ए.रामाचंद्रन की कला के विभिन्न चरण
सुप्रिया अंबर (सुप्रिया सिंह जादौन) की प्रयाग शुक्ल से बातचीत
प्रश्न 1- उनके प्रारंभिक दौर और उनकी केरल की पृष्टभूमि ने उनके काम को किस तरह संचालित किया होगा?
प्रयाग शुक्ल – जितना मैं समझ पता हूँ, मैं रामचंद्रन की कला पर केरल की पृष्टभूमि के प्रभाव को अधिक महत्वपूर्ण मानता हूँ जिसमे केरल के मंदिर और प्राकृतिक वातावरण का बड़ा हाँथ है. मैंने उनके वो काम देखे जब वो दिल्ली आये और कुमार गैलरी में उनके चित्रों की प्रदर्शनी शुरू हुई. तब से मेरा परिचय उनकी चित्रकला से भी हुआ और उनसे भी हुआ. उसमे जो मुझे समझ आया कि उनकी पृष्ठभूमि से भी बढ़ कर उन्हें शांतिनिकेतन में नंदलाल बोस और रामकिंकर बैज से जो ट्रेनिंग मिली थी, उससे आगे जब वो पश्चिम की कला देखते हैं, मतलब जब उनके चित्रों में डिस्टॉरशन आता है, लाइन्स का, फिगर्स का, वही उनका प्रारंभिक दौर है. क्यूंकि उससे भी पहले के चित्रों को देख कर हम ये स्वाभाविक रूप से समझ सकते हैं कि वो कहीं न कहीं शांति निकेतन से प्रभावित होंगे. लेकिन उसके बाद के चरण बेहद महत्वपूर्ण हैं इसलिए तीन खण्डों में उनकी कला को देखना उचित होगा जहाँ तक मैं समझ सकता हूँ.
पहला उनके छात्र काल में जब उनको शांतिनिकेतन में शिक्षा मिली, उससे अगला चरण है जब उनका परिचय पश्चमी कला से हुआ और वो फ्रांसिस बेकन, मेक्सिकन कला और अन्य लोगों से भी प्रभावित दिख रहे थे. ये उनको डिस्टॉरशन और मोडर्निस्टिक स्टाइल की तरफ ले जाता है जिसको हम आधुनिक कला कहने लगे हैं. उसके पहले जो शांतिनिकेतन में किया वो मॉडर्निज़्म नहीं कहलायेगा पर अब वो मॉडर्निज़्म की और मुड़ते हैं और तीसरा चरण है जब उनका डेस्टॉरशन से मोह भांग होता है और हरियाणा के पास की बेड़नियां हैं राजस्थान के भील ट्राइब्स हैं. इसके बाद वो चौथी चीज़ है उनके केरल की पृष्टभूमि जहाँ वो फिर लौटते हैं जो उन्होंने बचपन से देखी है
मैं रामचंद्रन को इस तरह देखता हूँ – “शांतिनिकेतन, पश्चमी प्रभाव, पश्चमी प्रभाव से मुक्ति और अपनी जड़ों की और फिर लौटना”.
प्रश्न 2- अपनी जड़ो की ओर उनकी जो वापसी हुई उसने उनके काम में क्या प्रभाव डाला ?
प्रयाग शुक्ल– उसमे एक चीज़ और हुई है, उसमे मिश्रण है कई चीज़ें और आ गई हैं ऐसा मैं मानता हूँ, जैसे- उनमे मिनिएचर चित्रों के प्रभाव हैं, कुछ केरल के मंदिरों के म्यूरल के प्रभाव है, और जैसा वो वहां की प्राकृतिक खूबसूरती को देखते है उसका भी प्रभाव है. किसी भी एक चीज़ को पिन पॉइंट नहीं बना सकते. और फिर वो बड़ी घटना घटती है जब ययाति बनाते ही ये सरे तत्वों का मिश्रण इकठ्ठा हो जाता है. उसमे मॉडर्निज़्म का नया इंटरप्रिटेशन है, उसके बाद प्रकृति है, केरल भी है , बंगाल भी है . ययाति उनकी सारी शैलियों का culmination है यहाँ से एक नई यात्रा शुरू होती है
प्रश्न 3- रामचंद्रन की लाइन के बारे में आप अपने विचार बताएं?
