मध्यम वर्गीय परिवार में बचपन (विशेष सन्दर्भ प्रेमचंद की कहानियां)

अभिषेक रंजन,

शोधार्थी, हिंदी विभाग,

मौलाना आजाद नेशनल उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद

संपर्क सूत्र : 9958308724

ईमेल : aranjan.in@gmail.com

सारांश

प्रेमचंद हिंदी कथा साहित्य में अग्रणी लेखक माने जाते है। कथा साहित्य को प्रेमचंद ने अपनी लेखनी से उत्कृष्ट बनाया है। प्रेमचंद की कथा साहित्य की अगर बात हो तो हम पाते है कि प्रेमचंद की कहानियों में बाल मनोविज्ञान का बड़ा ही उत्कृष्ट वर्णन मिलता है। प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में बालकों के बचपन का जो स्वरूप प्रस्तुत किया है वह उनकी कहानी लेखन शैली की उत्कृष्टता को दर्शाता है। प्रेमचंद की कहानियो में बचपन का स्वरूप अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग तरह से निकल कर आता है। प्रेमचंद ने जिस तरह से एक बालक के बचपन को दर्शाया है उससे यह स्पष्ट होता है कि प्रेमचंद ने बहुत पहले ही भविष्य का आकलन कर लिया था। प्रेमचंद की कहानियो से स्पष्ट है कि उन्होंने अपनी कहानियों में जिस बचपन का वर्णन प्रस्तुत किया है वह सामान्य नहीं है।

बीज शब्द

प्रेमचंद, साहित्य, कहानी, बचपन, समाज,

प्रस्तावना

प्रेमचंद हिंदी कथा साहित्य में अग्रणी लेखक माने जाते है। कथा साहित्य को प्रेमचंद ने अपनी लेखनी से उत्कृष्ट बनाया है। प्रेमचंद की कथा साहित्य की अगर बात हो तो हम पाते है कि प्रेमचंद की कहानियों में बाल मनोविज्ञान का बड़ा ही उत्कृष्ट वर्णन मिलता है। प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में बालकों के बचपन का जो स्वरूप प्रस्तुत किया है वह उनकी कहानी लेखन शैली की उत्कृष्टता को दर्शाता है। प्रेमचंद की कहानियो में बचपन का स्वरूप अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग तरह से निकल कर आता है। प्रेमचंद ने जिस तरह से एक बालक के बचपन को दर्शाया है उससे यह स्पष्ट होता है कि प्रेमचंद ने बहुत पहले ही भविष्य का आकलन कर लिया था। प्रेमचंद की कहानियो से स्पष्ट है कि उन्होंने अपनी कहानियों में जिस बचपन का वर्णन प्रस्तुत किया है वह सामान्य नहीं है। प्रेमचंद की कहानियों में बालक बचपन में ही वयस्क होता दिखाई देता है। इसके अतिरिक्त प्रेमचंद की कहानियों में बालक की सोच एक वयस्क की सोच बनती है। प्रेमचंद की कहानियों का बालक सामान्य बचपन नहीं जीता बल्कि अपने बचपन में ही संघर्ष करता दिखाई पता है। चाहे वह बालक ईदगाह का ‘हामिद’ हो या बड़े भाई साहब के ‘हलधर’। वहीं नादान दोस्त का ‘केशव’ और उसकी बहन ‘श्यामा’ की नादानियाँ हो अथवा रामलीला के ‘बालक प्रेमचंद’ हो दोनों के बचपन में काफी अंतर और विशिष्टता दिखाई पड़ती है। प्रेमचंद ने जहा गुल्ली डंडा के माध्यम से बालक के बचपन में पारंपरिक खेलों के महत्व को स्पष्ट किया है और यह बताने का प्रयास किया है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देशी खेलों का कोई महत्व नहीं रह गया है। छोटा से छोटा बालक हो या कोई वयस्क सभी विलायती खेलों की तरफ अपना ध्यान आकृष्ट कर रहे है।

