल पर उतार कर ही जीवन की वास्तविक साधना पूर्ण हो पाती है। गांधीजी का व्याख्यान सुनकर हजारों व्यक्ति देश सेवा की भावना से प्रेरित होकर दनदनाती गोलियों के सामने खडे हो गये जो गांधी स्वयं गोली के हृदय वेधी विष को हे ! राम कहकर पी गये, महावीर और बुद्ध ने अतुल्य वैभव को छोडकर तितिक्षा के साथ वनों में तप के भाव को स्वीकार किया। वस्तुतः ये सारे विषय सामान्य आचरण से सम्भव नहीं हैं अपितु आध्यात्मिक आचार से ही इनकी सिद्ध हो पाती है। आध्यात्मिक आचारण से ही एक दृढ संकल्प का निर्माण होता है। आध्यात्मिक आचरण को सामान्य व्यक्ति स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि उसके लिये मन वाणी और कर्म से जीवन को योगमय बनाना पडता है। योग के विभिन्न आयामों पर जीवन के चरित्र की परीक्षा का प्रतिफल ही उसे सिद्ध कर्मयोगी बनाने में सहायक होता है। योगमय जीवन से आध्यात्मिक चरित्र के निर्माण में लिये योगीपुरुष बनाने की आवश्यकता होती है, और अन्त में वही योगीपुरुष युग-पुरुष के रूप में समाज की दिशा और दशा परिवर्तित कर देता है। योगी से युग-पुरुष बनने की स्थिति में जीवन को सही दिशा में निर्देशित करने के लिये किसी पथ प्रदर्शक की आवश्यकता होती है अथवा किसी ऐसे उदीपक की जो हमारे जीवन की दिशा बदल सके। गांधी जी के आध्यात्मिक चरित्र का यह एक विशेष पहलू है जब उनके जीवन में राजचन्द्र जी का आगमन हुआ था। भारतीय ज्ञान परम्परा में गुरु-शिष्य परंपरा के अतिरिक्त सत्संगति और वैचारिक मार्गदर्शन की उपरोक्त परंपरा भी बहुत ही जीवंत रूप से विद्यमान रही हैं। जिसमें कुछ स्थितयों में यदि दो व्यक्तियों के बीच प्रत्यक्ष संवाद न भी हो रहा हो, तब उस प्रभावी व्यक्ति के गुणदर्शन से गुणग्रहण का आदर्श सर्वदा रहा है। महान शिक्षाविद् विनोबाभावे द्वारा इसे ‘गुणदर्शन’ कहा गया था। जैन धर्म-दर्शन के ग्रंथ समणसुत्तं में कहा गया है –

गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू, गिण्हाहि साहूगुण मुंचऽसाहू।

वियाणिया अप्पग-मप्पएणं, जो राग-दोसेहिं समो स पुज्जो।। श्रमणधर्म सूत्र ७

अर्थात् कोई भी गुणों से ही साधु होता है और अगुणों से असाधु. अतः साधु के गुणों को ग्रहण करो और असाधुता का त्याग करो ।निर्गुण भक्ति काव्यधारा के संत कबीर जी ने भी एक साधु व्यक्ति की संगति के विषय में लिखा है कि –

