वाचिक परम्परा की प्रासंगिकता: कथा-कहन का परिप्रेक्ष्य
प्रो. मृदुला शुक्ल
अध्यक्ष, हिन्दी विभाग एवं अधिष्ठाता, कला संकाय
इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय,
खैरागढ़ (छत्तीसगढ़)
यह सत्य है कि देश-दुनिया में आधुनिकता आने के साथ ही मुद्रण-यन्त्र आये। पत्र-पत्रिकाएँ छपने लगीं और पुस्तकें भी। हमारे यहाँ जो भी शिक्षण गुरुकुलों में अथवा घर-परिवार में बुजुर्गों द्वारा मौखिक रूप में होता था, वह अब मुद्रित माध्यमों से होने लगा। साहित्य भी मौखिक तथा हस्तलिखित की सीमा से निकल मुद्रित रूप में प्रस्तुत होने लगा। स्पष्टतः एक व्यापक परिवर्तन जीवन-जगत में हुआ। आज तो हम परिवर्तन के उस दौर में आ पहुँचे हैं, जहाँ संचार-क्रांति ने असम्भव को भी सम्भव कर डाला है। समुद्रों पार की दूरियाँ होने पर भी आमने-सामने जैसे सम्वाद हाने लगो है। अर्थ हो या उपकरण अथवा अन्य सामग्री अतिशीघ्र एक-दूसरे तक प्रेषित की जा सकती है। निश्चय ही ये स्थितियॉं अत्यन्त प्रगतिकारक हैं, किन्तु मन फिर भी विकल हैं। न शान्ति है न सन्तोष। जीवन से वास्तविक आनन्द के पल तो जैसे लुप्त ही हो गये हैं। मनुष्य आज भीड़ में भी अकेलापन महसूस करता है। परिवारजन हैं, किन्तु आत्मीयता नहीं है। जनहित की बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनायी जाती हैं और लागू भी होती हैं। सुख-सुविधा के संसाधन घरों आ में गए हैं, फिर भी न हित दिख रहा है न सुख। ऐसा क्यों? इन पर विद्वज्जनों ने चिन्तन शुरु कर दिया है। परिचर्चा, संगोष्ठी, कार्यशालाएँ भी इन पर धड़ल्ले से की जा रही हैं। आशय यह है कि आज का एक महत्त्वपूर्ण, विचारणीय और प्रासंगिक विषय उक्त समस्याओं के कारणों और उनके निवारण की खोज करना बन गया है। कुछ कारण दृष्टि में आ भी गये हैं और उनके निवारण की ललक भी जागी है।
वस्तुतः आज की सुविधाभोगी जीवन पद्धति का जो सर्वाधिक दुष्प्रभाव पड़ा है, वह यही है कि जीवन का वास्तविक आनन्द-सच्चा सुख छिन गया है। निजी सुखों की चिन्ता एवं आत्मकेन्द्रितता के चक्कर में आये अकेलेपन का परिणाम ये हुआ है कि सुख मिलता भी है तो अस्थायी। इससे बड़ा सत्य कोई है ही नहीं कि मनुष्य अकेले नहीं रह सकता। यदि यह सम्भव होता तो समूह बनते ही क्यों? परिवार और समाज जैसे निकाय अस्तित्त्व में आते ही क्यों? गाँव, नगर, प्रदेश और देश जैसे रूपाकार प्रत्यक्ष होते ही क्यों? जब मन-मस्तिष्क में ये प्रश्न उभरते हैं तो ध्यान जाता है अतीत की ओर। समाजशास्त्रियों एवं अन्य प्रबुद्ध जनों के अनुसार कुछ उपाय हमें अतीतान्वेषण से निश्चय ही मिलेंगे।
