मुंशी ज़का उल्लाह और डिप्टी नज़ीर अहमद के शैक्षिक कार्य

अब्दुल अहद 
पीएच.डी. शोधार्थी
इंदिरा गाँधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी (IGNOU)
ईमेल : ahada9210@gmail.com

सार संक्षेप

इस पेपर में हमारे द्वारा दिल्ली के 19 वीं शताब्दी के दो महत्वपूर्ण विद्वान मुंशी जका अल्लाह (1832-1910) और डिप्टी नज़ीर अहमद(1830-1912) के शैक्षिक प्रयासों का उल्लेख किया जाएगा। इसके अन्तर्गत हम देखेंगे कि उनके यह प्रयास किस तरह अंग्रेजों व सर सय्येद के प्रयासों से अलग थे और उनके द्वारा यह शैक्षिक कार्य क्यों अंजाम दिए जा रहे थे। इस पेपर पर शोध करने से यह सामने आता है कि इन दोनों मुस्लिम विद्वानों के प्रयासों से एक तरह से अंग्रेजों व सर सय्येद के प्रयासों की ही पूर्ति हो रही थी। लेकिन सर सय्येद के प्रयासों को ज्यादा लोकप्रियता मिली और इन दो विद्वानों को कम। ज़का उल्लाह व नज़ीर अहमद ने आधुनिकता की किस तरह एक अलग परिभाषा व दायरा तैयार किया इसको भी हम देखेंगे। अर्थात इन दोनों विद्वानों ने आधुनिक शिक्षा का उपयोग भारतीयता के सन्दर्भ में किया है यानि की उन्होंने पश्चिमी विज्ञान, गणित, प्राच्य शिक्षा, ऊर्दू शिक्षा का प्रयोग इत्यादि पहलुओं पर काम किया। इन पहलुओं को मुसलमान लोगों के मध्य लागू कराने के लिए उनके द्वारा प्रयास किए गए। इन प्रयासों में पाठ्यपुस्तकों का ऊर्दू में अनुवाद करना भी एक अहम पहलू था।

बीज शब्द: शिक्षा, आधुनिकता, अनुवाद, समुदाय, विज्ञान, गणित

भूमिका

19वीं सदी में शिक्षा से सम्बन्धित बहुत से बदलाव घटित हो रहे थे। मुस्लिम समुदाय के लोगों में भी यह प्रशन सामने आ रहा था कि वह किस तरह की शिक्षा प्राप्त करें और किस भाषा में। यह प्रशन वर्तमान समय में भी समुदाय के लोगों के सामने व्याप्त है कि वह अपने बच्चों को स्कूलों में भेजे या फिर मदरसों में। समुदाय के लोगों की इस मनो दशा का आरम्भ 19वीं शताब्दी में हुआ था। उस समय समुदाय के लोगों को शिक्षित करने के लिए अलग-अलग समूहों द्वारा आन्दोलन चलाए गए। इनमें एक आन्दोलन अलीगढ़ का रहा और दूसरा देवबंद का। अलीगढ़ आन्दोलन ने आधुनिक पश्चिमी शिक्षा का महत्व लोगों को समझाने व नौकरी आधारित शिक्षा अर्जित करने पर ध्यान दिया वहीं देवबंद आन्दोलन ने मदरसों की स्थापना कर समुदाय के लोगों में इस्लाम धर्म के आधारभूत बिन्दुओं के प्रति जाग्रति के लिए जोर दिया। इसीलिए इन मदरसों ने स्वंय को अधिकांश रूप से धर्मशास्त्रीय प्रकार की शिक्षा प्रदान करने पर केन्द्रित किया। जका उल्लाह का झुकाव पश्चिमी प्रकार की शिक्षा पर था उसमें भी विज्ञान व गणित जैसे विषयों के अध्ययन पर। इससे स्पष्ट होता है कि ज़का उल्लाह वैज्ञानिक तर्क पद्धति को समाज में आम करना चाहते थे। जिसमें अनुमान व प्रयोगों पर जोर दिया जाता था।

ज़का उल्लाह ने वैसे तो बहुत से शैक्षिक कार्य किये लेकिन हमारा केंद्र इस पेपर में मुख्य रूप से उनके अनुवाद के कार्यों को समझना है कि आखिर उन्होंने क्यों इस तरह के अनुवाद के प्रोजेक्ट में भाग लिया। इसी तरह डिप्टी नज़ीर अहमद के विभिन्न शैक्षिक कार्यों का उल्लेख अपने इस पेपर में करेंगे।

