अनुवादक के रूप में निर्मल वर्मा का मूल्यांकन

रज्जन प्रसाद शुक्ला (शोधार्थी)
हिन्दी तथा आधुनिक भारतीय भाषा विभाग
महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी (उ.प्र.)
ईमेल – rpshukla000@gmail.com
संपर्क सूत्र – 9936444618

शोध सारांश

हिन्दी साहित्य के विकास तथा प्रचार-प्रसार में अनुवाद का सर्वाधिक योगदान रहा है, भारतेन्दु युग से लेकर आज तक अनुवाद के भूमिका अद्वितीय रही है। आधुनिक युग में निर्मल वर्मा एक ऐसे साहित्यकार है, जिन्होंने अनुवाद परम्परा की अस्मिता को प्रामाणिकता प्रदान की है, एक वैश्विक साहित्यकार के साथ-साथ वर्मा जी महान भाषाविद भी थे, उनकी हिन्दी, अंग्रेजी, चेक, रूसी, रोमानियाई, आदि भाषाओं पर मजबूत पकड़ थी, उनके द्वारा अनेक उच्च कोटि के वैश्विक साहित्य का हिन्दी में पदार्पण हुआ। निर्मल वर्मा मूलतः मनोविश्लेषण करने वाले साहित्यकार के रूप में जाने जाते है, इनकी रचनाओं में ईश्वर, संत्रास, अकेलापन, अजनबीपन, अपरिचय, विसंगति, एवं व्यर्थताबोध, संघर्ष, शून्यताबोध आदि का अद्भुत विवेचन मिलता है। हिन्दी साहित्य अज्ञेय और निर्मल वर्मा मात्र दो ही ऐसे साहित्यकार हैं जिन्होंने अपने प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर भारतीय और पश्चिम की संस्कृतियों के अंतर्द्वन्द्व पर गहनता एवं व्यापकता से विचार किया है तथा हिन्दी को वैश्विक स्तर पर स्थापित किया । निर्मल वर्मा को साहित्य और समाज के उत्कृष्ट कार्य के लिए भारत तथा विश्व के अनेक पुरस्कारों से पुरस्कृत किया गया है, भारत सरकार द्वारा औपचारिक रूप से नोबेल पुरस्कार के लिए नामित होने वाले आप एकमात्र साहित्यकार है।

बीज शब्द

संत्रास, अकेलापन, अजनबीपन, विसंगति, शून्यताबोध , चेकोस्लोवाकिया, प्राच्य-विद्या, संवेदना, पीठिका, ‘परिपूरक वितरण’ लोकप्रियता, पाठकीयता आलोचकीयता, कलाकृत अनुकृतिधर्मा, अनुवादधर्मिता, गतार्थ, माल-असबाब, गुफ़ित, प्रतिशोध, अल्पज्ञात, यथास्वरूप, पक्षधरता, थूथून, संकीर्णताओं, सृजनात्मक।

अनुवादक के रूप में निर्मल वर्मा का मूल्यांकन

आमुख

आधुनिक हिन्दी गद्य साहित्य में मूर्धन्य कथाकार एवं पत्रकार निर्मल वर्मा का स्थान अग्रणी है। वे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्ति हिन्दी लेखकों में निर्मल वर्मा प्रथम पंक्ति के साहित्यकार है, उन्हें वैश्विक अनुवादक के रूप में भी जाना जाता है। निर्मल वर्मा एकमात्र कथाकार है, जिन्होंने भारतीय समाज को वैश्विक धरातल पर रखकर देखने परखने का काम किया। ”इनकी रचनाओं में ईश्वर, संत्रास, अकेलापन, अजनबीपन, अपरिचय, विसंगति, एवं व्यर्थताबोध, संघर्ष, शून्यताबोध आदि का विवेचन मिलता है। उनकी रचनाएँ प्रायः उनकी स्मृतियों का ही शब्दचित्र मानी जाती है।”[1]