संगत कीजै साधु की, कभी न निष्फल होय

लोहा पारस परस ते, सो भी कंचन होय ।। दोहावली- 623

महात्मा गांधी जब इंग्लैंड से बैरिस्टर की पढाई पूरी कर के लौटे थे तब 1891 ई. में पहली बार श्रीमद् राजचन्द्र से गांधी की मुलाकात हुयी थी। राजचन्द्र जी की शास्त्रीय ग्रन्थों में गूढ पकड,विषयों के तर्कात्मक प्रतिपादन की शैली ने गांधी जी को इतना प्रभावित किया कि उन्होने श्रीमद् राजचन्द्र को अपने आध्यात्मिक गुरू के रूप में चुना। जबकि राजचन्द्र जी गांधी जी से मात्र 2 वर्ष ही बडे थे। जब गांधी जी से उनकी पहली मुलाकात हुयी थी तब उनकी उम्र मात्र 24 वर्ष की थी। जन्म के बाद उनका नाम लक्ष्मीनंदन रखा गया था जिसे चार साल की उम्र में बदलकर उनके पिता ने रायचंद कर दिया, बाद में वे खुद को राजचंद्र कहने लगे जो रायचंद का संस्कृत रूप है। श्रीमद् राजचंद्र के बारे में कहा जाता है कि उन्हें अपने पिछले कई जन्मों की बातें भी याद थी। उस समय पर उनकी पहचान परंपरागत जैन धर्म के मुनि के तौर पर नहीं बल्कि आत्म-साक्षात्कार का ज्ञान देने वाले संत के रूप में अधिक थी। गांधी जी का आध्यात्मिक साक्षात्कार करने का श्रेय भी राजचन्द्र जी को ही जाता है। अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग मे’ गांधी जी ने पूरा एक अध्याय श्रीमद् राजचन्द्र जी के ऊपर ही लिखा है। थॉमथ वेबर ने केम्ब्रिज विश्वविद्यायल से प्रकाशित प्रसिद्ध पुस्तक ‘गांधी एज़ डिसाइपल एंड मेंटोर’ नामक अपनी पुस्तक में लिखा है कि गांधी जी के जीवन में एक समय ऐसा भी आया जब उनका झुकाव हिन्दू धर्म से हट कर ईसाई तथा इस्लाम धर्म के प्रति हुआ थायहां तक की गांधी जी के मन में धर्मपरिवर्तन करने तक का ख्याल भी आया। उस दौर में जब गांधी जी धार्मिक उलझनों के बीच फंसे थे तथा एक प्रकार की अध्यात्मिक और वैचारिक उथल-पुथल से गुज़र रहे थे तब श्रीमद राजचंद्र के शब्दों से उन्हें शांति मिली ।गांधी ने लिखा है, “उन्होंने मुझे समझाया कि मैं जिस तरह के धार्मिक विचार अपना सकता हूँ वो हिंदू धर्म के भीतर मौजूद हैं, आप समझ सकते हैं कि मेरे मन में उनके लिए कितनी श्रद्धा है” तब उन समस्त संशयों का निवारण श्रीमद् राजचन्द्र जी ने ही किया और साथ ही गांधी जी को हिन्दू धर्म की महानता का भी एक गूढ परिचय कराया। इसीलिये गांधी जी ने अपने मित्र हेनरी पॉलक से कहा था कि वे श्रीमद् राजचन्द्र जी को अपने समय का सर्वश्रेष्ठ भारतीय मानते हैं।

अनासक्ति योग और आचार

योग का ज्ञान कई युगों पुराना है। वेदों, उपनिषदों से लेकर भगवान कृष्ण के योगदर्शन तथा पतंजलि के योगसूत्र तक सभी ने मानव जीवन में योग की महत्ता का प्रतिपादन किया है। योग की छाया में मानव अपने आध्यात्मिक चरित्र के निर्माण में सफल हो पाता है, और साथ ही मानव जीनव के परम लक्ष्यों की खोज में अपनी ज्ञानात्मक चेनता से संसार के उत्थान में अपने कर्मों की दिशा का अनुकरण करता है। महर्षि पतंलजि ने योग की परिभाषा देते हुये चित्त की वृत्तियों के निरोध को योग माना तथा ‘योगश्चितवृत्तिनिरोधः’(योगसूत्र.1.2) कहकर योगदर्शन के सूत्र का प्रणयन किया। महात्मा गांधी जी का योग दर्शन वस्तुतः भगवान कृष्ण की भगवद्गीता से काफी प्रभावित है। भगवान कृष्ण ने भी आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर सभी स्थितियों में समत्व का भाव रखने की स्थिति योग माना है।

