संघर्ष की दास्तान वाया थर्ड जेन्डर
डॉ0 आलोक कुमार सिंह
सहायक प्राध्यापक-हिन्दी विभाग
अटल बिहारी वाजपेई नगर निगम
डिग्री कॉलेज , लखनऊ
शोध सार
समाज का अंग होकर भी अपने अधिकारों से वंचित और अपनी अस्मिता के लिए संघर्षत किन्नर समाज आज भी प्रमुखता से चर्चा के केंद्र में नहीं है। इन्हें ‘तीसरी दुनिया’ ‘थर्ड जेंडर’ या ‘हिजड़े’ इत्यादि कई रूप में समाज जानता और पहचानता है। यह वर्ग पुरातनकाल से उपेक्षित रहा है। तब से अब तक इनके संघर्ष का कोई अंत नहीं रहा है। बात की जाए तो उसे समाज का दर्पण कहा जाता है जैसा समाज में घटता है साहित्य उसकी अभिव्यक्ति विभिन्न स्वरों में करने की क्षमता रखता है। लेकिन इस तीसरी सत्ता की बात आते ही साहित्य में भी मौन व्याप्त दिखाई देता है। अधिकारों और कर्तव्यों की लड़ाई की बात तो दूर है, उनकी मूलभूत आवश्यकताओं पर भी कम ही लिखा गया है। इधर कुछ समय से इस क्षेत्र में काफी काम हुआ है। साहित्य में इसकी आमद सुनी जा सकती है। कुछेक साहित्यकार हैं जिन्होंने बेबाकी से इस समाज के यथार्थ को हमारे सामने लाने का प्रयास किया है।
बीज शब्द: समाज, किन्नर, थर्ड जेंडर, विमर्श, साहित्य, अस्मिता, संघर्ष, कहानी, उपन्यास
शोध विस्तार
समाज के दो वर्गो में बंटे होने की परिकल्पना बहुत पुरानी है। यहाँ जन्म से ही वर्ग निर्धारण हो जाता है। यशपाल नें अपने उपन्यास ‘दिव्या’ में यह गंभीर प्रश्न उठाया था कि– ‘जन्म का अपराध..? यदि यह अपराध है तो इसका मार्जन किस प्रकार संभव है ? शस्त्र की शक्ति, धन की शक्ति, विद्या की शक्ति, कोई शक्ति जन्म को परिवर्तित नहीं कर सकती! कोई भी उपाय जन्म के अपराध का मार्जन नहीं कर सकता! जन्म के अपराध का प्रतिकार क्या मनुष्य दैव से ले?1 यह ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर मिलना सम्भव नहीं है। प्रथमदृष्टया तो यह दर्द निम्न वर्ण में जन्में पृथुसेन का है जो वर्ण व्यवस्था का शिकार होता है किन्तु यह जन्म की विडंबना तो हर उस व्यक्ति को झकझोरती है जो मुख्यधारा से इतर है। इसी धारा में वह वर्ग भी है जिसे समाज ‘तीसरी दुनिया’ ‘थर्ड जेंडर’ या ‘हिजड़े’ के रूप में जानता और पहचानता है। यह वर्ग पुरातनकाल से उपेक्षित रहा है। तब से अब तक इनके संघर्ष का कोई अंत नहीं रहा है।
इनके संघर्ष और समस्याओं के बारे में सुधीश पचैरी ने कहते है कि यह ‘असामान्य लिंगी होने के साथ ही समाज के हाशियों पर धकेल दिए गए, इनकी सबसे बड़ी समस्या आजीविका है जो इन्हें अंततः इनके समुदाय में ले जाती है। ..अकेले अकेले बहिष्कृत ये किन्नर आर्थिक रूप से भी हाशिये पर डाल जाते हैं। ..नपुंसकलिंगी कहाँ कैसे जियेंगे? समाज का सहज स्वीकृत हिस्सा कब बनेंगे।’2 यह प्रश्न सदियों से हमारे सामने मुंह उठाये खड़ा है। साहित्य की बात की जाए तो उसे समाज का दर्पण कहा जाता है जैसा समाज में घटता है साहित्य उसकी अभिव्यक्ति विभिन्न स्वरों में करने की क्षमता रखता है। लेकिन इस तीसरी सत्ता की बात आते ही साहित्य में भी मौन व्याप्त दिखाई देता है। अधिकारों और कर्तव्यों की लड़ाई की बात तो दूर है, उनकी मूलभूत आवश्यकताओं पर भी कम ही लिखा गया है। इधर कुछ समय से इस क्षेत्र में काफी काम हुआ है। साहित्य में इसकी आमद सुनी जा सकती है। कुछेक साहित्यकार हैं जिन्होंने बेबाकी से इस समाज के यथार्थ को हमारे सामने लाने का प्रयास किया है। साहित्य की विविध विधाओं में यह प्रयास देखा जा सकता है। प्रदीप सौरभ का उपन्यास ‘तीसरी ताली’ इस दृष्टि से खूब चर्चित हुआ। इस विषय पर सबसे समृद्ध विधा कहानियों की रही है। अब तो हिंदी में ही नहीं बल्कि अन्य भाषाओं जैसे पंजाबी, गुजराती, बांग्ला, मारवाड़ी आदि में भी इस विषय पर कहानियां लिखी जा रही हैं। इन कहानियों में इस वर्ग के जीवन की कठिनाईयों का सजीव चित्रण मिलता है।
