बौद्ध संघ के विकास यात्रा में राजव्यवस्था

जगन्नाथ कुमार यादव

रिसर्च फेलो, बौद्ध अध्ययन विभाग

दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली

ईमेल- jkyadav@buddhist.du.ac.in

मोबाइल- 9971648192

सारांश

‘संघ’ बौद्ध धर्म के त्रिरत्न में से एक माने जाते हैं। ज्यादातर विद्वानों ने बौद्ध दर्शन एवं इतिहास तथा पालि भाषा एवं साहित्य सम्बन्धी अध्ययन किया हैं। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद बौद्ध धर्म का मुख्य केंद्र ‘संघ’ ही था और इसी से इसे एक आकार भी मिला। इसके बावजूद बौद्ध धर्म की विशिष्ट विशेषताओं में से एक संघ तथा इसके विकास यात्रा को अक्सर नज़रंदाज़ किया गया। संघ को महज़ एक आध्यात्मिक स्थान के रूप में परिभाषित किया गया, जो निर्वाण प्राप्ति में लगे बुद्ध के अनुयायियों के लिए महज़ एक आवासीय स्थान था। जब हम इसके विकास यात्रा का अध्ययन करते हैं, जो इस शोध कार्य का क्षेत्र है, तो संघ महज़ अध्यात्म में उलझा एक समुदाय के रूप में सामने नहीं आता है, बल्कि विभिन्न राजव्यवस्था मसलन- राजतन्त्र एवं अल्पतंत्र के समानांतर चलता हुआ अपने गंतव्य स्थान यानी गणतंत्रात्मक प्रणाली को अपनाता हुआ प्रतीत होता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो राजव्यवस्था के विभिन्न रूपों से गुज़रता हुआ संघ का विकास यात्रा ही इस शोध कार्य का विषय है।

बीज शब्द

बौद्ध धर्म, संघ, राजव्यवस्था, लोकतंत्र, राजतन्त्र, अल्पतंत्र, भिक्षु, समुदाय।

प्रस्तावना

‘संघ’ भिक्षु एवं भिक्षुणियों का एक समुदाय है, जहाँ रहकर वह जीवन के मुख्य ध्येय ‘निर्वाण’ प्राप्ति की उम्मीद में धार्मिक अनुष्ठान करते हैं। संघ की कल्पना संभवतः वर्षावास से हुआ होगा। बुद्ध के समय बारिश के मौसम में सभी भिक्षुओं को तीन महीने के लिए एक स्थान पर एकत्रित हो, इकट्टे रहना अनिवार्य था, जिसे वर्षावास का नाम दिया गया।

बुद्ध और बौद्ध भिक्षु परिव्राजक परम्परा से जुड़े रहे हैं। जिसके तहत व्यक्ति अपनी पारिवारिक जीवन त्याग कर संसार की रहस्यमय सत्य के तलाश में इधर-उधर घूमते हैं। इससे पूर्व यानी पुराने ढंग के परिव्राजकों का कोई संघ नहीं था, उनके अनुशासन के नियम भी नहीं थे और ऐसा कोई आदर्श भी नहीं था, जिसके लिए उन्हें प्रयास करना पड़ता। इतिहास में पहली बार तथागत ने अपने भिक्खुओं का एक संघ अथवा भ्रातृसंघ बनाया, उनके लिए अनुशासन के नियम बनाए और आदर्श भी निश्चित किए, जिनका उन्हें पालन करना और लक्ष्य प्राप्त करना होता था।[1] शुरुआती दौर में मुख्यतः कस्बाई क्षेत्रों में बुद्ध या भिक्षुओं को दान के रूप में दिए गए पार्क (विहार) से संघ कार्य करता था, जहाँ बुद्ध और भिक्षु सहित उनके अनुयायी उपदेश सुनने को एकत्रित होते थे।

फ़िलहाल हमारा उद्देश्य बौद्ध संघ के विकास के विभिन्न चरणों में मौजूद राजव्यवस्था के बीज का आकलन करना है। लेकिन इससे पहले हमें राजव्यवस्था के विभिन्न रूप को जान लेना भी महत्वपूर्ण होगा।

