लोक कला और साहित्य के मर्मज्ञ प्रो. शैलेन्द्र कुमार शर्मा ( विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन ) से ललित कुमार सिंह का साक्षात्कार।

जरुरी है लोक कलाओं के स्पन्दन को महसूस करना

लोक एक व्यापक संज्ञा है और उसकी परिधि में सब कुछ समाया हुआ है। ऐसी कला जो लोगों द्वारा बिना किसी औपचारिकता के कंठानुकंठ या एक हाथ से दूसरे हाथ तक हस्तांतरित होती हुई आगे बढ़ती है, वह अपने आप में लोक कला है। लोककलाओं की भी अपनी बारीकियां हैं, उसका अपना शास्त्र है। कई बार यह जो विभाजन किया जाता है कि शास्त्र अलग है लोक अलग है लेकिन लोग परंपराओं में भी बहुत सारे हिस्से ऐसे हैं जिनमें सूक्ष्मताओं की ओर ध्यान दिया जाता है। कुछ नियम मर्यादायें हैं उनका भी पालन किया जाता है। बस अंतर यहां आ जाता है कि लोग कलाकार उसे स्थानांतरित करता है तो आने वाली पीढ़ी उसमें अपनी ओर से कुछ इज़ाफा करती है और बिना किसी औपचारिकता के ,बिना किसी विधि विधान के, बिना किसी शास्त्री परिभाषा के निरंतर आगे बढ़ती रहती है। हमारा देश जो है लोक कलाओं का खजाना है। इस देश में ऐसा कोई हिस्सा नहीं है जहां पर कोई विशेष प्रकार की लोक कला ने जन्म नहीं लिया हो, उसका विकास नहीं हुआ हो। संकट यह है कि आश्रय के आभाव में लोक कला के सामने संकट आ खड़ा हुआ है।

एक जमाने में जो मुखौटे और जो कठपुतलियां हैं इनका प्रयोग साभिप्राय होता था। मनोरंजन की वस्तु तो नहीं है यह मेरी दृष्टि में क्योंकि उनके माध्यम से लोग विशेष प्रकार की पुराख्यानों को प्रकट करते थे। मिथकों को प्रकट किया जाता था। मुखौटों के माध्यम से किया जाता था ,आज भी किया जाता है। केरला चले जायें तो जो मुखौटे होते हैं उनका अपना विधान है। मुझे लगता है कि संपूर्ण एशिया महाद्वीप की विशेषता है जहां पर मुखौटों की बड़ी समृद्ध परंपरा रही है।

कठपुतलियों को लेकर भी हम इसी तरह की स्थितियां मानते हैं और सुदूर अतीत से इस परम्परा का सिलसिला बना हुआ है। चार प्रकार की पुतलियां हैं जिनका प्रयोग किया जाता है। अलग – अलग अंचलों में जो क्षेत्रीय रूप उभरे हैं इनमें नवाचार भी होता चला आ रहा है कुछ नया आविष्कार भी हुआ है। हमारा यह जो क्षेत्र है मालवा, राजस्थान इसमें सूत्र पुतली होती है जो धागे से संचालित की जाती है, उसका बहुलता से प्रयोग होता रहा है। इसी प्रकार एक दस्ताना पुतली भी होती है जिसको हम हाथ में धारण करते हैं। मुझे गौरव मिला है कि विक्रम विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में स्थापित लोक एवं जनजातीय कलाओं से जुड़ा हुआ जो संग्रहालय है उसमें दस्ताना पुतली का एक महत्वपूर्ण संग्रह है। यह दस्ताना पुतलियां जो हैं इनके माध्यम से हम पंचतंत्र, हितोपदेश से लेकर महाराणा प्रताप हल्दीघाटी या वर्तमान सत्र में बालकों प्रयोगी नाटकों का मंचन भी हम लोग