समकालीन हिंदी कथा – साहित्य की अग्रणी हस्ताक्षर श्रीमती चित्रा मुद्गल जी से नेहा झा की बातचीत

साक्षात्कार्ता: नेहा झा

शोधार्थी हिंदी विभाग

हिमाचल प्रदेश केन्द्रीय विश्वविद्यालय

समकालीन हिंदी कथा – साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान देने वाली अग्रणी हस्ताक्षर श्रीमती चित्रा मुद्गल प्रतिष्ठित लेखिका हैं। चित्रा मुद्गल जी ने समाज के विविध वर्गों से आम पात्रों का चुनाव कर उन्हें अपनी लेखनी के माध्यम से केंद्र में लाकर उनकी समस्याओं की पुरजोर तरीके से समाज के समक्ष रखा है। चित्रा मुद्गल की कहानियों में सवेंदनाओं के विविध धरातल मूर्त रूप में उपस्थित हुए है ।

श्रीमती चित्रा मुद्गल जी से नेहा झा की बातचीत

चित्रा मुद्गल जी ने समाज में घट रही सभी समस्याओं के खिलाफ अपनी लेखनी के द्वारा आवाज उठाई है। चित्रा जी की रचनाओं में हमें विविधितायें स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है । ठीक इसी प्रकार इन्होने नारी के भी विभिन्न पक्षों पर अपनी कलम चलाई है । मैंने इनके कहानी साहित्य को पढ़ते हुए ‘जिनावर’ कहानी संग्रह पर लघु शोध (M.phill) किया है । इस शोध में मैंने ‘जिनावर’ कहानी संग्रह में विशेषतः नारी के विविध रूप तथा उनकी कहानियों में समाज के विभिन्न पक्षों को समझने का प्रयास किया है। ‘जिनावर’ कहानी संग्रह में भी इनके कथा साहित्य की तरह विविध रूप देखने को मिलते है। शोध के दौरान उनका लिया गया साक्षात्कार –

प्रश्न -1 आपकी उपन्यासिक कृति आंवा में श्रमिक जीवन की जो बारीकी विवेचना मिलती है वह भोगा हुआ यथार्थ प्रतीत होता है। उस यथार्थ को आपने कैसे गढ़ा ?

उत्तर – जिस तरह से मैंने उस यथार्थ को गढ़ा है, वह आवाँ उपन्यास में रूपायित हुआ है.यह उपन्यास पाठको को गहरी छुआ है, कथ्य के निर्वाह मे उस जींवत यथार्थ को उतारने में लेखक को सफलता मिली है, ऐसा मानना चाहीए। जहां तक यह प्रश्न है की आवां एक भोगा हुआ यथार्थ है, तो ये में स्वीकार करती हूँ कि मैंने उस यथर्थ को जिया है, मैं उसका हीस्सा रही हूँ । में बकायदा अपने कॉलेज के जीवन के शुरुआत से ही सक्रिय सदस्य रही हूँ , ‘दत्ता सावंत’ के ‘ट्रेड यूनियन कामगार आघारी’ और जो कुछ मैंने उस समय देखा, महसूस किया और उस लड़ाई में बराबर की भागीदारी रही। मजदूरों के संघर्ष को अपना संघर्ष समझा लेकिन आवाँ लिखने के जरूरत मुझे तब महसूस नहीं हुई थी जब मैं ट्रेड यूनियन सक्रिय सदस्य थी।

आवाँ लिखने के विषय मे मैंने तब सोचा जब “नियोगी हत्याकांड” हुआ। शायद 28 सितंबर 1991 के आसपास नियोगी हत्याकांड बिलासपुर के निकट पूर्वा के आसपास घटा और छत्तीसगढ़ में उनकी हत्या हुई। तो कहीं न कहीं मेरे मन मे यह बात आई कि ट्रेड यूनियन के भीतर अंतर्विरोधों को रेखाकिंत करते हुए उपन्यास लिखने की जरूरत है। नियोगी जी की हत्या का अर्थ है कि पूंजी ने तो उन्हें मारकर मजदूरों की समस्या का अंत जिस रूम में सोचा था लेकिन उस रूप में वो उसे क्रियान्वित नहीं कर सकते थे। यदि किसी न किसी घर के भेदी ने नियोगी जी के बारे जरूर ये खबर दी कि कब किस वक्त कहाँ होंगे, कितने बजे वह अपने घर पहुंचेंगे और कहाँ किस खिड़की के करीब घर मे सोते है, ताकि जहां से उनके खरीदे गए हत्यारे के माध्यम से वह हत्या करवा सकें। तो कहीं न कहीं बाहर के आदमी ने सूचना तो नहीं दी होगी पूंजी को। निश्चय ही किसी न किसी बहु[1]त निकटस्थ रहने वाले मजदूर को फोड़ा होगा और फोड़कर के उसका उपयोग अपने हीत मे किया होगा।