दिल्ली कॉलेज का ऊर्दू भाषा में अनुवाद का कार्य

दिल्ली कॉलेज के अंतर्गत अनुवाद का प्रोजेक्ट बहुत अहम था। यहाँ पर एक विचार काम कर रहा था कि उच्च शिक्षा ऊर्दू भाषा में दी जाए जो कि इस प्रोजेक्ट की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता थी। 1840 व 1850 के दशक में दिल्ली कॉलेज से जुड़े हुए कुछ अध्यापकों व शोधकर्ताओं ने इस प्रोजेक्ट में भाग लिया था। इनमें मास्टर रामचन्द्र सबसे अहम व्यक्ति थे। वह एक प्रसिद्ध गणितज्ञ थे। सदीकुर्ररहमान ने मास्टर रामचन्द्र पर लिखी, लाइफ एंड आईडिया ऑफ़ मास्टर रामचंद्रा पुस्तक में दिखाया कि मास्टर रामचन्द्र चाहते थे कि उच्च शिक्षा ऊर्दू में ही केवल प्रदान की जाए, विशेष रूप से उत्तरी भारत में। इससे हम अनुमान लगा सकते है कि उनके लिए आधुनिकता का विचार केवल अंग्रेजी को सीखना नहीं था।[1]

दूसरा, ऊर्दू में वैज्ञानिक व गणित के प्रबंधनों (Treaties) का अनुवाद करना एक अन्य अहम पहलू था। अंग्रेजी व अन्य यूरोपीय भाषाओं से इन ग्रन्थों का ऊर्दू में अनुवाद किया गया। चूँकि दिल्ली की पहचान 19 वीं शताब्दी के मध्य में मुशायरे और यहाँ रहने वाले प्रसिद्ध कवियों के रूप में ही थी, दिल्ली के इस माहोल में, दिल्ली कॉलेज में ऊर्दू में वैज्ञानिक ग्रन्थों का अनुवाद करना बड़ा महत्वपूर्ण था। इन ग्रन्थों में वनस्पति विज्ञान, जंतु विज्ञान, खगोलशास्त्र, भूगोल व गणित इत्यादि विषय शामिल थे। और हम देखते है कि 1860 के बाद यह प्रोजेक्ट व्यवहार्य नहीं रहा।

हम देखते है कि ऊर्दू भाषा में अनुवाद के इस कार्य में मास्टर रामचन्द्र की भूमिका बहुत ज्यादा है क्योंकि उन्होंने आधुनिकता को समझा व आधुनिक शिक्षा पर विचार किया। इस प्रकार की आधुनिक शिक्षा में वह क्लासिकल पारम्परिक विषयों को भी सम्मिलित करते थे। लेकिन ऐसे विषयों के बारे में उन्होंने आलोचनात्मक नजरिया अपनाया और जो विषय जरुरी थे उनको ही अध्ययन के लिए शामिल किया। ऊर्दू भाषा का उपयोग इसके अंतर्गत करना इसका महत्वपूर्ण पहलू था। हालाँकि, अंग्रेजी पर भी बराबर ध्यान दिया जा रहा था।

ऊर्दू भाषा में अनुवाद के इस कार्य के सन्दर्भ में, अरबी सीखने पर ज्यादा ध्यान दिया गया न कि फारसी पर। क्योंकि अधिकांश वैज्ञानिक ग्रन्थ अरबी भाषा में ही थे। और अब ऐसी पुस्तकों के अध्ययन पर फिर से जोर दिया गया। फारसी थी, लेकिन इसका अब पतन हो रहा था। यह माना जाता था कि पत्राचार व राजकीय कार्यों के लिए जहाँ फारसी का उपयोग किया जाता था वहीं विज्ञान जैसे क्षेत्रों में उच्च अध्ययन के लिए अरबी का इस्तेमाल किया जाता था। इससे बहुत सी विज्ञान की पुस्तकों का अरबी भाषा से ऊर्दू भाषा में अनुवाद किया जा रहा था।