किए हैं। दस्ताना पुतलियों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि इनका मंचन बिल्कुल न्यूनतम माध्यम से किया जाता है। सूत्र पुतली में थोड़ी सी जटिलता है जिसमें एक पर्दा है, एक औपचारिक मंच है जिसके पीछे से सूत्र संचालन होता है। लेकिन जो दस्ताना पुतली है उसमें हमें कुछ नहीं करना है सिर्फ हाथ के अंगूठे और शेष दो उंगलियां हैं उसके निकट की उनके माध्यम से उन्हें संचालित किया जाता है। कठपुतली का एक और महत्वपूर्ण रूप है वह जो काष्ठ की पुतली होती है। उसके अलावा जो चमड़ा होता है उसके माध्यम से पुतलियों का निर्माण किया जाता है जिसे हम छाया पुतली ( शैडो पपेट ) के रूप में देखते हैं। और उसका बहुलता से दक्षिण भारत में कर्नाटक आदि में प्रयोग किया जाता है यह उधर जो दक्षिण पूर्व एशियाई देश है वहां तक यह गईं हुई है। सामान्य जनजीवन में इनकी लोकप्रियता इसलिए कम हो रही है क्योंकि आश्रय जो है वह कम हो रहा है। पुरातन काल से लेकर की मध्यकाल तक इन्हें राजाश्रय मिलता रहा और लोकाश्रय भी मिलता है। लेकिन वह जो लोक कलाकार है उसको थोडा बहुत राजाश्रय तो मिला लेकिन लोकाश्रय के अभाव में अपनी कलाओं से दूर हो जाते हैं। मैंने कई ऐसे कलाकारों को देखा है कि जिनके पूर्वज बहुत अच्छे ढंग से कठपुतलियों का संचालन करते थे, वह मुखौटों का निर्माण करते थे। हमने रामलीला में भी देखा है कि मुखौटों का बहुत अच्छा प्रयोग होता रहा है लेकिन धीरे-धीरे लोग इससे दूर होते चले जा रहे हैं। और कहीं ना कहीं इसके पीछे आत्महीनता की स्थिति को मानता हूँ मैं। हम जो हैं अपना आत्म स्वाभिमान खो रहे हैं हम विदेशी कलाओं, विदेशी परंपराओं उनकी ओर आकर्षित हो रहे हैं। वह लोग हमारी कलाओं को देख रहे हैं और हम अपनी कलाओं के संरक्षण के लिए ठीक प्रकार का वातावरण नहीं दे पा रहे हैं तो मुझे लगता है कि राजाश्रय मिले और लोकाश्रय मिले तभी हमारी लोककलाएँ जीवित रह सकती हैं। मुखौटा जो है वह तो आदिमकाल से चला आ रहा है और बिल्कुल शुरुआती तौर पर जो जनजाति समुदाय अपने आदिम अवस्था में था तो वह देखता था कि उसको दिख रहा है कोई वन्यजीव है वन्य प्राणी है तो उसके आकार को बनाकर अपने चेहरे पर लगाता था। सींघों का प्रयोग किया जाता था। कई स्थानों पर आज भी जनजातियां हैं जो मुखौटों का विविध रूपी इस्तेमाल करती हैं कहीं पर वह पूरे चेहरे को वह ढक देता है, कहीं वह सिर को ढक देता है। कहीं पर चेहरा जो है वह विशेष प्रकार से पोता जाता है कहने का तात्पर्य यह है कि मुखौटों को व्यापक परिप्रेक्ष्य मिला है हमारी भारत भूमि में और अभिव्यक्ति का जो मानदंड है वह कितना अनूठा है। आपको बता दूँ कि अपने यहाँ अभिनय के चार प्रकार माने गये हैं। हम मुखौटों को आहार्य अभिनय के रूप में विशेष महत्त्व देते हुए दिखाई देते हैं। हमारे यहाँ आंगिक अभिनय, वाचिक अभिनय ओर