मध्यम वर्गीय परिवार में बचपन

यहाँ प्रेमचंद की जिन कहानियों का चयन किया गया है, उनमें से अधिकांशत: कहानी का पारिवारिक परिवेश मध्यम वर्गीय है। जिन कहानियों की यहाँ चर्चा की जा रही है उनमें एक समानता दिखाई पड़ती है और वह कि उन सभी कहानियों में मध्यम वर्ग का चित्रण किया गया है। कहानी ‘ईदगाह’ में जिस मध्यम वर्गीय परिवार का वर्णन किया गया है वह परिवार गरीबी की मार झेल रहा है जिसकी वजह से उस परिवार के बालक ‘हामिद’ का बचपन अभावों में कटता है। हामिद को अच्छे कपड़े उपलब्ध नहीं हो पाता है तथा दो वक्त का भोजन भी ठीक से नहीं मिल पता है। जब हामिद की दादी उसे ईदगाह के लिए भेजती है तब उस दिन भी वह पुराने कपड़े और फटे हुए जूते पहन कर ईदगाह जाता है। यहाँ तक की बालक हामिद के पास इतने पैसे भी नहीं होते है कि वह ईदगाह में मिठाईयां खा सके। उसके दोस्त उसे मिठाई दिखा-दिखा कर चिढ़ाते है। बालक हामिद अपने हम उम्र साथियों को खूब मजे करता देखता है तो उसका भी मन होता है कि वह भी उनकी तरह अच्छे-अच्छे खिलौने खरीदे, मिठाई खाए तथा झुला झूले किन्तु हामिद स्वयं को किसी तरह समझा कर मना लेता है। बालक हामिद का बचपन पूरी तरह से संसाधनों के अभाव में बीत रहा होता है। उसकी दादी भरसक प्रयास करती है कि वह हामिद को किसी चीज़ की कमी नहीं होने दे और बालक हामिद को ऐसा न लगे की उसके पास कुछ नहीं है। एक मुस्लिम परिवार में बालक का बचपन जिस परिस्थिति में बीतता है, उसका सबसे उत्कृष्ट उदाहरण ‘ईदगाह’ कहानी है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अगर हम इस कहानी के आधार पर मुस्लिम समाज के बालक के बचपन की बात करे तो पाते है कि आज के समय में भी मुस्लिम परिवार के बालकों की बचपन अधिक अच्छी नहीं है। इस कहानी के विपरीत आज मुस्लिम समाज के बालक का बचपन पूर्णत: नष्ट हो रहा है। आज के समय में मुस्लिम परिवार में बालकों की शिक्षा पर भी ध्यान नहीं दिया जाता है। इसके अतिरिक्त बालकों को बचपन से ही काम-धंधे में लगा दिया जाता है।

‘चोरी’ कहानी के आधार पर यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि एक मध्यम वर्गीय परिवार में बचपन बड़े ही आदर्शों एवं कड़े नियमों के साथ बीतता है। बालक प्रेमचंद और उनके चचरे भाई जब एक रुपया की चोरी करते है तो उसके लिए उन्हें सजा मिलती है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अगर हम बात करे तो पाते है की आज भी एक मध्यम वर्गीय परिवार में बालकों को बालपन से ही नियमों एवं आदर्शों का पाठ पढाया जाता है जिससे बालक बाहर नहीं निकल पाता है। इन नियमों और आदर्शों में बालक का बचपन भी कई बार नष्ट हो जाता है। जब परिवार में नियम और आदर्शों को अधिक महत्व दिया जाये तो इससे स्पष्ट होता है कि उस परिवार में बालकों के स्वयं कुछ करने की स्वतंत्रता नहीं होती है। ऐसे परिवार में बालकों को वही करने दिया जाता है जो कि परिवार के बड़े-बुजुर्ग कहते है। इस स्थिति में बालक स्वयं को बंधन में पाता और जिससे बालक विकास प्रकिया भी प्रभावित होती है। ‘चोरी’ कहानी का बालक और उसका भाई अपने घर में बहुत दर कर रहते है जिसकी वजह से वे न तो अपनी मर्जी से खेल पाते है और न ही कहीं घूम पाते है। वर्तमान में समाज की बिगड़ते परिवेश को देखा कर यह भी कहा जा सकता है कि बालकों को अपने घर से बाहर भी नहीं निकलने दिया जाता है क्योंकि माता-पिता को लगता है कि उनका बालक समाज में जिन बालकों के संपर्क में आएगा और उनसे चीजों को सीखेगा जो कि उसके व्यक्तित्व को प्रभावित करेगा। इसलिए मध्यम वर्गीय परिवार के बालकों पर अधिक नियंत्रण रखा जाता है और उन्हें अनुशासन एवं आदर्श का पाठ पढ़ाया जाता है।