यूनानी विद्वानों ने राजव्यवस्था को मुख्य रूप से तीन भागों में व्याख्या किया है- पहला- राजशाही(राजतन्त्र) यानी एक के द्वारा शासन, दूसरा- अभिजात वर्ग (अल्पतंत्र) यानी समाज के कुछ व्यक्तियों द्वारा संचालित शासन प्रणाली और आखिर में, लोकतंत्र यानी जनता का शासन प्रणाली।[2]

बौद्ध संघ अपने विकास में इन सभी राजकीय व्यवस्था से गुजरते हुए, अंततः एक लोकतंत्रात्मक व्यवस्था कायम करता है। काशी प्रसाद जायसवाल इस बात को स्थापित करते हुए कहते हैं कि उन्होनें (बुद्ध) अपना धार्मिक संघ स्थापित करने में राजनीतिक संघ का नाम और संघटन या रचना-प्रणाली भी ग्रहण की थी।[3] संभवतः इसके पीछे एक और वजह रहा होगा कि बुद्ध का जन्म एक गणतंत्रात्मक प्रणाली वाले राज्य में हुआ था। जाहिर है, यह प्रणाली उन्हें प्रभावित किया होगा क्योंकि उस समय यही एक ऐसी व्यवस्था थी, जो समावेशी एवं बहुजन हिताय पर आधारित थी।

बौद्ध संघ एक समुदाय के रूप में:

बौद्ध संघ के विकास में प्रथम भिक्षु से भिक्षु संघ के सफ़र का अध्ययन करना उचित होगा। यह पहले धर्मोपदेश के साथ शुरू होता है, जब सारनाथ में बुद्ध द्वारा पांच भिक्षुओं को प्रव्रजित किया जाता है। जिसे ‘धम्मचक्कप्पवत्तन’ कहा जाता है।

बाद में एक वर्षावास के दौरान कई लोगों ने एक साथ बुद्ध को अपना गुरु मान प्रव्रजित हुआ। उस बारिश के मौसम में दुनिया में साठ भिक्षुओं की उत्पत्ति हुई। उसे संबोधित करते हुए बुद्ध ने कहा:

“भिक्खुओं! जितने भी दिव्य और मानुष बंधन हैं, मैं उन सबों से मुक्त हूँ। तुम भी दिव्य और मानुष बन्धनों से मुक्त हो। भिक्षुओं! बहुत जनों के हित के लिए, बहुत जनों के सुख के लिए, लोक पर दया करने के लिए, देवताओं और मनुष्यों के प्रयोजन के लिए, हित के लिए, सुख के लिए विचरण करो। एक साथ दो मत जाओ। हे भिक्षुओं! आदि में कल्याण- (कारक), मध्य में कल्याण-(कारक) और अंत में कल्याण-(कारक) इस धर्म का उपदेश करो। अर्थ सहित व्यंजन-सहित, केवल (अमिश्र) परिपूर्ण परिशुद्ध ब्रह्मचर्य का प्रकाश करो। अल्प दोष वाले प्राणी भी हैं, धर्म के न श्रवण करने से उनकी हानि होगी। सुनने से वह धर्म के जानने वाले बनेंगे।”[4]

बुद्ध की इस उद्घोषणा से हमें पता चलता है कि बौद्ध धर्म की नीति अपने स्वार्थ की सेवा के लिए नहीं, बल्कि लोगों के सुख और लाभ के लिए थी। यह बौद्ध धर्म का प्रारंभिक चरण था, जहाँ किसी तरह की संगठन बनाने की आवश्यकता नहीं थी। बौद्ध धर्म के प्रारंभिक चरण के दौरान बुद्ध को निश्चित रूप से स्वयं संघ नेता कहा जा सकता है। अन्य समाजों की तरह बौद्ध धर्म के प्रारंभिक चरण में भी कोई शासकीय निकाय नहीं था। कानून और कार्यविधि निर्धारित नहीं थे। लेकिन सभी भिक्षुओं ने सार्वभौमिक सत्य का पालन किया, जिसे उन्होंने अपने जीवन और कार्यविधि के रूप में अपनाया था। उनके जीवन का कोई लक्ष्य या उद्देश्य नहीं था, क्योंकि वे सर्वोच्च लक्ष्य निर्वाण (निब्बान) प्राप्त कर चुके थे।