मुशीरुल हसन ने लिखा है कि 1857 के विद्रोह के बाद, आधुनिकता को अपनाने के साथ, न केवल वह सुंदर लेख लिख रहे थे बल्कि औपनिवेशिक राज्य की नीतियों की आलोचना भी कर रहे थे। अर्थात ये ब्रिटिश सरकार की नीतियों को आधुनिकता का पर्याय नहीं मान रहे थे बल्कि आधुनिकता को अपनी शैली में अभिव्यक्त करने का प्रयास कर रहे थे इन प्रयासों में ब्रिटिश सरकार की ऐसी नीतियों का विरोध कर ऐसी नीति को अपनाना था जिसमें कि यहाँ के निवासियों को अधिकतम शिक्षा प्राप्त की जा सके। तो इस तरह, आधुनिकता की एक जटिल समझ भी सामना आ रही थी।

  1. मुंशी ज़का उल्लाह

मुंशी ज़का उल्लाह का जन्म 1832 में दिल्ली में हुआ। उनके दादा हाफ़िज़ मोहम्मद सनाउल्लाह का ज्ञान के क्षेत्र में काफी ऊँचा कद था और उनका प्रभाव ज़का उल्लाह के युवा मस्तिष्क पर पड़ा। इनके साथ ही, ज़का उल्लाह पर उनके पिता का भी प्रभाव समान रूप से पड़ा। इस तरह ज़का उल्लाह के मस्तिष्क पर उनके खानदान का असर था।

जहाँ तक ज़का उल्लाह के प्रोफेशनल करियर की बात है तो उन्होंने शिक्षक के रूप में दिल्ली और उत्तर प्रदेश के कई कॉलेजों में पढ़ाया था जैसे दिल्ली कॉलेज और आगरा कॉलेज में (1855-69) के मध्य और इलाहाबाद के मूर केन्द्रीय कॉलेज (1872-86 ) में देशीय विज्ञान और साहित्य के प्रोफेसर के रूप में पढ़ाया था। इससे उनके विज्ञान के ज्ञान की पुष्टि तो होती ही है साथ ही उनको कॉलेजों में किस तरह की शिक्षा की जरूरत किस भाषा में है इसकी उनको भलीभांति जानकारी हो गई थी।

मुशीरुल हसन, एस. इरफ़ान हबीब से मत ग्रहण करते हुए लिखते है कि ज़काउल्लाह विज्ञान को एक ऐसे ज्ञान के रूप में वर्णित करते है जिसमें सत्य, निरंकुश सत्य और कुछ नहीं बस सत्य है। जकाउल्लाह अक्सर एंड्रयूज से बताते थे कि कैसे कॉलेज में वैज्ञानिक व्याख्यान अग्रसर होते थे और प्रत्येक व्याख्यान के बाद नोट्स कैसे अध्ययन किए जाते थे, और कई कई बार हाथों से उनकी नकल की जाती थी। यह एक पूर्ण रूप से मानव मस्तिष्क के अबूझ संसार में प्रवेश करने जैसा था। उत्साहपूर्वक शिक्षक, युवा विधार्थीयों को भी पढ़ाते थे। साथ ही, उनको अज्ञात रासायनिक गैसों के साथ प्रयोग करने की अनुमति दी गयी थी।

जब हम सर सय्येद अहमद के कार्यों की तुलना मुंशी ज़काउल्लाह के कार्यों से करते है तो देखते है कि जहाँ सर सय्येद मुस्लिम समुदाय में तरक्की के लिए अलीगढ़ आन्दोलन के माध्यम से एक मिशन स्तर पर कार्य किया वहीं ज़का उल्लाह ने स्कूलों में अकादमिक कार्यों में सुधार के लिए कार्य किया अर्थात उन्होंने स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली पाठ्यपुस्तकों को तैयार कराया जिसमें विज्ञान व गणित की ऊर्दू में अनुवादित पुस्तकें सम्मिलित थी। इसके साथ ही, हम देखते है कि 1857 के बाद मुंशी ज़काउल्लाह के विचार सर सयेद अहमद खान से कॉलजों व स्कूलों में भाषा के मसले पर भी अलग थे।

1.1 नज़ीर अहमद व मुंशी ज़काउल्लाह

नज़ीर अहमद और मुंशी ज़काउल्लाह दोनों 19वीं शताब्दी के अंत में दिल्ली में रहते थे और बचपन से ही अच्छे दोस्त भी थे। नज़ीर अहमद ने जका उल्लाह के बारे में काफी कुछ लिखा है। ज़का उल्लाह के बारे में वर्णन करते हुए नज़ीर अहमद लिखते है कि, अपने कॉलेज के दिनों में प्रोफेसर रामचन्द्र के अच्छे शिष्य थे जो अपनी पीढ़ी के महान गणितज्ञ थे। ज़का उल्लाह स्वयं गणित के जीनियस थे। इसका अहम कारण, प्रोफेसर रामचन्द्र के साथ बराबर समय व्यतीत करना था, जिससे उनके मन में गणित के प्रति दिलचस्पी ने ज़न्म लिया।