‘नादान दोस्त’ कहानी का मध्यम वर्गीय परिवार यह दर्शाता है कि वे अपने बच्चों पर भी नियंत्रण रखना चाहते है। इस कहानी का बालक भी अपनी बचपन की तमाम गतिविधियों में लिप्त है। बालक केशव की माँ केशव और उसकी बहन पर नज़र रखती है कि कहीं दोनों बच्चे किसी प्रकार की शरारत तो नहीं करते है।

‘बड़े भाई साहब’ कहानी दो भाइयों की कहानी है, जो कि छात्रावास में रहकर पढ़ाई करते हैं। भाई-बहन के बीच एक तरह की सामान्य लड़ाई प्रायः ही चलती रहती है, भाई-बहन हों या बहन-बहन हों, उनके बीच एक अलग ही तरह का झगड़ा होता रहता है। प्रस्तुत कहानी ‘बड़े भाई साहब’ कुछ अलग तरह के मनोविज्ञान की कहानी है, एक ही छात्रावास में रहने वाले सगे भाई अलग तरह की ज़िन्दगी जीना पसंद करते हैं। बड़े भाई साहब के मन में कहीं-न-कहीं असफल होने की कुंठा है, जिसे वह छोटे भाई पर उतारना चाहता है। छोटा भाई मस्तमौला है, वह पढ़ाई के बोझ को खेलने, पतंग उड़ाने में या फिर मित्रों के बीच खालिस गप्पबाजी में बिताना चाहता है। हालाँकि इसका यह मतलब नहीं है कि छोटा भाई पढ़ाई में अच्छा नहीं है। पहले यह कहावत बहुत प्रचलित थी कि ‘खेलोगे-कूदोगे होगे खराब…..पढोगे-लिखोगे होगे नवाब।’ बड़े भाई साहब इस कथन पर बहुत विश्वास करते हैं, इसीलिए वे दिन-रात पढ़ाई में लगे रहते हैं। बावजूद इसके उनके साथ असफलता लगातार बनी रहती है। छोटे और बड़े भाई के बीच ज्यों-ज्यों कक्षाओं का अंतर कम होता जाता है, उनमें एक तरह की दूरी भी आने लगती है, छोटा भाई जहाँ बेफिक्र होकर पूर्ववत अपने दैनिक जीवन में लगा रहता है, वही बड़ा भाई अपने असफलताओं के बीच इस डर में जी रहा है कि उसका छोटा भाई कहीं बिगड़ न जाए। भारतीय समाज की नैतिकताओं का ही प्रभाव है कि बड़े बही या बहन एक तरह से द्वैतीयक अभिभावक की तरह होते हैं, छोटे भाई-बहन का उनसे डरना स्वभाविक होता हैं। छात्रावास में रहने वाले ये दोनों भाई एक सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार से आते है, उनकी जरूरतें सामान्य रूप से उनके माता-पिता पूरी करते हैं। आधुनिक युग में भी देखे तो पते हैं कि पढ़ाई और कैरियर को लेकर आज की पीढ़ी एक भयंकर दबाव में जी रही है। छोटे बच्चों का स्कूली बस्ता उसके खुद के भार से ज्यादा होता है। लगातार बढ़ती आबादी ने आज की पीढ़ी को कैरियर को ले कर एक तरह के डर में जीने को मजबूर किया है। प्रस्तुत कहानी भी इसी तरह के दवाब से गुजरती दिखती है, अंग्रेज़ी की पढ़ाई का दबाव देता रहता है। वास्तव में उस समय भी पढ़ाई को एक बोझ की तरह ही लिया जाता था, नैतिक मूल्यों का बहुत दबाव होता था, छोटी-छोटी बातें किसी के चरित्र का मूल्यांकन करने के लिए काफी होती थी। खेलना या घूमना अच्छी आदतों में नहीं आता था, बड़े भाई होने के कारण छोटा भाई कई बार बेफिक्र भी रहता था।