यह तथ्य तो अब स्पष्ट हो गया है कि अपनी जड़ों से कटना, विदेशी जीवन की नकल तथा आत्मकेन्द्रितता जैसी प्रवृत्तियॉं इन सारे दुष्परिणामों का प्रमुख आधार हैं। जो सामूहिकता कभी हमारी सबसे बड़ी ताकत रही थी, वह धीरे-धीरे हमसे छूटती जा रही है। हमारी परिवार-परम्परा बिखर रही है। दुखद ये भी है कि आधुनिकताजनित ये रोग हमारे गाँवों तक जा पहुँचे हैं। आज मनुष्य सुख-साधन से भले सम्पन्न हो, किन्तु अपने सुख-दुख में अकेला है। बच्चे और बूढ़े घरों में होते हैं और युवा तथा प्रौढ़ दिन भर बाहर रहते हैं अधिकांशतः आजीविका के लिए और कुछ मौज-मस्ती के लिए। एक-दूसरे की सुनने-कहने को वक्त ही नहीं है किसी के पास। आशय यह है कि संवादहीनता की स्थिति है। संवाद नहीं हो पाता, क्योंकि समूह नहीं जुट पाता। कह सकते हैं कि इकट्ठे नहीं हो पाते या होना नहीं चाहते। बच्चों पर शिक्षा का इतना बोझ है कि स्कूल से आकर अपने पढ़ने-लिखने-कोचिंग आदि में लग जाते हैं। घर के बड़ों के पास बैठने का समय उनके पास भी नहीं है। पहले तो बच्चों की समुचित देख-रेख और बहुत सा शिक्षा और संस्कार देने का काम इसी समूह में हो जाता था। पर्वों-उत्सवों में इकट्ठे होना उत्साह और उमंगकारी होता था। उस इकट्ठे होने में आनन्द भी मिलता था, पारस्परिक प्रेम और शिष्टाचार की सीख भी मिलती थी। आज शिक्षण संस्थानों की कमी नहीं हैं, समुचित संसाधनों की भरमार है, किन्तु न सच्चा आनन्द मिल रहा है, न सच्चा शिक्षण हो पा रहा है।
ग्रामीण परिप्रेक्ष्य में जैसा कि अनेक विद्वज्जनों की भी राय है, मुझे लगता है हमें अपनी वाचिक परम्पराओं की ओर लौटना होगा, जिन्हें हम लगभग भूल चुके हैं। वाचिक यानी बोली गयी। जो परम्पराएँ एक से दूसरे की बात-चीत में अर्थात मौखिक रूप में व्यवहार में आती हैं, वे वाचिक परम्पराएँ कहलाती हैं। इनके स्वरूप, आशय और भूमिका को स्पष्ट करते हुए आचार्य विद्यानिवास मिश्र ने नितान्त सत्य लिखा है-‘‘हमारी परम्पराए ही वाक् है और कुछ है ही नहीं। वाक् माने बोली जाने वाली भाषा। माने, जिसमें संवाद होता रहा है, जिसमें मैं और तुम बने रहे हैं। ——-आपस में बात करेंगे तो हम जानेंगे कि हमारा यह हिस्सा है, तुम्हारा यह है और अपने हिस्से को लेने में सुख पाएँगे तथा दूसरे के हिस्से को देने में सुख पाएँगे। यह संवाद से ही सम्भव होता है। अलग राह कर लेने से नहीं होता। तो उस वाचिक परम्परा के पास परम्परा जाती है। वाक् के पास परम्परा जाती है। अनेक आख्यान हैं पुराने-नये कि उसी शब्द के पास परम्परा जाती है, कि हमें कुछ दो। हमें राह दिख नहीं रही है, तुम राह दो।’’1
निःसन्देह वाचिक परम्परा यानी कि बात-चीत की परम्परा का निर्वहन बिना समूह के सम्भव ही नहीं। हमारे यहाँ जन्म से लेकर मृत्यु तक के न जाने कितने संस्कार घर के बड़े-बूढ़ों, विशेष रूप से बुजुर्ग महिलाओं द्वारा पारस्परिक चर्चा, परामर्श तथा मौखिक निर्देशों द्वारा सम्पन्न कराने की परम्परा रही है। पर्वों-उत्सवों की तैयारी से लेकर उन्हें पूर्णता तक पहुँचाने की प्रक्रिया भी परिवार की बड़ी-बूढ़ियों के निर्देशों से ही होती आई है। ये सब होता आ रहा है मौखिक या वाचिक रूप में। यहाँ तक कि विभिन्न अवसरों पर गाये जाने वाले लोकगीत, व्रत-उपवास की कथाएँ आदि भी इसी वाचिक परम्परा में प्रयुक्त होते हुए ही यहाँ तक आये हैं। शास्त्र यानी कि पोथियाँ तो पुरोहितो के पास रहती हैं। सामान्य जन तो मौखिक या वाचिक रूप में ही इन्हें आत्मसात कर अन्यों को सुनाने-बताने के रूप में जीवित