शोध और बोध से ही राष्ट्र का विकास संभव

महेश तिवारी
स्नाकोत्तर, पत्रकारिता संकाय,
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल।।
मोबाइल न. 9630377825
ईमेल- tiwariauthor@gmail.com

 

शोध सारांश:-  किसी भी राष्ट्र की प्रगति और विकास का आकलन वहां पर संसाधन जुटा देने मात्र से नहीं होता, अपितु वहां के लोगों के द्वारा अपनाने वाली पद्धतियों, संस्कारों, मूल्यों, कार्यशैलियों से राष्ट्र निर्माण होता है। ऐसे में जिस दौर में भारत के पास लगभग 65 फ़ीसदी आबादी युवाओं की है। साथ ही साथ देश की सियासी परिपाटी भी देश को विश्वगुरु और महाशक्ति बनाने की बात करती। ऐसे में हमें और हमारी व्यवस्था को देखना होगा, कि आख़िर क्या कारण है जिसकी वजह से हम इक्कीसवीं सदी में वैश्विक पटल पर पीछे छूट रहें। इतिहास की निगहबानी करें तो हमारा इतिहास तो कदापि ऐसा न था। जहां हम पिछड़े हुए अपने को महसूस करें। हम तो गौरवशाली इतिहास और परंपरा के वाहक रहें। ऐसे में जब हम आज के समय की स्थितियों और परिस्थितियों को देखते हैं। फ़िर एक बात स्पष्ट होती है, कि हमारे यहां आज के समय में कुछ खामियों ने घर कर लिया है। जैसे शिक्षा में गुणवत्ता नाम की चीज़ नहीं बची है। मैकाले की अंग्रेजी शिक्षा को हम ढो रहें हैं। उच्च शिक्षा और अन्य क्षेत्रों में शोध नाममात्र की बात समझ आती। इसके अलावा मानवीय पूंजी को हमारे यहां मानव संसाधन समझ लिया गया है। जिस कारण हम चाहकर भी विश्वगुरु बनने या विश्व को नेतृत्व करने की दिशा में आगेनहीं बढ़ पा रहें। ऐसे में अब हमें शोध के महत्व को समझना होगा। इसके साथ हर क्षेत्र में शोध को बढ़ावा देना होगा साथ ही साथ मानवीय पूंजी की अहमियत पर भी जोर देना होगा। तभी एक मजबूत राष्ट्र की तरफ़ हम अग्रसर हो पाएंगे।।

कीवर्ड:- शोध, राष्ट्र, नेशन, शिक्षा व्यवस्था, एक भारतश्रेष्ठ भारत, अनुसंधान एवं विकास।

शोध विस्तार

    हते हैं कि आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। ऐसे में कुछ दिन पहले देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उद्बोधन का ज़िक्र करना यहाँ जरूरी हो जाता है। तत्कालीन दौर में जब भारत देश ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व कोरोना संक्रमण से कराह रहा है। हमारे देश के प्रधानमंत्री देश की अवाम को दिए गए संदेश में “आत्मनिर्भर भारत” की बात करते हैं। यहां यक्ष प्रश्न यहीं क्या कोई भी राष्ट्र, समाज या फ़िर व्यक्ति बिना शोध के आत्मनिर्भर हो सकता है? यह बात असंभव सी लगती है। किसी भी राष्ट्र या समाज के विकास के लिए उस समाज या राष्ट्र में शोध को बढ़ावा देना महती जरूरी होता है। चलिए यहाँ एक प्रश्न करते हैं, किसी राष्ट्र का विकास कब होगा? तभी न जब उस राष्ट्र के लोगों का जीवन मूल्य उच्च कोटि का होगा। सांस्कृतिक रूप से समाज मजबूत होगा। नए और परिमार्जित सांस्कृतिक मूल्यों को आत्मसात करने में कोई झिझक नहीं होगी। नई- नई तकनीक को विकसित किया जाएगा। ऐसे में शोध किसी भी क्षेत्र की प्राथमिकता में रहता है। राष्ट्र के विकास की पहली सीढ़ी कहीं न कहीं शोध है। देखिए न राष्ट्र निर्माण में शैक्षिक संस्थानों की भूमिका को कैसे उत्तरप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष ह्रदय नारायण दीक्षित स्वीकृति करते हैं।