‘रामलीला’ कहानी का बालक भी कुछ इसी तरह का बेफिक्र स्वभाव का बच्चा था। सामान्य बच्चे की तरह उसमे समाज और अन्य चीजों को लेकर जिज्ञासा और उत्सुकता भी बराबर थी। प्रेमचंद की कहानियों के चरित्र प्रायः ग्रामीण पृष्ठभूमि से आते हैं, इसलिए उनके आस-पास पाया जाने वाला वातावरण भी कोई आसाधारण नहीं होता, बल्कि जीवन की सामान्य घटनाएँ ही होती हैं। जीवन के प्रथम चरण में हर बच्चा जिज्ञासु और कुतूहल से परिपूर्ण होता है, उसे हर चीज़ नई लगती है, अच्छी लगती है। किसी का रोकना-टोकना उसे बिल्कुल नहीं भाता। समाज के भीतर होने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक कार्य भी उसे बहुत लुभाते हैं। चूँकि जिम्मेदारियाँ उसे मिली नहीं होती हैं, इसलिए वह इनमें शामिल होने के लिए लालायित रहता है। प्रस्तुत कहानी में बालक को रामलीला बहुत पसंद थी, जो उसके घर के सामने ही हुआ करती थी। बालक प्रेमचंद समाज में होने वाले अंतर्विरोधी व्यवहारों से दुखी भी होता है। रामलीला में राम का चरित्र निभाने वाले की उपेक्षा और नाचने वाली स्त्री की तरफ लोलुप निगाह रखने वाले लोगों की वह मन ही मन बहुत भर्त्सना करता है। अपने बचाए पैसे को वह अपने ‘राम’ को दे देता है, यह सोचकर कि उनके कुछ काम आ जायेगा। समाज के अंतर्विरोधी व्यवहार, लालच और भोग-विलासपूर्ण व्यवहार को बालक बहुत जल्द समझ लेता है। जब हम समाजीकरण की प्रक्रिया पर विचार करते हैं, तो पाते हैं कि कोई भी बालक जिस व्यवहार को अपने आस-पास पाता है, उसी व्यवहार को अपनाते हुए जीवन भर उसका पालन करता है। इस तरह कई बार कुछ रुढ़िवादी विचारों और नियमों पर कोई सवाल उठाया ही नहीं जा सकता, चीजें ऐसे ही चलती रहती हैं। बालक प्रेमचंद को अपने पिता से भी अभूत गुस्सा था, क्योंकि उन्होंने राम जी की पूजा के बजाए एक नाचने वाली स्त्री का ज्यादा सम्मान किया, जो प्रेमचंद की नजर में गुनाह करने जैसा था। बालक एक संपन्न परिवार से है, उसके पिता सख्त मिजाज के है। सवाल पूछना या घूमना-फिरना उसके पिता को बिलकुल पसंद नहीं। भारतीय समाज में यह अजीब सा नियम है कि अभिभावक का सख्त होना जरूरी है, नहीं तो वह बिगड़ जाएगा। उन्हें अपनी वृद्धावस्था में यह शिकायत रहती है कि बच्चे अपने परिवार में व्यस्त रहते है और वृद्धों को समय ही नहीं देते। वास्ताविकता यह है कि उनमें जुड़ाव हो ही नहीं पाता। संयुक्त परिवार परंपरा में बच्चे को विशेष तरीके से नहीं देखा जाता, बल्कि उसका काम सिर्फ पढ़ाई करना और भोजन करना मात्र होता है….उसकी किसी जरूरत को भी बहुत विशेष दर्जे के साथ नहीं सुना जाता। जबकि बच्चों के मनोविज्ञान, उनकी जरूरतों और उनके व्यवहार को समझने के लिए उनके साथ बातचीत करना और उनके क्रिया-कलापों पर नजर रखना आवश्यक होता है। बच्चे को उसके किसी कार्य या गलती के लिए दण्डित किया जाना भी गलत है, कई बार इससे वह कुंठित होता है या हिन-भावना से ग्रस्त हो जाता है। खेल को भी उसके जीवन का अभिन्न हिस्सा बनाया जाना चाहिए, जिससे उसका शारीरिक और मानसिक विकास संतुलित रूप से हो सके।