नज़ीर अहमद लिखते है कि मुंशी ज़काउल्लाह देशीय शैक्षिक विचारों के प्रति उत्साही थे। उन्होंने स्वंय ही ऊर्दू माध्यम से विज्ञान व गणित की शिक्षा प्राप्त की थी जैसे कि प्रोफेसर रामचन्द्र ने उन्हें पढ़ाया था। इसी का परिणाम था कि वह चाहते थे कि पाठ्य पुस्तकों को देशी भाषा में लिखा जाए[2] और वह स्वंय उनको लिखने के लिए तैयार भी थे। आगे अहमद लिखते है कि इस कार्य को करने के लिए उत्तरी भारत में, उनसे ज्यादा योग्य व्यक्ति को ढूँढना मुश्किल था।[3]

जका उल्लाह ने विचार किया कि ऐसी पाठ्यपुस्तकों को देशीय भाषा में लिखा जा सकता है। उनके इस प्रस्ताव को अलीगढ़ संस्था द्वारा स्वीकृत कर लिया गया। इस संस्था की प्रेस में ही, सर्वप्रथम उन्होंने रसायन, भोतिकी, प्रकाश, ऊष्मा और अन्य वैज्ञानिक विषयों पर साथ ही प्रारम्भिक और उच्च स्तर के गणित पर भी एक के बाद एक अंक प्रकाशित किए।[4]

मुंशी ज़का उल्लाह अंग्रेजी शिक्षा पद्धति से परिचित थे। वह समझते थे कि भारत के लोगों में आधुनिक ज्ञान विज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए यहाँ की देशीय भाषा ही सिद्ध होगी बशर्ते की अंग्रेजी भाषा। उनको लगता था कि अंग्रजी भाषा के माध्यम से इन विषयों को पढ़ाने में यहाँ के लोगों को ज्यादा मेहनत करनी होगी। एक तो अंग्रेजी भाषा को सीखने में उनका समय खर्च होगा और दूसरा विज्ञान जैसे कठिन विषयों को अंग्रेजी में ही समझना होगा। जका उल्लाह और उनके जैसे तमाम विचारकों ने अंग्रेजी भाषा की इस समस्या पर चिंता प्रकट की। अंग्रेजी भाषा के स्थान पर उनका जोर यहाँ की देशीय भाषा पर रहा। इस तरह उनके द्वारा ऊर्दू भाषा में अनुवाद के इस कार्य को अंजाम दिया गया।

नज़ीर अहमद लिखते है कि ज़का उल्लाह ने दृढ-निशचय के साथ स्वंय को आधुनिक वैज्ञानिक पुस्तक ग्रन्थों के ऊर्दु के अनुवाद के कार्य में लगाया। हालाँकि, अँग्रेजी कहानियों का ऊर्दू अनुवाद 1800 ई. में पहले ही शुरू हो चुका था और यह धीरे-धीरे पटना, फ़ैज़ाबाद, हैदराबाद, लखनऊ, दिल्ली व गाजीपुर में फैल गया। अब दिल्ली कॉलेज के अनुवाद के इस कार्य में मुंशी जका उल्लाह ने भाग लिया। इसके अंतर्गत विभिन्न विषयों का ऊर्दू भाषा में अनुवाद हो रहा था। विशेष रूप से इन विषयों में आधुनिक विज्ञान व गणित की पुस्तकें शामिल थी। यह प्रवर्ती 1857 के बाद काफी सक्रिय हुई। इस अनुवाद के कार्य का उद्देश्य, स्कूलों में पश्चिमी शिक्षा के विभिन्न विषयों को देशी भाषा में पढ़ाना था।