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।

सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। गीता,2.88

राष्ट्रपिता महात्मा गॉंधी ने भी अपने जीवन में कई वर्षों तक अनासक्ति योग का पालन किया है। गांधी जी ने भगवद्गीता का सरल हिन्दी अनुवाद किया अपनी उस पुस्तक को उन्होंने ‘अनासक्ति योग’ का नाम दिया। हालांकि महात्मा गांधी जी ने ‘अनासक्ति योग’ की प्रस्तावना की में इसे उपनिषदों का सार स्वीकार किया है। गांधी जी ने इसी ग्रन्थ की प्रस्तावाना में लिखा है कि मुझे गीता का प्रथम परिचय एडविन अर्नाल्ड के पद्य के अनुसार सन् 1888-89 में हुआ था। जिससे गीता का गुजराती अनुवाद पढने की तीव्र इच्छा हुयी और उसके यथा सम्भव अन्य अनुवादित संस्करणों को भी गांधी जी द्वारा पढा गया। उस समय भी गीता के उच्चकोटी के संस्कृत अऩुवाद टीकायें थी, और मेरा संस्कृत का ज्ञान भी अल्प है फिर भी मैने गीता का अनुवाद करने की धृष्टता क्यों की ? यह प्रश्न स्वयं गांधी जी का खुद से था। गांधी जी का मानना था कि उन्होंने गीता को जिस स्तर तक समझा उस स्तर तक उन्होंने खुद तथा उनके साथियों ने गीता के अनुकूल आचारण करने का प्रयास भी किया। गांधी जी ने गीता को आध्यात्मिक ग्रन्थ माना तथा स्वीकार किया कि उसके अनुवाद आचरण में निष्फलता रोज आती है पर वह निष्फलता हमारे प्रयत्न रहते हुये है, इस निष्फलता में सफलता की फूटती हुयी किरणें दिखायी देती हैं। यह नन्हा सा समुदाय जिस अर्थ को आचार में परिणत करने का प्रयत्न करता है वह इस अनुवाद में है। गांधी जी के आध्यात्मिक आचार के परिवर्तन में गीता का एक विशेष योगदान रहा है। शास्त्रों के सिद्धान्तों की वास्तविक सफालता हमारे आचार के सकारात्मक परिवर्तन की सर्वोत्कृष्ट सीमा है। जो की गांधी जी के अनासक्ति योग प्रक्रिया में देखने को मिलता है। सिद्धान्त से आचारण तक की सफलता ही वस्तुतः योग की सर्वोत्कृष्ट प्रक्रिया है।

एकादश महाव्रत और अष्टांग योग

आज से हजारों साल पहले महर्षि पतंजलि योगसूत्र की रचना की जिसमें योग के द्वारा शरीर, मन और प्राण की शुद्धि तथा परमात्मा की प्राप्ति के लिए आठ प्रकार के साधन बताये हैं, जिसे अष्टांग योग कहते हैं। योग के ये आठ अंग हैं – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि। इनमें पहले पांच साधनों का संबंध मुख्य रूप से स्थूल शरीर से है। ये सूक्ष्म से स्पर्श मात्र करते हैं, जबकि बाद के तीनों साधन सूक्ष्म और कारण शरीर का गहरे तक स्पर्श करते हुए उसमें परिष्कार करते हैं। इसीलिए पहले साधनों – यम, नियम, आसन, प्राणायाम व प्रत्याहार को बहिरंग साधन और धारणा, ध्यान तथा समाधि को अंतरंग साधन कहा गया है। गांधी जी ने मानव जीवन को मूल्यवान बनाने के लिये एकादश व्रतों की अवधारणा दी। गांधी जी द्वारा ये व्रत मुख्य रूप से ने आश्रम में रहने वालों के लिए निर्धारित थे। ये ग्यारह व्रत है। अहिंसा सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, असंग्रह (अपरिग्रह) शरीर श्रम, अस्वाद, सर्वत्र भय वर्जनं, सर्वधर्म समानत्वं, स्वदेशी, स्पर्श भावना। गांधी जी ने अहिंसा, सत्य अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, को अष्टांग योग के पहले चरण यम के भदों से ग्रहण किया है।

तत्राहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः । योगसूत्र,2.30

शरीर श्रम, अस्वाद, सर्वत्र भय वर्जनम्, सर्वधर्म सामानत्वम्, स्वदेशी, स्पर्श भावनाओं को मिलाकर एकादशात्मक महाव्रतों का एक संकल्प तैयार किया जिससे मानव जीवन को इन आध्यात्मिक उपबन्धों से एक सही दिशा मिल सके। गांधी जी द्वारा इन महाव्रतों को इसक्रम में रखा गया कि, जो उत्तरोत्तर क्रम में एक दूसरे पर आश्रित हैं जहां बहुत से महाव्रत एक दूसरे से इस प्रकार सम्बन्धित है कि, पूर्व महाव्रत को पूर्ण किये बिना अगले महाव्रत की सिद्धि सम्भव नहीं हो पाती है।