‘दो भाई’ कहानी का वातावरण बाकि कहानियों से थोड़ा अलग है। केदार और माधव, जो बचपन में एक-दूसरे को इतना प्रेम करते थे कि एक-दूसरे के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं करना चाहते थे। खाना, खेलना, पढ़ना, सोना, नहाना इत्यादि सारे कार्य वे दोनों एक-दूसरे के साथ ही करते थे। जैसे-जैसे वे बढ़ते गए, उनका प्रेम भी बढ़ता गया। समस्या तब होती है, जब उन दोनों का विवाह होता है। केदार की पत्नी चंपा और माधव की पत्नी श्यामा के आते ही परिवार में विघटन प्रारंभ हो गया। दोनों भाइयों के बीच बँटबारा हुआ और साथ ही उनके बीच का प्रेम भी विभाजित हो गया। स्त्रीवादी नज़रिए से देखें तो यह विवादित कहानी है, क्योंकि यहाँ स्त्रियों को परिवार तोड़ने का कारण बताया गया है। वही अगर सामान्य नजर से देखें तो पाते है कि दोनों भाइयों के प्रेम का विस्थापन हो गया था, और उनकी जगह उनकी पत्नियों ने ले ली थी। वास्तविकता यह है कि जीवन के अलग-अलग स्तरों पर जैसे ही हमारी परिस्थितियाँ और जरूरतें बदलती हैं, हम प्राथमिकताएं भी बदल देते हैं। भारतीय समाज व्यवस्था में इस तरह का पारिवारिक विभाजन कोई नई बात नहीं, दोनों भाई आगे चलकर एक-दूसरे के खिलाफ रहने लगते हैं। हाँलाकि उनकी पत्नियों को भी कुछ हद तक इस बात के लिए जिम्मेदार माना जा सकता है कि अपने पतियों को भड़काने में उनका भी हाथ होता है, लेकिन धैर्यपूर्वक जिस मुद्दे को सुलझाया जा सकता था, उसमें दुश्मनी पैदा हो जाती है। दोनों भाई एक-दुसरे का नुकसान करने, सम्पति हडपने की योजना बनाते पाए जाते हैं। आज 21वीं में भी संयुक्त परिवार इसी तरह टूटते जा रहे हैं, नगरीकरण, महँगाई, एकल परिवार व्यवस्था के फायदे इत्यादी ने लगातार परिवारों को विभाजित किया है। संयुक्त परिवार के टूटने और एकल परिवार प्रथा के भविष्य को प्रेमचंद ने प्रस्तुत कहानी के माध्यम से बहुत पहले ही घोषित कर दिया था।

‘कजाकी’ कहानी में भी एक संपन्न परिवार के बालक की कथा मिलती है, जिसमें वह अपने जीवन के अलग-अलग दौर में अपने से छोटे वर्ग के लोगों के साथ मिलता है और उनसे उसका लगाव हो जाता है। अधिकारी पिता और गृहिणी माता के अनुशासन में जी रहा बच्चा कहीं-कहीं बहुत संवेदनशील भी दिखाई देता है। बच्चा अभी स्कूल नहीं जाता बल्कि उसकी शिक्षा-दीक्षा का कार्य घर पर ही चल रहा है। ‘कजाकी’ नाम का चरित्र उसके पिता के मातहत काम करता था। कजाकी को बालक से बहुत प्रेम था, एक निश्चित समय पर वह बालक के पास हर दिन पहुँचता है, उसके साथ खेलता है,उसके लिए कुछ न कुछ चीजें भी लाता है। कहानी का मूल तत्व यह है किएक शिशु का स्नेह जाति, धर्म, वर्ग या नस्ल के इतर सिर्फ स्नेह की तरफ झुकता है, लाभ-हानि से उसको कोई मतलब नहीं होता। बालक को कजाकी से अलग-अलग विषयों पर कहानी सुनना भी पसंद था, अपने माता-पिता के अनुशासन से हटकर वह कजाकी के साथ स्वयं बहुत को आज़ाद महसूस करता है। बच्चे अपने दोस्त मुन्नू के साथ भी बहुत समय बिताता था, उसके साथ प्राय: प्रचलित खेल खेला करता था। पिता जी द्वारा कजाकी को नौकरी से निकालना बालक को बहुत दुखी कर देता है, उसके व्यवहार को सुन्न कर देता है। बच्चे अपने बालपन में लाभ-हानि या ऊँच-नीच की भावना से परे होते हैं, इसलिए तो उन्हें इश्वर का दूसरा रूप भी माना जाता है।