तो यह जो उनकी लड़ाई नियोगी जी लड़ रहे थे और जिनके बुनियादी हको के लिए पूँजीपतियों से लोहा ले रहे थे। वो उन्हीं में से किसी ने पूंजी के हाथों बिक कर उनकी हत्या करवा दी। तो यह जो अंर्तविरोध स्वयं जिनके लिए जो नेता संघर्षरत था उसकी हत्या संभव हुई। कोई न कोई मजदूर बिका पूंजी के हाथों। चाहे उसकी जो भी मजबूरी रही हो लेकिन ये उन अंतर्विरोधों को रेखांकित करता है कि कहीं न कहीं पूरे न पूरे मजदूर आंदोलन में कुछ चीजें ऐसी जरूर रह जाती है जिनके प्रति स्वयं मजदूरों में असंतोष अपने नेता के प्रति होता है। उन्हें लगता है कि उनका जो नेता है, वह उनके साथ उतना न्याय नहीं कर रहा है या उनकी समस्या के सहारे नेता अपनी नेतई की नींव को पुख्ता कर रहा है। यानी उनके जो हीत है उनकी परवाह उतनी नहीं करता या यह भी कहीं भ्रम रहा हो कि पूंजी के इशारे पर वो उनके जो अधिकार है, उनकी लड़ाई जिस तरीके से लड़ी जानी चाहीए ईमानदारी से नहीं लड़ रहा है, किन कारणों से वह बिकता है, किन कारणों से उसकी हत्या संभव होती है। नियोगी जी की इस चीज ने मुझे हीला कर रख दिया। फिर मैंने तय किया मैं अपने जीवन के भोगे हुए यथार्थ यानी ‘ट्रेड यूनियन’ में अपनी भागीदारी के समय जिस मनोयोग जिस निष्ठा के साथ मैं मजदूर आन्दोलनों से जुड़ी रही हूँ, अपने जीवन के 15-20 वर्षों तक तो कहीं न कहीं मुझे लगा कि कुछ न कुछ असंतोष या अंतर्विरोध है जिनको रेखांकित किया जाना चाहीए। क्योकि मजदूरों का जितना भला होना चाहिए उतना नहीं हो पाता है। बल्कि उनका नेता मजदूरों को वोट बैंक बनाकरके उनके भरोसे लोकसभा के चुनाव में खड़ा होता है, जीतकर के चला आता है। लोकसभा मे कितना मजदूरों का हित आगे कर पाता है या नहीं कर पाता लेकिन अपना हित तो पूरा होता है जरूर। तो यह आवाँ समय का आवाँ है जो भोगे हुए यथार्थ को मैंने लिखा। मैंने ‘नियोगी हत्या’ कांड की जो बात की उन दिनों मैं दिल्ली में थी, मुंबई छोड़ चुकी थी। ‘ट्रेड यूनियन’ से मेरा नाता काफी कुछ खत्म हो गया था क्योकि एक जो नियमित भागीदारी होती है उससे मैं वंचित थी। दूर रहकर के मैं कभी कभी किसी मीटिंग में जा पाती थी। कहीं न कहीं मुझे यह लगा यह क्या हो गया है, कैसे संभव हुआ, कैसे पूंजीपति यह मानकर चलता है कि उसे नेता को खत्म कर दिया जाए तो इनका आंदोलन स्थिल हो जाएगा, कोई नेतृत्व हीन आंदोलन चल नहीं सकता, जी नहीं सकता, ज्यादा दिन तक। छत्तीसगढ़ में नियोगी की जब हत्या हुई 28 सितम्बर 1991 तो मुझे लगा कि मुझे अब कहीं न कहीं लिखना चाहीए। उन अंतर्विरोधों को जो हमारी हार का कारण बनती है, आंदोलन की हार का कारण बनती है। आंदोलन भीतर से खोखला होता है। अंतर्विरोधों में फंसा हुआ आंदोलन भीतर से खोखला होता है तो आवाँ को मैंने लिखने का निश्चय किया। पता नहीं में कितना न्याय कर पाई।

प्रश्न -2 एक ज़मीन अपनी, प्रेतयोनी, सौदा, लकड़बग्घा,जब तक विमलाए है, केंचुली, लेन, मुआवजा इन सभी रचनाओं में जो स्त्री चरित्र है वो ज्यादती के खिलाफ प्रतिरोध करती है, क्या वह प्रतिरोध किताबी पन्नों से निकल कर समाज में भी घटित होता है ?

