हिंदी की लघु पत्रिकाएं और बांग्ला साहित्य: एक नज़र
डॉ. निकिता जैन
अम्बेडकर विश्वविद्यालय दिल्ली में अध्यापन
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शोध सारांश – प्रस्तुत शोधालेख में हिंदी की लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित बांग्ला भाषा के अनुवादित (हिंदी में) साहित्य का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। इस विश्लेषण के ज़रिये न केवल ये पता लगाने की कोशिश की गयी है कि हिंदी की लघु पत्रिकाओं का अन्य क्षेत्रीय या प्रादेशिक भाषाओं का प्रति क्या दृष्टिकोण था बल्कि यह भी मूल्यांकित करने का प्रयास भी किया गया है कि किस तरह यह पत्रिकाएं हिंदी के पाठकों के समक्ष अन्य भाषाओं के अनुवादित साहित्य (हिंदी में) को प्रस्तुत कर रही थीं ताकि वह अन्य भाषाओं की साहित्यिक प्रवृत्तियों से न केवल परिचित हों बल्कि उन्हें आत्मसात करने के पथ पर भी अग्रसर हों। प्रस्तुत शोधालेख में बांग्ला साहित्य को तत्कालीन स्थितियों (1950 से लेकर 1980 तक के विशेष संदर्भ में ) के अनुसार अलग–अलग भागों और संदर्भों में विवेचित करने प्रयास किया गया है जैसे – बांग्लादेश मुक्ति आन्दोलन, हंगरीजेनरेशन मूवमेंट आदि का बांग्ला साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ा और उसे किस प्रकार लेखकों ने अपनी रचनाओं के द्वारा प्रस्तुत किया –इन सभी पहलुओं को इस लेख में विवेचित किया गया है।
मुख्य शब्द – लघु पत्रिका (सीमित संसाधनों के अंतर्गत निकलने वाली पत्रिका), अणिमा,उत्कर्ष,कल्पना, संचेतना,नई धारा (पत्रिकाओं के नाम)
शोध–विस्तार
बांग्ला:प्रतिरोध का साहित्य – हिंदी पर बंगला साहित्य की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है| शरतचन्द्र का देवदास हो या रविन्द्रनाथ टैगोर की चोखेर बाली, इन अविस्मरणीय रचनाओं को कौन भूल सकता है, न जाने कितनी बार हिंदी में इन रचनाओं का रूपांतरण हो चुका है, कितनी हिंदी फिल्मों में इनका चित्रांकन किया जा चुका है। बंगला साहित्य हमेशा से अपनी दृष्टि और कला द्वारा हिंदी साहित्य को समृद्ध करता आ रहा है। इसके अतिरिक्त कितने ही ऐसे हिंदी साहित्यकार हैं जिनका सम्बन्ध बंगाल से है, जो बांग्ला और हिंदी दोनों में सक्रिय रूप से लिखते रहे हैं। बांग्ला साहित्य आज भी हिंदी के मुकाबले बहुत समृद्ध माना जाता है क्योंकि बंगाल में ही सबसे पहले नवजागरण का आवागमन हुआ। स्वतंत्रता से पूर्व और उसके पश्चात भी बंगाल राजनीतिक, साहित्यिक, शैक्षिक
एवं सामाजिक सभी दृष्टि से अधिक सक्रिय रहा है। साहित्य की किसी भी नयी प्रवृत्ति या विधा की शुरुआत अधिकतर बंगाल से ही हुई है। लघु पत्रिकाओं की बात की जाए तो भारत में लघु पत्रिका आन्दोलन की शुरुआत भी सर्वप्रथम बंगाल से हुई थी। दरअसल बंगाल शुरू से ही अंग्रेजी एवं अन्य विदेशी भाषाओं के साहित्य के प्रति आकर्षित रहा और यही वजह है कि धीरे-धीरे साहित्य प्रेमियों ने विदेशी भाषाओं के साहित्य का अनुवाद करना शुरू कर दिया। इसी कारण साहित्य की नयी-नयी प्रवृत्तियों और आन्दोलन से ये लोग परिचित होने लगे और इनको अपने साहित्य में आकार देने लगे। हिंदी की लघु पत्रिकाओं का झुकाव बांग्ला साहित्य की ओर स्पष्ट रूप से दिखलाई पड़ता है। इसका एक कारण यह भी है कि बांग्ला साहित्य प्रतिरोध का साहित्य है| विद्रोह छोटा हो या बड़ा बांग्ला भाषा हमेशा से अपनी संस्कृति,कला के प्रति सजग और आक्रमक रही है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो बांग्ला साहित्य ने कभी-भी पुरानी परम्पराओं को छोड़ने और नए को अपनाने में वक़्त नहीं लगाया। यही वजह है कि 1920 के आस-पास ही बंगाल में लेखकों की एक नयी पीढ़ी तैयार हो गयी थी जबकि हिंदी में नए प्रयोग करने वाले लेखक सन् 1950 के बाद आते हैं।
विद्रोह के तीखे तेवर लिए बांग्ला साहित्य के विकास का एक कारण वहां की राजनीतिक परिस्थितियां भी रहीं हैं। 1905 में बंग-विभाजन का होना, पश्चिमी और पूर्वी बंगाल में परिस्थितियों का बदलना, देश की आज़ादी के बाद पूर्वी बंगाल का पाकिस्तान में शामिल होना, अपने अस्तित्व एवं भाषा की गौरवशाली परम्परा को बनाये रखने के लिए पूर्वी बंगाल का पाकिस्तान को करारा जवाब देना इत्यादि घटनाओं ने प्रतिरोध की ऐसी ज़मीन तैयार की, जिसने आगे चलकर केवल भारतीय इतिहास में ही नहीं बल्कि विश्व इतिहास में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी ।
सन् 1971 के दशक को कौन भूल सकता है ? जिसने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया था। बंगपिता शेख मुजीबुर्र रहमान ने एक स्वतंत्र बांग्लादेश की परिकल्पना की और कुछ महीनों के भीतर ही इस कल्पना ने हकीकत का रूप ले लिया। किसी भी देश की जीत के पीछे सबसे बड़ा हाथ उन बुद्धिजीवियों का होता है जिन्हें ये ज्ञात हो कि आने वाली परिस्थितियां किस करवट बैठेंगी। लेखक इस सूची में सबसे आगे रहते हैं। बंगाल के लेखकों की यह सबसे बड़ी खासियत है कि वह विपरीत परिस्थितियों में कभी हथियार नहीं डालते। पूर्वी बंगाल पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ पश्चिमी बंगाल के कथाकारों,शिक्षकों,कवियों आदि ने भी सख्त तेवर अपना रखे थे। पूर्वी बंगाल के लेखकों की तरह ही पश्चिमी