‘गुल्ली डंडा’ कहानी का बालक अपने बचपन में बहुत अकेलापन महसूस करता है। सम्पन्न परिवार होने के कारण बालक के माता-पिता अपने काम में व्यस्त रहते है, जबकि पिता को अपने पुत्र की चिंता भी रहती है कि वह भविष्य में क्या करेगा। बालक को गुल्ली डंडा खेलना पसंद है, जिसे वह समाज के छोटे तबके के बच्चों के साथ खेलता है। बच्चा अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल में पढ़ता है, जो उसकी उच्च आर्थिक स्थिति को अभिव्यक्त करता है। ‘गया’ उसका बालपन का साथी है और गुल्ली डंडा खेल का नियमित साथी भी। पिताजी के तबादले के साथ ही उसके दोस्त भी बदलते रहते हैं, लेकिन ‘गया’ की स्मृति उसके मन में लगातार बनी रहती है। युवावस्था में जब वह वापस गया से मिलता है, तो फिर से गुल्ली डंडा खेलने की ख्वाहिश जाहिर करता है, परन्तु यह स्वाभाविक रूप से संभव नहीं हो पाता। बालक पढ़-लिखकर बड़ा अधिकारी बन चूका है और गया किसी का निजी मजदूर, उनके बीच सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की मोटी दिवार खड़ी हो चुकी है। गया, बालक को अफसर या साहब मानता है, उसके साथ मन से खेल नहीं पाता, लेकिन अपने वर्ग के लोगों में वह सहज रहता है। कहानी का सन्देश यह है कि बचपन में तो हम सब जिससे चाहें उससे मित्रता कर लें, खाने-पीने का साथ बना लें या विद्यालय में साथ रहें, परन्तु बड़े होते ही माहौल बदल जाता है। समाज व्यवस्था के कुछ नियम अभी भी वैसे ही हैं, जैसे वे कुछ सदी पहले रहे होंगे।

निष्कर्ष:

प्रेमचंद की कहानियों में बाल जीवन को लेकर बहुत अलग-अलग परिस्थितियाँ मिलती हैं। कुछ बातें और नियम जो पहले जैसे थे, वैसे ही आज भी हैं, कुछ भी बदलाव नहीं आया है। अभिभावक आज भी बच्चों को डर, दबाव और गैरजरूरी अनुशासन में रखना चाहते है, पर वे यह नहीं समझते कि जिस चीज़ को जितना दबाया जाता है, उसकी प्रतिक्रिया उतनी ही विपरीत होती है। समाज के अलग-अलग पारिवारिक पृष्ठभूमि से आने वाले बच्चों का सामाजीकरण भी अलग-अलग होता है। सामाजिक नियम, परम्पराएँ, रूढ़ियाँ, क्रियाकलाप… जो भी बच्चा देखता है, वही सीखता है और उसी का व्यवहार अपने जीवन में करता है।

सन्दर्भ ग्रंथ सूची

  1. प्रेमचंद. (2013). मानसरोवर भाग 1. प्रकाशन संस्थान. नई दिल्ली.
  2. प्रेमचंद. (2013). मानसरोवर भाग 2. प्रकाशन संस्थान. नई दिल्ली.
  3. प्रेमचंद. (2013). मानसरोवर भाग 3. प्रकाशन संस्थान. नई दिल्ली.
  4. प्रेमचंद. (2013). मानसरोवर भाग 4. प्रकाशन संस्थान. नई दिल्ली.
  5. प्रेमचंद. (2013). मानसरोवर भाग 5. प्रकाशन संस्थान. नई दिल्ली.
  6. प्रेमचंद. (2013). मानसरोवर भाग 6. प्रकाशन संस्थान. नई दिल्ली.
  7. प्रेमचंद. (2013). मानसरोवर भाग 7. प्रकाशन संस्थान. नई दिल्ली.
  8. प्रेमचंद. (2013). मानसरोवर भाग 8. प्रकाशन संस्थान. नई दिल्ली.

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