सात्त्विक अभिनय है। कल्पना करें कि मुखौटों के कलाकार के पास माध्यम बचा ही क्या है ? वह जो सूक्ष्म अभिनय है विभिन्न मुख – मुद्राओं के द्वारा किया जाने वाला वह तो कर ही नहीं पायेगा क्योंकि उसके चेहरे पर मुखौटा लगा हुआ है। अपने यहाँ के कलाकारों ने वीभत्स रूप, रौद्र रूप, और श्रंगार रूप तथा विभिन्न प्रकार के भावों को अभिव्यक्त करने वाले अलग – अलग मुखौटे बनाये जो सीधे – सीधे उनके चरित्र से जुड़ते हैं और बड़ी सहजता भावाभिव्यक्त करते हैं। हनुमान जी का मुखौटा होगा तो थोड़े से प्रतीकों के माध्यम से बना देंगे लेकिन अब केवल मुखौटों के आधार पर काम नहीं करते हैं उसके आंगिक अभिनय भी महत्वपूर्ण होता है। अब मुखौटा जो है वह किसी राक्षस का धारण कर लें या किसी विभक्त रस की अभिव्यक्ति करने वाले किसी खल पात्र का कर लें लेकिन अगर आपका आंगिक अभिनय जो है कोमल होगा तो निश्चित तौर पर उस मुखोटे को धारण करने का कोई तात्पर्य नहीं रह जाएगा। देवी का अभिनय करना है तो देवी के अनुरूप ही मुखौटा नहीं होगा आंगिक अभिनय आपको उसके अनुरूप करना होगा तो मुखौटा जो है वह मात्र केवल मुख पर चढ़ाया जाने वाला आवरण नहीं है उसे शेष जो 3 आयाम बचते हैं अभिनय के वाचिक अभिनय के साथ भी हमें जोड़ना पड़ेगा क्योंकि अगर उस प्रकार की ध्वनि नहीं होगी उस प्रकार की अभिव्यक्ति नहीं होगी तो मुखौटे का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। इसी प्रकार आंगिक अभिनय को भी हमें देखना पड़ेगा लेकिन सात्त्विक अभिनय के साथ समस्या यह होगी कि वह उतना संभव नहीं है मुखौटों के माध्यम से। लेकिन फिर भी कुछ छोटी-छोटी चीजें वह शेष हमारा जो अंगोपांग हमें दिखाई दे रहे हैं अगर अभिनेता उसका इस्तेमाल करेगा तो वह भी प्रकट हो सकता है। प्रयोगधर्मी निर्देशकों में मैंने कई ऐसे निर्देशक कई ऐसे नाट्य मंचन देखे हैं जिनमें मुखौटों का कठपुतलियों का आधुनिक परिवेश में प्रयोग हुआ है। कई ऐसे लेखक हैं जिन्होंने अपनी कृतियों में स्थान दिया है विशेष तौर पर जो पुराख्यानों पर आधारित जो मध्यकालीन नाट्य रूप हैं आप लोग देख सकते हैं कि रामलीला है उसमें मुखौटों का बहुत प्रचलन रहा है व्यापक तौर पर प्रयोग होता है। गणेश जी दिखाना है तो कैसे दिखाएंगे गणेश जी बिना मुखौटे के तो दिखा नहीं सकते हैं हनुमान जी को दिखाना है तो भी इस्तेमाल किए किया जाएगा मुखौटा। इसी प्रकार की स्थिति पुराख्यानों पर आधारित आधुनिक परिवेश में जो नाटक बने हैं उनमें भी दिखाई देती है। ‘हयवदन’ प्रसिद्ध कृति है गिरीश कर्नाड की वह भी एक मंचन कैसे होगा बिना मुखौटे के हो नहीं सकता यही स्थिति गुलवर्धन के थिएटर की है। गुलवर्धन ने तो इस विधा को बहुत चमत्कारिक रूप में और बेहद प्रयोगशीलता के रूप में आगे बढ़ाया है , और मुझे यह सौभाग्य मिला है कि गुरुवर्धन जी से साक्षात्कार भी लिया