1.2 सी.एफ.एंड्रयूज़ और मुंशी ज़काउल्लाह

सी.एफ.एंड्रयूज़ ने अपनी पुस्तक, ज़का उल्लाह ऑफ़ डेल्ही में ज़का उल्लाह और पुरानी दिल्ली का वर्णन किया है। एंड्रयूज इंग्लैंड के चर्च के एक पादरी, शिक्षाविद और मिशनरी थे जो कि 1904 में भारत आये और ज़का उल्लाह के अच्छे दोस्त बन गये थे। उनके लिखने का आधार, ज़का उल्लाह के साथ विभिन्न मुद्दों पर हुई बातचीत थी। इसके अलावा, उन्होंने ज़का उल्लाह के बेटे एम. इनायत अली से भी जानकारी एकात्रित की । एंड्रयूज़ ने ज़का उल्लाह को वास्तविक शैक्षिक विचारक माना। जिन्होंने न केवल पश्चिमी प्रकार की शिक्षा पर जोर दिया बल्कि उनका मानना था कि पूर्वी संस्कृति को भी समानांतर रूप से बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इस तरह ज़का उल्लाह पश्चिमी शिक्षा पर बल तो देते थे साथ ही प्राच्य अध्ययन को भी महत्वपूर्ण मानते थे।

1.3 मुंशी ज़काउल्लाह की पुस्तकें

1870 के दशक में, जका उल्लाह ने उर्दू में गणित पर कार्यों की 23 खंडों की एक सीरीज सिलसिलातुल उलूम प्रकाशित कराई। यह सीरीज अलीगढ़ वैज्ञानिक समाज और बिहार के वैज्ञानिक समाज के सरंक्षण में प्रकाशित हुई, और पहली 17 खंडों के प्रकाशन व बेचने का कार्य सयेद अहमद द्वारा संगठित किया गया।

इसके अलावा, ज़का उल्लाह ने 1875 में उसूले इल्म हिन्द सा नामक गणित की पुस्तक का अंग्रेजी से ऊर्दू में अनुवाद किया। यह पुस्तक एक मैगज़ीन के रूप में थी।[5] मिर्ज़ा अब्दुल ने अपनी थीसिस में ज़का उल्लाह की ऐसी बहुत सी पुस्तकों का ज़िक्र किया। इन पुस्तकों का दायरा बहुत विस्तृत है। इनमें विशेष रूप से गणित, विज्ञान, नीतिशास्त्र और इतिहास पर इनकी पुस्तकों का वर्णन है। ज़का उल्लाह ने तारीख-ए-हिन्द नामक पुस्तक भारतीय इतिहास के सन्दर्भ में लिखी। यह पुस्तक तीन भागों में है। पहला भाग हिन्दुओं के समय का, दूसरा मुसलमानों के काल का और तीसरा ब्रिटिश शक्ति पर लिखा। अपनी इस पुस्तक में ज़का उल्लाह ने भारतीय इतिहास का काल विभाजन धर्म के आधार पर किया। उनके इस तरह के विभाजन पर जेम्स मिल की पुस्तक हिस्ट्री ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया (1817) का प्रभाव साफ़ तौर पर दिखता है जिसमें उन्होंने भारत के इतिहास का अध्ययन धर्म के ही आधार पर किया था।

  1. डिप्टी नज़ीर अहमद

क्रिस्टीन ओस्तर्हेल्ड ने अपने एक लेख, डिप्टी नज़ीर अहमद एंड दी डेल्ही कॉलेज , में डिप्टी नज़ीर अहमद की दिल्ली कॉलेज में उनके अध्ययन, कॉलेज के बाद के उनके जीवन को रेखांकित किया है। दिल्ली कॉलेज के अरबी पाठ्यक्रम के बारे में बताते हुए वह कहते है कि यहाँ का अरबी पाठ्यक्रम पारंपरिक निज़ामी पाठ्यक्रम ( दर्स-ए-निज़ामी) से भिन्न था। यह पाठ्यक्रम धर्मशास्त्रीय ग्रंथों के आसपास केन्द्रित नहीं था बल्कि यह शास्त्रीय अरबी ललित साहित्य पर केन्द्रित था। नज़ीर अहमद की अरबी विषय में बहुत ज्यादा दिलचस्पी थी। उनके इस अरबी ज्ञान की अभिव्यक्ति मुस्लिम धार्मिक ग्रंथ कुरान के साथ जुड़ने में स्पष्ट रूप से दिखती है। अरबी साहित्य निश्चित रूप से दिल्ली कॉलेज में उनके पढ़ाई के दिनों में बड़ा विषय था। लेकिन ऐसा होने के बावजूद भी, उनको विज्ञान व गणित की बुनियादी जानकारी थी। यद्यपि उन्होंने, अनेक वैज्ञानिक ग्रन्थों का अनुवाद भी किया जो उनके इन विषयों से जुड़े रहने के लिए पर्याप्त था। लेकिन यह बात स्पष्ट है की जिस तरह उनका जुड़ाव ऊर्दू व अरबी से था, उस तरह अंग्रेजी भाषा से नहीं था। इसका मुख्य कारण नज़ीर अहमद के पिता की कट्टरपंथी सोच थी, जिससे उन्होंने अपने पुत्र नज़ीर अहमद को अंग्रेजी भाषा के पढ़ने से प्रतिबंधित कर दिया था। फिर भी, अहमद अंग्रेजी के महत्व को भलीभांति जानते थे।