रखते रहे हैं। प्रसिद्ध समाजशास्त्री डॉ. श्यामाचरण दुबे ने इसके वैशिष्ट्य पर इन शब्दों में प्रकाश डाला है- ‘‘मौखिक परम्परा अधिकांशतः अज्ञातनाम होती है। सामान्य अर्थ में वह सामूहिक अनुभव और प्रज्ञा का प्रतिनिधित्व करती है। उसे जो कुछ विभिन्न स्रोतों-व्यक्तियों, बाह्य समूहों और आन्तरिक समूहों से प्राप्त होता रहता है, उसे वह अदृश्य रूप में आत्मसात करती जाती है। अनुभव के माध्यम से अनेक पीढ़ियों के द्वारा प्राप्त की गयी शिक्षाएँ इसमें निश्चित रूप पाती हैं।’’2
इसमें सन्देह नहीं कि बदलते समय के अनुरूप आवश्यक बदलाव को अपनाना ही युक्तियुक्त है, किन्तु उतना ही उपयुक्त है अपनी उपयोगी परम्पराओं को, अपनी बहुमूल्य विरासत को अपनाये रहना, उनसे जुड़े रहना। यह सराहनीय तो नहीं है कि अपनी सहज सम्भव स्वास्थ्यप्रद एवं सस्ती वर्षगाँठ परम्परा (विशेषतः जन्मदिवस सम्बन्धी) को भूलकर हम ‘हैप्पी बर्थडे’ और ‘केक काटने’ को अपनाने लगे हैं। पूर्व में हमारे यहाँ तो आटे एवं गुड़ के घोल से गुलगुले बनते थे तथा जन्मदिन के दिन पहले जन्मदिन से सुनिश्चित धागे में गाँठ लगाकर वर्षगाँठ मनती थी, वह भी घर में ही आस-पड़ोस की महिलाओं में से या घर की ही किसी बड़ी-बूढ़ी द्वारा पूजन-पाठ कराकर, रोचना कराकर। सम्भव हुआ तो अड़ोस-पड़ोस की महिलाओं को बुलाकर बुलौआ किया जाता था, जिसमें सोहर गाकर, नाचकर महिलाएँ खुशियाँ मनाती थीं। आज तो जन्मदिन केक, मोमबत्ती, ढ़ेर सारी सजावट, फिल्मी गीत-संगीत और देर रात तक चलने वाली दावतों-पार्टियों में सम्पन्न होने लगा है, जिसमें समय और धन का अपव्यय भी होता है तथा कई दिन की गतिविधियाँ भी प्रभावित होती हैं। चिन्तनीय तो यह है कि आज ऐसे दिखावे भरे आयोजनों को कम आय वाले भी करने लगे हैं। भले उधार लेना पडे, पर केक तो आयेगा भी, कटेगा भी।
यही स्थिति आज वैवाहिक आयोजनों में दृष्टिगत होती है। वहाँ एक-दो दिन पूर्व में लेडीज संगीत होगा ही। महिलाएँ प्रायः हल्के स्तर के गानों पर नाचेंगी, फिर खाना-पीना होगा, फिर समापन। हमारी पूर्व परम्परा में तो पन्द्रह दिन (लगभग) पहले से विवाह वाले घर में महिलाएँ (पास-पड़ोस की भी) रोजमर्रा के कामों को निपटाकर रात को बन्ना-बन्नी लोकगीत गाने जुड जातीं थीं। हँसी-ठिठोली के साथ, ढोलक-मँजीरा बजाते हुए उनका गाना उस घर ही नहीं, पूरे मोहल्ले को रसमय करता था। वह उसके लिए स्मरणीय होता था, जिसका विवाह होने वाला हो तथा सारी महिला-मण्डली के लिए स्वस्थ मनोरंजनदायक तो होता ही था। ऐसे-ऐसे गीत महिलाएँ गाती थीं, जो अपनी दादी-नानी, सास-जिठानी, दीदी-भाभी, अड़ोसी-पड़ोसी चाचियों से सीखे थे, जिनमें मन की सहज मांगलिक-आनन्दमयी भावनाएँ होती थीं। वाचिक या मौखिक परम्परा से मिले इन लोकगीतों को आज हम भूल चले हैं, जिनमें परिवारजनों से लेकर अड़ोसी-पड़ोसी तक सबको सम्मिलित किया जाता था। अकेले तो कुछ होता ही नहीं था, न गाना-बजाना, न पूजन-पाठ और न त्योहारों-उत्सवों पर खान-पान। सब कुछ मिल-जुलकर करने की हमारी यह सामूहिकता की परम्परा, वाचिक-मौखिक