निर्मल वर्मा ने दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफेंस कालेज से इतिहास में एम. ए. करने के बाद पढ़ाना शुरू कर दिया था। निर्मल वर्मा का सिर्फ हिंदी ही नहीं अंग्रेजी में भी अच्छी पकड़ थी। सन 1959 में चेकोस्लोवाकिया के प्राच्य-विद्या संस्थान प्राग के निमंत्रण पर चेकोस्लोवाकिया गए। वहाँ पर उन्होंने कुछ साहित्यकारों की महत्वपूर्ण रचनाओं का हिन्दी अनुवाद किया, इनमें चेक कथाकार कारेल चापेक प्रमुख है। चेक उपन्यासों और कहानियों का हिंदी अनुवाद किया था। निर्मल वर्मा ने चेक लेखक कारेल चापेक, इर्शी फ़्रीड, जोसेफ स्कोवर्स्की और मिलान कुंदेरा जैसे स्थापित और वैश्विक स्तर के लेखकों की कृतियों का हिंदी अनुवाद किया। 

भारतीय मनीषा की उस उज्ज्वल परम्परा के प्रतीक-पुरुष है, जिनके जीवन कर्म, चिंतन और आस्था के बीच कोई भिन्नता नहीं रह जाती है। कला का मर्म जीवन का सत्य बन जाता है और आस्था की चुनौती जीवन की कसौटी, ऐसा मनीषी अपने होने की कीमत देता भी है और माँगता भी। अपने जीवनकाल में गलत समझें जाना उसकी नियति है और उससे बेदाग उबर आना उसका पुरस्कार, निर्मल वर्मा के हिस्से में भी ये दोनों बखूबी आए। स्वतन्त्र भारत की आरंभिक आधी से अधिक सदी निर्मल वर्मा की लेखकीय उपस्थिति से गरिमामय रहीं। वह उन थोड़े से साहित्यकारों में थे जिन्होंने संवेदना की व्यक्तिगत जगह और उसके जागरूक वैचारिक हस्तक्षेप के बीच एक उत्तम संतुलन का आदर्श प्रस्तुत किया। उनके रचना का सबसे महत्वपूर्ण दशक, साथ का दशक, चेकोस्लोवाकिया के विदेश प्रवास में बीता। अपने लेखन में उन्होंने न केवल मनुष्य के दूसरे मनुष्यों के साथ सम्बन्धों की चीर-फाड़ की, वरन् उसकी सामाजिक, राजनैतिक भूमिका क्या हो, तेजी से बदलते हमारे आधुनिक परिवेश में एक प्राचीन संस्कृति के वाहक के रूप में उसके आदर्शों की पीठिका क्या हो, इन सब प्रश्नों का भी सामना किया।

अनुवाद की प्रामाणिकता एवं विश्वसनीय सदैव एक चुनौती रही है। अनुवाद का स्रोत भाषा एवं पर समान रूप से अधिकार होना चाहिए, जिससे अनुवाद की सीमाओं में होने वाली गलतियों का यथा सम्भव दूर किया जा सके। कथा साहित्य में अनुवाद और अनुवादक को एक कलात्मक एवं ज़िम्मेदारी पूर्ण दायित्व को निभाना होता है, निर्मल वर्मा ने इसे बखूबी निभाया है। निर्मल वर्मा द्वारा हिन्दी में किये गए अनुवाद ने वैज्ञानिक कथा-साहित्य लेखन को मजबूत आधार प्रदान किया।

निर्मल वर्मा के साहित्य में चिंतन प्रवाह की अधिकता स्पष्ट दिखाई पड़ती है, चिंतन प्रवाह स्वतः अकथात्मक गद्य की आकृति में प्रसिद्ध है। इस प्रकार संवेदना और शिल्प निर्मल वर्मा के गद्य में ‘परिपूरक वितरण’ में अप्रस्तुत हो जाते है। निर्मल वर्मा की यह सारस्वत योजना मशहूर है। कि इनकी लोकप्रियता, पाठकीयता आलोचकीयता के साथ ही सहज में जुड़ जाती है। अरस्तू ने कलाकृत को इसकी समग्रता में जिस प्रकार अनुकृतिधर्मा पाया है ; निर्मल वर्मा इसे अनुवादधर्मिता में गतार्थ करते है :-“जीवन कलाकृति में संचारित होता है जिसे आलोचक कि आलोचना एक चकाचौंध की तरह आलोचक इसी रचना को टेक्स्ट बनाकर वापिस मुड़ता है – दोनों इस अर्थ में अनुवादक है।”[2]