बंगाल के साहित्यकारों ने यह ठान लिया था कि ‘बांग्लादेश’ को एक स्वतंत्र देश बनाकर ही छोड़ेंगे। तत्कालीन बंगाली कहानी, कविता एवं उपन्यासों में केवल बांग्लादेश के मुक्ति आन्दोलन की चर्चा ही मिलती है। बात चाहे बांग्ला देश छोड़कर भारत में आने वाले शरणार्थियों की हो या फिर उस जनता की जो बिना हथियार के भी इस स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़ी या उन स्त्रियों की जिनकी अस्मत को सरेआम बेआबरू किया गया फिर भी वह अपनी अंतिम साँस तक जय बांग्ला का नारा लगाती रहीं-इन सभी पहलुओं को बंगाली कथाकारों ने बड़ी बारीकी से चित्रित किया। केवल बंगाल में ही नहीं बल्कि हिंदी प्रान्त में भी कुछेक लघु पत्रिकाओं ने ‘बांग्लादेश’ के तत्कालीन मुक्ति आन्दोलन को अपनी पत्रिका में आवाज़ प्रदान की। ऐसी ही पत्रिकाओं में से एक है ‘अणिमा’। शुरुआत में यह पत्रिका कलकत्ता से ही प्रकाशित होती थी। लेकिन नवम्बर 1971 का ‘बंगलादेश कथा विशेषांक’ जयपुर से प्रकाशित हुआ। इस विशेषांक की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसने पूर्वी बंगाल की तत्कालीन परिस्थितियों के हर पहलू पर रोशनी डालने की कोशिश की है। उन कथाओं को विशेषांक में जगह दी गयी जो उस समय के हालातों को सही रूप से चित्रित करने में सक्षम थीं। जितनी भी कहानियां इस अंक में प्रकाशित हुईं सभी भोगे हुए यथार्थ पर आधारित थीं। बांग्लादेश पर केन्द्रित यह अंक केवल इसलिए महत्त्वपूर्ण नहीं है कि यह वहां की घटनाओं का सिलसिलेवार वर्णन प्रस्तुत कर रहा है। बल्कि यह विशेषांक इस बात का प्रमाण है कि- किसी भी राष्ट्र या समाज में होने वाली परिघटनाएं सबसे पहले वहां के कला माध्यमों पर ही असर डालती हैं और ऐसी सूरत में इन माध्यमों का यह कर्तव्य होता है कि वह ऐसे साहित्य की रचना करें जो समाज और राष्ट्र के केवल हित में ही न हों बल्कि उन्हें जुझारू भी बनाएं। बांग्लादेश की मुक्ति में कलम के सिपाहियों का भी उतना ही बड़ा योगदान है जितना कि बन्दूक के सिपाहियों का। लेखक या कलाकार सही वक़्त पर अपनी कला का इस्तेमाल करे तो क्या हो सकता है यह ‘बांग्लादेश’ के रूप में हमारे सामने है।
प्रस्तुत विशेषांक की पहली कहानी ताराशंकर वन्द्योपाध्याय के उपन्यास ‘एकटि कालो मेयेर कथा’ का एक अंश है। ‘वे दो काल रात्रियाँ’ शीर्षक से छपी यह कहानी अपने अंदर हजारों प्रश्नों को समाये हुए है। कहानी का हर पड़ाव अपने साथ एक नया प्रश्न लेकर आता है कि क्या जो उस समय हुआ वो होना ज़रूरी था ? अगर ज़रूरी था भी तो क्या इस रूप में, जहाँ लाखों लोगों को दो गज ज़मीन भी नसीब नहीं हुई ? प्रस्तुत कहानी केवल दो रातों पर केन्द्रित है। 25 और 26 मार्च 1971 की दो रातें किस तरह भयानक काल रात्रि में बदल गयीं, लोगों को कैसे उनके घरों में जिंदा जला
दिया गया, लड़कियों को खींच-खींच कर सड़कों पर लाया गया और उनके साथ वो सलूक किया गया, जिसे सुनने से पहले लोग मरना पसंद करेंगे – ऐसे हालातों में तीन शख्स कैसे एक जले हुए मकान के अन्दर अपनी जान बचाने के लिए बैठे हुए हैं और पाकिस्तानी सेना एवं याहिया खान के खूनी दरिंदों का यह नंगा नाच देख रहे हैं। इस पूरी कथा को एक एंग्लो –इन्डियन शरणार्थी के द्वारा कहलवाया गया है –जो कि इस पूरे काण्ड का प्रत्यक्षदर्शी है। कहानी का सबसे मर्मस्पर्शी पहलू वो है जहाँ औरतों की आबरू को लूटा जा रहा है लेकिन घरों में छिपे हुए लोग केवल मूक दर्शक बने हुए हैं। उन स्त्रियों की चीखें सुनकर पास पड़ा कुत्ता भी काँप रहा है लेकिन इंसानी ज़मीर मर चुका है और जिनका जिंदा है वो भी मजबूर हैं – “वे कह रही थीं, तुम लोगों के पाँव पड़ते हैं। हमें छोड़ दो। अल्ला की दुहाई है|………….मैं अपने बालों को दोनों हाथों से नोचता हुआ किसी जानवर की करुण मूक चीत्कार की तरह चीख पड़ना चाहता था।……..मिस्टर सेन ने कहा ‘इधर आ जाइये। भूल जाइये कि आप जिंदा है|”1. कहानी का यह अंश ये सोचने पर मजबूर कर देता है कि ‘बांग्लादेश’ को मुक्ति तो मिली लेकिन किस कीमत पर ? यह सही है कि स्वतंत्रता बलिदान मांगती है लेकिन क्या उस त्याग की भी कोई सीमा निश्चित है ? बांग्लादेश के लोगों ने भी अपने खून से इस आन्दोलन को सींचा। लेकिन क्या बांग्लादेश इतिहास के इस काले पन्ने को कभी भूला पायेगा ? यह सभी प्रश्न कहानी अपने पीछे छोड़ जाती है। दो रातों का चित्र इतना भयानक था तो आगे के नौ महीनों में क्या हुआ होगा यह सोचकर ही रूह काँप उठती है। बांग्ला कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वहां के लेखक सच को प्रदर्शित करने के लिए किसी आडम्बर का सहारा नहीं लेते, अपनी सधी हुई भाषा के माध्यम से वह यथार्थ को ज्यों का त्यों आपके सामने रख देते हैं। प्रस्तुत कहानी भले ही पाकिस्तानी सेना के अत्याचारों को व्याख्यायित कर रही हो लेकिन अगर गौर से देखा जाए तो यह कथा प्रतिरोध की एक ज़मीन भी तैयार कर रही है – कहानी में ‘सेन’ अपने साथी से पूछता है कि तुम तो एंग्लो इन्डियन हो, तो तुम्हें किस बात का डर ? प्रत्युत्तर में एंग्लो इन्डियन कहता है –“मिस्टर सेन, इससे बेहतर तो मर जाना है। मेरी मां बंगाली है तथा मैं क्रिश्चियन हूँ। जानवरों का मित्र बनकर उनसे अपने प्राण बचाने की ख्वाहिश भी नहीं है।”2. एंग्लो इन्डियन के ये शब्द इस बात का प्रमाण हैं कि ऐसी परिस्थितियों में हर शख्स जो बांग्लादेश के साथ था, अपने स्तर पर इस अमानवीय व्यवहार का विरोध कर रहा था। ये मायने नहीं रखता कि आप विरोध कैसे कर रहे हैं, मायने ये रखता है कि आप विरोध कर रहे हैं। हर शख्स आन्दोलन में बन्दूक लेकर नहीं उतर सकता। लेकिन जो