है और गुलवर्धन जी के थिएटर को भी देखा। उन्होंने पुरातन काल से चली आ रही कठपुतली और मुखौटों की परंपरा को बिल्कुल अभिनव विन्यास दिया और उसके कारण वे नए से नए विषयों को लेकर अपनी प्रस्तुतियां अपनी करती थीं। विशेष तौर पर रामलीला का एक विशेष मंच आवरण हम लोगों ने देखा है तात्पर्य है कि प्रयोगधर्मी निर्देशक चाहे तो हमारे दौर में भी मुखौटों और कठपुतली विधा के जो विभिन्न आयाम हैं उनका ठीक प्रकार से प्रयोग कर सकता है। कठपुतली की सबसे बड़ी विशेषता है कि अब इसमें अब अंग भी नहीं बचा है क्योंकि मुखौटों में तो चेहरा ढका है बाकी आंगिक स्थितियां बनी हुई हैं लेकिन कठपुतली के साथ यह संकट है कि उसमें कुछ भी नहीं है केवल आपके पास पुतलियां हैं या आप का हाथ है जिसमें आपने दस्ताना पहना हुआ है जिससे आप कठपुतलियाँ चला रहे हैं या छाया पुतलियां ( शैडो पपेट ) हैं। अब इसमें तो कितना कठिन माध्यम है कि चरित्र को रूपांतरित करने के लिए मंच पर आप नहीं जा रहे हैं केवल वह आकृति जा रही कठपुतली जा रही है। इससे आप पार्श्व से वाचिक अभिनय कर सकते हैं तो निश्चित तौर पर जिन मंचों पर चतुरायामी अभिनय के लिए गुंजाइश होती है वह कलाकार को छूट मिलती है लेकिन मुखौटे और कठपुतली दोनों थे ऐसी विधा है जिसमें चतुरायामी अभिनय के लिए संभावनाएं नहीं बचती हमारा माध्यम सीमित हो जाता है। लेकिन अगर कोई प्रयोगधर्मी व्यक्ति है तो इस पर बहुत अच्छे से काम कर सकता है। मुझे लगता है कि लोक जीवन और लोक कलाओं के मध्य यदि मुखौटा और कठपुतलियों का फिर से सम्यक प्रसार हो तो निश्चित तौर पर यह विधा बहुत सशक्त है और इनके माध्यम से हम नए विषयों को भी एकदम से समसामयिक विषयों को भी संप्रेषित कर सकते हैं। हम क्यों नहीं पर्यावरण से जुड़े हुए विषयों को लेकर या फिर जो तापीय परिवर्तन हो रहा है , जो जलवायु से संबंधित संकट आ रहा है या आधुनिक परिवेश से जुड़ी हुई कई समस्या आ रही है उनमें भी हम लोगों को मुखौटों और कठपुतलियों का प्रयोग कर सकते हैं हमारे देश के कई लोगों ने इस पर काम किया है। देवीलाल सामर का नाम सुविख्यात हैं जिन्होंने राजस्थान में बैठकर कठपुतली प्रथा को वैश्विक स्थिति तक पहुंचाया है। और वह एक महत्वपूर्ण प्रसंग देवीलाल सामर जी के साथ रहे महेंद्र भाणावत मुझे सुना रहे थे कि जब हमारे यहां के कठपुतली कलाकारों को लेकर उन्होंने योजना बनाई कि इनका प्रदर्शन विश्व स्तर पर होने जा रहे है कठपुतली प्रदर्शन में हम करवाना चाह रहे हैं तो भारत की तत्कालीन जो प्रमुख लोग थे संस्कृति से जुड़े हुए लोग थे उन लोगों ने कहा यह कैसे संभव है क्योंकि हमारे यहां तो कठपुतली चलाने वाला बेचारा वह एक भिक्षाटन करने वाले व्यक्ति की स्थिति में पहुँच चुका था और यह हम सोच नहीं पा रहे थे कि अमेरिका ,जापान या यूरोपीय देशों की जो कठपुतली के सामने हमारे देश