1.अहिंसा – अहिंसा सर्वदा सर्व प्रकार से सब भूत प्राणियों के प्रति पीडा देने का अभाव है। पतञ्जलि ने यम तथा नियम के लिये अहिंसा को मूल माना है। “तत्राहिंसा सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानामभिद्रोहः” (योगसूत्र,व्यासभाष्य)। उत्तरे च यमनियमास्तन्मूलास्तत्सिद्धिपरतयैव तत्प्रतिपादनाय प्रतिपाद्यन्ते अहिंसा के सन्दर्भ में गांधी जी का मानना था कि अप्राणियों का वध न करना ही इस व्रत के पालन के लिए काफ़ी नहीं है। अहिंसा का अर्थ है इस संसार में निवास करने वाले सूक्ष्म जंतुओं से लेकर मनुष्य तक सभी प्राणियों के प्रति एक जैसा भाव रखना। वस्तुतःअहिंसा नामक इस व्रत का पालन करनेवाला घोर अन्याय करनेवाले के प्रति भी क्रोध नहीं करेगा, किन्तु उस पर प्रेमभाव रखेगा, उसका हित चाहेगा और करेगा। किन्तु प्रेम करते हुए भी अन्यायी के वश नहीं होगा, अन्याय का विरोध करेगा, और वैसा करने में वह जो कष्ट दे उसे धैर्यपूर्वक और अन्यायी से द्वेष किये बिना सहेगा ।

2.सत्य – महर्षि पतञ्जलि ने अष्टांग योग के अन्तर्गत यम के भेदों में सत्य की परिभाषा करते हुये लिखा – ‘सत्यं यथार्थे वाङ्मनसे यथा दृष्टं तथानुमितं यथा श्रुतं तथा वाङ्गमनश्चेति’(योगसूत्र,व्यासभाष्य)। सत्य यथार्थ वाणी और मन में अर्थात् जो देखा गया है, अनुमान किया गया है और सुना गया है। ठीक उसी के अनुसार रहता है। गांधी जी ने सत्य के विषय में कहा कि व्यवहार में असत्य न बोलना या उसका आचरण न करना ही सत्य का अर्थ नहीं है। किन्तु सत्य ही परमेश्वर है, और उसके अलावा और कुछ नहीं है। गांधी जी का मानना तथा कि इस तरह के सत्य की खोज और पूजा के लिए ही दूसरे सभी नियमों की आवश्यकता रहती है और उसी में से उनकी उत्पत्ति है। इस तरह के सत्य का उपासक और सम्यक् आचारण करने वाला व्यक्ति कभी भी अपने कल्पित देशहित के लिए भी असत्य नहीं बोलेगा, असत्य का आचरण नहीं करेगा। सत्य के लिए वह सदैव प्रह्लाद के समान माता पिता, तथा गुरुजनों की आज्ञा को उसके द्वारा अपना धर्म समझा जायेगा।

3.अस्तेय -शास्त्रविधि – विरुद्ध उपाय से दूसरे का द्रव्य ग्रहण करना स्तेय है। ऐसा न करना तथा इसके प्रति इच्छा का अभाव होना अस्तेय है। पतञ्जलि के योगसूत्र पर लिखे व्यासभाष्य में वेदव्यास ने इसे इसी रूप मे वर्णित किया है – ‘स्तेयमशास्त्रपूर्वकं द्रव्याणां परतः स्वीकरणं तत्प्रतिषेधः पुनरस्पृहारूपमस्तेयमिति’(योगसूत्र,व्यासभाष्य)। महात्मा गांधी जी ने कहा कि इस महाव्रत के पालन के लिए यही काफ़ी नहीं है कि दूसरे की वस्तु उसकी अनुमति के बिना न ली जाय। वस्तु जिस उपयोग के लिए मिली हो, उससे ज्यादा समय तक उद्देश्य से भिन्न रूप में उपयोग करना भी एक प्रकार की चोरी है।

4.ब्रह्मचर्य– गुप्तेन्द्रिय उपस्थ के संयम को पतञ्जलि ने ब्रह्मचर्य माना है- ब्रह्मचर्यं गुप्तेन्द्रियस्योपस्थस्य संयमः’(योगसूत्र,व्यासभाष्य)। ब्रह्मचर्य के पालन के बिना ऊपर के व्रतों का पालन अशक्य है। ब्रह्मचारी किसी स्त्री पर कुदृष्टि न करे केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है, किन्तु वह मन से भी विषयों का चिन्तन अथवा सेवन न करे। और विवाहित हो तो अपनी पत्नी या अपने पति के साथ भी विषयभोग न करे, किन्तु उसे मित्र समझकर उसके साथ निर्मल संबंध रखे। अपनी पत्नी या दूसरी स्त्री का अथवा अपने पति या दुसरे पुरुष का विकारमय स्पर्श या उसके साथ विकारमय भाषण या दूसरी विकारमय चेष्टा भी स्थूल ब्रह्म्चर्य का भंग है।

