‘जंग लगी तलवार’ और श्रमिक जीवन
मिनहाज अली शोधार्थी, हिन्दी विभागपांडिच्चेरी विश्वविद्यालय, पुदुच्चेरी- 605014ई-मेल- minhazali82@gmail.com मो.नं- 7598611303 सारांश
असमिया लेखिका इंदिरा गोस्वामी जी ने ‘जंग लगी तलवार’ उपन्यास में उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के साई एक्वेडक्ट (जलमार्ग) कंपनी में काम करने वाले हरिजन मजदूरों की हड़ताल, कंपनी समेत उनके ठेकेदार के द्वारा किये गये शोषण, असुरक्षा, आर्थिक असमानता, अवसरवादी राजनैतिक नेताओं के खोखलेपन को दर्शाया है। उपन्यास में हरिजन मजदूरों के हड़ताल से पहले और बाद की स्थिति का अत्यंत सार्थकता के साथ वर्णन किया है। श्रमिक नेताओं में एकता और त्याग के अभाव का फायदा उठाकर हड़ताल की लीगल फाईट के नाम से मजदूरों को मधुर-मधुर वाणी और भाषणों से आश्वासन देने वाला स्थानीय नेता मजदूरों के साथ विश्वासघात कर कंपनी से रिश्वत लेकर हड़ताल और मजदूरों की उम्मीद दोनों तहस-नहस कर देता है। असफल हड़ताल के दो साल बाद हरिजन श्रमिक नेता यशवंत ढेर सारे सवालों का जबाव जानने के लिए स्थानीय नेता से मिलने आता है। उनके हाथ में एक तलवार थी जिसमें जंग नहीं लगी थी। इन दो सालों में उन्हें हड़ताल की सच्चाई मालूम हुई कि हड़ताल एक जंग लगी तलवार है। उससे मजदूरों का सुधार और उद्धार संभव नहीं। इस प्रकार लेखिका गोस्वामी जी ने हरिजन मजदूरों के जीवन गाथा के वर्णन के साथ-साथ मानवमूल्यों की स्थापना किया है।
बीज शब्द- असमिया, मजदूर, शोषण, हड़ताल
भूमिका
आधुनिक असमिया साहित्य में महिला लेखिकाओं का नाम लेते ही इंदिरा गोस्वामी का नाम अत्यंत आदर के साथ लिया जाता है। असमिया साहित्य जगत में उन्हें मामोनी रायसम गोस्वामी के नाम से जाना जाता है। उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से मानवता की वास्तव छवि को उकेरा है। ‘जंग लगी तलवार’ इनमें से एक प्रमुख उपन्यास है। असमिया में ‘मामरे धरा तरोवाल’ शीर्षक से प्रकाशित है और पापोरी गोस्वामी ने इसे हिन्दी में अनुवाद किया है। सन 1982 में इस उपन्यास के लिए उन्हें ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
सन 1978 उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के साई नदी के जलसेतु का कार्य जोर-शोर से शुरू हो गया था। इसमें काम करने वाले मजदूरों को कंपनी ने ग्रुप में विभाजित कर दिया था। इनमें से कुछ दिहाड़ी मजदूर, मंथली वेतनभोगी और कंपनी के नियमित मजदूर थे। जिन मजदूरों से कंपनी को ज्यादा मुनाफ़ा नहीं हुआ उन्हें काम से निकाला जा रहा था। कंपनी के ठेकेदार मजदूरों से फटे जूते की तरह व्यवहार करते थे। उन्हें जब चाहे फेंका दिया जाता था। अक्टबर का महीना है कंपनी के दफ्तर के नोटिस बोर्ड पर सरप्लस अर्थात सटाई किये गये मजदूरों की तालिका को लटका दिया गया था। इनमें से दैनिक भुगतान और अनौपचारिक श्रमिकों को सबसे पहले निकाला गया था। जमादार से लेकर