    वे कहते हैं कि राष्ट्र निर्माण में शैक्षिक संस्थानों की अहम भूमिका होती है। भारत में 10वीं सदी के पहले से ही राष्ट्र की अवधारणा का निर्माण हो चुका था। बाद में विश्व को नेशन शब्द का बोध हुआ। नेशन और राष्ट्र दो अलग- अलग बातें हैं। हमारे वेदों में राष्ट्र की अवधारणा की व्याख्या मिलती है। शोध और बोध से राष्ट्र का जन्म और विकास होता है।ऐसे में जब राष्ट्र शब्द का जन्म ही अपने आप में शोध शब्द को समाहित किए हुए हो। फ़िर हम आसानी से समझ सकते कि किसी भी राष्ट्र की उन्नति की राह शोध के माध्यम से ही निकलती है। यहां हम राष्ट्र निर्माण में शोध की भूमिका की चर्चा कर रहें। ऐसे में पहले हम राष्ट्र की परिभाषा समझने का प्रयास करते हैं। उसके उपरांत शोध को समझेंगे और आख़िर में राष्ट्र निर्माण में शोध की भूमिका को।

   राष्ट्र क्या है? राष्ट्र का अर्थ एक स्वशासी राज्य की जनसंख्या से है। जिसमे कई राष्ट्रीयताओं का समावेश हो सकता है। जहां राष्ट्रीयता राजनीतिक स्वतंत्रता और प्रससत्ता प्राप्त कर लेती हैं। वह राष्ट्र बन जाती हैं।2  “राष्ट्र” शब्द जो आप हम समझते हैं, यह आधुनिक समय की उपज है। यह लैटिन शब्द ‘नेशन’ से लिया गया है। ‘Ambedkarian framework of National- Building A critical Enquiry’ में केसी यादव और एसके चहल ने बताया है कि हमें आधुनिक प्रक्रिया को धन्यवाद देना चाहिए जैसे- पुर्नजागरण, पुर्नसुधार, वाणिज्यवाद, फ्रांसीसी क्रांति उपनिवेशवाद, सम्राज्यवाद विश्वयुद्ध आदि। इसी समय में राष्ट्र की उत्पत्ति विभिन्न प्रकार से यूरोप और शेष विश्व में हुई। भारत में इस प्रक्रिया की जड़ें उन्नीसवीं सदी में दिखाई दी।3  ऐसे में प्रथम दृष्टया यह मान लेते हैं आधुनिक राष्ट्र की बात भले भारत में उन्नीसवीं सदी में दिखी, लेकिन उसके पूर्व पुरातन काल से भी तो यहां पर सोलह महाजनपद आदि का ज़िक्र होते आया है। एक बात और राष्ट्र का निर्माण कैसे होता। किसी भू- भाग में रहने वाले प्राणियों से। ऐसे में तो भारत में सदियों से कई मानवीय सभ्यता का इतिहास मिलता है।

