वर्तमान सरकार के प्रति भारतीय मुसलमानों की राय

विशेष संदर्भ: वाराणसी लोकसभा क्षेत्र

शुभम जायसवाल
शोधार्थी
गांधी एवं शांति अध्ययन विभाग
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविधालय, वर्धा (महाराष्ट्र)
ईमेल: subhamjaiswal785@gmail.com

शोध-सार

पिछले एक दशक से बाजार में स्मार्टफोन की बढ़ती बिक्री व सस्ती इन्टरनेट कि दरों के कारण भारतीय जनमानस का लगभग एक तिहाई हिस्सा इस तकनीक से जुड़ा हुआ है। फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप्प व यूट्यूब जैसे सोसल मीडिया एप्लीकेशन ने जनता को न केवल अपने आसपास कि जानकारी बल्कि देश-दुनिया की सरकार व उनके कामकाज के तरीकों से भी परिचत कराया, हालांकि यह पहुँच अब भी काफी असमान है। सोसल मीडिया कई लोगो के लिए प्रतिष्ठा का साधन है तो सामाजिक-आर्थिक संस्थाओं व राजनीतिक पार्टियों के लिए अपने प्रति आम जनता को जागरूक करने के साथ अपने हित से सम्बंधित चीजों के प्रति जनमत भी तैयार करने का एक साधन भी है। ऐसे में अतथ्यात्मक व भ्रामक सूचनाओं का भी प्रयोग कर एक-दुसरे के खिलाफ वैमनष्यता व हिंसा को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। ऐसे ही सूचनाओ के कारण ही हमें समाज में धर्म, जाती व समुदाय को आधार पर हिंसा की खबरे देखने व सुनने को मिल रही है। जिसमे भारतीय मुसलमानों के सामाजिक व राजनीतिक व्यवहार से जुड़े कई प्रकार के भ्रामक तथ्य भी शामिल है। परिणामस्वरूप भारतीय मुसलमान न केवल अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित है बल्कि उनके राष्ट्रवादी अस्मिता पर भी सवाल उठाये जा रहें है। प्रस्तुत शोध पत्र वाराणसी के मुसलमानों के राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन है, जिसमे केंद्र में 2014 से भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद राजनीतिक फैसले व सरकार के प्रति उनकी राय शामिल है। 

बीज शब्द

बनारस, मुस्लिम, जनमानस, समुदाय, पहचान, धर्म

आमुख

भारतीय मुसलमान एक समुदाय नहीं है बल्कि भाषा, प्रदेश, जाति व वर्ग और यहां तक की अपने धर्म के आंतरिक संरचनाओं के आधार पर उनके बीच विभिन्न्ताएं पायी जाती है। इन समुदायों की पहचान पेंडुलम की तरह है जिसके एक सिरे पर इस्लाम की पारंपरिक मान्यताएं हैं तो दूसरे सिरे पर जाति, प्रदेश व भाषा जैसी बुनियादी अस्मिताएं हैं। जो समस्याएँ समाज के ग़रीब और पिछड़े वर्गों से जुडी हैं, वे मुसलमानों के भी एक बड़े तबके को प्रभावित करती हैं। मुसलमान धार्मिक अल्पसंख्यक भी हैं, इसलिए ईसाई, बौद्ध और सिक्ख धर्मावलम्बियों को धार्मिक अल्पसंख्यक होने के नाते जिन सामाजिक दुश्वारियों का सामना करना पड़ता है, उन्हें मुसलमान भी अलग-अलग तरह से झेलते हैं।[1] मुसलमानों को उनकी धार्मिक पहचान के कारण कुछ स्थापित पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ता है। कभी-कभी यह उनके राष्ट्रवादी व भारतीय अस्मिता को भी चुनौती देता है।