5.अपरिग्रह – विषयों में उपार्जन, रक्षण, हानि, आसक्ति तथा हिंसादि दोष देखकर द्रव्यों को न ग्रहण करना अपरिग्रह है- ‘विषयाणामर्जनरक्षणक्षयसङ्गहिंसादोषदर्शनादस्वीकरणमपरिग्रह’(योगसूत्र,व्यासभाष्य)। गांधी जी ने अपरिग्रह के विषयों को अस्तेय से भी जोडकर देखा है। इसको अलग व्रत मानते हुये भी अस्तेय को अपरिग्रह के साथ सम्मलित माना है। उनका मानना था कि अनावश्यक वस्तु जिस तरह ली नहीं जा सकती, उसी तरह उसका संग्रह भी नहीं करना चाहिये । इसलिए जिस वस्तु की जरूरत न हो, उसका संग्रह करना मतलब अपरिग्रह के इस व्रत को भंग करना है । उदाहरण के लिये जिसका काम कुर्सी के बिना चल जाए वह कुर्सी न रखे; अपरिग्रही प्रतिदिन अपना जीवन और भी सादा करता जाय । अपरिग्रह के दम पर ही व्यक्ति अपनी बेकार की आवश्यकताओं को धीरे धीरे रोककर एक साधारण जीवन उच्च विचार की भावना को सुदृढ कर सकता है।

6.अस्वाद – भगवान की बनायी इस सृष्टि में भोग करने सहस्त्रों पदार्थ मौजूद हैं। उन भोगों का आस्वादन भी संयम और नियम से करना जरूरी है। गांधी जी ने अस्वाद को एक अलग प्रकार का महाव्रत माना है ।इस महाव्रत के बारे में गांधी जी ने कहा कि मनुष्य जब तक जीभ के रसों पर अपनी विजय हासिल नहीं कर लेगा, तब तक उसके लिये ब्रह्मचर्य का पालन करना अति कठिन है। इसीलिये अस्वाद को अलग व्रत माना गया है। जीवन में संयम का स्थान ऐसे विषयों के प्रति आत्मिक मजबूती को धारण करने से भी है। वस्तुतः भोजन आदि भोग के विषय केवल शरीरयात्रा के लिये ही हो, भोग के लिये कभी नहीं। इसलिए उसे औषध समझकर संयमपूर्वक लेने की जरुरत है। इस व्रत का पालन करनेवाला, ऐसे मसाले वगैरह का त्याग करेगा, जो विकार उत्पन्न करें। मांसाहार, तंबाकू, भांग इत्यादि का आश्रम में निषेध है। इस व्रतमें स्वाद के लिए उत्सव या भोजन के समय अधिक खिलाने के आग्रह का निषेध है।

7.स्वदेशी – अपने देश तथा देशवासियों के प्रति अनुराग की भावना का भी व्रत का संकल्प सदैव हमारे मन में संकल्पित होना चाहिये। यह भारत देश जैसा हमारा स्वदेश सदैव वन्दनीय है।

वन्दे सदा स्वदेशं एतादृशं स्वदेशम्।

गंङ्गा पुनाति भालं रेवा कटिप्रदेशम् ।। (गीत.प्रो.अभिराजराजेन्द्र मिश्र)

गांधी जी ने स्वदेश महाव्रत को वर्णित करते हुये लिखा कि मनुष्य सर्वशक्तिमान प्राणी नहीं है। इसलिए वह अपने पडोसी की सेवा करने में जगत की सेवा करता है। इस भावना का नाम स्वदेशी है। जो अपने निकट के लोगों की सेवा छोड़कर दूरवालों की सेवा करने या लेने को दौड़ता है, वह स्वदेशी को व्रत को भंग करता है। इस भावना के पोषण से संसार सुव्यवस्थित रह सकता है। उसके भंग में अव्यवस्था घुसी हुई है। आज हम चाईनीज समानों का बहिष्कार इस दम पर कर पा रहे हैं क्योंकि हम कुछ स्तर तक अपने इस व्रत को समझने लगे हैं गांधी जी का यह तार्किक वाक्य वस्तुतः आजि साबित हो रहा है जब उन्होंने कहा था कि इस नियम के आधार पर, जहाँ तक बने, हम अपने पडोस की दुकान से व्यवहार रखें; देशमें जो वस्तु बनती हो या सहज ही बन सकती हो, उसे विदेश से न लायें। गांधी जी ने अपने देश में बनी खादी को काफी महत्त्व दिया । हिन्दी के प्रसिद्ध कवि सोहनलाल द्विवेदी ने इस अपने एक गीत के माध्यम से खादी को आधार बनाकर स्वदेशी के प्रति अपने भावों को इस प्रकार वर्णित किया है।