निर्मल वर्मा एक बड़े रचनाकार के साथ-साथ एक सधे हुए अनुवादक भी थे। अनुवाद को दूसरे दर्जे का काम मानने की परंपरा हिन्दी में भी ही नहीं विश्व की सभी भाषाओं में ही है, पर अनुवादक निर्मल वर्मा जैसे गहनशील साधक हों और जिन्होंने अनूदित रचनाओं का हर एक अक्षर पूरे मनोयोग से अपनी भाषा में लिखा हो, तो वह संसार की और उत्कृष्ट कृति हो जाती है। इनमें रूसी, चेक, और रोमानियाई कथा साहित्य साथ ही साथ कुछ अंग्रेजी साहित्य का भी अनुवाद किया है। इनमें से कई कृतियाँ आज विश्व साहित्य की धरोहर हैं।

अनुवाद के बारे में निर्मल वर्मा लिखते हैं – “ हर भाषा दुनिया को खास ढंग से देखती, परखती, अपने अर्थों में अनूदित करती है।…………जब हम एक भाषा को दूसरी भाषा में अनुवाद करते है तो वह सिर्फ शब्दों का अनुवाद नहीं है, शब्दों द्वारा भाषा की एक समूची सृष्टि अपने पूरे माल-असबाब के साथ दूसरी भाषा में अवतरित होती है।”[3]

निर्मल वर्मा को प्रारम्भ से ही यूरोपियन कवियों की कविताओं से गहरा लगाव था और उस समय बांग्ला कविता या हिन्दी कविता में जो कुछ भी लिखा जाता था वह सदैव उनके लिए दिलचस्पी का विषय होता था । उन्हें रिल्के की कविताओं ने प्रभावित किया और मात्र कविताएं ही नहीं बल्कि गद्यखंड ने भी। टी. एस. इलियट के ‘फोर क़्वाट्रेटट्रस’ उन्हें उतनी ही शांति देते थे जितनी शांति उन्हें सुबह ‘भगवतगीता’ पढ़ते हुए मिलती थी। रूसी कवियों – बोरिस पास्तानाक, अन्ना आख्मातोवा और मेरीना त्स्वेतायेवा की कविताओं ने भी उन्हें बहुत आकर्षित किया। फ़्रांस के सुर्रियालिलस्ट कवि पॉल एलुआ की कविताएं उन्हें बेहद पसंद थी। स्पेनिस कवि लोर्का, जिन पर निर्मल वर्मा ने एक लेख भी लिखा था, की भी कविताएं एवं नाटक उन्हें प्रभावित करते है। निर्मल वर्मा ने आधुनिक आइसलैंडी कविता के असाधारण कवि स्टाइनर की भी एक-दो कविताओं के अनुवाद किए है।[4]

निर्मल वर्मा ऐसे कथाकार रहे है, जिन्होंने अपने लेखन को देश-विदेश के संदर्भ, इतिहास, पुराणों के साक्ष्यों एवं सत्यों से गुफ़ित करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने देश-विदेश के लेखकों की रचनाओं का साक्ष्य भी पर्याप्त मात्रा में लिया है। विशेषकर उन विदेशी लेखकों को उन्होंने जगह-जगह रेखांकित किया है, जिन्होंने इतिहास बोध के गहरे धरातल पर जाकर अपने वर्तमान को आने वाली पीढ़ियों के लिए रोशनी की तरह निर्मित किया है। इस कोशिश में उन्होंने न केवल चेक, रूसी, रोमानियाई आदि भाषा सीखीं बल्कि उनके साहित्य का अनुवाद भी किया।

  • कुप्रीन की कहानियाँ (रूसी कहानी संग्रह), – अलेक्सांद्र कुप्रीन
  • रोमियो जूलियत और अंधेरा (चेक उपन्यास),1964 – यान ओत्वेनाशेक
  • कारेल चापेक की कहानियाँ (चेक कहानी संग्रह), 1966 – कारेल चापेक
  • इतने बड़े धब्बे (चेक कहानी संग्रह), 1966 (समकालीन चेक कहानीकारों की कहानियों का अनुवाद करके कहानी संग्रह तैयार किया गया)
  • बाहर और परे (चेक उपन्यास),1972 – इर्शी फ़्रीड
  • बचपन (चेक उपन्यास),1970 – लियो टॉलस्टॉय
  • आर.यू.आर (चेक नाटक),1972 – जोसफ़ श्कवोरेस्की
  • एमेके :- एक गाथा (चेक उपन्यास), 1973 – जोसफ़ श्कवोरेस्की
  • पराजय (रूसी उपन्यास), – अलेक्सान्द्र फेदयेव
  • खेल-खेल में (प्रतिनिधि चेक कहानियाँ) – जोसफ़ श्कवोरेस्की
  • रत्न कंगन तथा अन्य कहानियाँ (रूसी कथा साहित्य), – अलेक्सांद्र कुप्रीन
  • झोपड़ीवाले तथा अन्य कहानियाँ (रोमानियाई कथासाहित्य), 1966 – मिहाइल सादौवेन्यू
  • टिकट संग्रह (चेक कथासाहित्य), 1966 – कारेल चापेक
  • ओलेस्या तथा अन्य कहानियाँ (रूसी कथासाहित्य), – अलेक्सांद्र कुप्रीन अंग्रेजी अनुवाद
  • डेज़ ऑफ लॉगिंग (उपन्यास), 1974
  • हिल स्टेशन (कहानियाँ),1975