न केवल अंग्रेजी के महत्व बल्कि वह पूर्ण रूप से शिक्षा की अहमियत को तब के समाज में भी स्पष्ट रूप से पहचानते थे। उनको यह अच्छे से मालूम था कि उत्कृष्ट ज्ञान किस तरह प्राप्त किया जा सकता है। इसीलिए, उनका ज़ोर अधिक शिक्षित व योग्य और अच्छे ग्रंथों की पढ़ाई पर केन्द्रित था।

मुशीरुल हसन और क्रिस्टीन ओस्तर्हेल्ड ने नज़ीर अहमद के बारे में लिखा है। मुशीरुल हसन ने अपने एक लेख में लिखा की, नज़ीर अहमद 19वीं सदी के एक उदार मानवतावादी थे, अपने इस्लामिक रूप में। अहमद ने, समकालीन धर्मशास्त्रीय प्रवर्ती कि और जाते हुए, यकीन के मामले में इज्तिहाद ( व्याख्या ) पर ज़ोर दिया जैसे की, यह उनकी पुस्तक अल-इज्तिहाद (1908) से स्पष्ट हो जाता है। साथ ही अहमद एक बहुस्रजनात्मक लेखक भी थे, और उन्होंने फारसी वर्णमाला लिखने की शैली पर एक प्रारम्भिक प्रबंध भी लिखा।

इसके अलावा, उन्होंने 19वीं शताब्दी के स्कूलों, मदरसों में पढ़ाये जाने वाले कई ग्रंथों की आलोचना भी की, क्योंकि उनका मानना था की यह ग्रन्थ विधार्थियों के हित व उनकी क्षमता को ध्यान में रख कर नहीं लिखे गए बल्कि लेखक के व्यक्तिगत हित और उसके ज्ञान पर ही बल देती है। वह तब के शैक्षिक संस्थानों में पढ़ाई जाने वाली गुलिस्तान[6] को भी सही नहीं मानते थे क्योंकि यह बच्चों के जीवन से कोई सम्बंध नहीं रखती थी।[7] इस तरह हम देख सकते है कि तब के स्कूलों व मदरसों में क्या पढ़ाया जा रहा था उससे नज़ीर अहमद वाकिफ थे। ऐसे विषयों के अध्ययन पर उनके द्वारा बल दिया जा रहा था जो कि वर्तमान स्थिति के हिसाब से बच्चों के लिए प्रासंगिक और व्यवहारिक हो।

साथ ही, उन्होंने शैक्षिक संस्थानों में, शिक्षण के लिए कई पुस्तकें लिखी, विशेष रूप से लड़कियों की शिक्षा पर। उन्होंने तर्क पर (मबादिउल-हिकमत, लगभग 1871) और अरबी शब्द सरंचना पर (मयाघनिक फिल्सर्फ़ लगभग 1870-1) जैसी पुस्तकें लिखी जो शिक्षा में नई पद्धति व शैली को अभिव्यक्त करती थी। इनके साथ ही, नज़ीर अहमद ने एक पाठ्यपुस्तक रस्मु’ल–खात भी लिखी, जो 1912 में प्रकाशित हुई थी, और बाद में यह पुस्तक बहुत लोकप्रिय हुई। ये सभी पाठ्यपुस्तकें नज़ीर अहमद की शिक्षण विधि में आकर्षण व उनकी अद्वितीय शैक्षणिक योग्यता को दिखाती है।[8]