अपनी जान की बाजी लगाकर इस पथ पर निकल पड़े हैं उनका साथ कैसे दिया जाये,यही भावना किसी भी क्रांति को आगे बढ़ाने के लिए काफी होती है। कहानी का अंत भी इसी आशा के साथ होता है जहाँ मिस्टर सेन यह मन बना लेते हैं कि “वे यह लड़ाई अब देखकर ही जायेंगे” इसलिए नहीं कि उन्हें अब अपनी मृत्यु का डर नहीं है बल्कि इसलिए कि जिन हजारों लोगों ने इस आशा में अपने प्राण त्याग दिए हैं कि कभी न कभी दुनिया के नक़्शे में बांग्लादेश का स्वतंत्र अस्तित्व होगा, उनकी इस आशा को पूरा होते हुआ देखने वाला कोई तो हो।
‘अणिमा’ के इस विशेषांक की हर कहानी केवल ‘बांग्लादेश’ की कथा को ही रेखांकित नहीं करती बल्कि बंगाली साहित्यकारों की विचारधारा को भी व्याख्यायित करती है। बंगाली रचनाकारों ने जिस सूक्ष्मता के साथ ‘कहानी’ के प्लाट का चुनाव किया है उससे यह प्रदर्शित होता है कि उन्होंने कितने करीब से उन परिस्थितियों को महसूस किया होगा कि वह उतने ही जीवंत रूप में उसे पन्नों पर उतार पाए| मनोज बसु की कहानी ‘गोरिल्ला’ भी इसी जीवंतता का उदाहरण है। प्रस्तुत कहानी में निहत्थी जनता के आक्रोश का चित्रण किया गया है जो पाकिस्तानी सेना द्वारा किये गए कत्लेआम को देखकर उठ खड़ी होती है और गोरिल्ला युद्ध द्वारा सेना के नाक में दम कर देती है। छोटे-छोटे कस्बों और गांवों में गोरिल्ला युद्ध कितना महत्त्वपूर्ण था तथा एक आम जनता उसे कैसे अंजाम दे रही थी इसका सजीव चित्रण प्रस्तुत किया गया है – “नरम मिट्टी वाले बांग्लादेश देश में यह कैसा आश्चर्यजनक काण्ड हो रहा है ! लड़के–लड़कियां अविजीत सैनिक हो गए हैं। सिर्फ अपने हृदय की शक्ति से बांग्ला देश की मूर्ति और असाधारण से हथियारों द्वारा गोरिल्ला सेना का गठन किया है। खान लोगों की कदम–कदम पर नींद हराम कर रहे हैं।”3. एक ओर मन्मथ पाल जैसे युवक हैं जो साधारण हथियारों से देश की रक्षा करने के लिए संघर्षरत हैं तो दूसरी ओर जावेद अली जैसे स्वार्थी व्यक्ति हैं जो अपनी जान बचाने के लिए देश के साथ गद्दारी कर रहे हैं। लेकिन पाक सैनिक जावेद अली जैसे शुभचिंतकों के साथ भी कैसा अमानवीय व्यवहार करते हैं –इसका सशक्त चित्रण ही इस कहानी का केन्द्रीय बिंदु है – “सूबेदार डबल मार्च करता हुआ आंगन पार करके शयन–कक्ष में जा घुसा।……कमरे में जावेद की तीसरी शादी की हुई नई दुल्हन थी।……जावेद भी पीछे–पीछे कमरे में घुसने जा रहा था कि शॉट –गन का निशाना साध आँखें तरेरकर सूबेदार बोला, ‘हट जाओ’ ! भड़ाक से सूबेदार ने
दरवाज़ा बंद कर भीतर से कुंडी लगा ली। कमरे से आर्तनाद सुनाई दिया।…..जावेद अली चिल्ला रहा था – ‘अल्लाह की दुहाई हुज़ूर, मेरी बीवी को छोड़ दो’|”4. इस प्रसंग के पश्चात् ज़ेहन में एक ही बात कौंधती है कि इंसानियत के दुश्मन क्या कभी किसी के सगे हुए हैं ? धर्म और मज़हब के नाम पर कत्लेआम करने वालों और उनका साथ देने वालों को, उनका अल्लाह कभी माफ़ कर पायेगा ? जावेद अली ने देश के वफ़ादारों की मुखबरी करने से पहले शायद ये सोचा नहीं होगा अगर सोचा होता तो जावेद अली को कहानी के अंत में अपनी ही मौत की भीख मांगने की ज़रूरत नहीं पड़ती –“कहाँ हैं गोरिल्ले छोकरे ? …..मेरे नाक–कान काट लें। आँखें निकाल लें। जो कुछ मैंने उन्हें कहते सुना था उसमें से आज वे कुछ भी कर लें तो शायद मेरे हृदय को शान्ति मिले।”5. बंगाली साहित्य को पढ़कर यह महसूस होता है कि अवश्य ही हिंदी साहित्य को इससे बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। ऐसा कतई नहीं कि हिंदी कहानियों में गंभीरता नहीं है या उनमें समसामयिक घटनाओं का विवेचन नहीं मिलता। लेकिन हिंदी कहानी में बंगाली कहानियों जैसा फ़ोर्स नहीं है। सन् 1971 के दौरान हिंदी में कई कहानी आन्दोलनों की शुरुआत हो चुकी थी। नयी कहानी, सचेतन कहानी, अकहानी जैसे आन्दोलनों के दौरान कई तरह के नए प्रयोग हिंदी कहानी में किये गए। कई बेहतर कहानियाँ भी लिखी गयीं लेकिन कुछेक साहित्यकारों की रचनाओं को छोड़ दें तो उस समय की अधिकतम कहानियों में केवल आधुनिक युग के पुरुष-स्त्री संबंधों की व्याख्या ही नज़र आती हैं । क्या ? हिंदी भाषी क्षेत्र बांग्लादेश के हालातों से अनजान थे या वो इस बात से वाकिफ नहीं थे कि लाखों लोग बंगलादेश छोड़कर पश्चिमी बंगाल में शरणार्थी के रूप में रह रहे हैं ? उनकी पीड़ा और स्थिति का वर्णन केवल बंगाली समाचार पत्रों में छपता था ? पश्चिमी बंगाल भारत से अलग था ? और अगर इन सभी प्रश्नों का जवाब नहीं है तो फिर क्यों हिंदी लेखकों की कहानियों में, कविताओं में, उपन्यासों में इतिहास की इस घटना का चित्रण न के बराबर मिलता है। ‘अणिमा’ के इस महत्त्वपूर्ण विशेषांक में एक भी कहानी किसी हिंदी लेखक की नहीं छपी और न ही संपादक ने यह ज़हमत उठाई कि वह इस बात का स्पष्टीकरण करें कि उन्होंने केवल बांग्ला कथाकारों की ही कहानियों को क्यों शामिल किया ? बात चाहे जो भी रही हो लेकिन एक हिंदी भाषी पत्रिका में जिसमें अनुवादित बंगाली कहानियां प्रकाशित की जा रही हैं और वो भी उस मुद्दे को केंद्र में रखकर जिसमें भारत की