फिटारस, हेल्पर्स, चौकीदार, गेस्ट हॉउस का रखवाला आदि मजदूरों के बीच में हलचल मच गई थी। स्थानीय मजदूर यूनियन के साथ कंपनी के संचालक प्रधान का जो समझौता हुआ था वह टूट गया था। संचालक प्रधान ने इन असहाय मजदूरों के साथ विश्वासघात किया था। फलस्वरूप उपायहीन मजदूरों ने अपने अधिकारों के लिए कंपनी के खिलाफ हड़ताल शुरू कर दी। उनकी एक ही माँग थी बर्खास्त होनेवाले मजदूरों को कंपनी की अन्य शाखा-प्रशाखाओं की ब्रांचों में स्थायी रूप से नियुक्त किया जाए। मजदूरों की न्याय के समय इंजीनियर और एस.डी.ओ. ने कंपनी से पैसा लेकर मुँह बंद रखा था, शास्त्री जी का सहायक हरिजन श्रमिकों का लीडर यशवंत से कहता है- ‘ओवरसीयर से लेकर वह सियार जैसी शक्लवाला इंजीनियर तक, सब जानते हैं हम लोग…..। इंजीनियर कंपनी से हर महीने दो हज़ार लेकर चुपचाप बैठ जाता है…..एस.डी.ओ. हर महीने पन्द्रह सौ लेकर सन्तुष्ट रहता है और लालची ओवरसीयर महीने भर में सिर्फ पचास रुपये में ही…..।’1
मजदूरों के हड़ताल शुरू होने की ख़बर स्थानीय राजनैतिक नेताओं तक पहुँच जाती है। हर राजनैतिक नेता जनता के प्रति सेवा भाव रखता है। परन्तु उसके लिए वे जनता से सूद समेत वसूली कर लेता है। रायबरेली के स्थानीय नेता शास्त्री जी अपने कार्यकर्ता तथा एजेन्ट को मजदूरों के पास भेजता है। वह शास्त्री के रिश्वत की रेट के बारे में यशवंत को समझाते हुए कहता है- “सुनो, क्या तुमने हमारे लोकल लीडर का रेट ज्यादा समझ लिया है? बहुत ज्यादा नहीं है। और ऐसे श्रमिक हड़ताल में तो….।”2 हरिजन मजदूरों के बीच में यशवंत ही एक मात्र पढ़ा-लिखा था। यशवंत से उन्हें बहुत उम्मीद थी कि एक दिन हरिजनों का दिन बदल जाएगा। परन्तु यशवंत कुछ न कर सका। वह राजनैतिक नेताओं के षड़यत्र के सामने हार जाता है।
धार्मिक अनुष्ठानों के समय भी मजदूरों को छुट्टी नहीं मिलती थी। कंपनी के ठेकेदारों ने पहले से सूचित कर देता था कि कंपनी के छुट्टी के दिन में ही पूजा की छुट्टी शामिल कर लेना है अन्यथा उस दिन की मजदूरी काट दिया जाता था। कंपनी में उसकी मजदूरी परमानेंट नहीं थी। इसलिए काम के लिए उसे जगह-जगह से भगाया जाता था। शंभू पासवान कहता है- “बीस साल से धक्के खाकर क्या हमारी चमड़ी मोटी नहीं हुई? विभाग बंद हो जाने के बाद आवारा कुत्तों जैसी हालत बन जाती है। हर बार नया शहर नया चेहरा। कसाई की तरह उनका दिल। सिर्फ़ हट-हट जा, भाग-भाग जा….।”3
लेखिका ने उपन्यास में बाल मजदूरों का भी जिक्र किया है। कंपनी के ठेकेदार कम उम्र वाले बच्चों की उम्र ज्यादा बताकर काम करवाते थे। वे बालक अपना नाम तक लिखना नहीं जानते थे। कंपनी के राक्षस दलाल जैसे ठेकेदार हफ्ते के आखिरी दिन अँगूठे की छाप लेकर बीस रूपया मजदूरी के बदले में दस रुपया देता था। केवल यही नहीं वर्क साईट में काम करते वक्त दुर्घटना में मृत्यु होने वाले मजदूरों को कंपनी की ओर से कोई सहायता भी नहीं मिलती थी।
