अकबर की धार्मिक नीति

जुगनू आरा
अतिथि शिक्षक
इतिहास विभाग
राजेंद्र कालेज,टक्कड़ मोड, छपरा, बिहार 841301
मोबाइल नंबर दृ 6203501821

सारांश

मुगल बादशाहों की धार्मिक नीति में अकबर की धार्मिक नीति श्रेष्ठतम माना गया है। अकबर की नीति पूर्णतया धार्मिक सहिष्णुता की थी। उसकी धार्मिक नीति सभी के धर्मो को एक साथ लेकर चलने की थी दिल्ली के सुल्तानों और बादशाहों में इस नीति को आरम्भ करने वाला अकबर था। सभी धर्मो और अध्यात्मिक आन्दोलन के प्रति उदारता और सक्रिय सहानुभूति एवं सहायता का प्रयत्न प्रान्तीय राज्यों के द्वारा तो कभी-कभी किया भी गया था परन्तु दिल्ली और आगरा के बादशाहों ने यह प्रयत्न कभी नही किया गया था। अकबर प्रथम शासक था जिसने शासन के आरम्भ से ही धीरे-धीरे सभी धर्मो और आध्यात्मिक आन्दोलनों के प्रति प्रगतिशील उदारता और सक्रिय सहानुभूति की नीति को अपनाया। है। मुगल- साम्राज्य को वास्तव में भारत में स्थापित करने, उसका विस्तार करने और उसे स्थायित्व प्रदान करने का श्रेय अकबर का है इसके अतिरिक्त राजस्व और शासन में जिन नवीन और उदार सिद्धान्तों का उसने प्रतिपादन किया वह उसे भारत में ही नही बल्कि सम्पूर्ण विश्व के महान शासकों में स्थान प्रदान करता है। निःसंदेह, अकबर ने अपने राजवंश को स्थायित्व प्रदान किया और शासन के उन सिद्धान्तों का व्यवहारिक दृष्टि से प्रयोग किया।

मुख्य शब्द – अकबर, धार्मिक नीति, सद्भावना

शोध प्रश्न: क्या वर्तमान समय में भी अकबर की धार्मिक नीति प्रासंगिक है ?

शोध का उद्देश्य: अकबर की धार्मिक नीति के साथ-साथ अन्य धर्मों के बीच उत्त्पन्न एकता का अध्ययन करना।

शोध प्रविधि

शोध विषय मुख्य रूप से गुणात्मक पद्धति से संबंधित होने के साथ-साथ प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषणात्मक अध्ययन किया जाएगा।

तथ्यों का संकलन

द्वितीयक स्रोत का प्रयोग करते हुए प्रकाशित एवं अप्रकाशित दोनों प्रकार के सामग्रियों का प्रयोग किया गया है।

विश्लेषण

प्रस्तुत शोध विषय से संबंधित विभिन्न मुद्दों पर आधारित होने के कारण विमर्श विश्लेषण का प्रयोग करते हुये शोध पेपर को पूरा करने का प्रयास किया गया है।

