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हिंदी उपन्यास और किन्नर समुदाय का संघर्ष

*शिवांक त्रिपाठी

 

प्रस्तावना

वर्तमान समय में व्यक्ति को महत्व देने के कारण सदियों से समाज के निचले पायदान पर खड़े अनेक गुमनाम एवं उपेक्षित वर्गों को विमर्श के केंद्र में आने का स्थान मिला, जिसमें स्त्री, दलित, आदिवासी, विकलांग, किन्नर, आदि प्रमुख हैं । अस्मिता-मूलक विमर्श अपने अस्तित्व को समाज में बनाए रखने तथा समाज में अपने महत्व और अधिकारों की प्राप्ति के लिए प्रयासरत रहें । कहीं न कहीं इन समुदायों का अस्तित्व समाज में मौजूद था और इसे न्यूनाधिक रूप से लोगों द्वारा स्वीकार किया जाता रहा है, इनके सामने मुख्य समस्या केवल समाज में अपने उचित स्थान एवं महत्व को प्राप्त करने के साथ स्वयं के प्रति हो रहे अत्याचारों के लिए समाज को जागरूक करना था । संविधान में कानूनी तौर पर इन्हें अधिकार तो काफी पहले ही मिल चुके थे यह बस उसके उचित क्रियान्वयन के लिए संघर्षशील थे परंतु इन सबके बीच ‘किन्नर समुदाय’ अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा था उसे लोगों द्वारा अपने को समाज, परिवार आदि में स्वीकार कराने को लेकर संघर्ष करना था, उसे कोई सामाजिक, राजनैतिक, कानूनी अधिकार नहीं प्राप्त थे, परिवार में उसके लिए कोई स्थान नहीं था, शिक्षा के दरवाजे उसके लिए हमेशा से बंद थे, परंपरा से जकड़े स्त्री-पुरुष मानसिकता वाले समाज में वे अपनी लैंगिक पहचान के लिए लड़ रहे थे, रोजगार के रास्ते बंद थे, सभी रास्तों के बंद होने पर भी अपनी पहचान के लिए लड़ना इनके लिए काफी दुष्कर रहा लोकतंत्र के युग में जिन्हें वर्षों तक कानून द्वारा मान्यता ही नहीं दी गई हो जिनका कानूनी रूप से कोई अस्तित्व ही नहीं स्वीकारा गया हो उनके लिए अपने अस्तित्व की तलाश करना कितना कठिन हो सकता है इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है ।

हिंदी साहित्य में इन्हीं वर्गों को विशेष रूप से केंद्र में रखकर कुछ उपन्यासों की रचना की गई जिनमें ‘यमदीप’, ‘तीसरी ताली’, ‘गुलाम मंडी’, ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’, ‘किन्नर कथा’ ‘मैं पायल…’ आदि प्रमुख है; इन उपन्यासों द्वारा किन्नर जीवन में आने वाली विभिन्न कठिनाइयों एवं उनके संघर्षों को संवेदनात्मक स्तर पर बड़ी ही प्रमुखता से उठाया गया है इस लेख में इन्हीं संवेदनाएं को सहेजने का प्रयास किया गया है ।

बीज शब्द –

अम्ब्रेला टर्म, मानवाधिकार, जीन विकृति, ट्रांसफोबिया, सामाजिक बहिष्कार, अभिशप्त, विस्थापन, वेश्यावृत्ति ।

भूमिका –

15 अप्रैल 2014 को न्यायमूर्ति के.एस. राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति ए.के. सीकरी की पीठ ने ‘नालसा बनाम भारत संघ’ के वाद में एक युगांतरकारी निर्णय दिया, जिसमें ट्रांसजेंडर समुदाय को तृतीय लिंग के रूप में स्वीकृत दी गयी और उनके मौलिक अधिकारों को पुष्ट करते हुए चार प्रमुख बातों पर बल दिया गया –

  1. हिजड़ों के प्रति समाज में मानवीय दृष्टिकोण का विकसित होना जरूरी है।
  2. हिजड़ों के प्रति मानसिकता बदलने की जरूरत है।
  3. तृतीय लिंगियों की सुरक्षा के लिए उन्हें अधिकार दिए जाने जरूरी हैं।
  4. सुविधानुसार स्त्री या पुरूष के रूप में पहचान बनाने की स्वतंत्रता दी जाय।

इस ऐतिहासिक निर्णय के बाद तृतीय लिंगी समुदाय से संबंधित साहित्य की पड़ताल प्रारम्भ हुई और विभिन्न विधाओं में नई रचनाएं तृतीय लिंग को केंद्र में रख कर की जाने लगीं। ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन’ के अनुसार,’ट्रांसजेंडर’ एक अम्ब्रेला टर्म है जिसमें वे सभी लोग शामिल हैं जिनकी लिंग की अनुभूति जन्म के समय उन्हें नियत किये गए लिंग से मेल नहीं खाती।

हिन्दी साहित्य में ट्रांसजेंडर, तृतीय लिंगी, किन्नर, हिजड़ा आदि का प्रयोग प्रायः एक ही अर्थ में किया जाता है। कुछ संगठनों एवं बौद्धिक लोगों के द्वारा किन्नर और हिजड़ा को एक ही अर्थ में प्रयोग करने पर विरोध दर्ज कराया जाता रहा है। उनके द्वारा किन्नर का अर्थ “किन्नर हिमालय में आधुनिक कन्नोर प्रदेश के पहाड़ी लोग, जिनकी भाषा कन्नौरी, गलचा, लाहौली आदि बोलियों के परिवार की हैं। किन्नर हिमालय के क्षेत्रों में बसने वाली एक मनुष्य जाति का नाम है जिसके प्रधान केंद्र हिमवत् और हेमकूट थे। पुराणों और महाभारत की कथाओं एवं आख्यानों में तो उनकी चर्चाएं प्राप्त होती ही हैं,कादम्बरी जैसे कुछ साहित्यिक ग्रंथों में भी उनके स्वरूप, निवास क्षेत्र और क्रियाकलापों के बारे में वर्णन मिलते हैं।“1, लिया जाता है।