अहम भूमिका है – ऐसे मुद्दों पर हिंदी लेखक चुप्पी साधे क्यों बैठे थे ? और इसके बाद भी अन्य किसी पत्रिका ने ये प्रयास क्यों नहीं किया कि बांग्लादेश के मुद्दे पर अन्य भाषाओं के लेखकों की राय ली जाए। न ही इस दिशा में तत्कालीन स्थापित हिंदी लेखकों का कोई ठोस पक्ष सामने आया। वजह चाहे कुछ भी रही हो लेकिन एक बात स्पष्ट है कि बांग्लादेश के संदर्भ में बांग्ला साहित्य में जिस तरह का विरोध दर्ज है ऐसा विरोध आपातकाल के समय में भी साहित्य में नज़र नहीं आता। हिंदी साहित्य में गिनी-चुनी कहानी -उपन्यास ही इस संदर्भ में लिखे गए वो भी काफी बाद में। जहाँ तक बांग्ला साहित्यकारों की बात है तो चाहे अचिन्त्यकुमार सेनगुप्त हों या जरासंध या फिर बांग्ला की प्रतिष्ठित लेखिका महाश्वेता देवी सभी ने उस महत्त्वपूर्ण समय को अपनी कहानियों में कैद कर हमेशा के लिए अमर कर दिया है|
महाश्वेता देवी की कहानी ‘जनक राजा के धान खेत’ भी एक ऐसी कथा है जिसमें बांग्लदेश के उन किसानों की पीड़ा को दिखाया गया है जो अपने खेतों से वैसे ही प्यार करते थे जैसे राजा जनक अपनी पुत्री सीता से। अपने देश को छोड़कर चले जाने का दर्द क्या होता है –इस दर्द को शायद एक किसान से बेहतर कोई और नहीं समझ सकता जो अपनी देश की मिट्टी को सींच-सींच कर उसमें खेती करता है। जिस खेत में कभी फसलें लहलाहतीं थीं आज उसी में लोगों की लाशें सड़ रही हैं। एक आम किसान को यह भी नहीं पता कि वह अपने ही देश में अपने ही लोगों से क्यों लड़ रहे हैं ? एक स्वतंत्रता की लड़ाई अंग्रेजों से लड़ी थी क्योंकि वो विदेशी थे लेकिन अपनों से कैसा युद्ध ? क्या ये वाकई में युद्ध था या उससे भी भीषण कुछ और – “सभी इसे युद्ध क्यों कहते हैं ? ……घर–घर में आग लगाना, बाज़ारों और हाटों को लूटना, क्या इसी का नाम युद्ध है ? आंच लगने से मिट्टी को फोड़कर चीटियों का झुंड जिस प्रकार निकलता है, उसी प्रकार मनुष्य अपने घर–द्वार छोड़कर निकल रहे हैं। क्या इसी का नाम युद्ध है।”6. जनक के मन में यह प्रश्न रह-रहकर आते हैं कि जिस युद्ध की वजह से उसका पोता मर गया, जिस युद्ध के कारण उसके पोते की बहू पागल हो गयी उस युद्ध से किसी को हासिल क्या होगा ? और अंत में जाकर उसे अपने सभी सवालों का जवाब मिल जाता है –‘जो काम जिस के लिए है उसे करते रहना भी एक युद्ध है।’ किसान का एक ही काम है अपने खेतों का ध्यान रखना, उसे बीमारी से बचाना – इसी कार्य को करने के लिए जनक बीच रास्ते में ही शरणार्थी कैंप को
छोड़कर अपने खेतों की तरफ लौट आता है –“जनक अपने खेत में आ खड़ा हुआ|…जेठ के महीने में धान के खेत का चारा सब्ज रहता है। निराई नहीं हुई इसीलिए बीच–बीच में घास–फूस भी उगे हुए हैं।……जनक पागलों की तरह घास–फूस को उखाड़कर फेंकने लगा|…..बड़बड़ाता हुआ वह घास–फूस को गालियाँ देने लगा। मानो वो युद्ध कर रहा हो। मिट्टी की गंध से उसे उत्तेजना मिल रही थी। जिसका जो काम है वह उसे नहीं करने दिया जाए तो मनुष्य जिंदा कैसे रह सकता है।…… मिट्टी की गंध और धान–चारे की खुशबू में जनक अँधा हो गया। बहरा हो गया। इसलिए वह लोगों का चिल्लाना सुन नहीं सका। देख नहीं सका कि सामने कौन हैं जो उस पर बन्दूक तान रहे हैं|”7. बांग्लादेश की लड़ाई केवल सत्ता के लिए नहीं थी ये लड़ाई हर कोई अपने लिए लड़ रहा था – किसान अपने खेतों के लिए, बच्चे अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए, युवा अपने देश के लिए , सभी अपनी –अपनी इच्छाओं को जिंदा रखना चाहते थे। अपनी इच्छाओं को मरने नहीं देना यह भी तो एक युद्ध ही है| महाश्वेता देवी की यह कहानी भले ही बांग्लादेश की पृष्ठभूमि पर लिखी गयी हो लेकिन गौर से देखा जाए तो ये कथा हर उस देश की है जहाँ युद्ध जैसी भीषण परिस्थितियां बनी हुईं हैं। दरअसल ‘अणिमा’ के इस अंक में प्रकाशित हर कहानी आज भी प्रासंगिक है केवल इसलिए नहीं कि ये युद्ध में मारे गए उन लाखों लोगों की शहादत की याद दिलाती है बल्कि इसलिए कि वर्तमान समय में जो देश के हालात हैं उनसे लड़ने की शक्ति प्रदान करती है। ‘नील फूल’ जैसी कहानियां आज भी बंगलादेशी शरणार्थियों की स्थिति का वर्णन करती हैं जो अपने देश से दूर दूसरे देश में लोगों की दया के पात्र बने हुए हैं। जिनके मन में एक आशा आज भी जिंदा है कि कभी न कभी वह अपने बांग्लादेश के नील फूल ज़रुर देख सकेंगे।
अतीन वन्द्योपाध्याय की कहानी ‘बांग्लादेश के लोग’ में धर्म और भाषा के नाम पर लोगों को मारने वालों पर करारा व्यंग्य किया गया है| धर्म और भाषा की लड़ाई में पिसने वाले बंगलादेशी लोग यह नहीं समझ पा रहे थे कि आखिर उन्हें मारा क्यों जा रहा है। क्यों उन्हें अपने ही देश में परदेसी बना दिया गया है| केवल इसलिए कि उनका धर्म इस्लाम है लेकिन भाषा बंगाली ? या इसलिए कि वह अपने अल्लाह के साथ-साथ माँ दुर्गा का भी नाम लेते हैं ? जो परिस्थितियां उस समय बांग्लादेश के समक्ष थीं वह आज भारत के सामने कश्मीर को