निर्मल वर्मा द्वारा किया गया सबसे प्रसिद्ध अनुवाद एमेके : एक गाथा (1973) चेकोस्लोवाकिया के सर्वाधिक विवादास्पद लेखक जोसेफ़ श्कवोरस्की का विश्व-विख्यात उपन्यास है, जिस पर 1998 में एक टेलिविजन फ़िल्म भी बन चुकी है। उपन्यास के केंद्र में छुट्टी मनाने गये कुछ पर्यटकों की दास्तान है। एमेके एक आकर्षक जिप्सी युवती, जिसका ध्यान सब अपनी ओर खींचना चाहते हैं, लेकिन वह दूसरी दुनिया की, अध्यात्म की बातें करती रहती है। धीरे-धीरे एक मीठा-सा त्रिकोण बनना शुरू होता है कि तभी एक व्यक्ति की शत्रुता से सब तहस-नहस हो जाता है। कहानी मीठे त्रिकोण से मीठे प्रतिशोध का फ़ासला बड़ी सुंदरता से तय करती है। आश्चर्य नहीं कि इस उपन्यास के विश्व की बीस से अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं।

आर.यू.आर (रोसुम युनिवर्सल रोबोज़) जोसफ़ श्कवोरेस्की द्वारा सन् 1920 में लिखे गये इस नाटक में पहली बार रोबोट शब्द का इस्तेमाल किया गया, एक ऐसा यन्त्र मानव – गुलाम या दास, जो मनुष्य को उसके सब बोझिल कामों से छुटकारा दिला दे। जोसफ़ ने यह शब्द गढ़ा चेक भाषा के शब्द रोबोटम से, जिसका अर्थ है, बेगार या बंधुआ मज़दूरों से कराया गया काम। सन् 1920 में लिखे इस नाटक में जोसफ़ ने, जब वैज्ञानिकों को रोबोट बनाने का विचार भी नहीं आया था, कल्पना की थी कि एक फैक्ट्री ने रोबोट बनाने की विधि ईजाद कर ली है, उसके पास जल्दी ही हज़ारों-लाखों में दुनिया भर से आर्डर आने लगे हैं, और फिर रोबोट इतने बढ़ जाते हैं और बलशाली हो जाते हैं कि एक दिन मानवता के खिलाफ़ विद्रोह करके पूरी मानव जाति को ही नष्ट कर देते हैं। इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद रोबोट शब्द ऐसा लोकप्रिय और लोक स्वीकृत हुआ कि आज विश्व की सब भाषाओं में उसका व्यवहार होता है। इस नाटक का मूल चेक भाषा से हिन्दी अनुवाद निर्मल वर्मा ने अपने चेकोस्लोवाकिया प्रवास (1959-1968) से लौट कर किया था। सन 1972 में यह अनुवाद—आर.यू.आर —पहली बार साहित्य अकादमी के तत्त्वाधान में प्रकाशित हुआ था।

चेकोस्लोवाकियाका नाम सुनते ही पिछली सदी के जिन गिने-चुने लेखकों का ध्यान सबसे पहले मस्तिष्क में आता है, उनमें कारेल चापेक प्रमुख हैं। वह सम्पूर्ण रूप से बीसवीं शताब्दी के व्यक्ति थे, असाधारण अंतर्दृष्टि के मालिक। उनका सुसंस्कृत लेखक व्यक्तित्व हमें हमेशा ‘रोमां रोलां’ और ‘रवीन्द्रनाथ’ जैसी ‘सम्पूर्ण आत्माओं’ का स्मरण करा देता है। चापेक ने अपने साहित्य में हर व्यक्ति के ‘निजी सत्य’ को खोजने का संघर्ष किया था- एक भेद और रहस्य और मर्म, जो साधारण ज़िंदगी की औसत और क्षुद्र घटनाओं के नीचे दबा रहता है। निर्मल वर्मा द्वारा इनकी रचना ‘टिकिट संग्रह’ का अनुवाद पाठक को चापेक से रूबरू करने का एक उत्तम प्रयास है।