राम प्रकाश सक्सेना द्वारा सम्पादित कोश में किन्नर शब्द के दो अर्थ दिये गए हैं –

1- (पुराण) देवलोक का एक उपदेवता जो एक प्रकार का गायक था और उसका मुंह घोड़े के समान होता था।

2- वर्तमान समय में हिजड़ा के लिए शिष्टोक्ति।

जबकि हिजड़ा लैंगिक रूप से स्त्री और पुरूष के खाँचे में न आने वाले समुदाय के लिए प्रयुक्त होता रहा है; “किसी व्यक्ति के पुरूष या स्त्री के रूप में पहचाने या परिभाषित किये जाने के लिए स्पष्ट यौनांग होना आवश्यक है। इसके लिए जननांग की अनियमितता महत्वपूर्ण है। ऐसे मानव हिजड़ा कहे जाते हैं जो लैंगिक रूप से न नर होते हैं न मादा।“3

राम प्रकाश सक्सेना द्वारा संपादित कोश में हिजड़ा शब्द के भी दो अर्थ मिलते हैं –

1- ऐसा व्यक्ति जिसमें शारीरिक दृष्टि से स्त्री पुरूष दोनों के कुछ-कुछ गुण, चिन्ह, लक्षण एक जैसे हों, ऐसा व्यक्ति न पूर्णतः पुरूष होता है न स्त्री।

2- संभोग अथवा मैथुन करने की क्षमता से रहित व्यक्ति, नपुंसक, क्लीव।

इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि किन्नर शब्द पहले स्थान विशेष के निवासियों के लिए प्रयुक्त होता रहा है और हिजड़ा लिंग विशेष के भेद के अर्थ में प्रयुक्त होता है, परन्तु वर्तमान में किन्नर शब्द को हिजड़ा के स्थान पर शिष्टोक्ति के रूप में प्रयोग किया जाने लगा है। ‘महेंद्र भीष्म’, ‘अधूरी देह’ नामक लेख में स्वीकार करते हैं कि “मैं किसी हिजड़ा को हिजड़ा सम्बोधन नही देता न अनावश्यक लिखता हूँ, उन्हें किन्नर कहता हूँ और किन्नर ही लिखता हूँ ठीक उसी तरह जैसे विकलांग को दिव्यांग’ और ‘हरिजन’ को ‘दलित’ कहता लिखता हूँ।“

हिन्दी साहित्य में किन्नर समुदाय से संबंधित पहला उपन्यास ‘यमदीप’ (नीरजा माधव) है, जिसका प्रकाशन 2002 ईo में सामयिक प्रकाशन द्वारा किया गया था और 2009 में पुनः प्रकाशित हुआ। इसके बाद ‘मैं भी औरत हूँ’ (डॉ. अनुसुइया त्यागी), ‘किन्नर कथा’ (महेंद्र भीष्म), ‘तीसरी ताली’ (प्रदीप सौरभ), गुलाम मंडी’ (निर्मल भुराड़िया), ‘प्रतिसंसार’ (मनोज रूपड़ा), ‘मैं पायल…’ (महेंद्र भीष्म), ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’ (चित्रा मुद्गल) अन्य उपन्यास हैं जिनमें किन्नर समुदाय को केंद्र में रखा गया है।

इन उपन्यासों का विश्लेषण करने पर किन्नर समुदाय से सम्बंधित कुछ प्रमुख समस्याएं स्पष्ट होती हैं जिनमें समाजिक/पारिवारिक, बहिष्कृति, विस्थापन, शिक्षा, रोजगार, देहव्यापार, यौन हिंसा, परस्पर संघर्ष, छद्म वेशधारी हिजडों की समस्या आदि प्रमुख हैं।

पितृसत्तात्मक समाज में पुरूषों का ही समाज में वर्चस्व रहता है। तृतीय लिंग के व्यक्तियों को समाज में अधिकारों से हीन कर उन्हें कमजोर बनाकर समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता रहा है। परिवार, रिश्ते, शिक्षा, रोजगार, आवास, सुविधाऐं, अधिकार आदि इनके लिए बेमानी हो जाते हैं। इन सब के अभाव में ये नारकीय जीवन जीने के लिए बाध्य हो जाते हैं। किन्नरों की सामाजिक बहिष्कृति एक ख़ास तरह की मनोवृत्ति के कारण होती है जिसे ‘ट्रांस्फोबिया’ कहा जाता है; “तीसरे लिंग के प्रति भय, लज्जा, क्रोध, हिंसा, पूर्वाग्रह, भेदभाव आदि नकारात्मक भावों के सम्मिश्रण से बना यह ‘ट्रांस्फोबिया’ तीसरे लिंग के जीवन को नरक बना देता है।“4

किन्नरों का बहिष्कार सामाजिक दबाव एवं पूर्वाग्रह के कारण उसके अपने घर और माता-पिता के द्वारा प्रारम्भ होता है, “संतान कैसी भी हो, उसमें कैसी भी शारीरिक कमी क्यों न हो, माता-पिता को अपनी संतान हर हाल में भली लगती है, प्यारी होती है, फिर भले ही वह संतान हिजड़ा ही क्यों न हो फिर भी सामाजिक परिस्थितियों, खानदान की इज्जत-मर्यादा, झूठी शान के सामने अपने हिजड़े बच्चे से उसके जन्मदाता हर हाल में छुटकारा पा लेना चाहते हैं।“5; इसी सामाजिक भय के कारण अनारकली (गुलाममंडी) को घूरे पर फेंक दिया जाता है और पोस्ट बॉक्स न. 203, नालासोपारा के हरिंद्र शाह और बंदना बेन अपने मझले बेटे विनोद को किन्नर चम्पाबाई को सौंपने के लिए विवश होते हैं