की कठपुतली कैसे खड़ी हो सकती है लेकिन सामर जी ने , महेंद्र भानावत जी ने और अन्य लोगों ने यह कहा कि हम कठपुतली को उसी स्तर पर विकसित करेंगे। राजस्थान के उदयपुर के आस-पास के कई कलाकार इनको बनाना और इनको नचाना छोड़ चुके थे। उन्होंने वर्कशॉप की और स्क्रिप्ट तैयार की और उसके बाद में जिस तरह से कठपुतली कला सामने आई दिल्ली में उसका प्रदर्शन हुआ तो उसको फिर विश्व स्तर पर होने वाले कठपुतली महोत्सव में भारत का दल गया और उसके बाद उसकी पुनर्स्थापना हुई। तात्पर्य है कि हमें कहीं न कहीं अपनी जड़ों के साथ जुड़ना होगा और आधुनिक रंगमंच में आधुनिक परिवेश में उसकी शक्ति और संभावना पर विचार करना होगा। निश्चिततौर पर लोक कलाकारों ने संकट झेला है। शहरीकरण हो रहा है मैंने जैसा अभी बताया कि कई ऐसे कलाकार हैं जो बताते हैं कि उनके पूर्वज उस विधा को करतेथे लेकिन बाद के लोग दूर हट गए।

फड़ चित्रन की जो कला है उसके साथ भी यह संकट हुआ। भीलवाड़ा क्षेत्र में रहने वाले कलाकार इसको प्राय: छोड़ने की स्थिति में आ गए थे लेकिन यही लोग देवीलाल सामर, महेंद्र भाणावत जी आदि लोगों ने उनसे कहा कि नहीं आप इसको छोड़ क्यों रहे हैं ? उन्होंने कहा कि हमको इस कला से मिलता क्या है हम तो नए ढंग के साइन बोर्ड बनाएंगे उससे कमाई हो सकती है पुरानी चीजों को अब कौन खरीदता है, कौन उनको स्थापित करता है, कौन उन्हें प्रतीक रूप में पूछता है या उनका प्रदर्शन करवाता है। उन्होंने उस दौर में संस्कृति से जुड़े हुए जो लोग थे उनसे बात की, उनकी वर्कशॉप आयोजित करवाई। फिर कलाकारों प्रश्रय मिला उनको राष्ट्रपति सम्मान मिले, उन्होंने पुनः स्थापना करवाई उस फड़ चित्रण की। एक तरह से पुन: स्थापना हुई उस फड़ चित्रण कला की। कावड़ कला के साथ भी यही हुआ, कावड़ भी लगभग पीछे चली गई थी कावड़ कला को भी पुनर्जीवन मिला। मालवा का जो माच है वह भी विलुप्त के कगार पर जा रहा था लेकिन अब नए युग के जो रंगकर्मी है उन्होंने कोशिश की उनके साथ जुड़े उस मंच के कलाकारों के साथ जुड़े। उस वक्त हम लोगों ने भी यहां पर माच के महोत्सव करवाये हैं। पिछले डेढ़ दशक के अंदर 6-7 महोत्सव हो चुके हैं और हमने कुछ रंग दल जो लगभग निष्क्रियता की स्थिति में जा रहे थे या जिनके पूर्वज कलाकार थे धीरे-धीरे दूर हो रहे थे तो ऐसे लोगों के लिए युवाओं की रंग कार्यशाला करवाई। माच की कार्यशालाएं करवाई और प्रयास अगर करेंगे तो निश्चित तौर पर यह हो सकता है। लोक भाषाएं तो हमारे देश की प्राण हैं इस देश में यदि लोक भाषाएं नहीं होंगी तो यह देश नहीं रहेगा इस देश को परस्पर जोड़ने का काम एक दूसरे के हाथ में हाथ डाले हुए लोक भाषाएं ही कर रही हैं। इस देश की संस्कृति ही लोक संस्कृति है । हम लोग कितने भी शहरी हो जायें हम लोग कितने भी महानगरी जीवन की तरफ अग्रसर हो जायें लेकिन बिना लोक