संवाद की परम्परा, जो आनन्ददायिनी भी थी और पथप्रदर्शिका भी, वह हमारी नासमझी एवं असावधानी के कारण हमसे छूट रही है। इस परिप्रेक्ष्य में पुनः मुझे आचार्य विद्यानिवास मिश्र के वे विचार स्मरण हो आते हैं, जिनमें वाचिक परम्परा की वर्तमान सन्दर्भ में प्रासंगिकता को उन्होंने सोदाहरण व्यक्त किया है। उनके अनुसार- ‘‘वाचिक परम्परा के कारण संस्कृति की निरन्तरता बनी रहती है, यह जो पीढ़ियों की दूरी की बात इतनी होने लगी है, उसका कारण वाचिक परम्परा के प्रति अनादर है। हमारे यहाँ वाचिक सम्प्रेषण एक पीढ़ी लाँघकर ही अधिक सक्रिय होता रहा है। नाना-नानी, दादा-दादी, नातियों-नतिनियों, पौत्र-पौत्रियों को कहानी सुनाते रहे, लोरी सुनाते रहे और बच्चों के हर प्रष्न का उत्तर देते रहे। माता-पिता तो बस नाम मात्र की बातचीत करते थे, इसलिए अतीत और भविष्य के बीच अपने आप अन्तर महत्त्वहीन था। बालसुलभ मानवीय उत्सुकता के साथ जुड़कर अधिक उम्र का अनुभव एक वृद्ध के जीवन में चाव पैदा करता था, दूसरी ओर बच्चे के भीतर आत्मविश्वास भरता था। वाचिक परम्परा केवल बोली जाने वाली भाषा ही नहीं है, वह जीवन-दर्शन भी है।’’3
निःसन्देह इस वाचिक परम्परा का सर्वाधिक मनोहारी, मर्मस्पर्शी एव्र प्रभावोत्पादक है कथा कहन या किस्सागोई। बहुत पहले हमारे पूर्वज रात को चौपालों में बैठकर किस्सागोई द्वारा मनोरंजन करते थे, तो घर में दादी-नानी, दादा-नाना या अम्मा बच्चों को कहानियाँ सुनाकर अर्थात कथा कहन द्वारा न केवल उनका मन बहलाती थीं, उन्हें अपने इतिहास-अपनी संस्कृति से इसी बहाने परिचित भी कराती थीं और जीवन जीने के न जाने कितने पाठ भी पढा देतीं थीं। जिन्होंने भी अपने बड़ों से राजा-रानी, शेखचिल्ली, महापुरुषों, महान नारियों अथवा व्रत-अनुष्ठानपरक कथाएँ किन्हीं किताबों अथवा पोथियों से नहीं, इसी कथा कहन की वाचिक परम्परा द्वारा सुनीं होंगी, वे उन कथाओं की मार्मिकता को या कौतुक को, बुजुर्गों के कथा कहन के रोचकतापूर्ण ढंग को तथा उनमें निहित जीवनोपयेागी बातों को आज भी न भूले होंगे। ऐसा स्वस्थ एवं सहज उपलब्ध मनोरंजन का माध्यम, संस्कारित करने का ऐसा सरस-रोचक ढंग और कहाँ मिलना सम्भव है? मुझे लगता है कि वर्तमान के आत्मकेन्द्रितता, स्वार्थपरकता, सुविधाभोगिता, अराजकता, भटकन और सबसे ज्यादा साधनसम्पन्न होने पर भी अवसादग्रस्तता के इस दौर में हमें कथा कहन की इस शैली यानी इस वाचिक परम्परा की ऐसी कहानियों के कहन-सुनन की ओर उन्मुख होना चाहिए। कथा कहन के सशक्त उदाहरणस्वरूप दो कहानियाँ यहाँ प्रस्तुत हैं, जो आज भी अपनी प्रासंगिकता को स्पष्ट सिद्ध करती हैं।
मेरी इनके प्रति रुचि या लगाव का आधार रही हैं मेरी अम्मा। उनके द्वारा सुनायी गयीं राजा हरिश्चंद्र, भक्त प्रह्लाद और ध्रुव की, रामायण-महाभारत की तथा दीपक राजकुमारी, बोलती चिड़िया सुनहला पानी, अनार बादशाहजादी, शेखचिल्ली आदि की कहानियाँ मुझे आज भी भूली नहीं हैं और भले ही उनके जैसी कहने की रोचक शैली न रही हो, पर मैंने अपने दोनों बेटों को पूरी रुचि से सुनायी हैं। उन्हें इतना मजा आता था कि जब तक उनकी पढ़ाई का बोझ नहीं बढ़ा या यों कहें कि उनकी अपनी व्यस्तताओं ने उन्हें नहीं घेरा, उन्होंने प्रायः हर रात मुझसे कहानियाँ सुनीं।