यह संघर्ष व्यक्ति केन्द्रित न होकर एक पूरे वर्ग की है। बिंदा महराज (शिव प्रसाद सिंह), खलीक अहमद बूआ (राही मासूम रजा), बीच के लोग (सलाम बिन रजाक), संझा (किरण सिंह), त्रासदी (महेंद्र भीष्म), किन्नर (एस.आर. हरनोट), ई मुर्दन का गाँव (कुसुम अंसल), नेग (लवलेश दत्त), संकल्प (विजेंद्र प्रताप सिंह), हिजड़ा (श्री कृष्ण सैनी), रतियावन की चेली (ललित शर्मा) आदि कहानियां तीसरी दुनिया के यथार्थ को निरुपित करती हैं। अभी तक यह कहानियां संकलन के रूप में सामने नहीं आई थी, किन्तु हाल ही में वांग्मय पत्रिका नें अपने थर्ड जेंडर– कहानी विशेषांक द्वारा इन्हें समेकित किया है। इन कहानियों के अपने अलग यथार्थ और निहितार्थ हैं किन्तु सबका उद्देश्य एक ही है, तीसरी दुनिया के सत्य को सामने लाना और उनके संघर्ष को स्वर देना।
‘संकल्प’ कहानी में नया फलक पाठक के सामने आता है। हिजड़ों में भी एक अलग वर्ग बुचरा हिजड़ों का होता है, मेडिकल साइंस की सहायता से हिजड़े के अधूरे जीवन से पूर्णतः परिवर्तित होकर पूर्णत्व जीवन को प्राप्त कर सकते है। कहानी में गुरुमाई और माधुरी के माध्यम से इस तथ्य को कथा का रूप देते हुए सामने रखा गया है। यह बात जब माधुरी को पता चलती है कि वह भी समाज में एक बेहतर जीवन जी सकती है तो वह इस दिशा में प्रयास करना शुरू करती है। चूँकि समाज में अपमान और उपेक्षा झेल रहे इस समुदाय में कभी भी समाज के प्रति दृष्टिकोण नहीं बदला। ‘समाज से भी हिजड़ों को शिवाय दर्द और तकलीफ के क्या प्राप्त होता है। लाख कानून बन जाने के बाद भी क्या आज तक समाज में बड़ी जाति वाले आज तक नीची जाति के साथ अपने व्यवहार को बदल पाए। ऐसे में हिजड़ों के लिए नियम कानून बनाए जाने की जानकारी होने के बाद भी माधुरी को समाज से कोई भरोसा नहीं थाकृ। अधिकाँश लोग जानकारी के अभाव में चिकित्सक से बिना परामर्श लिए ही यह मान लेते हैं कि ये तो हिजड़ा है और कभी ठीक नहीं होगा परन्तु ऐसा नहीं है। हाँ इतना अवश्य है की बहुत से मामले ठीक न होने वाले होते हैं परन्तु बहुत से मामलों में ओपरेशन या प्लास्टिक सर्जरी के माध्यम से भी हिजड़ों को ठीक किया भी जा सकता है।’3
‘इज्जत के रहबर’ कहानी में इस वर्ग के जीवन की त्रासदी के साथ ही मानवीय संवेदनाओं का भी चित्रण मिलता है। यह वर्ग समाज के द्वारा भले ही हमेशा से उपेक्षा का शिकार होता आया है किन्तु इनके भीतर सामाजिकता की भावना सामान्य स्तर की ही होती है, तभी तो कहानी की मुख्य पात्र सोफिया कहती है– ‘हमारे भी कुछ उसूल है लालजी। लड़की की शादी में लड़की वालों से शगुन नहीं लेते, लड़के वालों से लेते हैं।… और जिनके यहाँ गमी हो जाती है उसके यहाँ साल भर तक नेग दस्तूर नहीं लेते। ..पहली लड़की होने पर जिद नहीं करते। ..गरीबों को कम पैसे में बक्श देते हैं।’ ‘लालजी हमारी संख्या तो ईश्वर बढाता है। खुदा न करे वह और अधिक संख्या बढ़ाए। हमें कितना कष्ट है इस योनि में होने का, ये तो हम ही जानती हैं।’4
‘पन्ना बा’ कहानी अत्यन्त मार्मिक है। यह कहानी कम और संस्मरण अधिक है। यह समाज की रूढ़ियों पर करारा व्यंग्य करती है। यह ज्वाजल्यमान प्रश्न आज भी हमारे समक्ष मुंह उठाये खड़ा है कि ‘अगर यह वरदान कि ‘किन्नर की दुआ की कोई होड़ नहीं और उसकी बद्दुआ का कोई तोड़ नहीं’ उनके साथ नही होता तो प्रकृति के इस अभिशाप को झेलता यह वर्ग किस तरह जिंदा रहता।’ लेखिका का आक्रोश समाज और उसकी व्यवस्था के विरुद्ध है वह लिखती है– ‘मेरा मन दुःख और क्रोध से जल रहा थाद्य मृत्यु स्वाभाविक दुःख देती है और क्रोध इसलिए कि मैं भी चाहती थी कि उसकी लाश पर जूते बरसा कर मै भी उसे किन्नर के जन्म पर धिक्कारू। और शायद वह मेरे जूतों की बौछार से डर कर अगले जन्म में किन्नर के रूप में पैदा होने की हिमाकत न करे ।’5