   अब हम शोध को समझें तो शोध एक प्रकार की खोज है, जो नवीन संभावनाओं को तलाशने की, मौलिकता का समावेशन करने की और वैज्ञानिक तरीके से कार्य का निष्पादन करने की क्षमता का विकास है। सीसी क्रोफोर्ड के अनुसार, ” शोध चिंतन की एक ऐसी क्रमबद्ध तथा विशुद्ध प्रविधि है, जिसमें विशिष्ट यंत्रों, उपकरणों तथा प्रक्रियाओं का उपयोग इस उद्देश्य से किया जाता है, एक समस्या का समाधान उपलब्ध हो सकें।” वहीं वी यंग के शब्दों में, ” शोध एक ऐसी व्यवस्थित विधि है, जिसके द्वारा नवीन तथ्यों की खोज अथवा प्राचीन तथ्यों की पुष्टि की जाती है तथा उनके उन अनुक्रमों, पारस्परिक सम्बन्धों, कारणात्मक व्याख्याओं तथा प्राकृतिक नियमों का अध्ययन करती है, जो कि प्राप्त तथ्यों को निर्धारित करते हैं।”4 यहां अब हम वर्तमान वैश्विक महामारी कोरोना की ही बात कर लें, इससे सम्पूर्ण विश्व कराह रहा। इससे निज़ात का उपाय क्या होगा। सभी को पता है, कि जब किसी औषधि का अनुसंधान होगा। तभी इस महामारी से विश्व को सुरक्षित किया जा सकता। इतना ही नहीं एक बात और स्पष्ट हो, जो देश इस महामारी की दवा तलाश लेगा, वह सामाजिक और आर्थिक रूप से भी आने वाले समय में मजबूत बनेगा। बाक़ी देश उस पर निर्भर होने की स्थिति में होंगे। इन सब बातों से एक ही तथ्य को मजबूती मिलती कि किसी भी राष्ट्र के विकास, उत्थान में शोध की काफ़ी भूमिका है।

    शोध के महत्व को देखते हैं तो पाएंगे कि शोध हर जगह महत्व रखता है। चलिए एक उदाहरण से बात को स्पष्ट करते। पर्यटन चूंकि राष्ट्र, राज्य और स्थानीय क्षेत्रों से सम्बंधित होता। ऐसे में पर्यटन को अगर बढ़ावा मिलेगा तो समाज और राष्ट्र मजबूत बनेगा। इसलिए भारत में ‘डिपार्टमेंट ऑफ एनवायरनमेंट एन्ड फारेस्ट’ की स्थापना की गई। अब सोचिए इसका उद्देश्य क्या रहा होगा? इसका उद्देश्य है भारत में पर्यटन स्थलों के वातावरण की शुद्धता को बनाएं रखना। जे. ए. स्टीन के मुताबिक भारत में अनेक आश्चर्य है जिनमें ह्रास और विनाश प्रारम्भ हो गया है। ऐसे में पर्यटन के पांच कारणों की और क्रिपेनड्रॉफ ने ध्यान आकर्षित किया:-

1) ग्राम्यांचलों में प्रदूषण फैले।

2) किन्हीं क्रियाओं से व्यतिरेक पैदा हो।

3) पर्यावरण का महत्व आर्थिक विकास और पर्यटन के संदर्भ में बना रहें।

4) वातावरण आदि स्त्रोतों के ह्रास के प्रमाण और अनिश्चितता की स्थिति में कमी हो तथा

5) स्थानीय लोगों की सोच बदलें।5

 

        ऐसे में जो पर्यटन देश के विकास में योगदान करता। फ़िर वह योगदान आर्थिक और सांस्कृतिक किसी भी तरीक़े का हो। वह पर्यावरण के लिहाज़ से भी समाज और राष्ट्र की समृद्धि का वाहक बनें। यह तथ्य कैसे सभी को पता चला होगा। यकीनन शोध और बोध से ही। ऐसे में सभी योजना के पहले शोध का होना अति आवश्यक है। हम इतिहास में विचरण करेंगे तो पाते हैं कि श्रीराम जी हिन्दू संस्कृति के अनुसार लंका जाने के लिए “रामसेतु” का निर्माण करते हैं। जिसका प्रमाण आज सारी दुनिया मान चुकी है। इसके अलावा “पुष्पक विमान” को कौन भूल सकता। ये सब बातें रामायण में देखने और सुनने को मिल जाएंगी। तो कहीं न कहीं यह सब सम्भव कैसे हुआ होगा? निश्चित ही शोध के कारण। ऐसे में एक बात पूर्णरूपेण सत्य है कि हमारा भारतीय समाज सनातन समय से ही शोध और बोध में विश्वास रखता आया है। अपितु आज के वर्तमान काल में भले हम शोध कार्यों में पिछड़ते जा रहें।