प्रस्तावना

अकबर – एक परिचय

अमरकोट के राजा वीर साल के यहाॅ 15 अक्टूबर, 1542 ई. को1 कार्तिक मास की छठ को हुआ। जन्म स्थल अमर कोट का दुर्ग था। उस समय शाही सेना ठट्ठा देश को दबाने के लिये कूच कर चुकी थी। और बेगम मरियम मकानी को दुर्ग में ही रहने दिया क्योकि उस समय प्रसव समय निकट था। जन्म होते ही संदेश वाहक बादशाह को सूचना देने के लिये भेजे गये उस समय हुमायूॅ का शिविर 16 मील दूर था। समाचार मिलने पर बादशाह ने पृथ्वी पर मष्तिष्क टिका कर ईश्वर को प्रणाम किया उसने स्वयं अकबर की जन्म कुण्डली बनवायी।2 यह वह समय था जब हुमायूॅ शेर शाह से परास्त होकर सिन्ध में इधर-उधर भटक रहा था। तीन वर्ष की आयु में अकबर की भेट अपने पिता से पुनः उस समय हुई जब हुमायूॅ ने कांधार और काबुल पर अधिकार कर लिया यहीं उसका नाम जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर रखा गया। अकबर ने साहित्यिक शिक्षा में कोई रूची नही दिखाई यद्यपि घुड़सवार और अस्त्र शस्त्र चलाने में वह निपुण हो गया था। उसने गजनी और लाहौर के सुबेदार के रूप में काम किया और हुमायूॅ की मृत्यु के अवसर पर वह पंजाब में सिकंदर सूर को समाप्त करने में प्रयत्नशील था। हुमायूॅ की मृत्यु की सूचना मिलने पर पंजाब में गुरूदास पुर जिलेे के निकट कलानौर नामक स्थान पर चैदह फरवरी 1556 ई. को अकबर को मुगल बादशाह घोषित किया गया उसका राज्याभिषेक बैरम खां की देखरेख में मिर्जा अबुल कासिम ने किया। उस समय अकबर 14 वर्ष की आयु को भी पूरा नही कर पाया था। 3 अकबर को अपने पिता से कांटो का ताज प्राप्त हुआ। उस समय बदरख्शॅा सुलेमान के अधीन था। जो खान मिर्जा का पुत्र था। काबुल, गजनी, और हिन्दूकुश से सिन्धु नदी तक का प्रदेश मुनीम खाॅ के अधीन था। कांधार और उसके अधीन इलाके बैरम खाॅ के अधीन थे।4भारत में दिल्ली, आगरा और इनके निकट के भागो के अलावा मुगलों के हाथ कुछ नही था। ग्वालियर, मालवा, बिहार, बंगाल, गुजरात, आदि प्रदेश में अफगान स्वतंत्र हो गये थें। राजस्थान में जोधपुर के शासक मालदेव अभी जीवित था उसके अलावा मेवाड़, अंबर, जैसलमेर, आदि के शासको ने अपनी शक्ति पुनः एकत्रित कर लिया था। इस प्रकार 13 वर्षीय अकबर के लिये ये सभी परिस्थितियाॅ कठिन थीं।5अकबर ने अपने समकक्ष बैरम खाॅ को अपना वकील नियुक्त किया और उसे खान ए खाना की उपाधि से विभूसित किया। अगले चार वर्ष एक प्रकार से अकबर की नही बल्कि बैरम खाॅ की सत्ता के वर्ष थे।6 इस प्रकार बैरम खाॅ के संरक्षण का चार वर्ष का समय सफलता, सुरक्षा, संगठन, का था। काबुल से लेकर जौनपुर तक और पंजाब की पहाड़ियों से लेकर अजमेर तक ने अकबर की सत्ता को स्वीकार कर लिया।7अकबर अब धीरे-धीरे बड़ा हो रहा था जबकि बैरम खाॅ का व्यवहार अकबर के प्रति अल्पायु बालक जैसा था। बाद में अकबर शासन का भार अपने उपर ले लिया और बैरम खाॅ को उसके पद से हटा दिया गया। बाद में बैरम खाॅ का पतन हो गया।8मुगल बादशाहों की धार्मिक नीति में अकबर की धार्मिक नीति को श्रेष्ठतम माना गया है। अकबर की नीति पूर्णतया धार्मिक सहिष्णुता की थी उसकी धार्मिक नीति ‘सुलहकुल‘ (सभी के साथ शांति ) के सिद्धान्त पर आधारित थी। सभी धर्मो और आध्यात्मिक आन्दोलनों के प्रति उदारता और सक्रिय सहानुभूति एवं सहायता का प्रयत्न प्रान्तीय राज्यों के द्वारा कभी-कभी भी किया गया था। अकबर प्रथम शासक था जिसने शासन के आरम्भ में धीरे-धीरे सभी धर्मो और आध्यात्मिक आन्दोलन के प्रति प्रगतिशील उदारता और सक्रिय सहानुभूति की नीति को अपनाया।9अकबर के उदार धार्मिक विचारों और धार्मिक सहिष्णुता की नीति के निर्माण में परिस्थ्तिियों ने सहायता दी। अकबर का पिता हुमायूॅ उदार सुन्नी था। अकबर की माता शिया थी। अकबर का संरक्षक बैरम खाॅ शिया था। आरम्भ के काल में ही अकबर उदार सूफी संतो के सम्पर्क में आया था। अकबर का शिक्षक अब्दुल लतीफ धार्मिक विचारों में इतना उदार था। अकबर का भारतीय जीवन से सम्पर्क पंजाब से आरम्भ हुआ जहाॅ गुरूनानक जैसे धर्म प्रचारक इस हिन्दू और इस्लाम धर्म की एकता मंे विश्वास करना सिखा रहे थे। भक्ति आन्दोलन के अन्य विभिन्न धर्म प्रचारक की सभी जातियों और धर्मो की समानता और धार्मिक सहिष्णुता और ईश्वर प्रेम का प्रचार कर रहे थे। इस प्रकार अकबर का लालन पालन और शिक्षा उदार वातावरण में हुई और व्यक्ति आरम्भ में उसके सम्पर्क में आये। वह उसके विचारों को उदार बनाने वाले थे। अकबर पर अपने युग का प्रभाव पड़ा। अकबर ने अपने शासन के आरम्भ में 1562 ई. में दास प्रथा को समाप्त कर दिया, 1563 ई. में तीर्थ यात्रा कर, 1564 ई. में जजिया को समाप्त कर दिया।10