लेकर हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि उस समय धर्म के ठेकेदार अब्दुल वारी (कथा का नायक) के कपड़े उतारकर उसके मुस्लिम होने का सबूत मांगते हैं और आज के ठेकेदार फतवा जारी करके यह कहते हैं कि मुस्लिम औरतों के लिए बुर्का पहनना ज़रूरी है। समय ज़रुर बीत गया है लेकिन हालात ज्यों के त्यों बने हुए हैं।
बांग्लादेश की गाथा को अपने कथा विशेषांक में जगह देकर अणिमा ने बांग्ला साहित्य के महत्त्व को प्रतिपादित करने की कोशिश की है। निश्चित तौर पर यह कथा विशेषांक केवल बांग्ला साहित्य की विशिष्टताओं को ही उजागर नहीं करता बल्कि साहित्य-सृजन की कला क्या और कैसी होनी चाहिए- इसकी भी प्रेरणा प्रदान करता है।
अणिमा के इस कथा-विशेषांक से पूर्व ‘उत्कर्ष’ पत्रिका ने मई और सितम्बर 1971 के अंक में बांग्लादेशी कविताओं को प्रकाशित किया था। इन कविताओं की खासियत यह थी कि ये केवल बांग्लादेश की पृष्ठभूमि पर ही आधारित नहीं थीं बल्कि बंगलादेशी कवियों द्वारा रचित थीं। इसके अतिरिक्त इस अंक में हिंदी कवियों की उन रचनाओं को भी शामिल किया गया जो बांग्लादेश की स्थितियों पर अपना मत स्पष्ट करते हैं। वेणु गोपाल, गोपी डढूला, वीर राजा, अप्रसाद दीक्षित जैसे कवियों ने यह साबित कर दिया कि केवल पश्चिम बंगाल ही नहीं बल्कि भारत के अन्य राज्य भी बांग्लादेश की क्रांति में उनके साथ हैं। बांग्लादेश के कवियों की पंक्तियों को अपनी पत्रिका में आवाज़ देकर ‘उत्कर्ष’ ने उन सोये हुए कवियों को जगाने की कोशिश की जो अभी भी क्रांति एवं स्वतंत्रता जैसे शब्दों से अनजान थे। जिनकी कविता अभी –भी प्रेयसी के केशों में उलझी हुई थी। दरअसल 1971 के बांग्लादेश पर केन्द्रित साहित्य हर उस लेखक, कवि एवं कलाकार के लिए एक प्रेरणा हैं जो सच को बाहर लाने से कतराता है। यह कवितायें केवल बांग्लादेश के लोगों को ही नहीं पुकार रही हैं बल्कि हर उस देश के नागरिक को जगा रही हैं जो अभी-भी परतंत्रता की ज़जीरों में जकड़ा हुआ है –
“महाप्रलय की पुकार आई है
आगे बढ़ने की
शपथ लेने की
घर–घर में।
खून में आया है आदिम ज्वार
उसी के प्रवाह में
हमने ली नई सौगंध
कोई भी बाधा का प्राचीर हम नहीं मानेंगे
न कुंठित है, न हम दुर्बल।
हम हैं भयंकर :
तोड़ेंगे हम
शत्रुओं का सारा बंधा
रचेंगे दूसरा
नया फंदा।”8.
काजी हिमायातुल्ला की यह कविता क्रांति का आह्वान कर रही है। देश के हर नागरिक को उसके कर्त्तव्य की याद दिला रही है कि अब एक स्वतंत्र देश बनाने का वक्त आ गया है,इसलिए यह आवश्यक है कि हम सब मिलकर यह शपथ लें कि अब मरेंगे ही नहीं, मारेंगे भी। शत्रु-पक्ष का फंदा उसी के गले में डाला जाएगा और उसी के खून से बांग्लादेश का नया इतिहास लिखा जाएगा। ज़ाहिर है कि ऐसी कविता करना उस समय की मांग थी – क्रान्ति के आह्वान के लिए ज़रूरी है कि कवि आम-जनता के दिलों से मौत का डर निकाल फेकें क्योंकि सड़क पर पड़ी अपने देशवासियों की लाशों को देखकर कोई भी इंसान कमज़ोर पड़ सकता है। ऐसे हालातों में उसके अन्दर दबे आक्रोश को क्रान्ति का रूप दे देना ही कवि का कर्म था। शमसुर रहमान की कविता ‘लाश’ इसी कवि कर्म को निभाते हुए नज़र आती है –
“यह लाश हम रखें तो कहाँ
भला इस लायक कब्र कहाँ
–x-x-x-
चूं आज यह लाश नहीं रखता
मिट्टी में, पहाड़ में, सागर में –
हर दिल में है ठांव इसका|”9.
बांग्लादेश की लड़ाई में शामिल हर शख्स अपने दिलो-दिमाग में इन लाशों के ढेर को सहजे बैठा है। सड़क पर पड़ी लाशें चीख रही हैं कि अब पीछे मत हटना। इन लाशों को पर्वत, पहाड़,मिट्टी दफ़न नहीं कर सकती क्योंकि अभी भी यह बंगवासियों के दिलों में जिंदा हैं, उनकी लड़ाई में उनके साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ रही हैं, उन्हें प्रेरित कर रही हैं कि बिना रुके आगे बढ़ते चलो, मंज़िल करीब है।
हुमांयू आज़ाद की कविता ‘ब्लड बैंक’ भी देशवासियों के मनोबल को बढ़ाती हुई प्रतीत होती है। बांग्ला देश में बंगवासियों के खून की जो नदियाँ बह रही हैं दरअसल वो खून मातृभूमि के लिए ब्लड बैंक का काम कर रहा है। प्रस्तुत कविता में हुमायूँ आज़ाद बंगवासियों की शहादत को संबोधित करते हुए कह रहे हैं कि स्वतंत्रता की लड़ाई को खून से सींचना ही पड़ेगा अगर ऐसा नहीं किया तो तुम्हारा खून अस्पताल की बोतलों में पड़ा-पड़ा गन्दा हो जाएगा। इसलिए आवश्यक है कि तुम अपना खून इस धरती पर बह जाने दो। धरती पर पड़ी तुम्हारे रक्त की एक बूँद दस गुना होकर तीव्र गति से शत्रु-पक्ष का सफाया कर रही है इसलिए आवश्यक है कि अपने इस ब्लड बैंक को स्वतंत्रता मिलने तक खाली न होने दो –
“बंगाल की धरती पर रोज़ाना कैसा रक्तपात हो रहा है
हर बटोही कुछ लोहू दे जाता
ब्लड बैंक में : बंगाल की धरती पर……….
हर मजदूर अपनी मंजिल के पथ पर बिखेरता रक्त सूर्य बीज
स्कूल के बच्चे छात्र युवती–युवक…….
सब लोग खून छोड़ जाते ब्लड बैंक में।
कौन भला अब ब्लड–बैंक अस्पताल में रखे
वह लाल खून गन्दला जाता है
कांच शीशी और दवा के जहरीले स्पर्श से
बंगाल की धरती जैसा ब्लड–बैंक कहीं नहीं
बूँद भर लाल खून
दस बूँद बन जाता उस बैंक में रखते ही
इसलिए अब कोई ब्लड बैंक– अस्पताल जाता नहीं।”10.