प्रयाग शुक्ल -रामचंद्रन की लाइन के बारे में मै कह सकता हूँ कि उनका काम तो हर तरह से लाइन पर ही आधारित हैं. जो उनकी ड्रॉइंग्स और स्केचेस हैं वो बेहद सुन्दर हैं, उनमे एक तरह का assertion भी है सॉफ्टनेस भी है, लाइन्स बहुत स्ट्रांग हुई हैं. उनके पोर्ट्रेट मुझे बहुत अच्छे लगते हैं. स्केचेस ही देख लीजिये परिचितों के, अपरिचितों के, काल्पनिक ! जैसा की मेरा मानना है कि कभी कभी ऐसा होता है सुप्रिया कि – एक साथ बहुत सरे तत्व किसी भी कलाकार की दुनियां में रहते हैं, ये तो हम अपनी सुविधा के लिए अलग अलग कर लेते हैं. यंग ऐज के बाद के रामचंद्रन के जो भी दौर शुरू होते हैं वो लौट लौट कर आते हैं, वो चले जाते हैं फिर आते हैं कुछ चीज़ें और जुड़ती भी है. इस तरह देखना शायद ज़यादा अच्छा होगा. वो क्रमवार देखना फिर उसी क्रम को ही अंतिम मान लेना, वो ठीक नहीं है. हम उनको गिना लेते हैं वो सबसे अच्छी चीज़ है. जैसे मैंने पहले गिनाया कि उनके कला जीवन के चार पांच दौर हैं, फिर हम ये कहते हैं कि सारे दौर लौटते हैं . ऐसा ही तो होता है और रामचंद्रन के केस में तो वाकई ऐसा ही हुआ है मतलब वो सारे प्रभाव लौटते हैं, उनका रूप बदलता है, लेकिन वो लौटते तो हैं. चूँकि वो आपके भीतर हैं और कलाकार उनको आज़मा चूका है तो वो छूट कैसे जाएंगे वो तो रहेंगे ही .
प्रश्न 4- भारतीय कला में ड्राइंग और स्केचिंग की ताकत (रियाज़) और उसके रिजल्ट को कैसे समझा जा सकता है? खासतौर से रामचंद्रन सर के सन्दर्भ में हम यह कैसे देख सकते हैं कि स्केच और ड्रॉइंग्स ने उनके चित्रों को कितनी सहायता की?
प्रयाग शुक्ल – ये सुन्दर सवाल है! क्यूंकि अक्सर हमलोग भारतीय कला परंपरा में स्केच को और ड्राइंग को अलग नहीं करते रहे. यहाँ तक की मिडिवल पीरियड में भी देखे क्यूंकि हमारी कला परम्परा के उसके पहले के तो कोई साक्ष्य नहीं है, तब भी जो मेरी जानकारी में है कि वो लोग खाका बनाते थे. खाका में सबकुछ आजाता था. अलग से स्केचिंग की परंपरा कितनी रही ये मैं सचमुच नहीं जनता. मिनिएचर का वो खाका जो चित्रों से पहले बनाया गया जिसमे मेरा मानना है कि ये(स्केचिंग/ड्राइंग) दोनों चीज़ें शामिल हैं. उसमे स्केच हैं ड्राइंग है, लाइन्स है पोर्ट्रेट है ऐसा मुझे लगता है. यूरोपीय अर्थ में जो स्केच और ड्राइंग का फर्क है वो शायद हमारे यहाँ नहीं रहा, जितना मैं जनता हूँ. वो फर्क हमारे यहाँ शुरू होता है मुग़ल शैली के आने से क्यूंकि वो लोग पोर्ट्रेट बनाते हैं, चित्रों में कई आकृतियों को अलग लेकर आते हैं. कुलमिला इस सबको एक बड़े परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए. जैसे हमारी दक्षिणी शैली जो बहुत बड़ी शैली है जिसे हम भूल जाते हैं जैसे गोलकुंडा, बीजापुर वगैरह के मिनिएचर हैं .जैसा मैं समझ सकता हूँ कि हमारी भारतीय कला में एक साथ इतनी सारी चीज़ें हो रही होती थी जो अपूर्व हैं. दुनिय के दुसरे देशों के इतिहास से बिलकुल अलग. आप देखिये कि खजुराहो, कोणार्क, एलिफेंटा अदि के जो स्केचेस या ड्रॉइंग्स थे वो हमको उपलब्ध नहीं है. हमको जो उपलब्ध है वो उन स्कल्पचर के रूप हैं, लेकिन इससे हम ये नतीजा तो निकाल सकते हैं कि इतना आसान तो शायद वो नहीं रहा होगा कि बिना खाका बनाये ही अचानक से वो लोग तराशना शुरू कर देते होंगे.