अकबर की धार्मिक नीति

ऐसा नही है कि अकबर प्रारम्भ से ही उदार और सहिष्णु धार्मिक नीति का उद्घोषक बन गया। उसकी राष्ट्र निर्माणकारी धार्मिक नीति का विकास उसके धार्मिक विचारों में परिवर्तन के साथ- साथ हुआ। और यह परिवर्तन एकाएक नही बल्कि क्रमिक विकास रूप में हुआ। प्रारम्भ में अकबर इतना उदार और सहिष्णु नही था। इस्लाम के प्रति उसमें अगाध्य आस्था थी किन्तु विभिन्न परिस्थितियों राजनीतिक घटनाक्रमों आदि से उसके धार्मिक दृष्टिकोण में धीरे-धीरे परिवर्तन आया। अकबर के धार्मिक विचारों के उस परिवर्तन और विकास को मोटे रूप से हम क्रमशः चार चरणों में बाॅट सकते हैं।

प्रथम – 1556 ये 1562 तक जिसमे वह इस्लाम का लगभग कट्टरक सुन्नी अनुयायी था।

द्वितीय – सन् 1562 से 1578 तक जिसमे विभिन्न परिस्थितियों से प्रभावित होकर उसने धार्मिक सहनशीलता की नीति का शुभारम्भ और विकास किया।

तृतीय – सन् 1578 से 1582 तक जिसमें उसने इबादतखानों की स्थापना।

चतुर्थ- सन् 1582 के बाद का काल जिसमें उसने सभी धर्मो को समान रूप से देखते हुए दीन-ए- इलाही की स्थापना की और इसके प्रसार के लिये कदम उठाये।11