उतर- वह प्रतिरोध इन रचनाओं के पन्नों से निकल करके निश्चित रूप से कहीं ना कहीं समाज के उन पक्षों को प्रभावित जरूर करता है। उसके अंदर जो सत्य है वह प्रभावित करता है कि स्त्री पात्रों के साथ जो कुछ हुआ वह कहीं ना कहीं पितृसत्तात्मक समाज के अहंकार का नतीजा है, पितृसत्तात्मक समाज के उच्च अहंकारी बर्ताव उसकी परिणीति है कि वह कभी बर्दाश्त नहीं कर पाते की स्त्री अपने गले में प्रतिरोध की आवाज रखें। वह आवाज उनके क्रियाकलापों तथा उनके निर्णय के विरुद्ध जाकर खड़ा हो क्योंकि कहीं ना कहीं उसकी गूंज बाकी रहती है। वह चाहे लकड़बग्घा में पछाँहवाली की बिटिया के रूप में हो चाहे, ‘एक जमीन अपनी भी’ की ‘नीता’, ‘बावजूद इसके’ की ‘प्रीति’, ‘सौदा’ की ‘मंगला’ या ‘फिर जब तक बिमलायें हैं’ की ‘बिमला’ अगर ये लोग पढ़ लिख जाएगी, अपने निर्णय खुद लेगी, सही गलत का निर्णय भी लेने लगेगी, अपने अधिकारों के लिए कानूनी लड़ाई भी लड़ेगी, और इन्ही से डर कर इसी सबको खत्म करने का पितृसत्तात्मक समाज सोच रहा सोचता है और इसी का परिणाम है ‘लकड़बग्घा’ का अंत। ‘लकड़बग्घा’ कभी बड़ों को उठाकर नहीं ले जाता है सेठ गांव के लोगों को ना समझ सोचकर यह प्रचारित करवा देता है परंतु जो भी यह रचना पढ़ेगा वह निश्चय उस पितृसत्ता की चालाकी को जरूर समझेगा और इस तरह यह कहानी प्रतिरोध की कहानी बनती है और प्रतिरोध पात्र के मार दिए जाने के बाद भी जिंदा रहता है। प्रतिरोध कभी मरता नहीं है बल्कि प्रेरणा बन कर पढ़ने वालों के दिल और दिमाग में बैठ जाता है। तो कहीं ना कहीं यह कहानियां मेरे हीसाब से अपने प्रतिरोध को समाज में एक प्रेरणा की तरह निरूपित और प्रेरित करती है कि गलत के खिलाफ खड़े रहना जरूरी है चाहे वह औरत ही क्यों ना चाहे वह औरत को निरीह ही क्यों ना समझते हो। तो प्रतिरोध जिंदा रहता है भले ही वह किताब के पन्नों में हो या व्यवहारिक जीवन में।

प्रश्न -3 आपकी दो रचनाएं ‘गेंद’ और ‘गिल्ली गुड्डू’ हिंदी साहित्य में वृद्ध विमर्श को गति देती है। आपको इनकी प्रेरणा कहा से मिली ?