देखिये कैलाश टेम्पल को जिसमे पहाड़ को उन्होंने काट दिया. ये तो बात समझ आती है कि हम ऐसा करेंगे कि इसमें कोई जोड़ नहीं रखेंगे, इसी एक विशाल पत्थर में इसे काढ़ देंगे . ये कितना बड़ा प्रयत्न है लेकिन जब वो वहां मूर्तियां बना रहे थे जिसमे तरह तरह की चीज़ें हैं, लाइन्स हैं जिसके बिना वो आगे नहीं बढ़ सकते जैसे खजुराहो के कैलाश मंदिर में नदियां हैं, गंगा यमुना हैं, जटाएं हैं. बहुत कुछ है जो लाइन्स की तरह ही तो आएगा. ये बहुत वृहद् मामला है इसको संक्षिप्त में नहीं बताया जा सकता. पर संक्षिप्त में ही बताना पड़ता है इसलिए बता रहा हूँ. मैं बहुत सोचता रहा हूँ, बहुत लिखता भी रहा हूँ जैसे आज की कला नाम की मेरी किताब में एक लेख है – “पुरानी चीज़ों पर पड़ने वाली नई रोशनी”. मतलब जो पुराना है उससे नया कैसे देखा जायेगा. बहरहाल मेरा ये पक्का मानना है कि भारतीय कला में अचानक इतना कुछ नहीं बनाया जा सकता है बिना किसी खाके को सामने रखे . वही खाका जिसको आज हम ड्राइंग या स्केच कहेंगे . अब वो उपलब्ध नहीं हैं ये अलग बात हैं. कल्पना मेरी यही कहती है, मेरा अनुमान है कि ऐसा कुछ तो रहा होगा. और यदि नहीं रहा होगा तो कम से कम गुरु शिष्य परम्परा जैसा कुछ रहा होगा जिसमे गुरु बताता जाता होगा और आप उसको तराशते जाते हैं. इतनी बड़ी तराश की मैं चकित हूँ हमारी भारतीय कला से. मैं जब जब गया देखता रह गया. मैं ही नहीं ऑक्टोवियो पाज़ जैसे कला का चिंतक जब एलिफेंटा में जाते हैं और कविता लिखते हैं उस पर, तो वो भी दंग रह जाते हैं. इन असाधारण चीज़ों की बड़ी कला परंपरा का जो एक आधुनिक रूप हम जिनमे देखते हैं जिनके काम में वो परंपरा का प्रभाव है रामचंद्रन उनमे से एक हैं. क्यूंकि बाकि आधुनिक कलाकारों के पास ये नहीं है. आधुनिक काल के एक हुसैन और एक रामचंद्रन जिन्होंने परम्परगत तत्वों को अपने चित्रों में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया. उन पर काम किया, बोला-,कहा. और इनके पास लाइन्स बहुत स्ट्रांग हैं.आपको और कोई नाम नहीं सूझेगा जिन्होंने हमारी माइथोलॉजी पर चित्र बनाये हैं, आधुनिक भी है रूरल भी है ट्राइबल भी है यही दो नाम हैं. आप देख लीजिये कि अजंता एलोरा का जुड़ाव रामचंद्रन से कितना गहरा रहा ही है.
प्रश्न 5- आप रामचंद्रन और एम् ऍफ़ हुसैन को किस सन्दर्भ में एक तरह का मानते हैं ?