बांग्ला देश की हवा में अब मुक्ति की महक आने लगी है। मुक्ति की कल्पना भयभीत चेहरों पर मुस्कान के फूल खिलाने लगी है। स्वतंत्र देश की शुद्ध परिकल्पना कैसे बंगवासियों को भाव-विभोर कर रही है इसका चित्रण हसन हाफिसुर रहमान की इस कविता में मिलता है –
“निसर्ग के गले में बंधे रंग–गर्ती टाई की नाई
अनगिनत कनकौवे उड़ रहे हैं
सारे देश भर में एक भी अमरीकी झंडा नहीं
बे रोक टोक हवा के शुद्ध आवागमन से
बच्चों के ताज़े चेहरों पर मानों भिनसारे खिले फूल हों”11
उपर्युक्त पत्रिकाओं में प्रकाशित बंगला साहित्य के विवेचन से यह स्पष्ट है कि बांग्ला साहित्य में समसामयिक घटनाओं का चित्रण कितने मुखर रूप में हुआ है। बात भले ही देश की हो या देश के बाहर की बांग्ला लेखक हर राजनीतिक एवं सामाजिक गतिविधि पर अपनी पैनी दृष्टि रखते है और उसे बड़ी ही बारीकी के साथ साहित्य में व्याख्यायित करते हैं। लेकिन तत्कालीन समय में बांग्ला साहित्य में और किस प्रकार की साहित्यिक प्रवृत्तियां विद्यमान थीं – कैसी कहानी और कविता लिखी जा रही थीं, राजनीतिक मुद्दों के अलावा बंगला साहित्य और किन मुद्दों की ओर केन्द्रित था, इन प्रश्नों के जवाब जाने बिना तत्कालीन बंगला साहित्य को पूर्ण रूप से विवेचित नहीं किया जा सकेगा।ऊपर जिन कहानियों या कविताओं का ज़िक्र किया गया है वह एक विशेष दृष्टिकोण के अंतर्गत लिखी गयीं थीं लेकिन इसके अलावा बंगला कहानी या कविता का क्या स्वरुप है यह जानने के लिए कुछेक और पत्रिकाओं में प्रकाशित कहानियों, कविताओं और लेखों का मूल्यांकन करना आवश्यक होगा –
बंगला कहानी– साहित्यिक प्रवृतियों के दृष्टि से देखा जाए तो 1950 से लेकर 1980 तक का समय काफी महत्त्वपूर्ण था। विशेषत: कहानी और कविता जैसी विधाओं के विकास की दृष्टि से। बंगला कहानी की बात करें तो इन तीस वर्षों में बंगला कहानी के स्वरुप में काफी परिवर्तन आया था। ऐसा माना जाता है कि 50 के दशक में बंगाली कहानीकार मूलत: कथा के लिए या तो किस्सा-गोई की शैली पसंद करते थे या फिर पाठक के सामने चमत्कारिक शैली में कोई रोमांचकारी घटना का विवेचन कर देते थे। लेकिन 70 के दशक तक आते-आते लेखकों के दृष्टिकोण में परिवर्तन आया। अब कहानीकार न तो किस्सागोई की शैली पसंद करते थे न ही उन्हें चमत्कारिकता में विश्वास था। ‘संचेतना‘ के अप्रैल–जुलाई 1967 के अंक में प्रकाशित लेख ‘आज की बंगला कहानी‘ में आलोक सरकार पूर्ववती एवं समकालीन बंगला कहानीकारों में अंतर स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि -” वर्तमान बंगला कहानी के चिंताशील एवं संचेतन रचयिताओं ने कहानी–रचना के दायित्व को नितांत भिन्न अर्थ में ग्रहण किया है|……आज के कहानीकार कहानी तत्त्व को निकाल, चरित्र का निषेध कर, किसी भी प्रकार के उद्देश्य को वर्जित कर,कहानी को एकांत, एकमात्र शिल्प–परिणत का अर्थ देना चाहते हैं|…पच्चास के दशक के कहानीकार कहानी और कविता में अभिन्नता स्थापित करना चाहते थे।बहुधा इसका सुपरिणाम होने पर भी अधिकांशत: यह आवेगपूर्ण रहा और किशोर भावुकता में सीमाबद्ध हो गया। ….कुछ लेखक यौन–आवेग के खुलासा वर्णन को ही आधुनिकता मानते हैं……जबकि आज के कहानीकार यौन–विषय के बचकाने वाद–विवाद पर बहस नहीं करना चाहते न ही समाज–सुधार एवं उन्नयन का दायित्व ग्रहण करना चाहते हैं । ये केवल कहानी लिखना चाहते हैं|”12. ज़ाहिर है कि नये कहानीकार एक नया तरह का प्रयोग साहित्य में करना चाह रहे थे – उद्देश्य विहीन कहानी लिखना जिसमें पात्रों या कहानी तत्व की प्रधानता न होकर केवल शिल्प का आधिपत्य हो, यह भी तो एक तरह का नया प्रयोग ही हुआ। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि 50 के दशक के कहानीकार केवल किस्सागोई शैली में ही रचनाएँ करते थे या उनकी कहानी में कौरी भावुकता थी। यहाँ पर ताराशंकर वन्द्योपाध्याय की कहानी ‘मोतीलाल‘ की चर्चा करना आवश्यक है जो कल्पना के फ़रवरी 1953 के अंक में प्रकाशित हुई थी। 50 के दशक में लिखी गयी ये कहानी हर लिहाज़ से उत्कृष्ट है। यह कहानी हाशिये पर पड़े उस आदमी की स्थिति का वर्णन कर रही है जो दलित होने के साथ –
साथ अपनी कुरूपता का मूल्य भी प्रतिदिन समाज के ठेकेदारों को देता है। कहानी में मोतीलाल और उसकी पत्नी देखने में आम इंसानों जैसे नहीं हैं।उनकी कुरूपता को लेकर गाँव भर में चर्चा है। यही वजह है कि मोतीलाल नुक्कड़ नाटकों में रूप बदल-बदलकर हर प्रकार की भूमिकाएं निभाता है। लेकिन उसकी पत्नी भुवन को यह बात पसंद नहीं है वो चाहती है कि उसका पति कोई काम पकड़ ले ताकि आगे चलकर बच्चे हों तो उनका पालन-पोषण भी अच्छे से हो। लेकिन मोतीलाल इससे इक्तिफाक नहीं रखता। उसे लगता है कि उसका रूप ही उसकी पहचान है अत: वो जो कार्य कर रहा है वो ही ठीक है। इसी उधेड़बुन में कहानी आगे बढ़ती है और एक दिन गाँव के किसी माननीय व्यक्ति की बेटी मोतीलाल का रूप देखकर बेहोश हो जाती है। मोतीलाल लड़की का स्वास्थ्य जानने की नीयत से उसके घर जाता है जहाँ उसका स्वागत लात और घूंसों से किया जाता है। मोतीलाल किसी तरह घर पहुँचता है और अपनी पत्नी से कहता है -“हम लोगों का लड़का हम लोगों की तरह ही काला और कुत्सित होगा न भुवन ! ज़रूरत नहीं है हमें बाल–बच्चों की|”13. कहानी का अंत समाज के घिनौने चेहरे से पर्दा उठाता है जो मानवीय संवेदना को महत्त्व न देकर जाति एवं रंग-रूप पर जोर देता है। हाशिये पर पड़े व्यक्ति