उतर- भारतीय समाज में कोटम्भी जीवन के क्षरण से वृद्ध समस्या आई क्योंकि भारतीय समाज में कभी हमने सुना नहीं था कि अनाथ आश्रम की जरूरत है और वृद्ध आश्रमों की जरूरत है। अनाथ रिश्तेदारों में कहीं ना कहीं किसी संबंधी के सहारे जी लेता था और अपना भविष्य पा लेता था चाहे वह विधवा बहन का बच्चा हो चाहे दूर किसी रिश्तेदार का। बूढ़े-बुजुर्ग घर के दरवाजे के बरगद थे, बिना उनके पैर लगे कोई घर के भीतर नहीं घुसता था। जिस समाज में बुजुर्गों के आशीर्वाद को भगवान के आशीर्वाद के समान माना गया उस समाज में वृद्धों को अब अपने घर में रहने की इजाजत नहीं है। उपभोक्तावादी संस्कृति का यह नतीजा है जो वस्तु हमारे उपयोग में नहीं आती है उसका अपने पास होना निरर्थक है। तो वृद्धावस्था किसी भी रूप में, परिवार के क्रियाकलापों में सहायक नहीं होती है, होती भी है तो लोग उनके अनुभवों का लाभ उठाना नहीं चाहते। लोगों को अपनी सजी सजाई बैठक में खस्ता हुआ वृद्ध अच्छा नहीं लगता है। एकल परिवारों का जो चलन रोजगार के चलते या पाश्चात्य जीवन शैली के चलते हमारे यहां बढ़ा है ‘हम दो हमारे दो’ वहां वृद्धों के लिए जगह नहीं है। ऐसा कोई पोस्टर दिखाई नहीं देता कि ‘हम दो हमारे दो’ के नारे में बुज़र्गों यानी सास-ससुर के लिए कोई जगह हो। तो यह सारा का सारा जो है इस तरह की विडंबना पूरे वातावरण भारतीय समाज में व्याप्त रहा है तो वह मेरे लिए तो दिल दहलाने वाला है। मैं बांद्रा 55 सेक्टर के ‘आनंद निकेतन’ से जुड़ी हुई हूँ। मानसिक रूप से भी और शारीरिक रूप से भी। अच्छे-अच्छे घरों की माताओं को इस रुप में देखती हूँ कि उनके खुद के बनाए घरों में ही कोई ठौर ठिकाना नहीं है। यह सब देखकर इतना दुख हुआ कि यह सब हो क्या रहा है समाज में ? ‘गिल्ली गुड्डू’ और ‘गेंद’ उसे दुख और चोट की प्रेरणा से लिखा गया है। और मैं यह मानती हूँ भारत अपने कोटम्भी जीवन की वजह से, सौहार्द्र की वजह से जाना जाता है। उसकी जो पहचान है वह खंडित होगी , जो हो रहा है या जो होता चला जा रहा है तो वह कहीं ना कहीं भारतीय संस्कृतिक , सभ्यता यह सारी पहचान खो देगी। यानी भारतीय संस्कृति अपनी पहचान खो देगी।


प्रश्न -4 थर्ड जेंडर जैसे लगभग अछूते विषय पर आपने नाला सोपारा को विषय वस्तु क्यों चुना ?

उत्तर – इस विषय ने मुझे बहुत गहरे रूप में उद्वेलित किया। मैं एक सोशल एक्टिविस्ट होने का दम ओढ़े हुए कभी इन लोगों को अपनी ओर आते हुए पाया तो मैं खेद से भर जाती थी। कहाँ से चले आते हैं यह मांगने के लिए, हमारे पास पैसे है या नहीं इनकी इसकी कोई परवाह नहीं और ढीठ की तरह हमारे पास खड़े रहते हैं ताली बजाते हैं। जिस दिन मेरी नरोत्तम से मुलाकात ट्रेन यात्रा के दौरान 1999 में हुई जब मैं दिल्ली से मुंबई जा रही थी। इससे मिलने के बाद मैंने अपने आप को कटघरे में खड़ा पाया क्यों हमने, हमारे समाज ,धर्म ,बिरदरी ने इनके साथ ज्यादती की है? क्यों मनुष्य ने अपने लिंग से विकलांग बच्चे को घर से निकाल देता है। जब नरोतम से भेट के बाद मैंने इन चीजों पे गौर किया तो लगा समाज सेवा का आडंबर ओढ़े हुए मैं इतनी क्रूर हूँ। समाज के उपेक्षित लोगो मे स्त्री को भी घर आंगन मिला हुआ था, दलितों को भी समाज में रहने की इजाजत मिली हुई थी लेकिन लिंग विकलांग के लिए समाज मे मुट्ठी भर जगह नहीं थी उस समाज के उपेक्षित हीस्से के रूप में। हाशिये के लोगो को भले ही मरैया नसीब हुआ हो लेकिन अपना घर तो था। इन किन्नरो का तो अपना घर है ही नहीं समाज ने इन्हे अपने घर से बाहर फेंकने के लिए विवश किया और खासकर धर्म ने ही समाज को प्रेरित किया कि ऐसे यौन विकलांग बच्चे तुम्हारे घर में होने का मतलब अमंगल , कलंक। इनकी घर में कोई उपयोगिता नहीं है न घर में न समाज में। धर्म , समाज , राजनीति और मनुष्य इन 4 चीजों ने मिलकर इन बच्चों के साथ जो सदियों से घोर अमानवीय व्यवहार किया वह अछम्य है। और हमारे तथाकथित जागरूक समाज ने कभी यह सोचने की कोशिश नहीं की अब भी हम उनसे ऐसे ही घृणा करते हैं जैसे सदियों पहले सब का मानसिक आंदोलन बना था कि इन्हें बाहर करो तो इस अक्षम्य अपराध के लिए दोषी कौन है? हम मनुष्य हैं।