हिन्दुओं के प्रति अकबर की नीति और धार्मिक सुधार

सन् 1562 में जब अकबर 20 वर्ष से भी कम उम्र का था उसने युद्धकालीन बंदियों को दास बनाने की प्रथा निषिद्ध कर दी। अकबर ने आदेश जारी किया कि जिन हिन्दुओं को इस्लाम स्वीकार करने पर बाध्य किया गया था वे पुनः हिन्दू धर्म अपना सकते हैं। सन् 1603 में एक फरमान जारी करते हुए ईसाइयों को अनुमति दे दी गयी कि वे इच्छुक व्यक्तियों को ईसाई बना सकते है।सन् 1563 में अकबर ने तीर्थ यात्रा कर को समाप्त कर दिया। 1564 में जाजिया को समाप्त कर दिया। अकबर ने सार्वजनिक पूजा गृहों के लिये भवन निर्माण पर लगे प्रतिबंध को भी हटा दिया। हिन्दुआंे को अपनी इच्छा अनुसार ईश्वर उपासना और मूर्ति पूजा करने की छूट दी गयी। अकबर कहा करता था- एक शासक के अधीन साम्राज्य में यदि जनता परस्पर विभक्त है और एक इधर जाता है और दूसरा उधर जाता है तो बड़ा दोष है। अतः हमको चाहिये कि हम सबको एक कर देे। अकबर ने धारणाओं पर प्रहार किया जो सांस्कृतिक समन्वय के मार्ग में रोड़ा थी। अकबर ने ऐसे बंधनों को तोड़ने का प्रयास किया। जो दोनो सम्प्रदायों को अलग रखते हैं उसने एक अनुवाद विभाग की स्थापना की इस विभाग को अन्य बातों के साथ-साथ हिन्दूओं की धार्मिक पुस्तकों का फारसी में अनुवाद करने का काम सौपा गया। अकबर ने गैर मुसलमानेां को राजनीतिक दुर्बलता को दूर करने का प्रयास किया। उसने योग्यता के अनुसार लोक सेवाओं में नौकरी दी।अकबर द्वारा हिन्दुओं और अन्य गैर मुसलमानों के धार्मिक संस्थाओं को आदर भाव और स्नेह से देखने लगा। हिन्दू लोग गाय को पवित्र मानते थे अतः अकबर ने गोमांस का प्रयोग निषिद्ध कर दिया। अकबर ने हिन्दुओं के रीति रिवाजों और खान-पान को भी अपनाया। उसने लहसुन,प्याज आदि का प्रयोग छोड़ दिया, हिन्दू उत्सवों में भाग लेने लगा सूर्य को नमस्कार करना तिलक लगाना भी शुरू किया।13शाही महलों में भी विष्णु, शिव, आदि की उपासना होने लगी। और अकबर स्वयं भी पति के रूप में अपनी बेगमों के धार्मिक कार्यो में सहयोग देने लगा। समय-समय पर हिन्दू भेष भूसा धारण करने भी लगा। उसका ध्येय हिन्दुओं और मुसलमानों के मेल मिलाप को बढ़ाना था। अकबर ने हिन्दुओं में प्रचलित विभिन्न बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया जिसमें बाल बिवाह, सती प्रथा आदि को रोकने का प्रयास किया। विधवा विवाह तथा अन्र्तजातीय संबंधों को प्रोत्साहन देने का प्रयास किया। हिन्दुओं के प्रति अकबर की इस उदार नीति के बड़े अच्छे परिणाम निकले। अब उदार पंथी हिन्दू मुगलों से प्रेम करने लगे और अपने आपको मुगल साम्राज्य का नागरिक समझने लगे। उनके हृदय से यह भय दूर हो गया कि मुगल शासक हिन्दुओं का पतन चाहते थे अब वे मुगल सम्राट को अपना संरक्षक मानने लगे। अकबर की नीति के कारण हिन्दू और मुस्लिम जातियों में पारस्परिक सद्भावनना बढ़ी।14

इबादतखाना (1575)