खादी के धागे-धागे में अपनेपन का अभिमान भरा,

माता का इसमें मान भरा, अन्यायी का अपमान भरा। (खादी गीत. सोहनलाल द्ववेदी)

स्वदेशी में स्वार्थ को स्थान नहीं है। कुटुम्ब को, देश के लिए शहर को और जगत के कल्याण के लिए देश को बलिदान कर दिया जाय।

8.अभय – गांधी जी ने इस महाव्रत को ‘सर्वत्र भय वर्जनम्’ के रूप में वर्णित किया है। गांधी जी ने कहा कि आप सत्य, अहिंसा आदि व्रतों का पालन बिना निर्भयता के नहीं कर सकते हैं। जो सत्यपरायण रहना चाहता है, वह न जाति से, बिरादरी से, न सरकार से, न चोर से, न गरीबी से और न मौतसे डरता है। हाल में जहाँ सर्वत्र भय व्याप रहा है, वहाँ निर्भयता का चिन्तन और उसकी शिक्षा अत्यन्त आवश्यक होने से, उसे व्रतों में स्थान दिया गया है।

9.अस्पृश्यता – गांधी जी ने अपने समय में देखा कि उस समय समाज में छूआ-छूत चरम पर था उच्च वर्ग के लोगों द्वारा निम्न वर्ग के लोगों पर जाति गत अस्पृश्यता का प्रभाव काफी प्रभावी हो चुका था । स्मृति ग्रन्थों में वर्णित ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य शूद्रों के कर्तव्य कहीं न कहीं समाज में अस्पृश्ता के प्रति रूढीवादी विचारों का आधार बना। जहां किसी एक वर्ग विशेष को अधिक महत्त्व के साथ वर्णित किया गया वहीं दूसरे वर्ग को क्रमशः उससे नीचे के महत्त्व के साथ वर्णित किया गया।

एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।

एतेषामेव वर्णनां शुश्रूषामनुसूययाः।। मनुस्मृति,1.91

हिन्दू धर्म में अस्पृश्यता की रूढ़ि ने जड़ जमा ली थी । गांधी जी ने इस अस्पृश्यता को धर्म नहीं अपितु अधर्म की संज्ञा दी है, तथा अस्पृश्यता-निवारण को अपने नियम में स्थान दिया गया है। अस्पृश्य माने जाते लोगों के लिए दूसरी जातियों के बराबर ही आश्रम में स्थान है। आश्रम में जातिभेद को स्थान नहीं है। मान्यता ऐसी है कि जातिभेद से हिंदु धर्म का नुकसान हुआ है। उसमें छिपी हुई ऊँचनीच और छूआ-छूत की भावना अहिंसा धर्म के लिये भी घातक है।

10.समानता गांधी जी ने जिस आश्रम व्यवस्था की कल्पना की उसमें समानता का आपना विशेष महत्त्व है। अपने इस व्रत के साथ गांधी जी ने ‘सर्वधर्म समानत्वम्’ की भावना को समाज के लोगों तक पहुंचाया। साथ ही जिस आश्रम के लिये इस महाव्रत की अवधारणा को विकसित किया उसमें बिना किसी भेद भाव के सभी वर्ग, वर्ण के लोग एक साथ रह सकते थे। गांधी जी ने समाज में फैली रूढियों असमानताओं को दूर करने का प्रयत्न किया तथा गुण, कर्म को आधार बनाकर समानता का विचार प्रकट किया । चातुर्वर्ण्य से प्रभावित मानसिकता वाले समाज मे गांधी जी ने जन्मजात श्रेष्ठता को स्वीकार न करते हुये गीता में वर्णित कर्म और गुणों से श्रेष्ठता को प्राप्त करने का उपदेश दिया।