         अनुसन्धान किसी भी राष्ट्र की प्रगति का मूलाधार है। अतः इसका महत्व विविध प्रकार से है। यह ज्ञान के विकास में, उद्देश्य प्राप्ति हेतु, समाज और राष्ट्र को नई गति प्रदान करने में, राष्ट्रीय एवम अंतर्राष्ट्रीय भावना के विकास में, सुधार में, सत्य की खोज में, प्रशासनिक आदि अनेक क्षेत्रों में सहायता प्रदान करता है। तभी तो अनुसन्धान को जॉन डीवी “प्रगतिशील प्रक्रिया” मानते हैं। वैसे भी भारत जैसे देश में शिक्षा का महत्व हमेशा से रहा है और उसे सर्वोच्च धन के रूप में स्वीकार किया गया है। लम्बे समय तक भारत गुलामी की बेड़ियों में रहते हुए भले शोध और बोध में पिछड़ गया हो। इन सब के बाद आज़ादी के उपरांत पुनः भारतीय ज्ञान परम्परा में शोध और बोध को महत्व दिया जाने लगा। तभी तो प्रथम पंचवर्षीय योजना में शिक्षा पर ख़र्च 151 करोड़ रुपए किया जाता। शोध और बोध की ही देन रहीं, कि जो भारत गुलामी की जंजीरों में बंधे-बंधे भुखमरी का शिकार हो गया था। वह आज़ादी के बाद शैने- शैने आत्मनिर्भरता की तरफ़ कदम बढ़ाता है और हरित क्रांति के माध्यम से उठ खड़ा होता है।

एक बार स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था – सुधारकों से मैं कहूंगा कि मैं स्वयं उनसे कहीं बढ़कर सुधारक हूं। वे लोग इधर- उधर थोड़ा सुधार करना चाहते हैं- और मैं चाहता हूँ आमूल सुधार। हम लोगों का मतभेद है केवल सुधार की प्रणाली में। उनकी प्रणाली विनाशात्मक है और मेरी संघटनात्मक। मैं सुधार में विश्वास करता हूँ स्वाभाविक उन्नति में। स्वाभाविक उन्नति तभी होती है जब संसाधन उपलब्ध हो। कार-मोटरसाइकिल घर मे पहले से रहता है तो स्वाभाविक रूप से कम उम्र में ही घर के लोग चलाना सीख जातें हैं। इसलिए सुधार को वो महान शास्त्र- ‘विश्वशास्त्र’ पहले संसाधन के रूप में प्रत्येक घर में उपलब्ध हो। जो आध्यात्मिक और दार्शनिक विरासत के आधार पर एक भारत- श्रेष्ठ भारत की परिकल्पना को प्रतिरूप दे सकें।6

     ऐसे में देखें तो राष्ट्र के निर्माण के लिए जरूरी कोई भी पक्ष हो। वह नवीकरणीय ऊर्जा का क्षेत्र हो, धर्म और दर्शन का क्षेत्र हो। अंतरिक्ष से जुड़ी बातें हो। शिक्षा या समाज से जुड़ी संकल्पनाएं हो। सभी क्षेत्रों में जब तक शोध के महत्व को अंगीकार नहीं किया जाएगा। तब तक एक मजबूत राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता। एक मजबूत राष्ट्र का निर्माण नहीं होगा। फ़िर भारत के जो नेतृत्वकर्ता भारत को पुनः सोने की चिड़िया बनते देखना चाहते वह सपना कैसे साकार होगा। इसलिए राष्ट्र का शिल्पी अगर वहां की रहनुमाई व्यवस्था होती तो उसे स्थिति और परिस्थितियों को देखते हुए शोध के महत्व को समझना अति आवश्यक हो जाता, क्योंकि शोध और बोध के माध्यम से ही एक सशक्त राष्ट्र का निर्माण हो सकता।।