उनके जीवन का उद्देश्य सामान्य जन को लाभ पहुँचाना था। बौद्ध धर्म में राजव्यवस्था का कोई रूप नहीं था, लेकिन अगर हम राजव्यवस्था के वर्गीकरण के साथ प्रारंभिक बौद्ध धर्म के कार्य पद्धति की तुलना करे तो इसे एक राजशाही (राजतांत्रिक पद्धति) के समक्ष खड़ी की जा सकती है। बुद्ध ने सभी भिक्षुओं को खुद से निर्देशित किया और उनके अनुयायियों ने उन्हें एक आदेशक के रूप में माना। उनके द्वारा जारी की गई नीति लोगों के हित और खुशी के लिए थी। भिक्षुओं ने बिना किसी सिफारिश, कानून, आदेश के बुद्ध द्वारा घोषित नीति के अनुसार काम किया। उनके काम करने का परिणाम बौद्ध भिक्षुओं और अनुयायियों की वृद्धि के रूप में प्रकट हुई और लोगों ने बुद्ध के अनुसरण में स्वयं को समर्पित कर दिए। इसे हम इस रूप में भी देख सकते हैं कि भिक्षु संघ की स्थापना के पहले चरण के दौरान निर्णय लेने की शक्ति बिना किसी परामर्श, वार्तालाप या बैठक के सीधे बुद्ध के हाथों में था। इस प्रकार, संघ को चलाने और नियंत्रित करने का एकमात्र अधिकार बुद्ध के पास ही था।

बौद्ध संघ के विकास का दूसरा चरण:

पहले बुद्ध खुद ही व्यक्तियों को उपसंपदा एवं प्रबज्या देकर भिक्षु या भिक्षुणी बनाते थे। किन्तु समय के साथ अनुयायियों की संख्या में इजाफ़ा होता गया, जिससे स्वाभाविक तौर पर सिर्फ बुद्ध द्वारा किया जाना संभव नहीं रह गया होगा। जिसके कारण भिक्षुओं को भी उपसम्पदा और प्रबज्या देने की अनुमति दी गई। जैसा कि धम्मचक्कप्पवत्तन सुत्त के उपसम्पदा कथा में कहा गया है:

“उस समय भिक्षु नाना दिशाओं से नाना देशों से प्रब्रज्या की इच्छाओं वाले, उपसम्पदा की उपेक्षा वाले आते थे कि बुद्ध उन्हें प्रब्रजित करें, उपसम्पन्न करें। इससे भिक्षु भी परेशान होते थे और प्रब्रज्या और उपसंपदा चाहने वाले भी। ध्यानावस्थित बुद्ध के चित्त में विचार हुआ कि क्यों न भिक्षुओं को ही अनुमति दे दूँ, कि हे भिक्षु! तुम्हीं उन-उन दिशाओं में, उन देशों में जाकर प्रब्रज्या दो, उपसंपदा करो।

उपसंपदा देने का प्रकार यह है- पहले सिर, दाढ़ी मुंडवा, काषाय वस्त्र पहना, भिक्षुओं की पाद- वंदना करा, उकडूं बैठा, हाथ जोड़वा कर ‘ऐसे बोलो’ कहना चाहिए- ‘बुद्ध की शरण जाता हूँ, धर्म की शरण जाता हूँ, संघ की शरण जाता हूँ।’ इन तीन शरणा-गमनों से प्रब्रज्या और उपसंपदा देने की अनुमति देता हूँ।”[5]

इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि भिक्षु अन्यों लोगों को प्रब्रज्या और उपसम्पदा दे सकता था, जिसे खुद की उपसम्पदा प्राप्त किये कम-से-कम दस साल हो गये थे।