बचपन की उन दिनों की स्मृतियाँ मुझे आज भी, अकेले में भी हँसा-रुला देती हैं, जब गर्मियों की छुट्टियों में हम दादी अम्मा के पास गाँव जाते थे। लगभग दो माह का वह समय बहुत ही मजेदार बीतता था। विशेषतः रात का वह समय, जब अम्मा-चाची-बुआ आदि घर के सब कार्य निपटाकर आँगन में पड़ी चारपाई पर छोटे बच्चों को लिटा देती थीं और हम सब कुछ बडे बच्चे नीचे बिछी चटाइयों पर लेटे-अधलेटे कहानियाँ सुनने को तत्पर रहते थे। उल्लेखनीय बात ये थी कि हम 10-12 वर्ष वाले बच्चों के अलावा अगल-बगल के घरों के इन्टर, बी.ए. जैसी बड़ी कक्षाओं में पढ़ने वाले दीदी-भैया भी आ जुटते थे। फिर अम्मा जब कहानी सुनाना शुरु करतीं, तो लगता था कि बस सुनाती ही जायें। किसी का भी उठने का मन नहीं होता था। अम्मा की शर्त रहती थी कि बीच-बीच में हुँकारा भरना पड़ेगा, तो हममें से कोई न कोई बीच-बीच में बोलता रहता- ‘हाँ, फिर क्या हुआ? आगे क्या हुआ? आदि। और कहानी आगे बढ़ती जाती। उनके कहने में, सुनाने की शैली में कुछ ऐसी सरसता, ऐसी रोचकता होती थी कि मन ऊबता ही नहीं था, शरीर थकता ही नहीं था। उदाहरणस्वरूप अम्मा के द्वारा सुनायी गयी शेखचिल्ली की कहानी उन्हीं की शैली में सुनाने की कोशिश कर रही हूँ-
‘‘एक थे शेखचिल्ली। अपनी मैया के इकलौते और बहुत लाड़ले। जब वे छोटे थे, तभी उनका ब्याह कर दिया गया था। बड़े हुए, तो सब उन्हें छेड़ते-‘‘अपनी दुलैया कब लाओगे?’’ एक दिन शेखचिल्ली मैया के आगे मचलगये कि हम अपनी दुलैया लेने जायेंगे। माँ बेचारी अकेली, किसी तरह मेहनत-मजूरी करके अपना और अपने बेटे का पेट पालती थी। न कोई ऐसा रिश्तेदार, न नातेदार, जो दुख-तकलीफ में साथ दे। बेटे को खूब समझाया-बुझाया कि कुछ दिन रुक जाओ, पर वह कहाँ मानने वाले! मैया ने कपड़े में लपेट के कलेवा दिया और कहा कि जाओ नाक की सूध चलते चले जाना, जहाँ रास्ता खत्म होगा, वहीं तुम्हारी सुसराल है।
शेखचिल्लीराम चल दिये खुशी-खुशी। मटक-मटककर झूमते-झामते नाक की सीध में चले जा रहे थे कि ठीक सामने एक खजूर का पेड़ आ गया। अब क्या करें, जाना तो नाक की सूध ही है, सो आव देखा न ताव, चढ़ गये खजूर के पेड़ पर किसी तरह खिसक-खिसक कर, अब दूसरी ओर उतरते न बने। जो निकले, उसे पुकारें, ’’ऐ भैया, उतार लो हमें।’’ पर सुने कौन और सुने भी तो उतारे कैसे? बड़ी देर तक रोते-कलपते लटके रहे कि एक ऊँट वाला निकला वहाँ से, तो उसे दया आ गयी और उसने किसी तरह जतन कर पहले शेखचिल्लीराम को ऊँट पर लिया और फिर जमीन पर उतारा। शेखचिल्ली फिर चल दिये नाक की सूध और रास्ता जहाँ खत्म हुआ, तो देखा सामने घर है। वही तो थी उनकी ससुराल। जा पहुँचे खुशी-खुशी अन्दर। सुसराल में सब बड़े प्रसन्न हुए। खूब आवभगत हुई। रात को छत पर उनकी सोने की व्यवस्था की गयी। वहाँ छत पर एक ओर छाया था फूस का छप्पर। उसकी बल्ली में कील लगी थी, जिस पर लालटेन