हड़ताल शुरू होते ही वर्क साईट में काम बंद हो गया था। काम के बिना वर्क साइट श्मशान घाट जैसी दिख रही थी। मजदूरों में आर्थिक संकट दिखाई देने लगा। मजदूर यूनियन फण्ड के पूंजी भी खत्म हो चुकी थी। दो वक्त की रोटी के लिए मजदूर लड़ रहे थे। रायबरेली के वर्क साईट में भूखमरी एक प्रचंड आँधी के रूप फैल गयी थी। भूख के मारे पानी पीते-पीते अब पानी भी उन्हें कड़वा लग रहा था। भूख की ज्वाला में खलासी लंगर में स्वीपर लाइन के बच्चे रोटी के लिए कुत्तों से छीना झपटी कर रहे थे। हड़ताल ने बुढ़े-बच्चे सब को राक्षस बना दिया था। बसुमति बुढ़िया कच्चे तरबूज के पत्ते को जानवर की तरह चबाकर खा रही थी। जंगली जिलेबी नाम के फलों के लिए जमादार गुटों में एक दूसरे से मारपीट करने लगा था। जमादारों के बच्चे साई नदी से मछली पकड़ कर खा रहे थे। भूख के भयानक दृश्य का वर्णन लेखिका ने इस प्रकार किया है- “कुछ दूर जाकर यशवंत ने एक और भयानक दृश्य देखा। मुंशीगंज के कसाई की दुकान से बकरे की अँतड़ियों-जैसा कुछ लाकर जमादारों के बच्चे आपस में झगड़ रहे हैं। कुछ दिनों से साई के किनारे गिद्धों के झुंड बैठने लगे हैं। यशवंत को लगा जैसे इन बच्चों और गिद्धों में कोई फर्क नहीं बचा। पेट की ज्वाला का भयानक रूप साई के चारों तरफ़ नग्न होकर सामने आ गया है।”4 नारायणी के पास बीमार पति और बच्चे के लिए दूध और रोटी के लिए पैसा नहीं था। हरिजन होने के नाते नारायणी को दूसरों के घर में काम नहीं मिलती थी। घर संभाले के लिए नारायणी के पास कोई उपाय नहीं था। असहाय नारायणी अपना परिवार संभालने के लिए कंपनी के उच्च पदस्थ अधिकारियों के पास देह का सौदा करने लगी। एक दिन धंधे से लौटते वक्त नारायणी और पहरादार देने वाले जमादार के बीच पैसा लेकर छीना-झपटी शुरू हो गयी। जमादार ने उसका सारा पैसा छीन लिया। नारायणी रणचंडी रूप धारण करती हुई जमादारों से कहने लगी कि- “सुअर के बच्चे! लौटा दे मेरे पैसे। जब धासला बीमार था तो मैं नमक की बोरी जैसा पेट लेकर यहाँ-वहाँ ठोकर खा रही थी, तब एक भी पैसा देकर तुम लोगों ने मेरी मदद की क्या? अब हड़ताल के नाम पर अन्न के दाने भी छीन रहा है…..साले!….मेरी म़र्जी, मैं रंडी बनकर कमाऊँगी, खाऊँगी- लौटा मेरा पैसा।”5 केवल नारायणी ही नहीं भृगु जमादार की दो जवान बहनें भी दो वक्त की रोटी के लिए पंजाबी खलासियों के साथ अवैध संबंध रखती थी। भूख के मारे लिचु लँगड़ा नारायणी से कहता है कि मेरे लिए दो रोटी लाकर दे सकती हो देखो तो, पेट कैसे सूख गया है।
मजदूरों की हड़ताल में रायबरेली के आस-पास के गाँव के किसान भी उसका साथ दे रहा था। परन्तु कंपनी का पैसा खाकर पेट मोटा करने वाले लेबर इन्स्पेक्टर गाँव-गाँव में जाकर किसानों को समझा रहा था कि मजदूरों की यह हड़ताल गैरकानूनी है, उन्हें गेहूँ, चावल उधार देना उचित नहीं है। यह कंपनी मजदूरों को दूसरी कंपनी से ज्यादा मजदूरी देती है। लेबर इन्स्पेक्टर की बातों में आकर मजदूरों का साथ देने वाला किसान भी उनकी सहायता करने से मुकर गया और गेहूँ, चावल देने से मना कर दिया था।