       किसी भी राष्ट्र की प्रगति और विकास का आकलन वहां पर संसाधन जुटा देने मात्र से नहीं होता। केवल अवस्थापना या उपकरण जुटाना पर्याप्त नहीं है, अपितु वहां के लोगों के द्वारा अपनाने वाली पद्धतियों, संस्कारों, मूल्यों, कार्य-शैलियों से राष्ट्र निर्माण होता है। हम अपने डिजिटल रिसोर्स से शहर के चप्पे-चप्पे की निगरानी तो कर सकते हैं, लेकिन सन्मार्ग पर चलते हुए हमें अपनी कार्य संस्कृति, संस्कारों, मूल्यों और कार्यशैली को भी उसी के अनुरूप ढालना होगा, तभी शक्तिशाली भारत, समृद्ध भारत, आत्मनिर्भर भारत का सपना साकार होगा। हमारी अजर अमर भारतीय संस्कृति हमें उन मानवीय मूल्यों के दर्शन कराती है जो सर्वोत्कृष्ट समाज और राष्ट्र के निर्माण का आधार स्तंभ है। विश्व के युवा राष्ट्र के रूप में हम सृजनात्मकता, उद्यमिता, नवाचार, शोध एवं अनुसंधान का महत्वपूर्ण केंद्र बन सकते हैं। कई बार मैंने विभिन्न मंचों पर यह कहा है कि युवा विद्यार्थियों के रूप में हमारे पास एक बड़ी शक्ति है। अमेरिकी जनसंख्या से अधिक हमारे विद्यार्थियों की संख्या है। हम इसे सकारात्मक दिशा में ले जाने में सक्षम हुए तो हम नए युग का सूत्रपात कर सकते हैं।7

इन सब बातों के मद्देनजर देखें तो आज शिक्षण संस्थानों आदि को लेकर देश में राजनीति ख़ूब होती रहती। शायद इसका आधा हिस्सा भी उसको बेहतर करने में लगा दें सियासतदां तो भारत को आज की स्थिति में शर्मिंदा न होना पड़ें। आप कहते रहिए कि हम विश्वगुरु थे। वैश्विक रैंकिंग में दुनिया के 300 विश्वविद्यालयों में एक भी विश्वविद्यालय भारत का नहीं। 2012 के बाद पहली बार टॉप- 300 में भारत का कोई विश्वविद्यालय नहीं है। 92 देशों के 1396 संस्थानों में भारत का नंबर 300 के नीचे आता है। केवल आईआईटी रोपड़ को ग्लोबल रैंकिंग में टॉप- 350 संस्थानों में जगह दी जाती। तो वेदों- पुराणों, उपनिषदों में महानता की खोज करने वाले कोलंबस कहाँ है? क्या वो बताएंगे कि अगर हम इतने ही महान थे तो विकास के कालखंड में हमारी वो महानताएँ कहाँ जमींदोज हो गई हैं। 337 प्रायवेट यूनिवर्सिटी, 400 राज्य विश्वविद्यालय, 126 डीम्ड यूनिवर्सिटी, 48 सेंट्रल यूनिवर्सिटी, 31 एनआईटी, 28 आईआईटी और 19 आईआईएम यानी कुल संस्थान 984 और कुल छात्र 3.66 करोड़। लेकिन पढ़ाई- लिखाई के संसार में न तो हमारी कोई साख है और न कोई महत्व। तो सिर्फ़ इतिहास का ककहरा पढ़ाते हुए यह मत बताएं कि हम गणेश जी की गर्दन पर हाथी का माथा जोड़ देते थे। जरूरत है राष्ट्र की समृद्धि और विकास के लिए शिक्षा में बदलाव और शोध को बढ़ावा देने की।