कलाओं, लोक भाषाओं, लोक संस्कृति के यह देश नहीं बचेगा और इनके मध्य से जो आपस में लड़वाने की कोशिश जो लोग कर रहे हैं इसके प्रति भी हमें कहीं न कहीं सजग होना पड़ेगा क्योंकि जब एक लोक भाषा मिटेगी तो इसका मतलब है यह नहीं है कि दूसरी भाषा बच जाएगी दूसरी भाषाएं भी उसी गति से समस्या में आएंगी। अत: सब को सामूहिक रूप से सभी क्षेत्र में बोली जाने वाली लोक भाषाओं के केवल रक्षण नहीं उनके प्रयोग के लिए प्रयास करना चाहिए| मेरा यह मानना है कि लोक संस्कृति, लोक परंपराएं , लोक भाषाएं आचार या मुरब्बे की तरह नहीं है जिनको संरक्षित पदार्थ आप डाल दें बरनी में रख दें और वह बच जाएँगी ऐसा नहीं होगा। अगर आप रहेंगे तो लोक भाषाएं बची रहेंगी आप उसको सोचे कि मैं इनको 11 मर्तबान में रख दूं उसको संजों लूं और बस हो गया काम तो ऐसा उचित नहीं होगा तो इस दृष्टि से संरक्षण ही नहीं वरन उनके प्रयोग की आवश्यकता है। नाट्य में मुखौटों और कठपुतलियों का व्यापक प्रयोग हो सकता है इसमें किसी प्रकार की कोई समस्या नहीं है। यह बेहद धैर्यवान बेहद सजग और प्रयोग शील व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह किस तरह से इसकी रक्षा ही नहीं करें वरन इसे लोक व्यापी बनाने की चेष्टा करे। कठपुतलियों के माध्यम से अभिनव रंग प्रयोग होने चाहिए इसी तरह से जहाँ – जहाँ आवश्यकता हो जरूरी नहीं कि पूरे नाटक में मुखोटों का इस्तेमाल किया जाए जहां आवश्यक हो मुखौटों का इस्तेमाल करें। इसी तरह जहाँ आवश्यकता हो वहां कठपुतलियों का प्रयोग करें निश्चित तौर पर इससे जो नाट्य प्रस्तुति है उसमें नई संभावनाओं के द्वार खुलेंगे। हमारा जो मंच रहा है वह लोकमंच रहा है हमने पश्चिम के प्रभाव से एक बंद तरह का बॉक्सनुमा सेट बना लिया यथार्थवादी थिएटर में आ गए हैं हम लोग, और हमने कलाकार को और दर्शक को दोनों को बीच खाँचे में डाल दिया है। हमारा रंगमंच तो खुला रंगमंच है हमारे यहां रात-रात भर जो प्रस्तुतियाँ होती थीं। उसके अंदर बिल्कुल किसी औपचारिकता के अभाव में बिना उसके लोग मंचन करते थे और रात-रात में मंचन करते थे, तो अगर कोई श्रेष्ठ रंग निर्देशक प्रयोगशील हो तो मुखौटे और कठपुतली इन दोनों के माध्यम से उन्हें नई दिशा दे सकता है। इससे मुखौटे और कठपुतली की विधा ही लाभान्वित नहीं होगी मुझे लगता है कि आधुनिक थिएटर भी लाभान्वित होगा। कठपुतलियों और मुखौटों के माध्यम से हम बहुत सारे प्रतीकों को भी व्यक्त कर सकते हैं। ‘आधे अधूरे’ के बारे में आप सभी जानते हैं कि ‘आधे अधूरे’ क्या है ? ‘आधे अधूरे’ एक तरह से मुखौटे का परिवर्तन ही तो है उसमें भेष बदलता है जबकि व्यक्ति वही रहता है। हमारे यहाँ मुखौटे बदलते थे और अभिनेता बदल जाता था उसका कथन बदल जाता था तो निश्चित तौर पर मुखौटों और कठपुतली दोनों के प्रयोग से अभिव्यक्ति के नये अर्थों को तलाशा जा सकता है।