संघ में प्रवेश का पूर्ण अधिकार, जो पहले बुद्ध का कर्तव्य था, जब भिक्षुओं को दिया गया वहाँ से बौद्ध संघ का दूसरा चरण शुरू होता है। जैसे-जैसे यह समुदाय बढ़ता गया, बौद्ध आदेशानुसार प्रत्येक सदस्य को उपसम्पदा समारोह में भाग लेने का समान अधिकार दिया गया। समय बीतने के साथ न केवल संघ में सदस्यों का प्रवेश हुआ, बल्कि उनके दीक्षित और पर्यवेक्षण की भी आवश्यकता महसूस हुई। युवा भिक्षु को अपनी पसंद के उपदेशक चुनने की अनुमति दी गयी।

यदि इस चरण की तुलना किसी राजनीतिक प्रणाली के साथ किया जाए तो यह अभिजात वर्ग की ओर बढ़ रहा प्रतीत होता है क्योंकि बौद्ध आदेश के मामलों में शक्ति एक व्यक्ति से अब कुछ योग्य भिक्षुओं के हाथों में स्थानांतरित की जा रही है। जिनके पास उच्च जिम्मेदारी और मदद करने की क्षमता है। हालाँकि वह अपनी सामाजिक स्थिति के कारण नहीं, बल्कि अपने गुणों के कारण उच्च हैं। ऐसे भिक्षुओं के समूहों को अल्पतंत्रात्मक व्यवस्था कहा जा सकता है।

संघ के सदस्यों में उच्च गुण विकसित करने के लिए कुछ शर्तें बनाई गई। जो लोग उपाध्याय हो सकते हैं, उनकी अवधि बुद्ध के वचन द्वारा सीमित थी: “भिक्षुओं! अनुमति देता हूँ, चतुर और जानकार दस या दस से अधिक वर्ष वाले भिक्षु को उपसम्पदा करने की।”[6]

धीरे-धीरे बौद्ध के व्यवस्थित संघ में व्याप्त समस्याओं के संदर्भ में कानून और नियम जारी किए गए। वे अकेले बुद्ध द्वारा तैयार नहीं किए गए थे, बल्कि भिक्षुओं के गुणों में सुधार के उद्देश्य से अस्तित्व में आया होगा।

बौद्ध संघ के विकास का तीसरा चरण:

बौद्ध संघ का छोटा समाज समय के साथ बड़ा होता गया। धीरे-धीरे बुद्ध और भिक्षुओं के कार्य बढ़ते गए। बदलती सामाजिक परिस्थितियों के कारण काम करने के तरीकों में भी परिवर्तन आया। संघ में प्रवेश के नियम भी बदल गए। संघ में प्रवेश कार्य या उपसम्पदा विधि जो पहले सीधे भिक्षुओं के हाथों होता था, उसे बदल कर अब संघ को हस्तांतरित कर दी गयी।

यह शक्ति के परिवर्तन का तीसरा चरण था। शुरुआत में शक्ति केवल बुद्ध के हाथों में थी। दूसरे चरण में यह शक्ति कुछ वरिष्ठ और उच्च योग्यता प्राप्त भिक्षुओं को हस्तांतरित कर दी गयी। शुरुआती दौर में निर्णय लेना जो एक व्यक्तिगत प्रक्रिया थी, तीसरे चरण में इसे संघ के हाथों सौंप दी गयी।

निर्णय लेने की शक्ति में लगातार परिवर्तन को हम राजव्यवस्था के अलग-अलग रूपों में पाते हैं। पहली की तुलना एक राजतंत्र से की जा सकती है, जिसमें एक व्यक्ति के हाथों में शक्ति निहित थी। दूसरे चरण में राजतंत्र की शक्ति कुलीनतंत्र या अभिजात वर्ग में स्थानांतरित होती जान पड़ती है, जिसमें निर्णय लेने की शक्ति कुछ लोगों के हाथों में आ जाती है। तीसरी के रूप में कुछ की शक्ति को कई में स्थानांतरित कर दी जाती है, जिसे हम गणतंत्रात्मक या लोकतंत्रात्मक रूप कह सकते हैं।