नज़ीर अहमद ने स्वंय भारतीय दंड सहिंता (आई.पी.सी.) का ऊर्दू में अनुवाद किया और वह अरबी भाषा के महान शोधार्थी भी थे। मिर्ज़ा फरहतुल्लाह बेग[9], जिन्होंने दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज में भी अध्ययन किया। उन्होंने अपनी स्नातक की पढ़ाई के दौरान वैकल्पिक विषय के रूप में अरबी लिया। बेग, नज़ीर अहमद के घर, निरंतर रूप से, अरबी पढ़ने जाते थे। इससे हमें पता चलता है कि नज़ीर अहमद को अरबी भाषा व साहित्य की अच्छी जानकारी थी, तभी उन्होंने भारतीय दण्ड सहिंता (आई.पी.सी.) का ऊर्दू में अनुवाद भलीभांति किया। इसके साथ ही अहमद को अंग्रेजी ज्ञान की अच्छी समझ थी। उन्होंने अंग्रेज़ी का यह ज्ञान दिल्ली कॉलेज में नहीं सीखा बल्कि स्वंय के प्रयास से घर पर ही सीखा। इसीलिए, आई. पी. सी. को ऊर्दू में अनुवाद करने के योग्य हुए। अरबी की जानकारी होने की वजह से नज़ीर अहमद को कठिन शब्द समझने में आसानी हुई। यह सत्तावादी (Authoritarian) अनुवाद ऊर्दू में किया गया। अर्थात यह राज्य द्वारा प्रायोजित अनुवाद था। और यह आधुनिकता की बड़ी जटिल समझ थी जो हमारे सामने आ रही थी।

निष्कर्ष

इस तरह हम देख सकते है कि, मुंशी ज़का उल्लाह और नज़ीर अहमद का विभिन्न शैक्षिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण योगदान था जैसे; ऊर्दू देशीय भाषा में पाश्चात्य शिक्षा के विभिन्न विषयों का अनुवाद, स्कूलों में विज्ञान व गणित की शिक्षा पर ज्यादा बल देना, स्कूलों में प्रासंगिक पाठ्यपुस्तकों को सम्मिलित कराना, लड़कियों की शिक्षा पर बल देना आदि अहम पहलू थे। इन पहलुओं पर इसलिए भी बल देने की आवश्कता है क्योंकि अधिकांश विद्वानों ने जब भी पाश्चात्य मुस्लिम शिक्षा की बात की गयी है तो अलीगढ आन्दोलन और उसके नेता सर सय्येद अहमद को सामने रखा गया है। इससे मुंशी ज़का उल्लाह और नज़ीर अहमद पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है। हालाँकि यह बात सही है कि सर सय्येद की भूमिका उच्च शिक्षा के माध्यम से मुस्लिम समुदाय की स्थिति को सुधारना था लेकिन वहीं ज़का उल्लाह व नज़ीर अहमद का मुख्य लक्ष्य स्कूलों में प्रासंगिक और गुणवत्तापूर्ण पाठ्यक्रम के माध्यम से तर्कपूर्ण शिक्षा को बढ़ावा देना था।

सन्दर्भ ( पुस्तकें, मैगज़ीन, थीसिस, यू टयूब लिंक इत्यादि)

  1. अब्दुल अहद, मुंशी ज़का उल्लाह, डिप्टी नज़ीर अहमद व सर सय्येद अहमद के मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा पर विचार, जनकृति मैगज़ीन, झारखंड, वॉल्यूम 6, इशू 66, अक्टूबर, 2020.
  2. अमर फारुकी, प्राचीन और मध्यकालीन सामाजिक सरंचनाएं और संस्कृतियाँ, मानक पब्लिकेशन, दिल्ली, 2008.
  3. मिर्ज़ा अब्दुल बकी बेग, ए क्रिटिकल अप्रैज़ल ऑफ़ मुंशी ज़का उल्लाह वर्क्स जे.एन.यू. (पी.एच.डी. थीसिस), ऊर्दू भाषा,2014.

यू टयूब पर मौजूद सहपेडिया को दिए गये एक साक्षात्कार हिस्ट्री ऑफ़ दी डेल्ही कॉलेज में प्रोफेसर अमर फारुकी ने यह बात कही, अप्रैल, 2017.