अकबर के धार्मिक सिद्धान्तों के विकास का दूसरा आयाम 1575 ई. में इबादतखाना की स्थापना से शुरू होता है जो धार्मिक विषयों पर वाद-विवाद के उद्देश्य से बनवाया गया था।15अकबर धार्मिक प्रवृŸिा का था और धर्म की सत्यता को जानने के लिये वह जिज्ञासु भी था। ‘‘बादशाह कभी – कभी सम्पूर्ण रात्रि खुदा को याद करते हुए बिता दिया करता था।‘‘ उसने अजमेर के ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के दरगाह की निरन्तर यात्रायें की थी और वह फतेहपुर सिकरी के संत सलीम चिश्ती के प्रति भी बहुत श्रद्धा रखता था। धर्म की सत्यता को जानने की उत्सुकता के कारण उसने ‘इबादतखाना ‘ बनवाया, सभी धर्मो के विद्वानों को वहाॅ आने का निमंत्रण दिया और व्यक्तिगत रूप से ईसाई, जैन, पारसी, और हिन्दू विद्वानों के संपर्क में आया।16अपने समय के महान विद्वान हीरा विजय सूरी, जिनचंद्र सूरी, शांतिचंद्र, विजयसेन सूरी आदि को अकबर ने दरबार में आमंत्रित किया। अकबर जैन धर्म के हिंसा के सिद्धान्त से बहुत प्रभावित हुआ। महान पारसी विद्वान दस्तूर जी मेहरजी को अकबर ने इबादतखाने में वाद विवाद के लिये आमंत्रित किया। पारसी धर्म के सम्पर्क में आकर अकबर ने अग्नि और सूर्य को दण्डवत् करना आरम्भ कर दिया।17इबादतखाने में होने वाले वाद विवादों के विषय विविध प्रकार के थे। यहाॅ तक कि वहाॅ ऐसे विषयों पर भी विचार होता था कि किसी व्यक्ति को कानूनी तौर पर कितने विवाह करने का अधिकार है। इस प्रकार के विषयों का समीक्षा, जो उस समय के हिसाब से आश्चर्यजनक थी अकबर को अत्यन्त रूचिकर लगती थी। शुरू मे वादविवाद केवल सुन्नी मत के इर्द गिर्द तथा उनके अनुयायिओं तक ही सीमित था किन्तु बाद में शिया मत के अनुयायी मुल्लाओं को भी वाद विवाद में शामिल होने का मौका मिलने लगा बाद में भारतीय भौतिकतावादी, दार्शनिक तथा संशयवादियों, ईसाईयों, यहूदियों तथा जोरस्त्रियों आदि के लिये भी इबादतखाने के द्वार खोल दिये गये। वाद विवाद में अबूल फजल की प्रमुख भूमिका थी। परम्परावादी सुन्नी उलमा के विपक्ष में विभिन्न वर्गो को सक्रिय करने का कार्य उसी का था वह बहुत से विषयों पर उलमा की संकीर्णताओं तथा अज्ञान का भांडा फोड़ता था।18इबादतखाने में होने वाले वाद विवाद में अकबर के धार्मिक विचारो के विकास में गहरी भूमिका निभायी।वाद विवाद का दूसरा महत्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि अकबर की दृढ़ धारणा बन गयी कि ज्ञानी पुरूष सभी धर्मो में पाये जाते हैं। तथा यह कि सत्य किसी एक वर्ग धर्म की विशेषकर इस्लाम की बपौती नही है।19अकबर के उदार विचारो का प्रत्यक्ष परिणाम यह परिलक्षित हुआ कि सब धर्मो के धर्मनिष्ठ लोगो के प्रति समान ध्यान दिया जाने लगा।20

मजहर (16 जून, 1579)