            सीएसडीएस द्वारा किए गए राष्ट्रीय चुनाव के अध्ययनों द्वारा एकत्र किए गए साक्ष्य बताते हैं कि मुसलमानों की राजनीतिक भागीदारी बाकी मतदाताओं से बहुत अलग नहीं है। जब मुसलमानों की राजनीतिक सक्रियता की बात आती है जैसे कि चुनाव अभियानों में भागीदारी, वस्तुतः ऐसा कुछ नहीं है जो मुसलमानों को हिंदुओं से या वास्तव में किसी अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक से अलग करता है। शिक्षा और वर्ग ऐसे कारक हैं जो यहाँ एक भूमिका निभाते हैं, लेकिन धर्म नहीं। राजनीतिक पार्टियों के आधार पर बात की जाए तो मुसलमानों द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर लोकसभा चुनावों में अन्य पार्टियों की तुलना में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को वोट देने की निश्चित प्रवृत्ति रही है। परंतु राष्ट्रीय स्तर पर मुसलमानों द्वारा कांग्रेस के समर्थन की दर कभी भी 50 प्रतिशत से ज्यादा नहीं रही है।[2] जहाँ भी भाजपा का सीधा मुकाबला कांग्रेस से रहा है मुसलमान मतदाता कांग्रेस को एक छोटी बुराई के रूप में स्वीकार करते है। समय के साथ मुसलमानों में भाजपा के प्रति समर्थन में वृद्धि हुई है। वहीं अगर राज्य स्तर पर देखा जाए तो जब भी मुसलमानों को कांग्रेस के अलावा कोई विकल्प दिखा है तो उन पर भी भारी संख्या में उन्होंने विश्वास जताया है। क्षेत्रीय दलों वाले राज्यों (जैसे- उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, दिल्ली और असम) में कांग्रेस का समग्र मुस्लिम समर्थन लगभग एक तिहाई तक गिरा है क्योंकि मुस्लिम समुदाय ने गैर-कांग्रेस विकल्प के लिए भी मतदान किया। लोकसभा चुनाव (2014) में बीजेपी ने अपने मुस्लिम वोटों में दोगुनी वृद्धि की है। जबकि कांग्रेस का वोट शेयर स्थिर रहा। बीजेपी को 2014 में 9 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिले हैं जबकि 2009 में उसे 4 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिले थे। 2009 में कांग्रेस को 38 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिले और 2014 में भी संख्या वही रही। वहीं लोकसभा चुनाव (2019) में बीजेपी को 8 प्रतिशत मुसलमान मतदाताओं ने राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को वोट दिया जो लगभग पिछली लोकसभा के सामान ही है।

वाराणसी के मुसलमानों की राय:

वाराणसी लोकसभा में कुल लगभग तीन लाख मुसलमान मतदाता हैं। इनकी बहुसंख्यक आबादी बुनकर है। यहाँ के मुस्लिम मतदाताओं ने कांग्रेस, सपा, बसपा व अन्य पार्टियों पर चुनावों के समय अपनी राजनीतिक पसंद को दर्ज कराया है। लोकसभा चुनाव 2014 में बीजेपी से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को यहाँ प्रत्याशी बनाये जाने के कारण इस सीट को चुनाव के दौरान मीडिया व आमजन द्वारा काफ़ी तवज्जों दिया गया। पार्टी द्वारा प्रचारित गुजरात माडल के जवाब में स्थानीय मुस्लिम मतदाताओं का कहना था कि ‘हमने गुजरात का विकास नहीं देखा है पर जो उन्होंने गुजरात में मुस्लिमों के साथ किया वो हम सभी जानते हैं।’ बनारस के निगम चुनावों में लगभग बीस से अधिक पार्षद मुसलमान है। हालाँकि इन सभी निर्वाचित क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी का अधिक संख्या में होना एक प्रमुख कारण है।

सोलहवीं लोकसभा में नरेंद्र मोदी के खिलाफ़ अन्ना आंदोलन से उभरे नेता अरविन्द केजरीवाल (AAP) ने चुनाव लड़ा और खुद को मोदी का मुख्य चुनावी प्रतिद्वंदी के रूप में प्रस्तुत किया जिसका प्रभाव हमें चुनाव परिणामों में देखने को भी मिला। मुसलमानों का पचास फीसदी से अधिक वोट अरविन्द केजरीवाल को मिला जिसका मुख्य कारण नरेंद मोदी का मुस्लिम विरोधी छवि का होना था। बाकि के अधिकांश मुस्लिम वोट कांग्रेस व सपा में विभाजित हुआ। भाजपा को मुसलामनों का सात से आठ फीसदी वोट मिला। इसमें शहरी मुसलमान वोटरों की संख्या ग्रामीण मुसलमानों की तुलना में अधिक रही है।[3]