सलाम बिन रजाक की एक प्रतीकात्मक कहानी है ‘बीच के लोग’। यह कहानी व्यंग्यात्मक तरीके से सामाजिक व्यवस्था पर गंभीर प्रश्न उठाती है। कहानी में हिजड़ों की एक टोली का जुलूस निकल रहा है, उन्हें रोकने में पुलिस प्रशासन के लिए एक चुनौती बन जाता है। शहर एस.पी. कहते हैं–‘स्त्रियों और हिजड़ों में क्या अंतर है।’ तो उत्तर लेडी कांस्टेबल देती है और कहती है– ‘सर! यों देखा जाये तो पुरुषों और हिजड़ों में भी कोई विशेष अंतर नहीं होता है।’6 अर्थात यह पूरा समाज ही अपने मूल रूप में हिजड़ों की प्रवृत्ति को धारण किये हुए है।
‘संझा’ इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है, जिसे किरण सिंह नें लिखा है। यह एक लम्बी कहानी है। जिसकी मुख्य पात्र संझा है। संझा एक हिजड़ा है। वह दो लिंगो के बिन्दुओं का मध्य है, इसी कारण उसका नाम संझा रखा जाता है। यह कहानी इस वर्ग की यातना को बहुत ही मनोविज्ञानिक ढंग से व्यक्त करती है। ‘हिजड़ा’ कहानी भी हिजड़ो की संवेदना को दर्शाती है। जिसमें रजिया नाम के एक हिजड़े नें एक अनाथ को पाल–पोस कर न केवल बड़ा करता है बल्कि पढ़ा–लिखा कर उसे आई.एस. भी बना देता है। यह सभी कहानियाँ इस समानांतर दुनिया का जीता जागता दस्तावेज हैं। ‘खुश रहो क्लिनिक‘ कहानी में किन्नर संतति को सामाजिक रूप से स्वीकार न कर पानें का दंश है। समाज की परम्पराएं व मान्यताएं ऐसी हैं जिसे मानने के लिए हम आदिम काल से बाध्य है। कहानी का मुख्य पात्र ऋषि एक किन्नर है। उसका पिता बचपन से ही उससे नफरत करता है और मौका मिलते ही परिवार से छुप कर उसे किन्नरों के यहाँ भिजवा देता है। उसका बचपन बहुत कष्ट में बीतता है।
इन कहानियों के पात्रों का अध्ययन करते हुए एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि अधिकाँश किन्नर घोर आस्तिक होते हैं और सदियों से चली आ रही परम्पराओं का शिद्दत से पालन करते हैं। बिंदा महराज, खलीक अहमद बुआ, पार्वती, संझा, सुन्दरी आदि अनेक उदाहरण हैं। सभी कहानियों में भारतीय समाज की परम्परागत कुत्सित सोच दिखाई देती है जो सदियों से लेकर आज भी अपनी संकीर्ण सोच से उबार नहीं पायी। यह वर्ग हमारे समाज का अभिन्न अंग है फिर भी समाज का हर वर्ग इस को हिकारत से देखता है और मनोरंजन से अधिक और कुछ नहीं समझता है। भले ही साहित्य में थर्ड जेंडर पर लेखन अभी प्रारम्भिक अवस्था में है, लेकिन ये कहानियाँ बड़ी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराती हैं। यह कहानियाँ व्यवस्था के विरुद्ध प्रश्न खड़े करती हैं और इस वर्ग की मूलभूत आवश्यकताओं को उजागर करती है। जिस समाज में इन्हें हेय द्रष्टि से देखा जाता रहा है, उसी समाज के बरक्स साहित्य में इनकी व्यथा कथा को स्वर देना, बहुत बड़ी उपलब्धि है। ये कहानियां समाज की सोच को बदलने का एक नया नजरिया विकसित करती है ।
सन्दर्भ–
- दिव्या–यशपाल, लोक भारती प्रकाशन इलाहाबाद, पृ–21
- तीसरी ताली– प्रदीप सौरभ–वाणी प्रकाशन, कवर पेज
- डॉ0 एम. फीरोज खान, थर्ड जेन्डरःहिन्दी कहानियां, संकल्प–विजेंद्र प्रताप सिंह, अनुसंधान पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, कानपुर, 2017, पृ0-133
- वही, इज्जत के रहबर–डॉ0 पद्यमा शर्मा, पृ0-92,95
- वही, पन्ना बा–गरिमा संजय दुबे, पृ0-1213-
- वही, बीच के लोग–सलाम बिन रजाक, पृ0- 38