निर्मल वर्मा ने विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार टॉलस्टॉय की रचनाओं का भी हिन्दी अनुवाद किया। ‘बचपन’ टॉलस्टॉय का आत्मकथात्मक लघु उपन्यास है, जो उन्होंने सन् 1852 में लगभग सत्ताईस वर्ष की अवस्था में लिखा था। एक दस वर्ष के बाल-नायक के ज़रिये इसमें न केवल उन्होंने बचपन के भोलेपन को, उसकी अविश्वसनीय सादगी की नाटकीयता को छुआ है, उन रहस्यों की ओर भी इशारा किया है, जो वय-संधि की देहरी पर खड़े प्रत्येक बाल-मन को अपनी ओर बरबस खींचते हैं। बचपन का यह परिवेश इसलिए भी अलौकिक है कि इसे टॉलस्टॉय जैसे मर्मज्ञ ने छुआ है। सन् 1955 के आसपास इसका अनुवाद निर्मल वर्मा ने किया था, छद्म नाम से, अपने मित्र जगदीश स्वामीनाथन के लिए, जो उन दिनों पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस में काम करते थे। यह राज़ निर्मल जी ने स्वयं ही अपने मित्रों को बताया था।

‘खेल-खेल में’ जोसफ़ श्कवोरेस्की द्वारा चेक भाषा के प्रतिनिधि कथाकारों के कहानियों का संग्रह है जिसका अनुवाद वर्मा जी ने अपने चेकोस्लोवाकिया प्रवास के दौरान किया था। निर्मल वर्मा तत्कालीन चेकोस्लोवाकिया की राजधानी ‘प्राग’ अर्थात् देहरी। एक तरह से प्राग नगर यूरोप का प्रयाग रहा है- पूर्व और पश्चिम की सांस्कृतिक धाराओं का पवित्र संगम-स्थल। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में वह यहूदी विद्वानों, जर्मन लेखकों और रूसी क्रान्तिकारियों का शरण-स्थल रह चुका है। उन दिनों उसमें शायद पेरिस या वियना या बर्लिन की चकाचौंध नहीं थी, लेकिन एक अनूठी गरिमा और संवेदनशीलता अवश्य थी, जिसने वहाँ बसने वाले जर्मन और यहूदी लेखकों की मनीषा को एक बिरले रंग और लय में ढाला था। आज भी बीसवीं शताब्दी के जर्मन और यहूदी साहित्य को प्राग से अलग करके देख पाना असम्भव लगता है। इसी प्राग नगर में साठ के दशक में हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार निर्मल वर्मा ने अपनी युवावस्था गुजारी । उन्होंने इंस्टीट्यूट ऑफ़ ओरिएंटल स्टडीज़ के निमन्त्रण पर वहाँ रह कर न केवल चेक भाषा सीखी, बल्कि तत्कालीन चेक साहित्य से अपने अनुवाद के द्वारा हिन्दी जगत को परिचित करवाया। हिन्दी पाठकों के लिए यह दिलचस्प तथ्य होगा कि चेक साहित्य के गणमान्य मूर्धन्य लेखकों- कारेल चापेक, बोहुमिल हराबाल के अलावा तब के युवा लेखकों – मिलान कुन्देरा और जोसेफ़ श्कवोरस्की की रचनाएँ हिन्दी में उस समय आयीं जब यूरोप में वे अभी अल्पज्ञात थे। यही इस संग्रह की ऐतिहासिक भूमिका है। प्रस्तुत कहानियाँ इससे पहले ‘इतने बड़े धब्बे’ नाम से 1966 में संकलित हो चुकी हैं।