संरक्षण की जहाँ तक बात है मैं फिर वहीं आता हूँ मुखौटा को संग्रहालय में रख दें कठपुतली को संग्रहालय में रख दें। और प्रदर्शनी में दिखाएं इनको कि ऐसा था उनके चित्र दिखाएं उससे संरक्षण नहीं होगा, उसे हम दस्तावेजी करण के स्तर पर मान सकते हैं। इनका जब तक लोक व्यवहार नहीं होगा, लोक में प्रयोग नहीं होगा, नए रंगमंच के साथ इनका रिश्ता नहीं बनेगा तब तक इन दोनों विधाओं के संरक्षण, संवर्धन और नवाचार के लिए कोई रास्ते नहीं खुल सकते। अतः व्यापक तौर पर इन दोनों विधाओं से जुड़ी हुई कार्यशालायें केवल राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं वरन प्रादेशिक और जिला स्तर पर आयोजित की जानी चाहिए। स्थान-स्थान पर इन विधान से जुड़े हुए जो पुराने कलाकार हैं उनको खोजें हम लोग उनको बिठाए उनके रंग कार्यशाला आयोजित करवाएं। मैं नाथद्वार की गलियों में घूम रहा था लोग अपने अपने ढंग से चीजों को देखते हैं लेकिन मेरी निगाह एक दुकान पर गई जहां पर गणेश जी का एक मुखौटा टंगा हुआ था मैं गया उनके पास मैंने उनसे कहा कि मुझे और मुखौटे दिखाएं। उनको लगा कि मैं शायद कोई नाट्य मंडली वाला हूँ। जिसका विषय उस क्षेत्र की किसी लोक कला से सम्बंधित है। जब उसने अंदर से बहुत सारे मुखौटे निकाले तो मैं चकित रह गया कितना समृद्ध मुखौटों का संसार हमारे यहाँ पर है मैंने कुछ सैंपल के रूप में कुछ उस से खरीदें और उसने जो कहा उस उसको पैसा दिया। तात्पर्य यह है कि जब इस तरह से बिल्कुल अवहेलना का शिकार यह कलाएँ हो रही हैं तो उनको केवल हम लोग सजाकर संरक्षित नहीं कर सकते। उनके कलाकारों को बुलाएं, सीखें कि कैसे मुखौटों का निर्माण होता है। इस कला को हम लोग नई पीढ़ी से जोड़ें, स्कूल कालेज स्तर के विद्यार्थियों को जोड़ें। मंचन में उनका प्रयोग हो इसी प्रकार कठपुतली जटिल है मेरे पास सैंपल है जिसमें हम लोग देखते हैं कि किस तरह से एक अनगढ़ कास्ट फलक लिया जाता है उसको धीरे-धीरे तराशा जाता है और बाद में चेहरा बनता है और उसके बाद में कलाकार उसमें रंग डालता है रंग भरता है और फिर वस्तुओं से उसको सजाया जाता है और फिर कठपुतली आकर लेती है। हमारे यहाँ कुछ डॉक्यूमेंट उपलब्ध है विक्रम विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में। निश्चित तौर पर इन कलाओं को केवल संग्रहालय की वस्तु न बनाएं, उन पर निरंतर कार्यशालाएँ हो, उनके कलाकारों को बुलाएं और फिर उनका मंचन कराएं क्योंकि मंच पर जाकर ही उनका पालन-पोषण होगा और लोग नए-नए अर्थों की अभिव्यक्ति के माध्यम से कर पाएंगे। धन्यवाद …….

ललित कुमार सिंह

शोधार्थी : दिल्ली विश्वविद्यालय , हिंदी विभाग

शोध कार्य : रंगमंच, मुखौटा और कठपुतली कला

ई मेल – lalitkumarsingh251@gmail.com

मो.- 9335980492

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