प्रयाग शुक्ल – देखिये एम् एफ हुसैन और रामचंद्रन में समानता तो हैं ही नहीं! मैं केवल सन्दर्भ की बात कह रहा हूँ न कि किसी तुलना की. मैं ये कह रहा हूँ कि ये दो कलाकार ऐसे दिखाई पड़ते हैं जिन्होंने परंपरा को लेकर ज़यादा संज्ञान लिया है. मतलब उसको लेकर चित्र बनाये हैं. लोक है!रामयण है! महाभारत है! उनके यहाँ भी ऐसे पात्र हैं जो हमारे साहित्य और हमारे माइथोलॉजी से हैं. इसमें किसी को भी छोटा या बड़ा करने की बात नहीं है. कला की दुनियाँ में यही सबसे सुन्दर बात है कि सबकी अपनी जगह है, तुलना हो ही नहीं सकती, उसमे कोई प्रतियोगिता हो ही नहीं सकती. सबका एक स्थान है.
जोगेन चौधरी ने एक बड़ी सुन्दर बात कही की “न यहाँ कोई तुलना है न कोई प्रतियोगिता है! हम सन्दर्भ की बात बेशक कर सकते हैं”. वो कितनी सिंपल बात कहते हैं. मैं भी जनता था और हम सभी जानते हैं पर इस पर थोड़ा काम ध्यान जाता है. मैं सन्दर्भ के हिसाब से कह रहा हूँ कि उन्होंने जिन चीज़ों को लेकर काम किया है उनके पास ज़यादा सन्दर्भ हैं. जैसे रामकुमार हैं, सूज़ा हैं, कृष्ण खन्ना हैं. ये अलग तरह से दिखते हैं. हुसैन और रामचंद्रन भी भिन्न हैं लेकिन इस मामले में इनमे एक समानता दिखती है कि आप एक सारी कला परंपरा का अपने काम के सिलसिले में संज्ञान लेते हैं, उससे इंटरैक्ट करते हैं.
प्रश्न 6- रामचंद्रन सर की निरन्त ड्राइंग और स्केचिंग की प्रक्रिया का कितना अनुसरण किया जाना चाहिए? उनकी इस आदत ने उनके चित्रों को कितना लाभ पहुँचाया है ?
प्रयाग शुक्ल – इसको उनका स्वभाव भी माना जा सकता है. लगातार इस प्रक्रिया और स्वभाव का जो लाभ हुआ है वो बहुत बड़ा और गहरा है उनके चित्रों में. क्यूंकि वो फिगरेटिव काम करते हैं, फूल पत्ते बनाते हैं और बड़े सुघड़ ढंग से बनाते हैं. सुघड़ ढंग से बनाने की जो क्षमता है उसमे रेखा को आकार से घेरना है. जैसे मान लीजिये उनके सरोवर वाले तो बहुत चित्र हैं, कमलताल के भी हैं, वो सब इस रियाज़ के बिना संभव ही नहीं थे. मान लीजिये कि अमूर्तन में भी कमल बना सकते हैं परन्तु वो उस रूप में संभव नहीं थे जिस तरह से भारतीय कला परंपरा में आकृतियों का, वनस्पतियों का, जीवों जंतुओं की आकृतियों का उन्होंने किया है. क्यूंकि देखिये ये भी कितनी सुन्दर बात है कि आपने देखा है रामचंद्रन जी स्वयं अपने को अपने चित्रों में किसी न किसी रूप में रखते हैं, कभी कभी तो किसी जीव जंतु के रूप में भी रखते हैं. ये जो लाघव है ,अपने ही पोर्ट्रेट को रूपांतरित करने का एक ढब है वो तो संभव ही नहीं जब तक आपकी अच्छी पकड़ न हो रेखाओं पर, और आप लगातार ड्राइंग करते हों, स्केचिंग करते हों!
तो इस एक घटना से ही आप देख लीजिये की उनको कितना लाभ हुआ होगा स्केचिंग और ड्राइंग का. जब भी मैं उनके चित्रों में देखता हूँ कि वो भी तितली बन गए हैं, पक्षी और कछुआ बन गए हैं तो आनंद बढ़ जाता है.
प्रश्न 7- रामचंद्रन सर के चित्रों में हम इम्प्रेशनिस्ट ट्रीटमेंट के बजाय बहुत साफ़ सुथरे तरीके से आकारों को उनके आउटलाइन को स्पष्ट देख सकते हैं जो की इसी दौर के अन्य लोगों में इतनी प्रमुखता से नहीं पाया.