अकबर द्वारा धीरे-धीरे अपने हाथों मे सत्ता को केन्द्रित करने एवं हिन्दू व अन्य गैर मुस्लिम धर्मावलम्बियों का समर्थन प्राप्त करके मुगल राज्य को सुदृढ़ आधार प्रदान करने के प्रयासो के कारण राजनीति में उलमा की शक्ति में कटौती होना स्वाभाविक ही था। अब्दुन नबी द्वारा एक ब्राहम्ण को पैगम्बर का तिरस्कार करने के अपराध में मृत्युदंड दिये जाने की घटना ने बादशाह तथा धर्म शास्त्रियों के मध्य के तनावों को और भी तीब्र बना दिया। यद्यपि अकबर स्पष्ट रूप से वध की मनाही नही की किन्तु उसने सम्भवतः यह जाहिर कर दिया कि ब्राहम्णों को इतनी भारी सजा नही मिलनी चाहिये। इस घटना से लगता है कि सदर उस सुदूर की कार्यवाही को उसने उलमा द्वारा अपनी सŸाा के प्रति स्पष्ट चुनौती समझा।21अकबर ने उसी समय यह निश्चय कर लिया कि उलमा के प्रभाव को समाप्त करने का एकमात्र उपाय यह था कि वह सर्वोच्च आध्यात्मिक तथा भौतिक शक्तियों को इस्लाम द्वारा अनुमोदित दायरों के अन्तर्गत स्वयं में केन्द्रित करें। 1579 की दो महत्वपूर्ण कार्यवाहियों अकबर के नवीन उद्पश्यों का प्रतिक बन कर आयी। इबादतखानों में बहस के दौरान यह जिक्र आया कि प्रथम चार खलीफा जुम्मे की नमाज के समय स्वयं रूतबा पढ़ते थे।22अकबर की इस उत्सुकता का परिणाम था कि उसे भारत के रूढ़ीवादी मुसलमानों के एक मात्र प्रधान के रूप में मान्यता प्राप्त हो।23जून 1579 ई. में अकबर ने स्वयं खुतबा पढ़ा जो ‘अल्लाह हो अकबर‘ शब्दों को समाप्त हुआ। जिनका अर्थ था कि ‘खुदा महान‘ । कुछ समय बाद अकबर ने 1579 में ई. में मजहर पढ़ा। अबुल फजल के पिता शेेख मुबारक ने तैयार किया था। और प्रमुख मुसलमान धार्मिक व्यक्तियों ने इस पर हस्ताक्षर किये थे। इसके द्वारा इस्लाम धर्म से संबंधित विवादों के बारे में निर्णय करने का अधिकार अकबर को दे दिया गया। मजहर के द्वारा अकबर को यह अधिकार प्राप्त हुआ कि मतभेद होने पर इस्लाम के सिद्धान्तों के बारे में वह अन्तिम निर्णय कर सकता था यद्यपि कुरान के विरूद्ध नही होना चाहिये।24अकबर को प्रजा की भलाई के लिये कोई भी फरमान जारी कर सकता था। बादशाह को सुल्ताने आदिल(न्यायप्रिय शासक ) की उपाधि दी गयी।25मजहर ने घोषित किया कि न केवल मुसलमान कानून की रूढ़ीवादी शाखाओं के बीच बल्कि विभिन्न धर्मो तथा पंथों के बीच भी बादशाह की भूमिका निर्णायक की होती है।26

दीन­ ए इलाही (1582)