भारतीय समाज में हिजड़ा बच्चा पैदा होना उसके पिता के पुरूषत्व पर प्रश्नचिन्ह लगा देता है; उसे जीनविकृति से इतर पुरूषत्व से जोड़कर देखा देखा जाता है, जिसके कारण हिजड़े बच्चे को अधिकांश मामलों में पुरुष की ही तरफ से बहिष्कार का सामना करना पड़ता है; “अधिकांश हिजड़े जो भारत में जीवित हैं जबकि लगभग एक जैसी कहानी देखने में आती है। माता तो स्नेह करती है और अपनी हिजड़ा संतान को भी पालपोश कर बड़ा करना चाहती है, उसे भी अच्छा जीवन देने का प्रयास करती है। परंतु पिता उसे मार देना चाहता है या किसी भी प्रकार से उससे छुटकारा पाना चाहता है। वस्तुतः पितृसत्तात्मक समाज में पुरुष होने का दम्भ उसे विचलित कर देता है।“6 इसी पुरुषवादी दम्भ के कारण ही किन्नर कथा में ‘सोना’ को उसके पिता ‘जगत राज सिंह’ वास्तविकता जानने पर स्वीकार नहीं कर पाते और उसे मारने का आदेश अपने दीवान ‘पंचम सिंह’ को दे देते हैं। ‘मैं पायल…’ उपन्यास में जुगनी का शराबी पिता उसे कलंक मानता है और शराब के नशे में उसे बेरहमी से पीटता है और कोसता रहता है “ये जुगनी! हम क्षत्रिय वंश में कलंक पैदा हुई है, साली हिजड़ा है।“7

जन्म से ही जो पारिवारिक/सामाजिक बहिष्कार किन्नरों के प्रति शुरू होता है वह उसके आगे के जीवन में भी जारी रहता है। इसका प्रभाव उसके परिजनों के सामाजिक सम्बन्धों पर भी पड़ता है; अपनी इसी व्यथा को ‘तीसरी ताली’ में ‘सुप्रिया कपूर’ ने एक पत्रिका के इंटरव्यू में व्यक्त करती है, “मैं कैसी हूँ? क्यों हूँ? कितनी पीड़ा सहती हूँ? इन सवालों से किसी को सरोकार नहीं है। किसी को इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि मेरे जन्म के बाद मेरी माँ ने मुझे देखकर आत्महत्या कर ली। बाद में बड़ी बहन सिर्फ इसी बात के लिए ससुराल से निकाल दी गयी कि उसकी बहन हिजड़ी है।“8 ‘पोस्ट बॉक्स नं.203 नालासोपारा’ में बिन्नी से जुड़ी सभी वस्तुओं को उसका भाई नष्ट करने का प्रयास करता है।

भारतीय समाज में किन्नरों का काम केवल बच्चों के जन्म और शादी-विवाह जैसे खुशी के अवसर पर बधाइयां देने और नेग लेने तक ही सीमित कर दिया गया; इन अवसरों पर भी उन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है और उनसे जल्दी छुटकारा पाने का प्रयास किया जाता है। ‘किन्नर कथा’ में इस व्यथा को ‘तारा’ व्यक्त करते हुए कहती है, “मेल-जोल केवल वहीं तक जहाँ तक इनकी खुशी, शादी, ब्याह, बच्चों का जन्म हो या मुण्डन, हमीं बिन बुलाए बेशर्मी से तालियां पीटते पहुंच जाते हैं, बिन बुलाए मेहमान की तरह हमें हिकारत से देखते हैं, कोई नही चाहता हमारा साथ, दूर भागते हैं हमारी छाया से जैसे हम इंसान न हों, कोई अजूबा हों, अछूत की तरह व्यवहार किया जाता है हम हिजड़ों से।“9

यदि किन्नर का परिवार भावनाओं के आवेग में आकर अपने किन्नर संतान को पुनः अपनाना चाहता है तो वह, इतनी दूर जा चुका होता है कि वापस परिवार में आना संभव नही हो पाता है; एक बार पुनः यही ट्रांस्फोबिया हावी हो जाता है। ‘यमदीप’ उपन्यास में ‘नाजबीबी’ के माता-पिता उसे अपनाना चाहते हैं तो ‘महताब गुरू’ आगे आने वाली बाधाओं के बारे में सचेत करते हुए कहते हैं, “आप इस बस्ती में रह नहीं सकते, बाबू जी और अपनी बेटी को अपने पास रख भी नहीं सकते… दुनिया में हंसी-हंसारत के डर से। हिजड़ी के बाप कहलाना न आप बर्दास्त कर पाएंगे और न आप के परिवार के लोग।“ 10 और सामाजिक बहिष्कार नाजबीबी जैसों की नियति के रूप में स्वीकार हो जाता है। ‘पोस्ट बॉक्स नं.203 नालासोपारा’ में भी ‘बिन्नी’ और उसकी माँ ‘यशोदा बेन’ इस सामाजिक बहिष्कार से संघर्ष करते हुए नज़र आते हैं और अंत मे यशोदा बेन द्वारा बिन्नी को स्वीकार करने के सम्बंध में अखबार में एक अधिसूचना भी दी जाती है। वर्तमान में आज किन्नरों के प्रति इसी सामाजिक मनोवृत्ति को तोड़ने की आवश्यकता है जो केवल और केवल जागरूकता और सामाजिक स्वीकार्यता से ही संभव हो पायेगा। इसी मनोवृत्ति के खिलाफ बिन्नी अपने भाषण में लोगों को शपथ दिलाता है, “भविष्य में कोई माता-पिता लोकापवाद के भय से लिंग दोषी औलाद को डर-डर की ठोकरें खाने के लिए घूरे पर न फेंके । …शपथ लीजिये यहाँ से लौटकर आप किसी लिंगदोषी नवजात बच्चे-बच्ची को, किशोर-किशोरी को, युवक-युवती को जबरन उसके माता-पिता से अलग करने का पाप नहीं करेंगे। उससे उसका घर नहीं छीनेंगे। उपहासों के लात-घूसों से उसे जलील होने की विवशता नहीं सौपेंगे।“ 11