टँगी थी। शेखचिल्लीराम ने लालटेन कभी देखी न थी। उनकी मैया तो ढिबरी जलाती थी। लालटेन को वे एकटक ताके जायें-ताके जायें। एकाएक मन में विचार आया, इसे तो अपने घर ले जायेँगे। बस, झट से उतारा लालटेन को और अपने गमछे में लपेटकर छप्पर में खोंस दिया। जैसे ही लुढ़की स्थिति वाली लालटेन से तेल बाहर निकला कि आग भभक उठी, तो शेखचिल्लीराम घबराकर चिल्लाये-आग, आग लगी आग। लोग दौड़े-दौड़े ऊपर आये और लालटेन को छप्पर पर लुढ़के देखा, तो समझ गये सारा माजरा। झटपट आग बुझायी गयी, किन्तु शेखचिल्ली के ससुरजी ने अपना माथा भी ठोक लिया और इस आशंका से कि जँवाई राजा और कोई नया तमाशा न खडा कर दें , भोर होते ही उन्हें बेटी सहित विदा कर दिया। सो ऐसे थे शेखचिल्लीराम और ऐसी थीं उनकी कारगुजारियाँ। कहानी हुई खतम और पैसा हुआ हजम।’’
शेखचिल्ली की मजेदार कारगुजारियों की ऐसी न जाने कितनी कहानियाँ अम्मा ने सुनायीं थीं, अब तो याद भी नहीं, किन्तु उनके कथा-रस को आज भी महसूस करती हूँ और हँसी तो अभी भी आये बिना रहती ही नहीं। सच, हम कितना हँसते थे सुन-सुनकर, एक-दूसरे पर गिरते थे, लोट-पोट होते थे। ऐसा सहज प्राप्य और निशुल्क मनोरंजन अब कहाँ मिलेगा?
कथा कहन का यह रस व्रत-उपवास की, महान चरित्रों की कहानियों में भी खूब मिलता था। आज तो समय की कमी और सामूहिकता के अभाव ने ऐसी स्थितियाँ, ऐसे अवसर ही घटा दिये। वरना पहले तो आये दिन किसी न किसी पूजा, व्रत, अनुष्ठान का क्रम घर-परिवारों में लगा ही रहता था। सावन में हरतालिका तीज, भादों में पहले हरछठ फिर सन्तान सातें, क्वार में नवरात्र, कातिक में करवा चौथ, फिर अहोई आठें, फिर भाईदूज, फिर शरद पूर्णिमा, फिर सकट चौथ, फिर शिवरात्रि और न जाने क्या-क्या? कई दिन पहले से घर की महिलाओं की तैयारी शुरू हो जाती थी। घर की बड़ी-बूढी महिलाएँ याद दिलाती थीं, ये बना लो, ये मँगा लो आदि। फिर निर्धारित व्रत या जो भी अवसर हो उस दिन किसी एक घर में इकट्ठी होकर महिलाएँ पूजा करती थीं। उनमें कोई एक कथा कहती थी। माँओ के साथ लगे-लगे उनके बच्चों का आ जाना तो स्वाभाविक ही था, तो वे भी सुनते थे और मजा लेने के साथ संस्कारित भी होते थे। प्रासंगिकता के परिप्रेक्ष्य में अपनी जिठानी से सुनी भाई दूज की यह कथा उन्हीं की शैली में सुनाने का यत्न कर रही हूँ- ‘‘एक भाई-बहन थे। बहन की ससुराल बहुत दूर पहाड़, जंगल और नदी के उस पार थी। भाई-दूज का त्यौहार आया। भाई को बहन की ससुराल जाना था रोचना कराने। याद था कि बिना रोचना किये बहन कुछ खायेगी-पियेगी नहीं, सो भाई बड़े सबेरे भोर में ही निकल पड़ा। घनघोर जंगल में आगे बढ़ा जा रहा था कि कान में शेर की दहाड़ पड़ी। सोचा कहीं छिप जाये, कि शेर महाराज आ गये सामने। झूमते हुए बोले, ‘‘अहा, कई दिनों से भूखा था। अब तो तेरे को खाऊँ-भूख मिटाउॅं।’’ ये सुनते ही भाई तो पड गया सोच में कि मैं नहीं पहुँचा तो बहन तो मेरी भूखी-प्यासी मर जायेगी, बिना रोचना किए तो वह पानी तक नहीं पीती। सो हाथ जोड़ निवेदन किया, ‘‘महाराज, मैं बहन के पास रोचना कराने जा रहा हूँ। बिना रोचना किये वह कुछ खाती-पीती नहीं। रोचना कराके लौट आऊँ तो खा लेना महाराज। ये वचन है मेरा।