सिसृक्षा अद्वैत की कविताएँ
ठोकरें
ठोकरें जब भी लगती हैं
मुड़ जाती हूँ, अपना आपा
और, मजबूत करती हूँ
ठोकरें खाने के लिए
क्योंकि, ठोकरें ही तो
क़िस्मत में हैं
हँसी तो मैंने चुराई है ।।
बेज़ान
दरख़्त टूटते रहे
चिन्दियाँ उड़ती रहीं
ज़हर घुलता रहा
नब्ज़ कमज़ोर होती गई
वक़्त चलता ही गया ।
वही दीवारें, वही मीनारें, वही बातें
वही लोग, बोरियत और उदासी, से भरे
एक अदद, रुपये की तलाश में
रात –दिन, खाक़ ।
अज़ी रूपया है, तो जीवन है
नहीं तो, मौत सी ज़िन्दगी
पेड़ से भी, कीमती
ये रूपया हो गया !!
पेड़ ताउम्र जीवन देता है
ये छीन लेता है ।
वक़्त भागता रहा
लोग मशगूल रहे
भूल आम के पेड़ को
गिरती इमली और
चिड़ियों की चहक को
शहतूत और तितली को
सोचती हूँ बेज़ान इन्शान है ज्य़ादा
या ये दीवार ?
दीवार, जिसके अन्दर क़ैद एक स्त्री
कभी नहीं, देख पाई दुनिया
उसकी दुनिया, वही दीवारें थीं
जिसमें तानाशाही की
एक पूरी दुनिया रची बसी थी ।
आम भाषा में जिसे घर
कह दिया गया
लेकिन कथनी करनी का भेद बना रहा ।
कौन ज़्यादा क़ैद था
ये आप जानें
एक बच्चा, स्त्री या पुरुष ?
या बेज़ान रिश्ते बास मारते ?
हर जान पर
हर एक जान पर
हर एक चींख पर
सुखद, लेकिन झूठे शब्दों…
तंत्रों… का पहरा है।
जहाँ मंदिर बनाने की बहस
साल दर साल होती है
लेकिन, साँस ले सकें खुलकर
जी सकें , कह सकें, सच
ऐसी बहस की इज़ाजत
ज़मीं से ग़ायब है।
ये सन्नाटा…
हर रोज़ का
चीत्कार भी नहीं तोड़ पाता
क्योंकि…
भगवान और सत्ता
अब एक ही शब्द हैं ।
‘सिसृक्षा अद्वैत’
कौशाम्बी, उत्तर प्रदेश
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