तीसरे चरण में बौद्ध संघ की कार्यशैली लोकतांत्रिक प्रक्रिया के रूप में सामने आती है, जिसे बुद्ध द्वारा निर्मित किया गया था। संघ में प्रवेश की अनुमति प्राप्त करने के लिए सभी पूर्ण सदस्यों की सहमति जरुरी कर दी गई। जैसाकि ‘विनय पिटक’ में महावग्ग के पहले अध्याय ‘महास्कंधक’ में संघ में प्रवेश की विधि ‘उपसम्पदा’ का विशेष वर्णन है। मुख्यतः इसे तीन चरण में वर्णित किया गया हैं- ज्ञप्ति, अनुश्रावण और धारणा। जो प्रकार है-

(क)ज्ञप्ति- भन्ते! संघ मेरी बात सुने। यह इस नामवाला, इस नामवाले आयुष्मान का उपसम्पदा चाहनेवाला (शिष्य) विध्नकारक बातों से शुद्ध है। इसके पात्र-चीवर परिपूर्ण हैं। यह इस नामवाला उम्मीदवार इस नामवाले भिक्षु को उपाध्याय बना संघ से उपसम्पदा चाहता है। यदि संघ उचित समझे तो इस नामवाले उम्मीदवार को इस नामवाले आयुष्मान के उपाध्यायत्व में उपसम्पदा दें-यह सुचना है।

(ख) अनुश्रावण- 1. भन्ते! संघ मेरी बात सुने। यह इस नामवाला शिष्य, इस नामवाले आयुष्मान का उपसंपदा चाहनेवाला शिष्य आन्तरिक बातों से परिशुद्ध हिया, इसके पात्र-चीवर परिपूर्ण हैं। यह इस नामवाले आयुष्मान के उपाध्यायत्व में उपसम्पदा चाहता है। संघ इस नामवाले उम्मीदवार को इस नामवाले आयुष्मान के उपाध्यायत्व में उपसंपदा देता है। जिस आयुष्मान को इस नामवाले उम्मीदवार की इस नामवाले आयुष्मान के उपाध्यायत्व में उपसंपदा पसंद है, वह चुप रहे। जिसको पसंद नहीं है, वह बोले। 2. दूसरी बार भी इसी बात कहता हूँ- पूज्य संघ मेरी बात सुनें……। 3. तीसरी बार भी इसी बात को कहता हूँ- पूज्य संघ मेरी बात सुनें……जिसको पसंद नहीं हैं, वह बोले।

(ग) धारणा- इस नामवाले उम्मीदवार को इस नामवाले आयुष्मान के उपाध्यायत्व में उपसंपदा संघ ने दी। संघ को पसंद है, इसलिए चुप है- ऐसा मैं इसे धारण करता हूँ।[7]

संघ में प्रवेश की इस विधि से साफ पता चलता है कि बुद्ध अपने संघ में किस प्रकार का लोकतंत्र लाने की कोशिश कर रहे थे। संघ के किसी भी बैठक में कम-से-कम बीस लोगों का होना अनिवार्य था। जिसे ‘कोरम’ का नियम कहा जाता था। यदि कोई कार्य कोरम के बिना होता था तो उसे मान्य नहीं माना जाता था। संघ के आन्तरिक प्रशासनिक कार्य भी इसी विधि से चलता था। यदि किसी प्रश्न पर मतभेद हो, तब उसके पक्ष और विपक्ष में भाषण होते थे, और बहुसम्मति द्वारा उसका निर्णय किया जाता था। कभी-कभी वोट द्वारा भी आम सहमति बनायी जाती थी। चुल्लवग्ग में तीन प्रकार के वोटिंग प्रक्रिया बताए गए है- गुढ़क, सकर्णजल्पक और विवृतक।[8]