मैंने सोचा इग्नू में मैं उसका दाखिला करवा दूँ जो बनना चाहता है वह बने, लेकिन जब एडमिशन के लिए फॉर्म भरने गया वहां जेंडर में सिर्फ मेल और फीमेल थे थर्ड जेंडर नहीं। यह कितना बड़ा अपमान है। इनके धड़ के ऊपर मस्तिष्क भी है और वह उतना ही उर्वरा है जितना कि किसी सामान्य व्यक्ति का। सिर्फ निचले हीस्से की विकलांगता ने इन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। इन्हे सामाज से वंचित कर दिया गया। यही एक कारण रहा कि ‘नरोत्तम’ से जब मेरी मुलाकात हुई और उसने बताया कि वह बोरीवली उतरेगा और ‘नालासोपारा’ लोकल ट्रेन पकड़ कर जाएगा और रात भर से स्टेशन पर गुजारेगा। सुबह उसकी मां उससे मिलने स्टेशन पर आएगी। मैंने पूछा क्यों तुम्हारा घर नहीं है? उसने कहा मेरा घर तो है लेकिन मेरे घर में अब मैं नहीं हूँ। मुझे घर की सदस्यता से खारिज कर दिया गया। अब मेरा कोई हक नहीं है। ट्रेन दौड़ती रही और मैं उसके साथ उसकी जिंदगी के पृष्ठों को पढ़ती रही। मैं उसे अपनी बेटी की सीट पर सोने के लिए दे दी वह तो सो गया पर मैं बची कुची रात में भी पलकें नहीं झपका सकी। मैं अपने ऊपर धिक्कार करती रही कि मैंने इससे घृणा कैसे की? मैं आडंबर में जीती हूँ कि मैं एक सामाजिक कार्यकर्ता हूँ मैं जागृत कैसे हो सकती हूँ जब हमारे ही बिरादरी का एक बच्चा ऐसी हजारों बच्चे कई सालों से इस पीड़ा के दंश को सड़को पर भीख मांगते झेल रहे है।

‌यह मेरी धिक्कार की संतान एक लेखक का पश्चाताप है समाज में माफी मांगने का उपक्रम है ‘पोस्ट बॉक्स नंबर 203 नालासोपारा’ उपन्यास।

प्रश्न- 5 आप की कथा कीर्ति विभिन्न तरह के चरित्र मिलते हैं,ये पात्र आपको कहाँ से मिले ?

उतर – मैं समाज के कई तरह के लोगों के साथ रहती हूँ। ए॰सी कार में बैठकर नहीं बल्कि उनके साथ चॉल में रहकर सामाजिक कार्य करती हूँ तो कई तरह के पात्र, कई तरीके की समस्याएं दिखती हैं। वंचित समाजो का मेरे कथानक में उनकी उपस्थिति स्वभाविक है क्योंकि मुझे लगता है हम उन वंचितों को उनके अधिकारों से वंचित करने के लिए हम जिम्मेदार हैं तो यह एक सोशल एक्टिविटीज के जरिए मेरे अनुभवों का दायरा विस्तार पाता है। ऐसा नहीं है कि मैंने संपन्न वर्ग के लिए नहीं लिखा मैं जिस खानदान से हूँ मैं उसकी रईसी से और दुर्गुणों से भी वाकिफ हूँ।

प्रश्न -6 स्त्री विमर्श को आप किस दृष्टि से देखते हैं?

उतर – स्त्री विमर्श बहुत जरूरी है क्योंकि हाशिये के भीतर दबी हुयी औरतों को बाहर निकालना उसकी बुनियादी मानवीय अधिकारों को उसे वापस सोपना जरूरी था लेकिन यह भी उसके साथ बहुत जरूरी है कि स्त्री विमर्श का एक संतुलित समाज विमर्श के रूप में भी देखा जाना चाहीए। कहीं ना कहीं वह संतुलन विवेकपूर्ण न होकर पटरी से उतरता है तो समाज का संतुलन बिगड़ता है।

प्रश्न – 7 आपका सबसे पसंदीदा पात्र?

उतर – अभी तो सिर्फ और सिर्फ ‘बिन्नी’ उर्फ ‘नरोत्तम’ है।

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