प्रयाग शुक्ल– मतलब वो ज़यादा रीयलिस्टिक हैं ये कह सकते हैं! लेकिन इसके साथ साथ मैं एक चीज़ और कहूंगा कि ये बात सही है कि वो गायतोंडे नहीं हैं, वो रामकुमार नहीं हैं, यहाँ तक की तैयब मेहता से भी बहुत भिन्नता है. हालांकि तैयब भी रीयलिस्टिक ढंग से ही बनाते थे जैसे की रिक्शा है तो रिक्शा दिखाई देगा. लेकिन वो पूरी तरह से रिक्शा नहीं होता था. हालांकि मैं ये तुलना के लिए नहीं बता रहा केवल उदाहरण के लिए ये नाम ले रहा हूँ. जैसे कृष्ण खन्ना में देखिये आभास बहुत से हैं, जैसे आपको आभास है कि कोई जा रहा है या की मजदूर बैठे हैं, या की बैंड वाले हैं. वो भी रीयलिस्टिक हैं लेकिन उस हद तक रीयलिस्टिक नहीं जिस हद तक रामचंद्रन हैं. आप सही कह रही हैं, मतलब की रामचंद्रन अपनी पीढ़ी के एकमात्र चित्रकारों में हैं जिनके यहाँ चीज़ें साफ़ सुथरे ढंग से साफ़ सुथरी दिखती हैं. उनके गहरे मित्र परमजीत सिंह और अर्पिता सिंह हैं, लेकिन ये बात तो सही है की इस सारे परिदृश्य में रामचंद्रन अपने समकालीनों में एकदम अलग ही दिखते हैं. और जिसका कारण यही है जिसकी आप चर्चा कर रही हैं उनका वैसा होना है.
लेकिन इसमें मैं एक बात ज़रूर जोड़ना चाहता हूँ वो ये कि रीयलिस्टिक ढंग से बनाई गई चीज़ें भी अगर गहरा इम्प्रैशन नहीं छोड़ती तो फिर वो अच्छी कला नहीं होती. रामचंद्रन ने कुछ ऐसी विधियां भी निकली हैं कि आप पर उनकी छाप भी पड़ती और जो सदा के लिए आपके भीतर ठहर जाती हैं. आप खाली उसको देखते नहीं हैं, उसके कई तरह के इम्प्रैशन आपके मन में उतारते हैं. यही तो उनकी सफलता है अगर ये नहीं होता तो चित्र बहुत सपाट होते. अभी जो उदाहरण मैंने दिया- “वो किस कारण से स्वयं को चित्रों में बनाते हैं” जैसे वो एक कल्पना कर रहे हों कि एक कलाकार अपने चित्रों में भी है और वो शायद अपने को समय में भी रख कर देख रहा है! कि ये चीज़ें हैं और मैं भी इसमें कहीं मंडरा रहा हूँ. वो एक दूसरी तरह का भाव है विचार है. वो किसी पुनर्जन्म वाला न भी हो, लेकिन ये लगता है कि मैं मौजूद हूँ सृष्टि में. ऐसी चीज़ें जो वो करते हैं उससे उनके चित्रों का रिअलिस्म कुछ और हो उठता है. नहीं तो मान लीजिये कि सीधे से आप कुछ बना दो तो फिर आपको लगेगा की चलो देख ली मैंने तितली ! देख लिया मैंने एक फूल ! पर जब मैंने देख ली तितली और देख लिया एक फूल से आगे आप इस स्तर पर उनके चित्रों को देखने लगते हो तो आनंद दूसरा हो उठता है इसका मतलब कि उनको भान है कि रीयलिस्टिक भी हो लेकिन उसमे कुछ ऐसी चीज़ें उभरे जो नॉट लाइक इम्प्रेशनिस्ट पर जिनके इम्प्रैशन आभास की तरह नहीं होते हुए भी गहरे इम्प्रैशन हों. यही उनकी पहचान है.
प्रश्न 8- रामचंद्रन के चित्रों के लिए क्या ये कहना चाहिए की उन्होंने एक परंपरा को स्थापित किया है?