उपर्युक्त वर्णित तथ्य ठीक आज के संसदीय लोकतंत्र से मिलता जुलता हैं। जैसे संसदीय काल में चुने गए सभी प्रतिनिधियों को शामिल होना होता हैं। कोई भी नियम बनाने से पहले उसे प्रस्तावित किया जाता है। वाद-विवाद होता है। फिर वोटिंग के आधार पर बहुमत साबित की जाती है। उसके बाद ही कोई नियम देश हित में लागू किया जाता है। जिस प्रकार वर्त्तमान संसदीय काल में सभी प्रतिनिधियों को उपस्थित रहने के लिए राजनीतिक पार्टियाँ ‘व्हिप’ जारी करती हैं, ठीक वैसे ही संघ के किसी अधिवेशन में कोरम पूरा करने के लिए एक भिक्षु-कर्मचारी की नियुक्ति होती थी, जिसे ‘गणपूरक’ कहा जाता था।[9]

संघ विकास प्रक्रिया में अपने सदस्यों में हो रहे लगातार सुधारों के माध्यम से प्रगति कर रहा था। भिक्षुओं  के प्रत्येक गलत कार्य या अनुचित कार्रवाई को संघ सभा द्वारा विचार तथा सुधार के लिए प्रस्तुत किया जाता था।

बौद्ध संघ क्रमिक एवं निरंतर विकास और संक्रमण की प्रक्रिया के माध्यम से अस्तित्व में आया। यह एक ऐसा समाज था जिसमें व्यक्ति जीवित एवं स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक बहुत ही कम साधनों पर जिन्दा रहते थे। संघ समानता आधारित संस्था थी। यह सच है कि बुद्ध ने संघ के विकास में किसी राजनीतिक व्यवस्था का समर्थन नहीं किया, किन्तु इससे तत्कालीन और बाद की राजनीतिक परिस्थितियाँ जरुर प्रभावित हुई।

निष्कर्ष:

विदित है कि बुद्ध राजव्यवस्था के किसी प्रकार के बारे में सीधे तौर पर कुछ नहीं कहा। लेकिन अब यह भी सिद्ध हो चूका है कि वह गणतंत्रात्मक प्रणाली के हिमायती थे। यही वजह रहा कि संघ के अंदर न सिर्फ निरंतर परिवर्तन होता रहा है, बल्कि वह अपने हर परिवर्तन में एक नया व्यवस्था का परिक्षण करता रहा है और अंततः बहुजन हिताय के उद्देश्य से ‘लोकतांत्रिक प्रणाली’ को अपनाता है। संघ के इस विकास यात्रा से इस तथ्य को और मजबूती मिलता है कि बुद्ध महज़ एक धार्मिक और सामाजिक क्रांतिकारी नहीं, बल्कि संघ के प्रशासनिक कार्य के रूप में अपनाए गए प्रणाली के माध्यम से राजनीतिक क्षेत्र में भी वह परोक्ष या अपरोक्ष हस्तक्षेप कर रहे थे।

संदर्भ सूची:

सांकृत्यायन, राहुल (अनु.). (2010). विनय पिटक, गौतम बुक सेंटर, दिल्ली

अम्बेडकर, डॉ. बी. आर. (2016). बुद्ध और उनका धम्म, बुद्धम् पब्लिशर्स, जयपुर

गाबा ओ.पी. (2010). राजनीति सिद्धांत की रूपरेखा, मयूर पेपरबैक्स, नौएडा

जायसवाल, काशी प्रसाद. (2016). हिन्दू राज्य-तंत्र, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी

विद्यालंकार, सत्यकेतु. (1975). प्राचीन भारत की शासन-संस्थाएँ और राजनीतिक विचार, श्री सरस्वती सदन, मसूरी

  1. डॉ. बी. आर. अम्बेडकर, बुद्ध और उनका धम्म, पेज- 359
  2. ओ.पी. गाबा, राजनीति सिद्धांत की रूपरेखा, पेज-33
  3. काशी प्रसाद जायसवाल, हिन्दू राज्य-तंत्र, पेज- 34
  4. विनय पिटक (अनुवाद- राहुल सांकृत्यायन), पेज-87
  5. वहीं, पेज-87-88
  6. वहीं., पेज-101
  7. वही, पेज- 105-06
  8. वही, पेज- 414-15
  9. सत्यकेतु विद्यालंकार, प्राचीन भारत की शासन-संस्थाएँ और राजनीतिक विचार, पेज-105

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.