में न तो इतनी हिम्मत है और न ही इतना धैर्य कि वह इन रुढ़िवादी परम्पराओं के खिलाफ लड़े। इसलिए इसे ही अपनी नियति मानकर ये अपने हालातों के साथ समझौता कर लेते हैं। यह कहानी समाज की एक समस्या की ओर ध्यान आकर्षित अवश्य करती है लेकिन कहानी कोई उपदेश नहीं देती। पूरी कहानी का शिल्प-विधान भी बेजोड़ है। शुरू से लेकर अंत तक कहानी की भाषा पाठकों को बांधे रखती है। कहानी में चित्रित परिस्थितियां एक के बाद एक स्वयं ही कहानी की गति को आगे बढ़ाती हैं। हाँ यह ज़रुर है कि इस कहानी का एक उद्देश्य है। लेकिन एक बात गौर करने लायक है कि अगर साहित्य में से उद्देश्य तत्त्व का ही लोप कर दिया जाएगा तो साहित्य का अर्थ ही क्या रह जाएगा ? नये कहानीकारों का नया प्रयोग हैकेवल कहानी लिखना है- लेकिन क्या कोई कहानीकार उद्देश्य विहीन कहानी लिखा सकता है ? किसी नयी रचना का सृजन करना अपने आप में एक उद्देश्य है इसलिए भले ही कोई कहानीकार ये मानकर चले कि उसने एक उद्देश्यहीन कहानी की रचना की है लेकिन पाठक उस कहानी के लिए कोई न कोई उद्देश्य ढूंढ ही लेगा। जहाँ तक बात नए कहानीकारों की है तो उन्होंने ज़रुर ऐसी कथाओं की रचना की जिसमें कहानी तत्त्व और चरित्र प्रधानता दोनों का ही लोप था। ‘संचेतना’ के अप्रैल–जुलाई 1967 के अंक में रमानाथ राय की बंगला कहानी ‘दरवाज़ा‘ प्रकाशित हुई। सन् 60 के बाद जिस नयी चाल की कहानी की चर्चा शुरू हुई ये उसमें
बिलकुल फिट बैठती है। इस कहानी में प्रधान पात्र है एक ‘पुराना दरवाज़ा’ जिसे लक्ष्य करके कहानी लिखी गयी है| दरवाज़े के पीछे से सीढ़ियाँ उतरते आदमियों की कुछ-कुछ आवाजें आती हैं और ऐसा लगता है कि ये दरवाज़ा टूट जाएगा।लेकिन वह दरवाज़ा ज्यों का त्यों यूँ ही खड़ा है। कहानी का मूल्यांकन करने के पश्चात् ऐसा लगता है कि जो आवाजें दरवाज़े के पीछे से सीढ़ियाँ उतरते हुए लोगों की आ रही हैं वो केवल सहायक पात्र हैं, जिनका उपयोग उस दरवाज़े की महत्ता को प्रतिपादित करने के लिए किया गया है। कितने ही वर्षों से यह दरवाज़ा खड़ा है। हजारों लोग सीढ़ियों से उतरते –चढ़ते हैं दरवाज़ा उन सभी को देखता है, उनकी बातें सुनता है लेकिन कोई उस दरवाज़े की ओर ध्यान नहीं देता। दरवाज़ा हर अच्छी-बुरी बात को ध्यान से सुन रहा है लेकिन चाहकर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पा रहा क्योंकि उसकी मजबूरी है, वो निर्जीव है, उसकी आवाज़ कोई सुन नहीं सकता। लेकिन आज का मनुष्य तो बोल सकता है सुन सकता है, देख सकता है फिर भी जानबूझकर अँधा,बहरा,गूंगा बना हुआ है ? ऐसा लगता है यह कहानी आधुनिक मनुष्य की प्रवृत्ति को विवेचित कर रही है जो अच्छे-बुरे में भेद तो जानता है लेकिन सही को सही और गलत को गलत कहने से कतराता है। कहानी के अंत में दरवाज़े की पीछे से आ रही आवाजों से ऐसा लगता है जैसे कि इस बार दरवाज़ा ज़रूर टूट जाएगा –पैरों की धम-धम से नहीं बल्कि मनुष्य के गिरते हुए व्यवहार से जिसे एक दरवाज़ा तो महसूस कर रहा है लेकिन इंसान नहीं – “और ? /एक मंथली था /और ?/सिनेमा का टिकट था / और ?/ कुछ रुपए थे / और?/एक ब्लेड था /और?/…….और किसी के घर का पता था / और ?/……..दरवाज़े के भीतर से आवाज़ आने लगी धम..धम ….दरवाज़ा इस बार टूटकर गिर पड़ेगा।”14. प्रस्तुत कहानी के शिल्प-विधान से स्पष्ट है कि 60 के दशक का लेखक किस तरह की कहानियां लिखना चाह रहा था। केवल नया प्रयोग ही नहीं बल्कि कहानी के स्वरुप को ही नया आकार देने में लगा हुआ था। ‘नई धारा’ पत्रिका में प्रकाशित सभी बंगला कहानियां नए प्रयोग पर ही आधारित हैं । समरेश बसु की कहानी ‘अनजाने’ जहाँ एक ओर आधुनिक –पति और पत्नी के संबंधों को नए रूप में व्याख्यायित करती है वहीं मिहिर आचार्य की कहानी ‘तीर्थ यात्रा’ प्रतीकात्मक रूप में अन्धविश्वास और विश्वास के बीच के भेद को स्पष्ट करती है। ‘नई धारा’ पत्रिका में प्रकाशित अधिकतर बंगला कहानी प्रतीकात्मकता एवं रहस्यवाद का आभास कराती हैं जिससे लेखक की परिकल्पना पर कभी-कभी आश्चर्य होता है तो कभी-कभी खीझ भी चढ़ती है कि कहानी को इतना दुरूह बनाने की क्या आवश्यकता थी। इसका स्पष्टीकरण देते हुए आलोक सरकार कहते हैं कि – “आज के
लेखक मानते हैं कि उनकी कहानी प्रधानत: ऑब्जेक्टिव होगी।….ओब्जेक्टिविटी से उनका तात्पर्य है कि कहानी को किसी चरित्र के दृष्टिकोण से रचने की प्रक्रिया मान्य नहीं होगी।……लेकिन अधिकतर कहानीकार जिस वस्तुनिष्ठ कहानी की बात करते हैं वे प्राय: उसे कार्यान्वित नहीं कर पाते। उनकी कहानियां पढ़कर, उनकी आत्मनिष्ठता (subjectivity) स्पष्ट हो जाती है….कोई भी साहित्य पूर्णत: वस्तुनिष्ठ हो ही नहीं सकता क्योंकि उसके प्राण–उत्स में रहता है एक सब्जेक्ट अर्थात लेखक।”15. आलोक सरकार का यह कथन पुराने और नए कहानीकारों के बीच अंतर स्पष्ट करते हुए नये लेखकों के विज़न को पूर्णत:रेखांकित करता है। हालाँकि इस बिना पर ये नहीं कहा जा सकता कि नए कहानीकार अपने इस प्रयोग में सफल नहीं हुए। एक ओर जहाँ रमानाथ राय, शेखर बसु, कल्याण सेन जैसे लेखकों ने अपने नए विज़न में कहानी को ढालकर बंगला साहित्य को समृद्ध किया है। वहीं दूसरी ओर 50 के दशक के बुद्धदेव बसु,ताराशंकर वन्द्योपाध्याय जैसे कहानीकारों की चर्चा किये बिना बंगाली कहानी का इतिहास अधूरा ही रहेगा।