‘‘ रोचना की बात सुनकर शेर महाराज को जो भी लगा हो, पर वो मान गये। रास्ता छोड़ दिया। भाई आगे बढ़ा। कुछ ही दूर आया था कि सामने फुँफकराते हुए नागदेवता मिल गये। भाई ने इधर-उधर हो के बच के निकलना चाहा, पर उन्होंने जाने नहीं दिया, तेजी से आगे आ गये और कहा कि -आज तो तुझे डसूँ और प्यास बुझाऊँ।’’ भाई ने उनसे भी हाथ जोड़ विनय की- ‘‘नागदेवता, बहन से रोचना करा आऊँ, लौटने पर आप जो चाहे करना, ये वचन है मेरा। बिना रोचना किए बहन भूखी-प्यासी मर जाएगी। ‘‘नागदेवता भी रोचना की बात सुनते ही सर्र से दूसरी ओर चले गये। राह छोड़ दी। भाई चल पड़ा। काफी समय हो गया था। सूरज उग आया था। भाई ने गति बढ़ाई ही थी कि सामने देखा हहराती हुई नदी। बरसात नहीं थी, पर नदी में पानी लबालब था। आस-पास न नाव दिख रही थी न मल्लाह। इतने पानी में तैरकर भी नहीं जा सकता था। क्या करें? सोच में था कि कान में आवाज पड़ी- ‘‘आज तो तेरी बलि लूँगी, तभी शान्त होऊँगी।’’ ये और कोई नहीं, स्वयं नदी मैया थीं। भाई ने उनसे भी हाथजोड़ विनती की -‘‘नदी मैया, बहन से रोचना करा आऊँ। वह भूखी-प्यासी बैठी होगी। वचन देता हूँ, फिर आप बलि ले लेना।’’ रोचना की बात हो या फिर बहन की बात, कारण जो भी रहा हो, नदी मैया भी शान्त हो गयीं। हहराता पानी धीरे-धीरे बहने लगा। बहाव धीमा पड़ा, तो भाई ने पहनी धोती को कछौटे की तरह कसा और कूद पड़ा नदी में। कुछ ही देर में उस किनारे जा लगा और भीगा-भीगा बहन की ससुराल जा पहुँचा। बहन बहुत प्रसन्न हुई। हाल-चाल पूछा। सूखे वस्त्र दिये और फिर रोचना लगा, आरती कर, मिठाई खिला, स्वयं मुख जुठारने बैठी तो भाई बोला-‘‘मुझे जाना है।’’ बहन रोके तो रुकने को तैयार नहीं। इतनी जल्दी जाने का कारण पूछा तो वह भी नहीं बताया। अंत में बहन ने अपनी सौगन्ध दी तो बताया कि वचन देकर आया है। जाना ही पड़ेगा और वह भी तुरन्त। बहन थी बड़ी चतुर-सुजान। बोली मैं भी साथ चलूँगी। भाई ने रोका, ससुराल वालो ने वरजा, फिर भी बहन नहीं मानी और चल पड़ी भाई के साथ। सबसे पहले हहराती-उफनाती नदी मैया मिलीं। बहन ने अपने साथ लाई पेरी-चुनरी चढ़ाई, बताशे का भोग लगाया, धूप-दीप जलाये और हाथ जोड़ विनती की, ‘‘मैया, मेरे ससुरे को बनाये रहियो, मेरे मयके को बनाये रहियो, मेरे सुहाग को बनाये रहियो, मेरे भइया को बनाये रहियो।’’ प्रसन्न मैया ने आशीष भी दे दी कि जा बिटिया तेरी सब मनोकामनाएं पूरी हों। सो अब वे बलि कैसे लेतीं ! उनका बहाव धीमा पड गया और भाई-बहन हाथ जोड़ आगे बढे। नदिया पार की। इस पार घाट पर दोनों ने रुककर कपड़े सुखाये। आराम भी किया और बहन ने कुछ जरूरी सामान भी खरीदा। फिर आगे बढ़े। बीच जंगल में नागदेवता मिले। बहन ने साथ लायी दूध भरी मटकिया रख दी सामने। नागदेवता पीने में लग गये और बहन-भाई झट से अपनी राह चल दिये। जंगल समाप्त होने को ही था कि दहाड़ते हुए शेर महराज सामने मौजूद। खुश होके बोले, ‘‘अहा, अब तो दो-दो, मजा आयेगा खाने में।’’ बहन ने साथ लायी पिटारी खोली और माँस के टुकड़े इधर-उधर फेंकना शुरु कर दिया। शेर महाराज मॉंस देख रुक नहीं पाये, दौड़कर टुकड़ों पर टूट पड़े और भाई-बहन का आगे बढने का रास्ता यहॉं भी साफ। वे तेजी से चलकर जंगल से बाहर निकल आये। इस तरह समझदारी , चतुराई एवं धैर्य से उन भाई-बहन ने उस विपत्ति से मुक्ति पाई। तो ऐसा होता है बहन-भाई का रिश्ता। ऐसी बहनें सबकी हों कि भाई के लिए कुछ भी कर गुजरें और ऐसे भाई सबके हों कि बहन की खुशी के लिए प्राणों की भी परवाह न करें। सो ऐसे ही भाई-दूज आती रहे। बहनें भाइयों को ऐसे ही रोचना करती रहें, और भाई बहनों की ऐसे ही चिन्ता करते रहें। दूज महारानी की जय’।’’
ऐसी कहानियाँ हमें रिश्तों की गहराई और महत्त्व को बताती हैं तथा ये सीख देती हैं कि कैसी भी कठिन स्थिति आये, धैर्य खोये बिना, स्थिर बुद्धि से उसका मुकाबला करना चाहिए। इसी तरह की अनेक कहानियाँ सरस कथा कहन शैली में व्रत-त्यौहारों में सुनायी जाने वाली हैं, जिनसे मनोरंजन और शिक्षण दोनों कार्य एक साथ सम्पन्न होते हैं। करवा चौथ, हरछठ, अहोई आठें, सन्तान सातें आदि की कथाओं में पूजन-पाठ भी होता है और वे रिश्तों के सुकोमल सूत्रों पर आधारित भी होती हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि वाचिक परम्परा की यह पूँजी नयी पीढ़ी तक पहुँचेगी , तो अवश्य उन्हें नैतिक बल प्रदान करेंगी। उनका मनोबल मजबूत करेंगी। हमें आज भी उनकी जरूरत है और आगे भी रहेगी। इनके औचित्त्य और प्रासंगिकता को विद्वत्प्रवर इन्दुप्रकाश पाण्डेय ने ‘लोक साहित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन’ शीर्षक लेख में जिन तर्कों के साथ रेखांकित किया है, उसके बाद और कुछ कहने को बचता ही नहीं। वे पंक्तियाँ है- ‘‘लोक-साहित्य का एक मुख्य प्रयोजन होता है कि वह अपने समाज के सांस्कृतिक रूप-व्यापारों, रीति-रिवाजों तथा स्थापित संस्थाओं की महत्ता को स्थापित करना चाहता है और उनके सामाजिक एवं धार्मिक मूल्यों का प्रचार करना चाहता है, जैसे व्रत-कथाएँ। ये कथाएँ वैधीकरण (LEGITIMATION) प्रदान करती हुईं सांस्कृतिक मूल्यों और आचारों को समर्थन और बल प्रदान करती हैं। उन्हें सर्वमान्यता प्रदान करती हैं। जब कभी शंका भी उत्पन्न होती है तो उनका इन्हीं माध्यमों से शमन भी किया जाता है।’’4
संदर्भ:
1. आचार्य विद्यानिवास मिश्र; स्वरूप विमर्श; ‘भारतीय परम्पराः उच्छलित लोक’ शीर्षक लेख से; पृ. 42-43; भारतीय ज्ञानपीठ-नयी दिल्ली; संस्करणः 2001
2. डॉ. श्यामाचरण दुबे; परम्परा और परिवर्तन; ‘मौखिक परम्पराएँ और सांस्कृतिक विकास’ शीर्षक लेख से; पृ. 104; भारतीय ज्ञानपीठ-नयी दिल्ली; संस्करणः 2008
3. आचार्य विद्यानिवास मिश्र; देश, धर्म और साहित्य; ‘हमारे देश की वाचिक परम्परा’ शीर्षक लेख से; पृ. 55; राधाकृश्ण प्रकाशन प्रा. लि.- नयी दिल्ली; संस्करण 2010
4. प्रधान सम्पादक आचार्य विद्यानिवास मिश्र; चंदन चौक; पृ. 23-24; उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी-लखनऊ; संस्करणः 1989