निर्मल वर्मा न केवल चेक कथाकारों के अतिरिक्त रोमन भाषा के साहित्य को भी हिन्दी जगत में ले आए। ‘झोपड़ी वाले तथा अन्य कहानियाँ’ प्रमुख रोमानियाई कथाकार मिहाइल सादौवेन्यू द्वारा लिखित बीसवीं शताब्दी के आरंभ के रोमानियाई ग्रामीणों के जीवन पर आधारित है । इसमें यूरोप की उत्कट गरीबी और ग्रामीणों के भोले-भाले स्वभाव का चित्रण है । कल-कारखानों के आने से पहले साधारण मनुष्य का जीवन भले कठिन था लेकिन कितना कलुष-रहित, इसका सटीक चित्रण इन कथाओं में परिलक्षित होता है। निर्मल वर्मा ने प्राग में रहते हुए इन रोमानियाई कहानियों का अनुवाद किया था। पहली बार ये साहित्य अकादमी के प्रकाशन से सन् 1966 में सामने आईं थीं।

करुणगाथा से प्रारम्भ से होती है, जिसमें ईसाई लड़का एक यहूदी लड़की को अपने पढ़ने की कोठरी में छिपा देता है, ताकि वह कन्संट्रेशन कैंप भेजे जाने से बच जाए। धीरे-धीरे कोठरी के बाहर का जीवन कोठरी के भीतर के जीवन से इतना घुल-मिल जाते हैं। कि एक ही प्रश्न बचा रहता है- स्वतन्त्रता क्या है? पृथ्वी पर जीवन का उद्देश्य क्या है? प्रेम कि यात्रा को रोचक ढंग से पेश करता ये उपन्यास पाठक को कई ऐसे रंग दिखाता चलता है जो उसने पहले कभी देखे नहीं होंगे। निर्मल वर्मा ने अनुवाद के माध्यम से प्रेम के मूलभाव को यथास्वरूप बरक़रार रखा है ।

अलेक्सांद्र कुप्रीन की ‘ओलेस्या तथा अन्य कहानियाँ’ पुस्तक की कथा जंगल में रहने वाली एक समाज-बहिष्कृत सुंदर लड़की और उसकी दादी की है, जिन्हें गाँव वाले डायनें समझते हैं। कथानक उस अल्प-परिचित, अल्प-उद्घाटित विषय का है, जिस पर आज भी बहुत कम साहित्यिक रचनाएँ सारे यूरोप- अमेरिका में मिलती हैं। कुप्रीन, और चेखव की ही परंपरा में, रूसी साहित्य के उस स्वर्ण-काल के लेखक हैं जिनके पास समाज के हर तबके के पात्र के लिए के अचूक अंतर्दृष्टि थी। कुप्रीन की एक अन्य रचना ‘रत्न-कंगन तथा अन्य कहानियाँ’ की शीर्षक-कथा जो एकतरफा प्रेम का मार्मिक आख्यान है, जिस पर 1965 में सोवियत संघ में एक फ़िल्म भी बनी थी। इस अभिशप्त कहानी के केंद्र में एक राजसी महिला से एकतरफा प्रेम में पड़ गया एक साधारण क्लर्क है। जानी-पहचानी सामाजिक स्थिति, जिसमें क्लर्क हास्यास्पद है और राजसी परिवार के हर सदस्य को उसका उपहास उड़ाने का अधिकार है, देखते-देखते उदात्त प्रेम पर लंबे चिंतन के आख्यान में बदल जाती है । अपनी अनेक कहानियों में कुप्रीन ने प्रेम के इस सामाजिक पक्ष – आर्थिक ऊँच-नीच – को बड़ी संवेदनशीलता से छुआ है, और हालाँकि लगभग हमेशा ही उनके कथानक में समाज की , बलवान की जीत होती है, यह जीत हमेशा के लिए प्रश्नांकित होने से नहीं बचती। पाठकों के लिए यह तथ्य रोचक होगा कि 1954 में जब युवा लेखक निर्मल वर्मा ने इन कहानियों का अनुवाद किया था, तो उनका अपना देश भी स्वतंत्रता के बाद एक संक्रमण-काल के सम्मुख नियति की पहचान कर रहा था।