राजनैतिक रूप से किसान-मजदूरों का शोषण स्वतंत्रता पूर्व से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अर्थात आज भी उसका शोषण हो रहा है। हाँ स्वतंत्रता के पश्चात देश में उन्नति हुई है, तो केवल पूँजीपति लोगों की। किसान-मजदूर की स्थिति पहले जैसी थी आज भी उनका वही हाल है। किसान आत्महत्या कर रहे हैं और मजदूर जी तोड़ मेहनत करने के बावजूद भी दो वक्त की रोटी के लिए तरस रहा है। परन्तु किसान-मजदूरों का खून पीने वाले राजनैतिक नेतागण यश-आराम का जीवन जी रहे हैं। मजदूरों का बुनियादी अधिकार है कि कंपनी में उनकी नौकरी स्थायीकरण किया जाए। सन 1975 के जनवरी महीने में अधिकारियों और अखिल भारतीय डंकन कंपनी, मजदूर यूनियन के बीच हुए समझौते और औद्योगिक विवाद अधिनियम के अनुसार कंपनी के पास काम न होने पर दिहाड़ी मजदूरों की छँटाई कर दी जाएगी और मासिक वेतन मिलने वाले मजदूरों को लंबी छुट्टी पर भेज दिया जाएगा। इस समझौता पत्र के अनुसार भारी संख्या में दिहाड़ी मजदूरों की बर्खास्त करने का नोटिस दिया गया था। मजदूरों के बर्खास्त करने का नोटिस कंपनी के समझौता पत्र के अनुसार कानून सम्मत था। फिर भी बेकसूर मजदूरों को स्थानीय राजनैतिक नेता ने हड़ताल करने के लिए प्रोत्साहन दे कर उन्हें अंधी खाई की ओर धकेल दिया था। राजनैतिक नेता मजदूरों को लीगल फाईट अर्थात हड़ताल की सफलता का लालच और आश्वासन देकर उनका शोषण करने लगा था। स्थानीय नेता शास्त्री जी मजदूरों से कहता है- “सुनो, मैं लीगल फाइट करवा दूँगा। मजदूरों की छँटाई नहीं होने देंगे। लेकिन मेरी भी एक निश्चित कीमत है, यह मेरे एजेंटों ने जरूर बताया होगा और तभी मैं मजदूरों के बीच जा सकता हूँ।”6 मजदूरों की हड़ताल को लेकर राजनैतिक नेता दो हिस्सें में बँट गए थे। एक दल के नेता कंपनी के साथ समझौता करना चाहते थे। दूसरे दल यानी लाल टोपीवाले नेता कंपनी के साथ लड़ना चाहते थे। हड़ताल के नाम से नेता मजदूरों के यूनियन के फंड के पैसों से भात, मांस, बर्फ डाला हुआ शर्बत पी रहे थे और हड़ताल को अधिक से अधिक गति देने के लिए स्थानीय नेता शास्त्री जी ने सहज-सरल मजदूरों के सामने भाषण देते हुए कहा था- “भाइयों, मजदूरों को लड़ाई लड़ने से पहले ही इसका नतीजा मालूम रहता है…..।”7
मजदूर यूनियन के फंड की पुँजी खत्म हो चुकी थी। बाहर से भी किसी प्रकार की सहायता नहीं मिल रही थी। ऐसी स्थिति में मजदूर हड़ताल को आगे बढ़ाने में असंभव लग रहे थे। इसलिए वह कंपनी के साथ समझौता कर हड़ताल रोक देना चाहते थे। इसके सिवाय मजदूरों के पास और कोई उपाय नहीं था। परन्तु स्थानीय नेता शास्त्री मुख्य कार्यालय से आये हुए अधिकारियों से मजदूरों की बैठक तो दूर की बात अधिकारियों से उन्हें मिलने तक नहीं दिया। शास्त्री मजदूरों से कहने लगा- “तुमलोगों के पास आत्मबल नहीं है? बिना किसी ज्ञान के नेता बनने