सामाजिक बहिष्कार की परिणति विस्थापन के रूप में होती है। परिवार और समाज में अस्वीकृत होने के कारण किन्नर बच्चों को घर छोड़ने के लिए मजबूर होना ही पड़ता है। ‘किन्नर कथा’ में विस्थापन को हिजड़ो की नियति बताते हुए कथाकार कहता है, “प्रत्येक हिजड़ा अभिशप्त है, अपने ही परिवार से बिछुड़ने के दंश से। समाज का पहला घाट यहीं से उस पर शुरू होता है। अपने ही परिवार से, अपने ही लोगों द्वारा उसे अपनों से दूर कर दिया जाता है। परिवार से विस्थापन का दंश सर्वप्रथम उन्हें ही भुगतना होता है।“ 12 कुछ स्थितियों में तो अबोध बालक जो कि इन लैंगिक भेदभाव से अनजान होता है, को भी नहीं बक्सा जाता और घूरे पर फेंक दिया जाता है तो कहीं किन्नर गुरुओं को सौंप दिया जाता है। अगर जन्म के आठ-दस साल किसी तरह बीत भी जाते हैं तो उसके बाद भी उन्हें लोकोपवाद और सामाजिक दबाव के कारण अपना घर त्यागना ही पड़ता है ; कहीं किसी किन्नर गुरू का डेरा उन्हें आश्रय देता है या फिर पायल सिंह, विनीता, बिन्नी आदि की तरह समाज में दर-दर की ठोंकरें खाने को विवश होना पड़ता है। ‘किन्नर कथा’ में ‘सोना’ को मारने का आदेश मिलता है, लेकिन ‘पंचम सिंह’ उसे न मारकर ‘तारा’ नामक किन्नर को सौंप देता है। ‘सोना’ को पाकर तारा उस निर्दोष और अबोध लड़की के प्रति भावनाओ में बहकर सोचने लगती है, “ईश्वर क्यों करता है ऐसा अन्याय? भला! इस नन्हीं हंसती-खेलती बच्ची का क्या दोष है जो उसे ईश्वर ने अपूर्ण बनाकर संसार में भेजा, जिसे अपने माता-पिता से दूर होना पड़ रहा है, जिसे घर से बेघर किया जा रहा है। परिवार से बिछुड़ने का दंश कितना सालता है, कष्ट देता है, यह उससे अच्छा भला कौन जान सकता था।“13

कहीं-कहीं देखने को यह भी मिलता है कि हिजडों के समुदाय को किसी ऐसे बच्चे के बारे में पता चलता है कि वह किन्नर है तो उसे जबरन अपने साथ समुदाय में शामिल करने का प्रयास किया जाता है। सामाजिक अपयश के कारण भी कई परिवार अपने बच्चे को हिजडों को सौंपने के लिए बाध्य हो जाते हैं, इसका उदाहरण ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा’ में मिलता है। इसमें पहले तो हिजडों के गुरू चम्पाबाई , ‘बिन्नी’ के घर हंगामा करती है फिर उसे अपने साथ भेजने की धमकी उसके घर वालों को देती है। बस्ती-मुहल्ले में हंगामे से बचने के लिए बिन्नी को अंततः उसे सौंप दिया जाता है। ‘तीसरी ताली’ में भी ‘निकिता’ में हिजडों वाले गुण विकसित होने पर सामाजिक उपहास का विषय बनने पर मजबूरन हिजड़ा गुरू ‘नीलम’ को सौंपना पड़ता है। ‘गुलाम मंडी’ की ‘रमीला’ भी किन्नर गुरु ‘वृंदा’ को सौंप दी जाती है।

सामाजिक दुत्कार और पारिवारिक प्रताड़ना के कारण भी किन्नर बच्चे अपना घर छोड़ने को मजबूर होते हैं। रोज-रोज की प्रताड़ना से तंग आकर उन्हें घर छोड़ने के अतिरिक्त कोई मार्ग ही नजर नहीं आता है। ‘यमदीप’ उपन्यास में अपने परिवार की प्रतिष्ठा बचाने के लिए ही ‘छैल बिहारी’ और ‘नंदरानी’ स्वयं अपना घर-परिवार छोड़कर निकल पड़ते हैं और ‘महताब गुरू’ के हिजड़ा समुदाय में ‘छैलू’ और ‘नाजबीबी के रूप में एक नई पहचान प्राप्त करते हैं। ‘मैं पायल…’ उपन्यास में तो ‘जुगनी’ रोज-रोज की दुत्कार और मार से तंग आकर आत्महत्या करने के विचार से ही घर से निकलती है “एकाएक मेरे मन मे विचार आया फिर पीती जाऊँ, मारी जाऊँ, इससे अच्छा है, मैं खुद ही न मर जाऊँ और फिर एक बार जो मेरे मन यह विचार आया तो मरने की इच्छा गहराती चली गयी।… मैंने तख्त के दो चक्कर लगाते हुए पिताजी की ओर देखा, उनके पैरों के पास आकर अपना सिर रख दिया और बिना पीछे मुड़कर देखे घर का दरवाजा खोल इस अभिशप्त देह का विनाश करने निकल पड़ी।“14