प्रयाग शुक्ल – देखिये जहाँ तक परंपरा की बात है कोई आर्टिस्ट परंपरा तो नहीं बनाता, यहाँ तक की जो ग्रुप्स होते हैं उनकी भी परंपरा नहीं बन सकती, बनती भी नहीं है. परंपरा बनने के लिए दूसरी तरह की चीज़े चाहिए होती हैं, जैसे मान लीजिये की हमारे मिनिएचर चित्रों की परंपरा है तो एक अलग बात हो गई. रामचंद्रन ने एक काम तो किया इस दौर में जब अमूर्तन का भी दौर हो, आभासी का भी दौर हो तो, उस दौर में आप इतना रीयलिस्टिक काम कर रहे हों तो इसको लेकर मेरा मानना कहीं ये भी है कि एक ये चीज़ तो उनके कारण स्थापित हुई है. वो इस रूप में हुई है कि रेअलिस्म को खारिज नहीं माना गया कि अब ये हमारे काम का नहीं रहा. बहुत सारे लोगों ने उनसे प्रेरणा ली होगी ऐसा मैं मानता हूँ. जैसे एक नाम मेरे ख्याल में आ रहा है हालांकि कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है वो नाम है जय झरोटिया का और इसको ये नहीं कहना चाहिए कि हम इन दो नामों को जोड़ रहे हैं पर जाने अनजाने भी तो चीज़ें होती हैं. उनके यहाँ भी कुछ ऐसी चीज़ें मिलती हैं. मुझे इसलिए ये बात याद आई कि इस बहाने जो युवा लोग आते हैं और जो कोई स्पष्ट तरीके से काम करने वाला है तो उसको एक सहारा मिलता है कि उसके चित्रों को स्वीकार किया जाएगा. क्यूंकि मान लीजिये अगर ऐसे चित्रकार परिदृश्य में न रहें तो जो नया है वो थोड़ा सा घबराएगा कि मैं जो करने चला हूँ वो है भी सही या नहीं ? मैं आपकी बात से ही सोच रहा हूँ कि- क्यूंकि ये तो सच्चाई है कि हमारे यहाँ जिन लोगों ने फिगरटिवे में काम किया वो उतने स्पष्ट ढंग से तो नहीं किया. जैसे मान लीजिये गुलाम शैख़ हैं भूपेन खक्कर हैं और पूरा बड़ोदा स्कूल तो फिगरेटिव का माना ही जाता है कि वो कोई अमूर्त काम नहीं कर रहे हैं. उस सब के बीच में भी कुछ ऐसे लोग निकले- मैं फिर कहूंगा कि कोई सीधा सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिए. जैसे शम्पा सर्कार दास हैं – हिरन बना दिया तो रीयलिस्टिक हैं,फूल पत्ते बना दिया तो रीयलिस्टिक हैं, थोड़ा थोड़ा आभासी भी हैं लेकिन नब्बे प्रतिशत रीयलिस्टिक पर ही केंद्रित हैं. अब मुझे ये नाम क्यूँ याद आ रहे हैं? हो सकता है कि कोई उनकी सीधी प्रेरणा न हो उनके मन में लेकिन दर्शक के लिए तो है. जैसे मेरे लिए बना दी, एक और आयाम खुला कि यदि मैं सोचने बैठूं कि वो कौन से लोग हैं जो इस तरह से काम कर रहे हैं तो ऐसे में किसी समय की कला को जांचने का एक दूसरा आनंद होता है . तो मैं इसको इस तरह से देखता हूँ कि जब हम किसी एक दौर की कला को जांचते हैं तो ये चीज़ें होती हैं. उसमे बहुत से नाम याद एकदम से अभी नहीं आरहे लेकिन हैं जिन्होंने रीयलिस्टिक में इस तरह के काम किये हैं. मैं तो ये भी कह सकता हूँ कि हमारे यहाँ फिगर का, ड्राइंग का अमूर्तन से अधिक इस्तेमाल हुआ है बाद की पीढ़ियों में. असल में किसी भी कलाकार की केंद्रीय उपस्थिति जो रामचंद्रन की है, वो केंद्रीय उपस्थिति आपको एक यात्रा कराती है कि देखें और कौन लोग हैं जो इस तरह से काम कर रहे हैं. ये सवाल मन में उठते हैं. और जितना हम जानने लग जाते हैं उतना ही हमारा आनंद दुगना हो जाता है. और फिर