  1. सी.एफ.एंड्रयूज, ज़काउल्लाह ऑफ़ डेल्ही, ओ.यू.पी. नई दिल्ली, 2003.
  2. विकास गुप्ता, मॉडर्निटी एंड एजुकेशन इन कोलोनियल इंडिया : ए स्टडी ऑफ़ आइडियाज, इंटरवेंशस एंड इन्तेर्लोक्यूटर, दिल्ली यूनिवर्सिटी, (पी.एच.डी. थीसिस) 2018.
  3. मुशीरुल हसन, फ्रॉम प्लुरालिज्म टू सेपराटीज्म, क्स्बास इन कोलोनियल अवध, ओ.यू.पी. नई दिल्ली, 2004.
  4. मर्ग्रिट परनू, दी डेल्ही कॉलेज: ट्रेडिशनल एलिटस, दी कोलोनियल स्टेट एंड एजुकेशन बिफोर 1857, ओ.यू. पी. नई दिल्ली, 2006.
  1. यू टयूब पर मौजूद सहपेडिया को दिए गये एक साक्षात्कार हिस्ट्री ऑफ़ दी डेल्ही कॉलेज में प्रोफेसर अमर फारुकी ने यह बात कही, अप्रैल, 2017.

  2. विकास गुप्ता ने अपनी पी. एच. डी. थीसिस , मॉडर्निटी एंड एजुकेशन इन कोलोनियल इंडिया : ए स्टडी ऑफ़ आइडियाज, इंटरवेंशस एंड इन्तेर्लोक्यूटर, में रफत जमाल के इस विचार को अखबार साइंटिफिक सोसाइटी से पेज न. 131 से ग्रहण किया है | जका उल्लाह, देशीय भाषाओं के पक्ष में थे (ऊर्दू भाषा को ज्ञान अर्जित करने का एक उचित माध्यम बनाने के लिए, उन्होंने अंग्रेजी से ऊर्दू में कई ग्रंथों का अनुवाद किया). जो पुस्तकें अनुवाद के लिए चुनी गयी वे व्यापक रूप से इंग्लैंड में प्रयोग होती थी | (रफत जमाल पेज न. 125 ) ज़का उल्लाह ने दिखाया कि यदि हम शिक्षा के माध्यम के रूप में देशीय भाषा के बजाये, एक विदेशी जुबान का इस्तेमाल करें तो यह दो-गुना समय लेगी,पहला समय भाषा को समझने में व्यतीत होगा और दूसरा, फिर हमारे पास अपने विषय के अध्ययन के लिए कोई समय शेष नहीं बचेगा |
  3. सी.एफ.एंड्रयूज, ज़का उल्लाह ऑफ़ डेल्ही, ओ.यू.पी. नई दिल्ली, 2003, पेज न. 90.
  4. सी.एफ.एंड्रयूज (2003), पेज न.90-91.
  5. मिर्ज़ा अब्दुल बकी बेग, ए क्रिटिकल अप्रैज़ल ऑफ़ मुंशी ज़का उल्लाह वर्क्स जे.एन.यू. (पी.एच.डी. थीसिस), 2014, ऊर्दू भाषा, पेज न. 29.
  6. सादी (1213-1292 ई.) जो ईरान के शहर शीराज़ के थे ने दो प्रमुख रचनाएँ लिखी बोस्तान (फलवाटिका) और गुलिस्तान (गुलाबबाग) | बोस्तान एक महाकाव्य है जबकि गुलिस्तान का एक हिस्सा कविता में और बाकी गध में है | इसमें अनेक उपाख्यान और किस्से है जिनका मकसद नैतिक विचारों पर जोर देना है | सादी का लेखन सूफी रहस्यवाद से ओतप्रोत है | अमर फारुकी, प्राचीन और मध्यकालीन सामाजिक सरंचनाएं और संस्कृतियाँ, मानक पब्लिकेशन, दिल्ली, 2008, पेज न. 319.
  7. अब्दुल अहद, मुंशी ज़का उल्लाह, डिप्टी नज़ीर अहमद व सर सय्येद अहमद के मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा पर विचार, जनकृति मैगज़ीन, झारखंड, वॉल्यूम 6, इशू 66, अक्टूबर, 2020, पेज न. 148.
  8. अब्दुल अहद (2020) पेज न. 150-151.
  9. इसके अलावा, मिर्ज़ा फरहतुल्लाह बेग देहलवी (1883-1948) दिल्ली कॉलेज व हिन्दू कॉलेज के भी विधार्थी रहे थे | उन्होंने दिल्ली की आखिरी शमा नामक पुस्तक लिखी थी | उनकी यह पुस्तक काल्पनिक-ऐतिहासिक लेख है | जिसमें दिल्ली के आखिरी मुशायरा का वर्णन है |

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