वालों के साथ हमेशा ऐसा ही होता है। मुझे सलाह देने आए हो तो सुनो, यह हड़ताल चलती रहेगी। मुख्य कार्यालय से आनेवाले प्रतिनिधियों के साथ तुम लोगों की बैठक नहीं हो सकती। ढिठाई मत दिखाओ। तुमलोगों के खून में कितना जोश है मुख्य कार्यालय वालों को जानने दो। मैं लीगल फ़ाइट करवा दूँगा। जरूरत पड़ी तो जुलूस भी निकलवा सकता हूँ। आस-पास के दूसरे कारखाने में भी टोकन स्ट्राइक शुरू हो जाएगी।”8 केवल यही नहीं शास्त्री जी ने मजदूरों के ऊपर गरजते हुए कहा था कि- “दुश्मन का सामना करना सीखो। फंड खत्म हो गया है, तो दिमाग से काम लो। सुना है, एक ट्रक भरकर कंपनी की सीमेंट रायबरेली पहुँच रही है….समझ से काम लो।”9 इस प्रकार शास्त्री जी ने मजदूरों को गैरकानूनी काम करने के लिए भी उकसाता है। मजदूरों के धैर्य का बांध टूट जाती है। परन्तु धोखेबाज शास्त्री कहता है- “सुनो, तुम लोगों को नेता समझना भी शर्म की बात है। हड्डियाँ चूर-चूर हो जाँए, देह से मांस सड़कर गिर पड़े, लेकिन मजदूरों को दिया हुआ वचन……।”10 मजदूरों को मधुर-मधुर वाणी और भाषणों से आश्वासन देने वाला स्थानीय नेता शास्त्री जी ने मजदूरों के साथ विश्वासघात कर कंपनी से पैसा खाकर अर्थात रिश्वत लेकर हड़ताल और मजदूरों की उम्मीद दोनों तहस-नहस कर देती है। असफल हड़ताल के दो साल बाद यशवंत ढेर सारे सवालों का जबाव जानने के लिए स्थानीय नेता स्त्री जी से मिलने आता है। उनके हाथ में एक तलवार थी जिसमें जंग नहीं लगी थी। इन दो सालों में उन्हें हड़ताल की सच्चाई मालूम हुई कि हड़ताल एक जंग लगी तलवार है। उससे मजदूरों का सुधार और उद्धार संभव नहीं।
निष्कर्ष-
लेखिका ने हड़ताल को प्रमुख मुद्दा बनाकर मजदूरों की समस्याओं के साथ-साथ सन 1975-80 तक उत्तर प्रदेश के रायबरेली के राजनैतिक भ्रष्टाचार का भी चित्रण किया है। उपन्यास में मजदूरों की असुरक्षा, आर्थिक असमानता, अवसरवादी राजनैतिक नेताओं के खोखलेपन को दर्शाया है। हरिजन मजदूरों के युवा नेता यशंवत बलेही कुछ पढ़ा-लिखा नेता था। फिर भी वह मजदूरों के हक के लिए कुछ नहीं कर पाए। वह राजनैतिक नेताओं के सामने हार जाते हैं। यह केवल उस दौर की कहानी नहीं आज भी किसान-मजदूरों का हाल वही है जो पहले था। आज भी किसान और मजदूर नेताओं और पूँजीपति के हाथ की कठपुतली जैसा है जब चाहे उनके जीवन के साथ खेल सकता है। मजदूर और उनके बच्चे भूखमरी के साथ जुझ रहे थे। हड़ताल की लीगल फाईट के नाम से नेतागण उनके खून-पसीने के पैसों (मजदूर यूनियन फंड) से मजेदार खाना, शराब पी रहे थे। ऐसे नेतागण आज के भ्रष्ट नेताओं के प्रतिरूप हैं।
संदर्भ सूची-
जंग लगी तलवार, इंदिरा गोस्वामी, अनुवादक, पापोरी गोस्वामी, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, संस्करण- 2006, पृ. सं- 10
वही, पृ. सं- 10
वही, पृ. सं- 13
वही, पृ. सं- 48
वही, पृ. सं- 50
वही, पृ. सं- 46
वही, पृ. सं- 69
वही, पृ. सं- 52
वही, पृ. सं- 53
वही, पृ.सं- 73