विस्थापन के बाद आवास की समस्या सभी किन्नरों के सम्मुख आती है। प्रायः देखा जाता है कि किन्नर बच्चा अपने परिवेश से विस्थापित होकर किसी न किसी किन्नर गुरू के डेरे में ही शरण लेता है वह चाहे स्वेच्छा से हो या जबरन। ‘प्रमोद मीणा’, ‘अर्धनारीश्वरों का नारकीय जीवन’ में किन्नरों को डेरे में संगठित होकर रहने तथा रहने के लिए घर की तलाश में आने वाली समस्याओं की ओर संकेत करते हैं, “कुछ हिजड़ा परिवार की तरह समूह में भी रहते हैं लेकिन रहने के लिए एक सुरक्षित घर खोजना हिजडों के लिए हमेशा एक चुनौती बनी रहती है। ज्यादातर मकान मालिक हिजडों को मकान किराये पर देते ही नहीं हैं।… मकान मालिकों की बेरुखी से तंग आकर बहुत से हिजडों को गंदी कच्ची बस्तियों में रहने को मजबूर होना पड़ता है और वहाँ से भी उन्हें लगातार पुलिस-प्रशासन द्वारा बेदखल किया जाता रहता है।“15 ‘यमदीप’ में भी किन्नरों को एक ऐसी बस्ती में रहते हुए दिखाया गया है जहाँ कोई सभ्य व्यक्ति नही जाता है।

‘यमदीप’ की ‘छैलू’ और ‘नाजबीबी’, ‘महताब गुरू’ की शरण में जाती हैं, ‘किन्नर कथा’ की ‘सोना’ को ‘तारा’ किन्नर के पास पहुंचा दिया जाता है और ‘गुलाम मण्डी’ की ‘अनारकली’, ‘रमीला’ और ‘अंगूरी’ ‘वृन्दा गुरू’ के डेरे में रहती हैं। ‘पोस्ट बॉक्स नं.203 नालासोपारा’ की ‘बिन्नी’ को ‘चम्पाबाई’ ले जाती है। जबकि ‘तीसरी ताली’ की ‘विनीता’ और ‘मैं पायल…’ की ‘जुगनी’ समाज में स्वतंत्र रूप से अपना अस्तित्व तलाशते हुए संघर्ष करती हैं।

सामाजिक असुरक्षा और स्थायित्व के अभाव में किन्नरों के लिए शिक्षा की कल्पना करना बेमानी लगता है। 2014 से पहले तक किन्नरों को अपनी पहचान से इतर स्त्री या पुरूष के रूप में विद्यालय में दाखिला लेना पड़ता था और भेद खुल जाने का भय हमेशा परिवार को सताता रहता था। हिजड़ा समुदाय के लिए शिक्षा डोर की कौड़ी साबित होती है ऐसा महताब गुरू के इस कथन से संकेतित होता है, “किसी स्कूल में आजतक किसी हिजड़ा को पढ़ते हुए देखा है? किसी कुर्सी पर हिजड़ा बैठा है? पुलिस में, मास्टरी में, कलक्टरी में… किसी में भी?” 16 सामाजिक भय के कारण ही पहले तो किन्नर बालक के परिवार वाले उसे विद्यालय भेजने से बचने का प्रयास करते हैं जैसा कि नाजबीबी के साथ होता है “मम्मी पहले तो स्कूल भेजने को तैयार ही नही थी परन्तु पड़ोसियों के कहने टोकने पर उन्होंने उसका नाम राधरमण बालिका विद्यालय में कक्षा छः में लिखवा दिया था।“17 अगर किन्नर बच्चा अपनी पहचान छुपाकर विद्यालय में दाखिला लेता है तो भेद खुलने की स्थिति में इन्हें बहिष्कृति और अमानवीय व्यवहार का सामना करना पड़ता है जैसा कि ‘गुलाम मण्डी’ की पात्र ‘शर्मिला’ के साथ होता है, “(वह) छोरा बन भर्ती हुई थी, तो बहन जी ने एक दिन चड्ढी उतरवा ली थी उसकी और जूते मार के स्कूल से निकलवा दिया था उसको”18 किन्नर समुदाय के बच्चे भी पढ़ना चाहते हैं परंतु यह निर्दयी समाज उन्हें अपने वास्तविक पहचान के साथ शिक्षा ग्रहण करने की अनुमति नहीं देता है। ‘यमदीप’ की ‘नन्दरानी’ डॉक्टर बनना चाहती है और ‘पोस्ट बॉक्स नं.203 नालासोपारा’ का विनोद एक मेधावी छात्र के रूप में पहचाना जाता है परन्तु दोनों का आगे पढ़ने का सपना चकनाचूर कर दिया जाता है। विनोद पर जब स्कूल जाने पर पाबंदी लगायी जाती है तो वह तड़प उठता है “पापा, मैं घर में बैठ कर नहीं पढूंगा। सब के साथ पढूंगा। अपनी कक्षा में बैठकर। मुझे स्कूल जाना है। मैं अपना ध्यान रखूंगा। अपनी हिफाजत खुद करूँगा।… मुझे छुट्टी नहीं करनी मेरी पढ़ाई बर्बाद हो रही है। पिछड़ जाऊंगा मैं अपनी कक्षा में। पिछड़ना नही चाहता मैं बोर्ड टॉप करना चाहता हूँ।“19