            सत्तरहवी लोकसभा (2019) में वाराणसी से पुन: लोकसभा प्रत्याशी नरेंद मोदी ही रहे और पिछले वर्ष के मुकाबले कहीं अधिक वोटो से चुनाव जीते। पिछले साल की तरह इस साल भी कांग्रेस से अजय राय ही प्रत्याशी रहे। सपा के सालनी यादव के सिवा सभी प्रत्याशियों का जमानत तक जब्त हो गया। जो इस बात का प्रमाण देते हैं कि मुसलमान ने समेकित रूप से वोट न करके बल्कि कांग्रेस, सपा व अन्य को अपना मत दिया। यह चुनाव 16वीं लोकसभा जहाँ सबका साथ, सबका विकास पर लड़ा गया था वही यह चुनाव बिल्कुल विपरीत रहा सरकार द्वारा तीन तलाक, सर्जिकल स्ट्राइक जैसे मुद्दे तो क्षेत्रीय नेताओं द्वारा नफ़रत व हिन्दू मुस्लिम विरोधी भावना को बढ़ावा दिया गया। ऐसे माना जा रहा था की इस चुनाव में वाराणसी के मुस्लिम वोटों का प्रतिशत बीजेपी के लिए पंद्रह से बीस फीसदी रहेगा। परन्तु यह बढ़ा तो ज़रूर पर जितना अनुमान लगाया गया था उससे कम ही रहा। सरकार द्वारा स्टेशनों का कायाकल्प, उज्ज्वला योजना, ई-रिक्शा वितरण, बनारस वस्त्र ट्रेड उधोग का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचार व तीन तलाक जैसे मुद्दों ने सिया मुसलमानों को काफ़ी प्रभावित किया।[4] परन्तु नोटबंदी के कारण छोटे व मध्यम बुनकरों, मजदूरों को काफ़ी समस्या का सामना करना पड़ा।

आंकड़ों के प्रस्तुतिकरण में यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ, कि लोकसभा क्षेत्र वाराणसी के मुस्लिम मतदाता इस शोध के समग्र हैं जिसका संग्रहण नवम्बर , दिसंबर व जनवरी (2019) में किया गया है। जिसकी उम्र 18 साल या उससे अधिक है तथा उसका नाम निर्वाचन सूची में है, वह प्रतिदर्श में शामिल हैं। आंकड़े संरचित साक्षात्कार, प्रश्नावली और गहन अवलोकन की प्रविधि से संग्रहित किए गए हैं। प्रस्तुत प्रतिदर्श (सैम्पल) कि संख्या 174 है जिनमे 71 प्रतिशत पुरुष व 29 प्रतिशत महिलाएं शामिल हैं और मतदाताओं में 18 से 35 वर्ष की आयु वालों की संख्या 29 प्रतिशत है, वहीं 36 वर्ष से अधिक आयु वालों की संख्या 71 प्रतिशत है। इससे यह स्पष्ट है कि मतदाताओं में अनुभवी मतदाताओं की संख्या अधिक है, यह इस बात की ओर भी इशारा करते है कि वे पिछले तीस वर्षो में हुए लोकसभा चुनावों में भागीदारी किये है, जो इस शोध की प्रमाणिकता लिए बहुत ही सहायक सिद्ध होंगे।

1) भारतीय संसदीय व्यवस्था में निर्वाचन प्रणाली के प्रति आपकी क्या राय है:

            उपरोक्त दंड आरेख से यह ज्ञात हो रहा है कि प्राप्त प्रतिदर्श में 77 प्रतिशत का भारतीय निर्वाचन प्रणाली के प्रति सकारात्मक राय हैं व नकरात्मक के प्रति केवल 8 प्रतिशत ही राय हैं। वहीं इस सवाल पर 15 प्रतिशत मतदाता अपने राय को लेकर स्पष्ट नहीं है। प्राप्त आकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि वे भारतीय लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं।

2) जब आप मतदान करते हैं तो इन सब पहलुओं में कौन सा बिंदु सबसे अधिक प्रभावित करता है:

            चुनावों के दौरान सबसे प्रभावी मुद्दों में ग़रीबी, बेरोजगारी, शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवा को 90 प्रतिशत मतदाताओं ने चुना हैं। केवल 9 प्रतिशत मतदाता ने धर्म को मतदान के दौरान प्रभावी बताया है। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि मुसलमान अपनी सामाजिक जरूरतों के आधार पर ही मत निर्धारण करते हैं। हालांकि जब चुनाव साम्प्रदायिक मुद्दों पर लड़ें जाते हैं, तो धर्म एक बड़ा प्रभावी कारक सिद्ध होता है, फिर भी यह सामाजिक जरूरतों के मुकाबले कमतर ही रहा है।

3) तीन तलाक कानून में हुए संशोधन को लेकर आपकी क्या राय है:

            उपरोक्त प्राप्त आंकड़ों से यह ज्ञात होता है कि सरकार द्वारा तीन तलाक कानून में किये गए संशोधन को 51 प्रतिशत मतदाता नकारात्मक रूप में लेते हैं। वहीं 27 प्रतिशत कुछ कहने से कतराते हैं, जो एक प्रकार की नाराजगी को दर्शाता है। प्राप्त प्रतिदर्शों में 29 प्रतिशत महिलाए हैं, फिर भी इस संशोधन को लेकर सकरात्मक राय केवल 22 प्रतिशत ही हैं, इसमें भी ये सारी राय केवल महिलाओं का ही नहीं है। जबकि सरकार व भारतीय जनता पार्टी द्वारा इसे भारतीय मुस्लिम महिलाओं के कल्याण के रूप में प्रचारित किया गया था।

4) कश्मीर मुद्दा या धारा 370 में हुए संशोधन पर आपकी क्या राय है:

            उपरोक्त दंड आरेख से स्पष्ट है कि 58 प्रतिशत मतदाता इस सरकार द्वारा किए गये कार्य को नकारात्मक रूप में देखतें हैं व केवल 9 प्रतिशत सकारामक रूप में देखते हैं तथा 33 प्रतिशत मतदाता इस पर बात नहीं करना चाहते है। मौलाना रियाज अहमद अंसारी का मानना था कि कश्मीर की आवाज को नजरअंदाज किया गया। आजाद बुनकर यूनियन के अध्यक्ष हाजी वहिदुज्ज़माँ अंसारी जो राजनीतिक रूप से मुसलमानों के बीच काफ़ी सक्रीय है उनका भी यही मानना था कि,क्या कश्मीरी कौम से इस बात पर सलाह-मसौरा किया गया था, जबकि लोकतात्रिक प्रणाली में जो कुछ भी जिनके लिए करते हैं, उनकी राय लेना लोकतांत्रिक प्रणाली की महत्वपूर्ण पहचान होती हैं।” 

5) क्या आपको लगता है कि मुस्लिम समुदाय को संगठित रूप से (ब्लॉक में) वोट करना चाहिए :

            आंकड़ों से स्पष्ट है कि मुस्लिम मतदाताओं में 56 प्रतिशत मतदाता सामूहिक रूप से किसी व्यक्ति या पार्टी को वोट करने की वकालत करते हैं तथा 32 प्रतिशत इस बात को नकार देते हैं। यह बनारस के संदर्भ में लोकसभा चुनाव 2014 में देखने को मिला था। जब नरेंद मोदी के विपरीत मुसलमानों का लगभग 50 प्रतिशत वोट अरविन्द केजरीवाल को मिला, इसका बड़ा कारण नरेंद्र मोदी का मुसलमान विरोधी छवि व मुसलमानों द्वारा गोधरा कांड का दोषी मानना था। वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के मुस्लिम वोटों में देश भर में कोई बड़ी वृद्धि नहीं देखने को मिली जिसका असर बनारस में भी देखने को मिला। जहाँ बनारस में पिछली लोकसभा के मुकाबले मुस्लिम वोटो का दस से पंद्रह प्रतिशत मिलने का अनुमान था वह बनारस में हुए विकास कार्यों से बढ़ी तो ज़रूर पर अनुमानतः 10 प्रतिशत से नीचे ही रही हैं। जिसका एक बड़ा कारण लोकसभा चुनाव 2019 में बीजेपी द्वारा राजनीतिक गोलबंदी का साम्प्रदायिक आधार रहा है।