अकबर के सूफी धर्म के प्रति झुकाव नें ही विश्व के प्रति एक विशद व उदार दृष्टिकोण अपनाने को प्रेरित किया अकबर का यह विचार पद्धिति तौहीदे इलाही (दैवी एकश्वरवाद) के निरूपण में योगदान दिया।271582 ई. में अकबर ने ‘तौहीद ए इलाही‘ उर्फ दीन – इलाही की स्थापना की। 1583 ई. में एक नये कैलेन्डर इलाही संवत को जारी किया गया।28अकबर के विचारों का मुख्य आधार यह था कि सभी धार्मिक विषयों में अनुकरण की अपेक्षा तर्क का अधिक महत्व है। उसका विश्वास था कि आस्था तथा आचरण में अंतर के कारण ही सभी धर्मो में भ्रामक विभिन्नतायें पैदा हो गयी है इसीलिये उसने हिन्दुओं की मूर्ति पूजा तथा मुस्लिमों के उपासना के तरीको की आलोचना की थी। अकबर का विचार एक ऐसी उपासना पद्धति का निर्धारण करना था जो कट्टरपंथी इस्लाम तथा हिन्दू धर्म की पद्धतियों से भिन्न हो। सूफियों के समान ही उसका विश्वास था कि ईश्वर की उपासना विभिन्न लोगो द्वारा अपनी ज्ञान क्षमता के अनुरूप की जाती है ईश्वर की कोई आकृति नही है तथा अत्यधिक मानसिक चिंतन के द्वारा ही अनुकरणीय है वस्तुतः उपासना मन से ही की जानी चाहिये।29अकबर का विश्वास था कि ईश्वर और पार्थिव जीवों के मध्य गहरा संबंध है व यह कि शासक के रूप में उसका ईश्वर से प्रत्यक्ष संबंध है अर्थात इस संबंध की स्थापना में धर्म रूपी माध्यम की आवश्यकता नही हैं। अबुल फजल इस सम्प्रदाय का प्रधान पुरोहित बना। जो भी इस सम्प्रदाय का सदस्य होना चाहता था वह किसी भी रविवार के दिन बादशाह के पास जाकर उसके कदमों में अपनी पगड़ी रखता था। बादशाह उसे एक ‘शिस्त‘ प्रदान करता था जिस पर खुदा का नाम ‘अल्लाह हो अकबर‘ खुदा होता था। इस प्रकार उस व्यक्ति को इस सम्प्रदाय का सदस्य बनाया जा सकता था। इस सम्प्रदाय के सदस्यों से अग्रलिखित नियमों और व्यवहार का पालन करने की अपेक्षा की जाती थी।

वे आपस में अभिवादन के लिये ‘अल्लाह हो अकबर‘ और ‘जल्ले-जलालेहु‘ शब्दों का प्रयोग करें
जहाॅ तक सम्भव हो माॅस का प्रयोग न करें
कम आयु की लड़कियों अथवा वृद्धा स्त्रियों के साथ विवाह न करें

दस सद्गुणों को ग्रहण करें वे गुण थे

क्षमा
उदारता
सांसारिक इच्छाओं का दमन
सांसारिक मोह से स्वतन्त्र होने की इच्छा
अपने कार्यो का पुनः अवलोकन
सद्कार्यो को करने की इच्छा
सद्व्यवहार
मीठी भाषा और शब्दों का प्रयोग31
सांसारिक जीवों का त्याग तथा ईश्वर से प्रेम
आत्मा का ईश्वर से मिलने के लिये प्रयत्न
‘एक पत्नी व्रत का पालन करे
जुआ न ख्ेाले और न कोई नशा करें
विधवा विवाह को प्रोत्साहन दें

उपसंहार

इस प्रकार दीन इलाही की स्थापना में अकबर का उद्देश्य उदार था और उसके प्रचार में भी उदार रहा। विभिन्न धर्मो को मानने वाले अपनी प्रजा को वह एकता और धार्मिक सहिष्णुता का पाठ सिखानाा चाहता था।अकबर की धार्मिक नीति का परिणाम बहुत लाभदायक रहा। अधिकांश भारतीय जनता ने उसकी धार्मिक सहिष्णुताकी नीति का हृदय से स्वागत किया। परन्तु एक छोटा वर्ग ऐसा भी था जिसने अकबर की इस नीति का विरोध किया वह वर्ग था इस्लाम के कट्टर समर्थकों का जो अकबर से इस्लाम की श्रेष्ठता स्थापित करने की अपेक्षा करते थे। उन्होने मुसलमान प्रजा को अकबर के विरूद्ध भड़काया और यह प्रचार कियाकि अकबर ने इस्लाम धर्म को त्याग दिया परन्तु यह सब प्रयत्न असफल हुए।32 और अंत में अकबर की धार्मिक नीति को अधिकांश व्यक्तियों ने भी स्वीकार कर लिया।भारत की बहुसंख्यक हिन्दू जनता उदार मुसलमान पारसी जैन आदि धर्मावलम्बियों ने अकबर की इस नीति का समर्थन किया और वे सभी अकबर और मुगल साम्राज्य के प्रति वफादार हो गये।

सन्दर्भ ग्रन्थ

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