    भारत में सरकार के स्तर पर विभिन्न क्षेत्रों में अनुसन्धान एवं विकास ( आर एंड डी) पर बहुत कम निवेश पर संसद की स्थायी समिति ने चिंता व्यक्त करते हुए इस दिशा में तत्काल निजी क्षेत्रों को साथ लाकर शोध को बढ़ावा देने के उपाय लागू करने की सिफारिश की है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय संबन्धी संसदीय स्थायी समिति ने वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसन्धान विभाग से सम्बंधित प्रतिवेदन में केंद्र सरकार द्वारा आर एंड डी पर किए गए निवेश का स्तर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज 0.6 प्रतिशत होने पर चिंता जताई है। राज्यसभा सदस्य आनंद शर्मा की अध्यक्षता वाली समिति की रिपोर्ट में अन्य देशों की तुलना में भारत में अनुसन्धान और विकास पर निवेश को बहुत कम बताते हुए कहा गया कि केंद्र सरकार द्वारा निवेश को पर्याप्त मात्रा में बढ़ाएं जाने की तत्काल जरूरत है। रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका में सरकार के स्तर पर अनुसंधान और विकास पर कुल जीडीपी का 2.8 प्रतिशत, चीन में 2.1 फ़ीसदी, इजरायल में 4.3 प्रतिशत और दक्षिण कोरिया में 4.2 फीसदी ख़र्च होता है। इतना ही नहीं समिति ने कहा कि वैज्ञानिक रिसर्च और विकासमें महिलाओं की आबादी तो बहुत ही कम है।8

     ऐसे में अगर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष सुखदेव थोराट कहते हैं, कि यदि हम वर्तमान प्रमाणों के आधार पर बात करें तो बड़ी संख्या में विश्वविद्यालय NAAC के मानकों की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। इसलिए इन संस्थाओं के भौतिक एवं शैक्षिक आधारभूत संरचना में तत्काल सुधार करने की आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में कॉलेजों एवम राज्यस्तरीय विश्वविद्यालयों का पुनरूत्थान समय की मांग है।इसके अलावा जेपी नायक के शब्दों में- “हमने प्रायः गुणात्मक कार्यक्रमों को भी संख्यात्मक कार्यक्रमों में बदल दिया है।”10

 फ़िर अगर हमें और हमारी व्यवस्था को  राष्ट्र को पुष्पित और पल्लवित होते हुए देखना है, तो राष्ट्र निर्माण में शोध की भूमिका को पहचानना होगा। इसके अलावा शोध को हर क्षेत्रों में बढ़ावा देकर ही एक भारत और श्रेष्ठ भारत बनाया जा सकता।।

 

संदर्भ सूची:-

  • दैनिक जागरण अखबार में प्रकाशित ख़बर, 11 जनवरी, 2020, दिन- शनिवार
  • डॉक्टर बी.आर अम्बेडकर और राष्ट्र निर्माण, लेखक- डॉ. राकेश कुमार, पृष्ठ संख्या- 7
  • डॉक्टर बी.आर अम्बेडकर और राष्ट्र निर्माण, लेखक- डॉ. राकेश कुमार, पृष्ठ संख्या- 7
  • यूजीसी नेट पत्रकारिता एवं संचार, अरिहंत प्रकाशन
  • पर्यटन- सिद्धांत और प्रबंधन तथा भारत में पर्यटन, लेखक- शिवस्वरूप सहाय
  • मैं सत्यकाशी से कल्कि महावतार बोल रहा हूँ, लेखक- लवकुश सिंह “विश्वमानव”

 

  • मानव संसाधन मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा दैनिक जागरण को लिखें लेख का अंश। प्रकाशन तिथि 11 नवम्बर 2019
  • इंडिया टीवी के डिजिटल प्लेटफॉर्म पर 6 जनवरी 2019 को प्रकाशित रिपोर्ट के अंश
  • योजना, मई, 2007 पृष्ठ संख्या- 19
  • NAIK, JP. एजुकेशनल प्लानिंग इन इंडिया, पृष्ठ संख्या- 22

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