6) पिछले लोकसभा चुनाव के परिणामों के प्रति आपकी क्या प्रतिक्रिया है:

उपरोक्त दंड आरेख से यह स्पष्ट है कि 40 प्रतिशत मतदाता पिछले लोकसभा चुनावों के परिणामों पर संतोषजनक राय रखते हैं, वही 46 प्रतिशत मतदाता इसे ख़राब अर्थात परिणामों के प्रति निराश हैं, वहीं केवल 14 प्रतिशत मतदाता ने इसे अच्छा बताया। अगर देशभर भारतीय जनता पार्टी के मुस्लिम वोट बैंक को भी देखा जाय तो यह 8 प्रतिशत ही रहा है।

7) नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व वाली सरकार पर आपकी क्या राय है:

शोध से संदर्भित प्राप्त प्रतिदर्शों के विश्लेष्ण से यह ज्ञात हो रहा है कि 68 प्रतिशत मतदाता नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को ख़राब मानते हैं, वही 12 प्रतिशत अच्छा व 20 प्रतिशत मतदाता संतोषजनक नेतृत्व के पक्षधर हैं। इसके पीछे नरेंद्र मोदी की अल्पसंख्यक विरोधी छवि व देश में मॉब लिंचिंग की घटनाओं का होना एक बड़ा कारण है। मुफ़्ती-ए-बनारस अब्दुल बातिन नोमानी कहते है किहमारे लोग डरे हुए हैं, अब सफ़र के दौरान हमे डर लगता है।” बिना नाम लिए उन्होंने इशारों में वर्तमान सत्ताधारी पार्टी बीजेपी व आर.आर.एस को इस भयनुमा मौहाल बनाने का दोषी बताया।

8) वर्तमान केंद्र सरकार के कार्यों को आप कैसा मानतें हैं:

प्राप्त आकड़ो से यह स्पष्ट है कि केंद्र सरकार के कार्यों को 71 प्रतिशत मतदाता ख़राब मानते हैं, वहीं केवल 19 प्रतिशत संतोषजनक व 10 प्रतिशत अच्छा मानते हैं। इस प्रश्न पर गाँधीवादी एक्टविस्ट व बनारस के नागरिक समाज की सदस्य जाग्रति राही का कहना था कि अगर सरकार चुन के आयी है तो कुछ तो काम करना ही पड़ता है, परन्तु सरकार व मीडिया द्वारा फैलाये जा रहे अल्पसंख्यकों (मुसलमान) के प्रति नफ़रत से जब लोग ही नहीं रहेंगे तो इन कार्यों का क्या फायदा।”बातचीत के दौरान उन्होंने विश्वनाथ मंदिर कारीडोर जो नरेंद मोदी का एक सांसद के रूप में ड्रीम प्रोजेक्ट के रूप में जाना जाता है, पर कहा किलोगों के जबरदस्ती डरा धमका कर घर खाली या बेचने को मजबूर किया जा रहा वहीं इस प्रोजेक्ट के नाम न जाने कितने मंदिर व गलियों को तोड़ दिया गया जो बनारस की पहचान थी।”    

9) क्या आपको लगता है कि 2014 के बाद से  देश भर में सांप्रदायिक तनाव में वृद्धि हुई है:

उपरोक्त दंड आरेख से यह स्पष्ट है कि लोकसभा चुनाव 2014 के बाद 73 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं का मानना है कि देश में पहले के मुकाबले साम्प्रदायिक ताकतें मजबूत हुयी हैं। जबकि केवल 19 प्रतिशत मतदाता इस बात से इंकार करते हैं, वही 8 प्रतिशत इस पर कुछ भी नहीं कहने के पक्ष में है। मुफ़्ती-ए-बनारस अब्दुल नोमानी, मानवाधिकार कार्यकर्त्ता लेनिन रघुवंशी, गाँधीवादी एक्टविस्ट जाग्रति राही, नागरिक समाज से जुड़े व्यक्ति व सामाजिक कार्यकर्त्ता इस बात से सहमत दिखे की केंद्र में सरकार बदलने के बाद साम्प्रदायिक तनाव में वृद्धि हुयी है।

10) क्या आप 2014 के बाद से अपने व परिवार की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं:

 

 

 

 

 