शिक्षा की दयनीय दशा के कारण और उचित कौशल का अभाव होने के कारण किन्नर समुदाय को रोजगार प्राप्त करने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है जिसके कारण वे अपने पारम्परिक पेशे, जैसे- लड़के के जन्म और शादी-ब्याह के अवसर पर बधाईयां देना और नेग प्राप्त करना, की ओर उन्मुख होते हैं। आज के समय में शहरीकरण के प्रभाव के कारण संयुक्त परिवार की परम्परा समाप्त हो जाने के कारण मनुष्यों की मानसिकता में बदलाव आया है जिसके कारण इनके अपने पारम्परिक पेशे के समक्ष कई चुनौतीयां आ गयी हैं, “समाज के आधुनिकीकरण से इन हिजडों पर आर्थिक संकट आ रहा है। कभी संयुक्त परिवार होने पर बच्चे अधिक होते थे और हिजडों का आना शुभ तथा उनका गाना नाचना मन लगाने का सुंदर साधन हुआ करता था, परन्तु समय ने सब कुछ बदल दिया। अब तो बहुमंजली इमारतों में इन्हें कोई घुसने नहीं देता। पास-पड़ोस की खबर से सभी बेखबर अब सभी अपने में सिमटने लगे हैं। किसको फुर्सत है हिजडों का भोंडा प्रहसन देखने की।“20 पारम्परिक पेशे से इतर अगर कोई किन्नर कहीं कोई अन्य रोजगार करने खोजने का प्रयास करता भी है तो उसकी राह हमेंशा कठिन रहती है। और उसे अपनी वास्तविक पहचान छुपाकर कार्य करना पड़ता है जिसके कारण यह भय उसे हमेशा सताता रहता है कि कहीं भेद न खुल जाए। वास्तविकता प्रकट होने की स्थिति में इन्हें अपमानित केर नौकरी से निकाल दिया जाता है। ‘अर्धनारीश्वरों का नारकीय जीवन’ में प्रमोद मीणा इसी तरफ़ इशारा करते हैं, “अपनी पहचान छिपाकर ये यदि कहीं रोजगार पा भी लेते हैं, तो इनके हिजड़ा होने का खुलासा होने पर नियोक्ता इन्हें नौकरी से निकाल देता है। कार्यस्थल पर साथी सहकर्मियों और मालिक आदि द्वारा इनके साथ मौखिक, दैहिक और यौनिक दुर्व्यवहार आम है और जिसके लिए इन्हें कहीं से न्याय भी नहीं मिल पाता। इनके चाल-चलन को कार्यस्थल की शुचिता के लिए खतरा मान इन्हें ही नौकरी से निकाल दिया जाता है।“21

विभिन्न कठिनाइयों के बावजूद भी आज किन्नर समुदाय को शिक्षा के लिए प्रेरित करने की आवश्यकता है और सरकार द्वारा किन्नरों के हित में उचित सुविधाओं के विकास की आवश्यकता है। विभिन्न सामाजिक संगठनों के द्वारा भी इनके हित में आगे आने की आवश्यकता है जो इन्हें रोजगार के लिये प्रेरित कर सकें और उचित आधारभूमि भी उपलब्ध कराएं। ‘पोस्ट बॉक्स नं.203 नालासोपारा’ में ‘बिन्नी’ किन्नरों के नाच-गाना को भी उनकी दयनीय स्थिति में सहायक मानता है और परिश्रम करने का आग्रह करते हुए कहता है, “सुनो पहचानो। पहचानों! अपने श्रम पर जिओ। मनोरंजन की दक्षिणा पर नहीं हिकारत की दक्षिणा जहर है, जहर। तुम्हें मारने का जहर। तुम्हें समाज से बाहर करने का जहर।“22 इसी बदली हुई मनोवृत्ति का ही प्रभाव होता है कि कुछ किन्नर इस थोपी हुई नियति से विद्रोह कर नाच-गाने को छोड़ कर अपना खुद का कोई रोजगार शुरू करते हैं या अन्य कोई रोजगार करते हैं। ‘तीसरी ताली’ के ‘विजय’ के कथन , “दुनिया के दंश से अपने आप को बचाने के लिए मैंने लगातार लड़ाइयां लड़ी और खुद को स्थापित किया। मैं नाचना, गाना नहीं, नाम कमाना चाहता था। भगवान राम के उस मिथक को झुठलाना चाहता था, जिसके कारण तीसरी योनि के लोग नाचने-गाने के लिए अभिशप्त हैं।“23 से किन्नरों की इस मनःस्थिति का पता लगता है कि वे समाज मे एक सम्मानित रोजगार के लिए बेचैन रहते हैं और अपनी नियति को झुठलाने के लिये प्रयासरत भी रहते हैं। ‘तीसरी ताली’ की ‘विनीता’ समलैंगिकों और हिजडों के लिये विशेष सैलून खोलती है, ‘विजय’ फोटोग्राफी की दुनिया में नाम कमाता है; ‘मैं पायल…’ की ‘पायल सिंह’ द्वारा सिनेमा जा प्रोजेक्टर चलाना, रेडियो पर कार्यक्रम देना आदि कई काम किये जाते हैं। ‘पोस्ट बॉक्स नं 203 नालासोपारा’ का ‘विनोद’ अभिजात्य कालोनियों में साहब लोगों की गाड़ियां धुलने से शुरू करके, कम्प्यूटर सीखकर सम्मान जनक नौकरी प्राप्त करता है; ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जो बंधी-बंधाई लीक को तोड़ने का कार्य करते हैं।