बंगला कविता – लघु पत्रिकाओं में जितना स्पेस बंगला कहानी को दिया गया है उतना किसी अन्य विधा को नहीं दिया गया। यहाँ तक कि बंगला कविता भी इन लघु पत्रिकाओं की नज़रों से ओझल ही रही। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि 50 के दशक में जितना महत्त्व गद्य का बढ़ा उतना पद्य का नहीं। गद्य की नयी-नयी विधाओं ने साहित्य में अपना स्थान बनाना शुरू कर दिया था इसलिए इन पत्रिकाओं ने भी नई विचारधारा का अनुसरण करते हुए गद्य को अधिक महत्त्व दिया। शायद यही वजह रही हो कि बंगला कविता पर इन पत्रिकाओं में कोई विशेष चर्चा नहीं हुई है। ‘कल्पना’ के मई 1956 के अंक में ‘बांग्ला कविता’ पर रवीन्द्रनाथ देव का लेख प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुत लेख में आरंभिक युग से लेकर आधुनिक युग तक के बांग्ला कविता के स्वरुप का विवेचन किया गया है। बौद्ध भिक्षु के चर्या पदों से लेकर जीवनानंद दास की स्वछन्द कविता तक किस प्रकार बांग्ला कविता का रूप परिवर्तित होता गया इसका संक्षेप में विवेचन किया गया है। इसके अतिरिक्त ‘उत्कर्ष’, नयी धारा, लहर जैसी पत्रिकाओं ने अपने कुछ अंकों में समसामयिक मुद्दों पर बंगाली कविताओं को प्रकाशित किया है। इन पत्रिकाओं में प्रकाशित बंगला कवितायें मुख्य रूप से तत्कालीन राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों का विवेचन करती हुई दिखाई देती हैं। ‘नई धारा’ के दिसम्बर
1967 के अंक में त्रिदिब मित्र की एक लम्बी कविता ‘हत्याकांड’ प्रकाशित हुई थी। दरअसल सन् 60 के दशक में हंगरी जेनरेशन मूवमेंट ने बंगला संस्कृति एवं साहित्य की तस्वीर को कुछ समय के लिए पूरी तरह से बदल कर रख दिया था। त्रिदिब मित्र भी इस आन्दोलन के सक्रिय प्रचारकर्ताओं में से एक थे। उनकी यह कविता तत्कालीन समय के विभिन्न अंतर्विरोधों को अपने में समेटे हुए है। राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों का केवल ज़िक्र भर ही नहीं है बल्कि आधुनिक मनुष्य उनमें किस तरह फंसा हुआ है इसका विस्तार से उल्लेख किया गया है। स्वार्थ,लालच,भय, क्रोध,प्रेम इन सबके बीच पिसते हुए मनुष्य का चित्रण इस कविता का केंद्रीय बिंदु है। आधुनिक युग का मनुष्य इतना हताश और निराश हो गया है कि वह अपनी हत्या अपने ही हाथों से करना चाहता है लेकिन मृत्यु भी मनुष्य के इस स्वरुप को देखकर भाग खड़ी होती है –
“मुझे बार–बार ज़िन्दगी से फिसल कर ज़िन्दगी के फंदे में
फंसना पड़ रहा है
मृत्यु केवल मेरे साथ प्रतारणा कर रही है………
अस्वाभाविक मृत्यु भी मेरे डर से फरार होकर भाग रही है
क्योंकि मैं सरल आँखों से मृत्यु के पास गया था
डर से उसकी आँखें सिकुड़ गयीं थीं
अंधी आँखों से सिर झुकाकर वह रो पड़ी थी।”16.
आज के मनुष्य के समक्ष सबसे बड़ी दुविधा है उसका डर। वह डर जिसके कारण वे अपनी आत्मा की आवाज़ को अनदेखा कर देता है, वह डर जिसकी वजह से वे स्वतंत्र होकर भी पराधीनों की ज़िन्दगी जीता है। इस डर ने इंसान को इतना कुत्सित बना दिया है कि वह अपने आप का सामना नहीं कर पाता-
“स्वाधीनता के हाथ पर कोई हाथ नहीं रख पा रहा है डर से
ओह मेरे और सभी के बीच में तैयार हो रही है –
एक लम्बी, गहरी खाई………….
सारे शरीर छानबीन कर आत्मा ढूंढे नहीं मिल रही है
मैं एक बार भी अपनी ओर मुड़कर नहीं देख पा रहा हूँ।”17.
हंगरी जेनरेशन मूवमेंट से प्रभावित यह कविता बँगला साहित्य में आये बदलाव को भली-भांति प्रतिपादित करती है। सन् 60 के बाद की कविता का ध्येय केवल भारी-भरकम शब्दों के माध्यम से काव्यात्मकता का निरूपण करना नहीं था बल्कि एक ऐसी सच्चाई से मनुष्य को वाकिफ करवाना था जिससे वो कोसों दूर है। ज़ाहिर है कि बांग्ला कवियों ने पूरी ईमानदारी के साथ अपने इस दायित्व को निभाया है।
निष्कर्ष– उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि हिंदी की लघु पत्रिकाओं ने बंगला साहित्य को केवल अपनी पत्रिकाओं में प्रकाशित ही नहीं किया बल्कि बंगला साहित्य को समझने की एक नयी दृष्टि भी प्रदान की है। हालाँकि अधिकतर लघु पत्रिकाओं में समकालीन बंगला कहानी को ही अधिक प्रश्रय दिया गया है, फिर भी बंगला साहित्य में होने वाले नए प्रयोगों और लेखकों के नयी विचारधारा की जो तस्वीर सामने आती है वह निश्चित रूप से हिंदी साहित्य के वर्तमान और भविष्य के लिए मार्ग प्रशस्त करती है।
संदर्भ –
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- वही,पृष्ठ संख्या -27
- वही,पृष्ठ संख्या -35
- वही,पृष्ठ संख्या – 41- 42
- वही,पृष्ठ संख्या – 44.
- वही,पृष्ठ संख्या – 129.
- वही,पृष्ठ संख्या – 133.
- संपा – उपाध्याय,गोपाल, उपाध्याय,घनानंद.( मार्च –अप्रैल, 1971). ‘उत्कर्ष’,लखनऊ, वर्ष -12, अंक -3-4, ‘सात समंदर :दस दिगंत बंगलादेश’ , पृष्ठ संख्या -25.
- वही,पृष्ठ संख्या -27.
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- संपा-सिंह,महीप, बग्गा,कुलदीप.(अप्रैल –जुलाई ,1967). ‘संचेतना -3’,दिल्ली, ‘आज की बंगला कहानी’, पृष्ठ संख्या :- 65-66-67.
- संपा- शर्मा, डॉ.आर्येन्द्र. (फ़रवरी -1953). ‘कल्पना’, हैदराबाद, वर्ष-4, अंक-2, पृष्ठ संख्या -164.
- संपा-सिंह,महीप, बग्गा,कुलदीप.(अप्रैल –जुलाई ,1967). ‘संचेतना -3’, ‘आज की बंगला कहानी’, पृष्ठ संख्या :-73- 74
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- संपा- सिंह,उदयराज.(दिसम्बर 1967 – जनवरी 1968) ‘नई धारा’,पटना, ‘हत्याकाण्ड –त्रिदिब मित्र’, वर्ष -18, अंक :- 9-10, पृष्ठ संख्या, 23.
- वही, पृष्ठ संख्या – 26.