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।

तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।। गीता4.13

सर्वधर्म सद्भाव के साथ आश्रम की ऐसी मान्यता है कि जगत में प्रचलित प्रख्यात धर्म सत्य को व्यक्त करनेवाले है।हमारे मन में अपने धर्म के लिए जैसा मान है, वैसा ही प्रत्येक धर्म के लिए रखना चाहिए। जहाँ ऐसा समभाव हो वहाँ एकदूसरे के धर्म का विरोध संभव नहीं होता, और न परधर्मी को अपने धर्ममें लाने का प्रयत्न संभव होता है। किन्तु यही प्रार्थना और यही भावना नित्य रखनी उचित है कि सभी धर्मों के दोष दूर हों ।

11.शारीरिक श्रम – महात्मा गांधी जी द्वारा शारीरिक श्रम का समावेश अपने इस महाव्रत में काफी बाद में किया गया । गांधी की का मानना था कि मनुष्य को सामाजिक द्रोह से बचने के लिये शारीरिक श्रम अवश्य करना चाहिये। साथ ही गांधी जी इस बात के लिये ज्याद प्रेरित करते थे कि जो स्त्रीपुरुषों शारीरिक रूप से समर्थ हैं उनको अपना नित्य का सारा काम, जो स्वयं ही कर लेने योग्य हो, कर लेना चाहिए और दूसरे की सेवा बिना कारण नहीं लेनी चाहिए। किन्तु बालकों की अथवा पंगु लोगों की और वृद्ध स्त्रीपुरुषों की सेवा प्राप्त हो तो उसे करने की सामाजिक जिम्मेदारी को उठाना प्रत्येक समझदार मनुष्य का धर्म है। इस आदर्श का अवलम्बन करके आश्रम में वही मजदूर रखे जाते हैं, जहाँ अनिवार्य हो, और उनके साथ मालिकनौकर का व्यवहार नहीं रखा जाता। शारीरिक श्रम के मानवीय मनोविज्ञान को गांधी जी ने अपने महाव्रत में समाहित किया है।

निष्कर्ष

गांधी जी का अनासक्ति योग और एकदश महाव्रत मानव के आध्यात्मिक आचरण तथा उत्कृष्ट चरित्र के निर्माण में सहायक है। आज हम जिस समाज में रहते हैं वहाँ चारित्रिक पतन और मानवीय संवेदनाओं का ह्रास देखने को मिल रहा है। इन सभी विषयों का समाधान गांधी जी के योगदर्शन में ढूंढा जा सकता है। कैसे हम समाज में रहते हुये व्यक्तिगत परिवर्तन से समाजिक परिवर्तन की क्रान्ति को जन्म दे सकते हैं, ये सारे विषय गांधी जी के आध्यात्मिक दर्शन में प्रतिबम्बित होते हैं । हमारा अपने राष्ट्र के प्रति क्या दायित्व है? इसे अगर वास्तविक रूप में समझना है तो गांधी जी के योगमय विचारों की सूक्ष्मता को जानना भी आवश्यक है। जब तक हम अपने जीवन को योगमय नहीं बनायेंगे तब तक हम राष्ट्र के प्रति कर्मण्यता का भाव विकसित नहीं कर सकते। गांधी जी का योगदर्शन समाज के सभी वर्ग के लिये समान रूप से लागू होता है जिसमें सबके विकास तथा चरित्र के निर्माण की बात की गयी है। चरित्रवान व्यक्ति ही राष्ट्र को सही दिशा और दशा देने में सक्षम है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

  1. अनाशक्ति योग, मोहन दास कर्मचन्द गांधी, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन,2014
  2. सत्य के साथ मेरे प्रयोग, महात्मा गांधी, प्रभातप्रकाशन,2020
  3. मनुस्मृति, व्या० स्वामी दर्शनान्दसरस्वती, पुस्तक मन्दिर मथुरा, सं०2019
  4. श्रीमद्भग्वद्गीता, गीता प्रेस गोरखपुर,सं2024
  5. योगदर्शन, पतञ्जलि, गीता प्रेस गोरखपुर, सं.2064
  6. पातञ्जलयोगदर्शनम्,(व्यासभाष्य), चौखम्भा सुभारती प्रकाशन,2020
  7. दोहावली,तुलसीदास,सम्पा हनुमान प्रसाद पोद्दार, गीताप्रेस गोरखपुर,2012
  8. श्रमणसूत्र, उपाध्याय अमर मुनि, श्रीसन्मति ज्ञान पीठ आगरा।

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