कुछ किन्नर उचित शिक्षा का अभाव और कौशल की कमी तथा परम्परागत पेशे में गिरावट, आर्थिक असमर्थता, सरकार की तरफ से उदासीनता आदि कई कारणों से वेश्यावृत्ति के दलदल में स्वयं को धकेलने के लिए विवश हो जाते हैं। यही विवशता ‘यमदीप’ में इस कथन द्वारा व्यक्त होती है, “यहाँ जजमान ही का भरोसा। कभी-कभार चोसा मिला तो ठीक, नहीं तो वीला मिल गया तो बहुत होगा एक पानकी या आधा काटकर थमा देगा। हमारे पेट की सुध किसे है? न सरकार को न जजमान को”24 वहीं कई हिजड़े तो बाकायदा समूह बनाकर व्यावसायिक स्तर पर वेश्यावृत्ति में लिप्त पाए जाते हैं; जैसे कि ‘तीसरी ताली की ‘रेखा चितकबरी’। वेश्यावृत्ति की तरफ हिजड़ों के झुकाव का एक अन्य कारण ‘तीसरी ताली’ में ‘प्रदीप सौरभ’ बताते हैं, “दिल्ली में इन दिनों नाचने गाने वाले हिजडों का अकाल था। अधिकतर हिजड़े सेक्स बिजनेस में लगे थे कमाई भी मोटी हो जाती है सेक्स के धंधे में। फिर किसी गुरू की धौंसपट्टी और समाज से निकाले जाने का डर भी नहीं होता। बिना किसी परवाह के, अपने मन के मालिक। सेक्स के धंधे में लगे हिजड़े नाचने-गाने को घटिया काम समझते थे।“25 ‘यमदीप’ की जुबैदा, सोबती; ‘तीसरी ताली’ की रेखा चितकबरी, सुनयना, पिंकी; ‘गुलाम मंडी’ की अंगूरी, अनारकली; ‘पोस्ट बॉक्स नं. 203 नालासोपारा’ की हिजड़ा सायरा आदि वेश्यावृत्ति में लिप्त रहती हैं।

सामाजिक असुरक्षा और उदासीनता के कारण किन्नरों के प्रति समाज में यौन हमले भी होते रहते हैं। पुरुष इन्हें अबला और असहाय पाकर इनके ऊपर यौन हमला करता है। हिजडों के खिलाफ होने वाली यौन हिंसा के मामलों में पुलिस रुचि भी नहीं लेती है। ‘मैं पायल…’ में तो पायल सिंह पर यौन हमला करने वाला एक सिपाही ही रहता है, जिस पर समाज की सुरक्षा का दायित्व रहता है- “मुझे लगा कोई मेरे गालों को सहला रहा है, उभरी छातियों पर हाथ फेर उन्हें टटोलने में लगा है। मेरी नींद टूटी और मैं जाग गयी और उठकर बैठ गयी प्लेटफॉर्म की लाइटें जल रही थीं। शाम ढल चुकी थी। पटरियों की ओर धुंधलका फैला हुआ था।… क्यों लड़की कहाँ जाना है? मेरी बगल में बैठा गंदी हरकतें करने वाला मुच्छड़ सिपाही मुझसे बोला।“26 इन्ही उदासीनता और दंड का भय न होने के कारण ही ‘पोस्ट बॉक्स नं.203 नालासोपारा’ में विधायक का भतीजा ‘बिल्लू’ अपने दोस्तों के साथ मिलकर पूनम जोशी के प्रति पाशविकता की हद तक जाते हैं। किन्नरों को उनके काम करने के स्थान पर भी यौन हमलों का सामना करना पड़ता है ‘मैं पायल…’ उपन्यास में पायल सिंह का सहकर्मी ‘प्रमोद’ ही मौका पाकर उस पर यौन हमला करता है। ‘पोस्ट बॉक्स नं.203 नालासोपारा’ में पूनम जोशी विधायक के यहाँ एक कार्यक्रम में बतौर नर्तकी जाती है परन्तु उसके भतीजे द्वारा यौन हमला किया जाता है, “किवाड़ ठीक से बंद नहीं किया उसने या उसके सिटकनी चढ़ाने से पहले ही अपने चार दोस्तों के साथ बलात किवाड़ खोल विधायक जी का भतीजा और उसके चार दोस्त कमरे में घुस आए। पूनम जोशी ने आपत्ति प्रकट की। उसके कपड़े बदलने हैं। वे कमरे से बाहर जाएं भतीजे ने पूनम जोशी को दबोच लिया। कहते हुए, वह डरे नहीं कपड़े वे बदल देंगे उसके। बस वह उनकी ख्वाहिश पूरी कर दे।“27

किन्नरों के बीच आपसी संघर्ष भी देखने को मिलता है। प्रायः इन संघर्षों के पीछे का कारण वर्चस्व, सम्पत्ति और असली-नकली हिजडों के अधिकारों और क्षेत्रों के बंटवारे को लेकर होता है। ‘मैं पायल…’ उपन्यास में लखनऊ के हजरतगंज की मोना किन्नर और पायल सिंह के बीच वर्चस्व को लेकर संघर्ष देखा जा सकता है; किन्नर मोना, ‘पायल सिंह’ पर अपना अधिकार जता कर उसे बधाई गाने और नाचने के लिए कहती है और मना करने पर उसे मारा-पीटा जाता है, कमरे में बंद कर भूखा रखा जाता है। ‘तीसरी ताली’ में गद्दी को लेकर गोपाल और चंदाबाई के बीच खूनी संघर्ष होता है गोपाल, एक सामान्य पुरूष रहता है लेकिन हिजड़ा गद्दी की सम्पत्ति के लालच के कारण शल्यक्रिया द्वारा अपना पुरुषांग हटवा देता है।

नकली और असली हिजडों के बीच संघर्षों की स्थिति सबसे अधिक बनती है, “हिजडों के विभिन्न समूहों में परस्पर संघर्ष होता रहता है और यह संघर्ष असली और नकली हिजडों के मध्य अपने अधिकारों के लिए लड़ाई के रूप में देखा जाता है।“28 ‘गुलाम मंडी’ में नकली हिजड़े ‘लल्लन’के समूह और ‘वृंदा’ गुरु के समूह के मध्य का संघर्ष इसी तरह का है। लल्लन के साथ नकली हिजडों की भरमार रहती है जो हिंसा आदि कार्यों में संलग्न रहते हैं उन्हीं द्वारा ‘हमीदा’ की हत्या करवा दी जाती है। ‘किन्नर कथा’ में भी ‘तारा’ की हत्या दूसरे गुट द्वारा कर दी जाती है।