उनका एक पक्ष तो वो राजा रवि वर्मा वाला है ही चाहे उनके प्रशंसक होने का हो या उनके योगदान को स्वीकार करने का. रामचंद्रन का जिस प्रकार का रीयलिस्टिक होना है वो आपको कई तरह के विचारो की तरफ ले जाता है की इससे हमारे कला जगत में क्या बना ? रामकुमार की उपस्थिति आपको अमूर्तन की ओर ले जाती है, अम्बा दास की उपस्थिति अमूर्तन की ओर ले जाती है. हम उसी ओर सोचना शुरू करते हैं. स्वामीनाथन की उपस्थिति में एक और तरह की बात है कि एक हल्का सा आभासी भी है रीयलिस्टिक भी है उसमे बहुत कुछ मिला जुला है. वो एक अलग सन्दर्भ बनाते हैं. मेरा तो सुप्रिया रेंज में बहुत बड़ा विश्वास है. यानि अगर रेंज न हो और सब लोग एक जैसा काम करने लगें तो दृश्य कितना विचित्र होगा. इसके बावजूद की कलाकार भी एकदूसरे काम पसंद नहीं करते लेकिन हमे दर्शकों को रेंज चाहिए. जैसे रामचंद्रन ने मुझे स्वयं एक किस्सा सुनाया, कई बार इसे वो मंच से भी बोल चुके हैं कि एक बार त्रिवेणी में उनकी प्रदर्शनी चल रही थी और तैय्यब उनको अलग से कहीं मिले तो उन्होंने कहा कि एक बार देख तो लो. वो जानते थे कि तैय्यब उनके काम को पसंद नहीं करते लेकिन ये सब चीज़ें कला जगत के कलाकारों के बीच तक ही होती हैं दर्शक को तो अलग अलग रेंज चाहिए न! ये तो नहीं न की सब लोग तैय्यब बन जाएँ या रामचंद्रन बन जाएँ. मुझे तो दोनों चाहिए न !
अनजाने में रामचंद्रन ने जो कंट्रीब्यूशन कर दिया है वो ये तो है ही की वे कलाकार जो रीयलिस्टिक तरीके से भी काम करते हुए अपने काम के लिए स्वीकृति चाहते हैं उनके लिए एक बहुत बड़ा आधार है उनका काम ! और वो अनजाने में ही होता है !
प्रयाग शुक्ल
परिचय- कवि, कथाकार, निबंधकार, कला व फिल्म समीक्षक
मई १९४० को कोलकाता में जन्मे प्रयाग शुक्ल ने कोलकाता विश्वविद्यालय से स्नातक किया. यह जो हरा है, इस पृष्ठ पर, सुनयना फिर यह न कहना”, यानी कई वर्ष समेत दस कविता संग्रह, तीन उपन्यास, छह कहानी संग्रह और यात्रा वृतांतों कि भी कई पुस्तकें प्रकाशित. कला सम्बन्धी पुस्तकों में “आज की कला”, हेलेन गैनली की नोटबुक और फिल्म समीक्षा की पुस्तक “जीवन को गढ़ती फ़िल्में” चर्चित-प्रशंसित हैं. सम्पादित पुस्तकें : कल्पना काशी अंक, कविता नदी, कला और कविता, रंग तेंदुलकर, अंकयात्रा. बाल साहित्य में आधा दर्जन से अधिक प्रकाशित हैं. वर्तमान में दिल्ली में निवास और कार्यरत हैं
मोबाइल – 9810973590
सुप्रिया अम्बर
परिचय- रिसर्च स्कॉलर सुप्रिया अम्बर रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर से पद्मभूषण चित्रकार ऐ. रामचंद्रन के ड्रॉइंग्स और स्केचेस एवं स्टडीज पर अपना शोध कर रही हैं. सुप्रिया की कई कवितायें देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपी हैं और बांग्ला, गुजरती, पंजाबी, मराठी, अंग्रेजी में अनुवादित हुई हैं. कई वर्षों तक लीगल जर्नलिज्म करते हुए मध्यप्रदेश उच्च न्यायलय में कोरेस्पोंडेंट रही. चित्रों की कई एकल एवं समूह प्रदर्शनी. वर्तमान में जबलपुर में स्वतंत्र कलाकर्म में संलग्न साथ ही विभिन्न कला विषयों पर शोध पत्रों का लेखन जारी.
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