‘पराजय’ सोवियत रूसी लेखक फ़ेदयेव का पहला उपन्यास है। उपन्यास का घटना-क्रम छापामारों के जीवन की जटिलताओं,आस्थाओं और परेशानियों के इर्द-गिर्द घूमता है। लेखक खुद छापामार की भूमिका जीवन में निभा चुका है जिसके अनुभवों के कारण इस उपन्यास का कथानक न केवल विश्वसनीय बन पड़ा है, बल्कि रूसी क्रांति में अपनी आस्था को भी सच्चे, सटीक ढंग से संप्रेषित करता है। कई मायनों में यह एक उदास किताब है। सच्ची आस्था इतिहास में गलत पक्षधरता के कारण किस कदर आत्म-पराजयी हो सकता है – पुस्तक और लेखक का जीवन इसका उदहारण है।

‘डेज़ ऑफ लॉगिंग’ यह पुस्तक हिंदी में मूल उपन्यास का अनुवाद है, जिसे ‘वे दिन’ कहा जाता है। एक भारतीय छात्र को प्राग में एक छुट्टी पर एक ऑस्ट्रियाई रैना के लिए दुभाषिया के रूप में कार्य करने के लिए कहा जाता है। पेशेवर बैठक एक गहन, भावुक रिश्ते में विस्फोट हो जाती है। प्राग सर्दियों में एक सुंदर और मनमोहक प्रेम प्रसंग के लिए मनोदशा की स्थापना है। जटिल और अनिवार्य रूप से अल्पकालिक रोमांस आधुनिक हिंदी उपन्यास के मास्टर निर्मल वर्मा द्वारा बताई गई मार्मिक और गहराई से चलती है।

निर्मल वर्मा के बारे में कृष्ण सोबती लिखती है –“वे पश्चिम की ज़िंदगियों को बहुत खूबसूरत और कवितामय गद्य में रचकर लिखते है लेकिन उन्होंने अपने घर के चारों ओर थूथून उठाये घूमते हुए सुअरो की ओर कभी नहीं देखा।”[5]

अनुवाद ने अंतर-भाषाई समझ को बेहतर तरीके से विकसित किया है। भाषा संबंधी संकीर्णताओं का निवारण करने में अनुवाद विधि एक उत्कृष्ट प्रक्रिया है। अनुवाद एक ऐसा पल है, जिसके माध्यम से सम्पूर्ण विश्व के विभिन्न भाषाओं में वहाँ की कला-संस्कृति आदि का ज्ञान कराती है। अनुवाद अपने आप में एक सृजनात्मक प्रक्रिया है हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने तथा विश्व साहित्य से परिचित कराने में अनुवाद का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

निर्मल वर्मा अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्ति लेखकों में से सबसे ज्यादा पहचाने जाने वाले हिन्दी लेखकों में से एक है। अपने जीवन काल में उन्होंने साहित्य के लगभग सभी श्रेष्ठ सम्मानों से सम्मानित हुए। उन्हें 1985 में साहित्य अकादमी तथा 1999 में भारतीय ज्ञानपीठ आदि सर्वश्रेष्ठ पुरस्कारों से पुरस्कृत किया गया। भारत के राष्ट्रपति द्वारा प्रदत्त तृतीय सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मभूषण, सन 2002 में दिया गया। 2005 में इन्हें महत्तर साहित्य का सम्मान प्राप्त हुआ। अमेरिका की पत्रिका ‘द वर्ल्ड लिटरेचरे’ बहुसम्मानित पुरस्कार ‘न्यूश्ताद अवार्ड’ के लिए निर्मल वर्मा का नाम मनोनीत किया गया। अक्तूबर 2005 में निधन के समय निर्मल वर्मा को भारत सरकार औपचारिक रूप से नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था।

संदर्भ ग्रंथ-सूची:-

  • निर्मल की कहानियों का विदेशी परिवेश – सारिता वाशिष्ट
  • ढलान से उतरते हुए: वहीं रास्ते पर – निर्मल वर्मा पृ 199
  • दूसरे शब्दों में – निर्मल वर्मा पृ 34
  • दूसरी दुनिया – निर्मल वर्मा पृ 21
  • साप्ताहिक हिंदुस्तान – निर्मल वर्मा पृ 16
  1. निर्मल की कहानियों का विदेशी परिवेश – सारिता वाशिष्ट

  2. ढलान से उतरते हुए : वहीं रास्ते पर – निर्मल वर्मा पृ 199
  3. दूसरे शब्दों में – निर्मल वर्मा पृ 34
  4. दूसरी दुनिया – निर्मल वर्मा पृ 21
  5. साप्ताहिक हिंदुस्तान – निर्मल वर्मा पृ 16

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