निष्कर्ष-

किन्नरों के सम्मुख आने वाली समस्याओं का समाधान उन्हें तृतीय लिंग के रूप में मान्यता देने भर से ही नही हो जाता। आज आवश्यकता है एक ऐसे आधारभूत ढांचे की जो उन्हें ऐसा माहौल उपलब्ध कराने में सक्षम हो जिसमें वे बिना किसी हीन भावना के गरिमापूर्ण जीवन जीने के लिए आवश्यक जरूरतें प्राप्त कर सके इसके लिए सरकार के साथ-साथ गैर सरकारी संगठनों की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो जाती है जो विभिन्न माध्यमों के द्वारा सामाजिक जागरूकता फैला कर समाज की मनोवृत्ति बदलने का कार्य करते हैं। किन्नरों को चिन्ह्ति कर सरकार को उनसे जुड़े आकड़ो को इकट्ठा करने की आवश्यकता है जिसके द्वारा किन्नर समुदाय के विकास के लिए उचित कदम उठाने में आसानी होगी। उन्हें शिक्षित कर रोजगार करने के योग्य बनाना चाहिए जिसे वे समाज मे एक गरिमापूर्ण जीवन जी सकें। आज सरकारी या गैर सरकारी क्षेत्र की नौकरियों में ऐसे किन्नरों की संख्या बहुत कम है। कुल मिलाकर ‘बिन्नी’ के शब्दों में कहा जा सकता है कि “पढ़ाई ही हमारी मुक्ति का रास्ता है।“28

संदर्भ-

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  2. WWW.HINDISAMAY.COM
  3. सं. डॉ. विजेन्द्र प्रताप सिंह, रवि कुमार गोंड, संस्करण प्रथम 2016, भारतीय साहित्य और समाज में तृतीय लिंगी विमर्श, अमन प्रकाशन, कानपुर, पृष्ठ 65
  4. सं. डॉ. एम. फ़िरोज़ खान, सं. प्रथम 2017, थर्ड जेंडर : कथा आलोचना, अनुसंधान पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, कानपुर, पृष्ठ 52
  5. महेंद्र भीष्म, पेपरबैक संस्करण 2016, किन्नर कथा, सामयिक प्रकाशक, नई दिल्ली, पृष्ठ 45
  6. सं. डॉ. विजेन्द्र प्रताप सिंह, रवि कुमार गोंड, सं. प्रथम 2016, भारतीय साहित्य और समाज में तृतीय लिंगी विमर्श, अमन प्रकाशन, कानपुर, पृष्ठ 50
  7. महेंद्र भीष्म, प्रथम संस्करण 2016, मैं पायल…, अमन प्रकाशन, कानपुर, पृष्ठ 24
  8. प्रदीप सौरभ, संस्करण 2011, तीसरी ताली, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 178
  9. महेंद्र भीष्म, पेपरबैक संस्करण 2016, किन्नर कथा, सामयिक प्रकाशक, नई दिल्ली, पृष्ठ 66
  10. नीरजा माधव, संस्करण 2009, यमदीप, सुनील साहित्य सदन, दिल्ली, पृष्ठ 93
  11. चित्रा मुद्गल, संस्करण 2016, पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 186
  12. महेंद्र भीष्म, पेपरबैक संस्करण 2016, किन्नर कथा, सामयिक प्रकाशक, नई दिल्ली, पृष्ठ 41-42
  13. महेंद्र भीष्म, पेपरबैक संस्करण 2016, किन्नर कथा, सामयिक प्रकाशक, नई दिल्ली, पेपरबैक संस्करण 2016, पृष्ठ 41
  14. महेंद्र भीष्म, प्रथम संस्करण 2016, मैं पायल…, अमन प्रकाशन, कानपुर, पृष्ठ 39
  15. सं. डॉ. एम. फ़िरोज़ खान, सं. प्रथम 2017, थर्ड जेंडर : कथा आलोचना, अनुसंधान पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, कानपुर, पृष्ठ 33
  16. नीरजा माधव, संस्करण 2009, यमदीप, सुनील साहित्य सदन, दिल्ली, पृष्ठ 94
  17. नीरजा माधव, संस्करण 2009, यमदीप, सुनील साहित्य सदन, दिल्ली, पृष्ठ 60
  18. निर्मला भुराड़िया, संस्करण 2014, गुलाम मण्डी, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 69
  19. डॉ. विजेंद्र प्रताप सिंह, संस्करण प्रथम 2017, हिंदी उपन्यासों के आईने में थर्ड जेंडर, अमन प्रकाशन, कानपुर, पृष्ठ 14
  20. सं. डॉ. एम. फ़िरोज़ खान, सं. प्रथम 2017, थर्ड जेंडर : कथा आलोचना, अनुसंधान पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, कानपुर, पृष्ठ 33
  21. चित्रा मुद्गल, संस्करण 2016, पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 50
  22. प्रदीप सौरभ, संस्करण 2011, तीसरी ताली, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 195
  23. नीरजा माधव, संस्करण 2009, यमदीप, सुनील साहित्य सदन, दिल्ली, पृष्ठ 27
  24. प्रदीप सौरभ, संस्करण 2011, तीसरी ताली, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 61
  25. महेंद्र भीष्म, प्रथम संस्करण 2016 मैं पायल…, अमन प्रकाशन, कानपुर, पृष्ठ 26
  26. चित्रा मुद्गल, संस्करण 2016, पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 203
  27. चित्रा मुद्गल, संस्करण 2016, पोस्ट बॉक्स नं. 203 नाला सोपारा, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 110

*शोध अध्येता

हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग,

इलाहाबाद विश्वविद्यालय।

ईमेल- shivanktripathi485@gmail.com

मो.- 7783990724

 

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