       उपरोक्त दंड आरेख से यह स्पष्ट है कि 56 प्रतिशत मतदाता अपने सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं तथा 23 प्रतिशत इसपर कुछ नहीं कहना चाहते हैं; जबकि 21 प्रतिशत इस बात से इंकार करते हैं। मौलाना रियाज़ अहमद का कहना है कि,हमें अपने परिवार व हमारे लोगों का मॉब लिंचिंग होने का डर लगा रहता है, यह तो आप भी देख रहे है की कुछ लोगों पर बसों व सड़कों पर इसीलिए हमले हुए की या तो वे मुसलमान थे या उस तरीके का दीखते थे।

11) क्या आप मौजूदा हालात व भविष्य में अपने समुदाय के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को लेकर चिंतित है:

प्राप्त आकड़ो के विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि 63 प्रतिशत मतदाता अपने राजनीतिक प्रतिनिधित्व को लेकर चिंतित हैं। वहीं 22 प्रतिशत इस बात पर कोई स्पष्ट राय नहीं रखते हैं तथा 15 प्रतिशत मतदाता प्रतिनिधित्व को लेकर चिंतित नहीं है। स्थानीय पत्रकारों व नागरिक समाज ने इस प्रश्न का जवाब भी लगभग आकड़ो के अनुपात में ही दिया लेकिन लगभग सभी इस बात से सहमत थे कि भारतीय मुसलमानों को अपने राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व को लेकर सोचने की ज़रूरत हैं।

प्रस्तुत शोध विषय से संबंधित साहित्य व शोध क्षेत्र से प्राप्त आंकड़ों से यह स्पष्ट होता है कि पिछले दो दशक के बाद उभरी मुस्लिम राजनीति, ख़ासकर बाबरी मस्जिद विध्वंस व गुजरात का गोधराकांड का अन्य राज्यों पर प्रभाव ने कट्टर हिंदुत्व व उग्र मुस्लिम राजनीति को बढ़ावा दिया, जो परम्परागत मुस्लिम राजनीतिक मुद्दों से बिल्कुल अलग है। बहुसंख्यक आबादी के एक तबके द्वारा जिस राजनीति को बढ़ावा दिया जा रहा है, वह केवल मुस्लिम समाज में मौजूद सामाजिक संरचनाओं पर ही सवाल नहीं उठा रही है बल्कि उनकी भारतीय अस्मिता को भी चुनौती दे रहा है। अब भले ही मुसलमान ख़ुद वोट बैंक न हों लेकिन उसका भय दिखाकर इस देश की बहुसंख्यक आबादी को वोट बैंक में तब्दील करने के लिए किया जा रहा है। यह करने के लिए लोगों को भीड़ बनाने की कोशिश व अल्पसंख्यकों के प्रति नफ़रत की भावना को बढ़ावा दिया जा रहा है। जिससे उनके बीच केवल अपने शारीरिक सुरक्षा ही नहीं बल्कि सामाजिक व राजनीतिक प्रतिनिधित्व को लेकर असंतोष बढ़ा है। इन सभी परिस्थितियों के पीछे केवल राजनीतिक दलों का ही हाथ न होकर धार्मिक संस्थानों, सोशल साईट और मीडिया की भी विशेष भूमिका रही है। इन परिस्थितियों के समाधान के लिए सभी राजनीतिक दलों, सरकारी व गैर-सरकारी संगठन, नागरिक समाज और सरकार द्वारा सामूहिक सक्रीय भूमिका की आवश्यकता है।

संदर्भ ग्रंथ-सूची

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[1] अहमद, हि. (2014). प्रतिमान, 2 , 169.

[2] सरदेशाई, श. (2014). प्रतिमान, 2

[3] लोकसभा चुनाव 2019 : चुनावी सत्ता के संघर्ष में किधर जाएंगे बनारस के मुसलमान https://www.jagran.com/uttar-pradesh/varanasi-city-bunkar-varanasicity-19223096.html

[4] लोकसभा चुनाव 2019: वाराणसी के मुसलमानों के एक तबके में PM नरेंद्र मोदी ‘अछूत’ नहीं ! https://navbharattimes.indiatimes.com/elections/lok-sabha-elections/news/a-section-of-muslims-of-varanasi-have-started-accepting-prime-minister-narendra-modi/articleshow/69385708.cms

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