हिंदी कहानियों में किन्नर समाज
-डॉ. शिराजोद्दीन
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सारांश
विमर्श के इस दौर में ये कहानियां किन्नर समाज को केंद्र में लाकर एक नया विमर्श खड़ा करती हैं। किन्नर या किन्नर समाज को कालांतर से हाशिए पर रखने के साथ-साथ उससे घृणा, हीन भाव, अपमान बोध यहाँ तक कि उसे शोषण का शिकार भी होना पड़ा। वह अपनी पहचान की तलाशा में आज भी संघर्ष कर रहा है। इसी कड़ी में लव कुमार ‘लव’ की कहानी ‘अंधेरे की परतें’ ध्यानाकर्षित करती है।
बीज शब्द समाज, किन्नर, अपमान, अस्मिता
शोध आलेख
जब भी हम भारतीय समाज की बात करते हैं तो यहाँ के अलग-अलग समाजों का चेहरा सामने आता है। और उन समाजों की संस्कृति, भाषा, परम्पराओं, रीति-रिवाज़ों आदि से भी रूबरू होते हैं। समाज चाहे कोई भी हो और कितना भी विकसित क्यों न हों, लेकिन वह अपने भीतर कहीं न कहीं एक संकुचित सामाजिक ढाँचे का निर्माण करता है। जिसमें एक दूसरे के प्रति घृणा, संकीर्ण मानसिकता, अपमान, शोषण, अत्याचार आदि असामाजिक तत्व विद्यमान हैं। वर्तमान समय की सच्चाई यह है कि व्यक्ति ख़ुद को ज़िंदा रखने और अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए जद्दोजहद करता हुआ दिखाई दे रहा है। इसीलिए वर्तमान समय में भारतीय समाज का विश्लेषण करने पर मालूम होता है कि कहीं आत्मसम्मान की लड़ाई है तो कहीं अस्तित्व की लड़ाई, कहीं पहचान की लड़ाई तो कहीं वर्ग संघर्ष की लड़ाई देखी जा सकती है। बड़ी आसानी से कहने को तो कह सकते हैं कि समाज तमाम समुदायों से मिलकर बनता है और इसे समुदायों की इकाई की संज्ञा दी जाती है। लेकिन समाज के भीतर देखा जाए तो सच्चाई कुछ और ही दीखती है। जहां उसके विखंडित रूप से परिचित होते हैं। समाज के बाहरी और भीतरी पहलुओं को प्रस्तुत करने में साहित्य ही एक सशक्त माध्यम है, जिसके ज़रिए समाज की प्रत्येक गतिविधियों को समझा जा सकता है। जिसमें साहित्यकार समाज की सच्चाई पर विचार-विमर्श करने के साथ-साथ मानवीय संवेदनाओं को भी प्रकट करता है। साहित्यकार की रचनाएं स्वानुभूति और सहानुभूति इस दोनों चीज़ों को प्रस्तुत करने में मुख्य भूमिका निभाती हैं। साहित्यकार कभी अपने भोगे हुए जीवनानुभव का उल्लेख करता है, तो कभी आँखों देखे हाल को बयान करता है। एक सच्चे साहित्यकार की संवेदनाएं हमेशा समाज के प्रति बनी रहती है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि साहित्यकार का व्यापक दृष्टिकोण और समसामयिक मुद्दों पर पैनी नज़र ही उसे प्रासंगिक बनाती है। यदि बात की जाए हिंदी कहानी लेखन की तो इसमें वर्तमान भारतीय सामाजिक परिवेश और समकालीन विषयों पर चर्चा-परिचर्चा की गई है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में हरेक समाज की अपनी कहानी है और हरेक समाज का अपना दर्द भी है। इस कड़ी में समकालीन हिंदी कहानियां किन्नर समाज और उसके के दर्द को बयान करने में अपना सफ़र तय कर रही हैं।
विमर्श के इस दौर में ये कहानियां किन्नर समाज को केंद्र में लाकर एक नया विमर्श खड़ा करती हैं। किन्नर या किन्नर समाज को कालांतर से हाशिए पर रखने के साथ-साथ उससे घृणा, हीन भाव, अपमान बोध यहाँ तक कि उसे शोषण का शिकार भी होना पड़ा। वह अपनी पहचान की तलाशा में आज भी संघर्ष कर रहा है। इसी कड़ी में लव कुमार ‘लव’ की कहानी ‘अंधेरे की परतें’ ध्यानाकर्षित करती है। इस कहानी में परेश (किन्नर) की माँ ‘निशा’ को जिन परिस्थितियों और यातनाओं से गुज़रना पड़ता है, उसे पढ़कर दिलो-दिमाग विचलित हो जाता है। इस कहानी में निशा की तीन बेटियां पैदा होते ही मर जाती हैं। फिर वह हर बार की तरह चौथी बार भी गर्भधारण करती है। जब वह अस्पताल में नवजात शिशु ‘परेश’ (किन्नर) को जन्म देती है। पुत्र की चाहत में बैठा रवि डॉक्टर से किन्नर पैदा होने की ख़बर सुनते सन्न रह जाता है। दो दिन बाद जब रवि जच्चा और बच्चा को घर ले आता है, तो बच्चे के लिंग-दोष की खबर पूरी कॉलोनी में आग तरह फैल जाती है। यहाँ तक कि कोई भी उसे देखने नहीं आता। कहानी की इस घटना और लोगों के व्यवहार से पता चलता है कि समाज संकीर्णता के दायरे से अभी निकला नहीं है। नवजात शिशु और उसके परिवार के प्रति घृणा, इस बात की ओर इशारा करती है कि मानवीय संवेदनाएं ख़त्म होने के कगार पर हैं। पुत्र चाह प्रधान समाज के तानों और दुर्व्यवहार से तंग आ कर रवि भी अपनी पत्नी और बच्चे को छोड़कर कहीं दूर चला जाता है। पति के जाने के बाद निशा को समाज के ताने यहाँ तक मजबूर करते हैं कि वह अपने बच्चे परेश के साथ आत्महत्या करने का मन बना लेती है। सड़क के किनारे बने एक बौद्ध मठ के द्वार पर लिखा हुआ ‘जीवन अभी खत्म नहीं हुआ है, अभी तो शुरुआत हुई है’ वाक्य निशा को प्रभावित करता है। और उसे ज़िन्दगी जीने के लिए उम्मीद पैदा करता है। वह अपना शहर छोड़कर दूसरे शहर चली जाती हैं। शहरी परिवेश में अपनी जिजीविषा चलाने के साथ-साथ परेश को पढ़ाना चाहती है। इसी कारण उसे स्कूल में भर्ती भी कराती है। लेकिन जब स्कूल में परेश के लिंग-दोष का पता चलता है तो उसे स्कूल से निकाल दिया जाता है। यह कहानी न केवल किन्नर की व्यथा को चित्रित करती है बल्कि निशा के माध्यम से स्त्री जीवन के संघर्ष को भी रेखांकित करती है। सामाजिक व्यवस्था में घुटती निशा परेश से कहती है- “बेटा ये समाज वास्तव में समाज नहीं है, यह रूढ़ियों और गंदगियों भरी बस्तियों के समूह हैं। जो असामान्य को कभी सामान्य नहीं बनने देते, यहां तो कई बार इंसान समाज की वजह से अपना सब कुछ खो देता है, उसे भी यह समाज अपनाने से परहेज करता है। जहां लोगों को अपने जैसे ही लोग जीने के लिए चाहिए होते हैं…”[1] भले ही “भारत में साल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें सरकारी दस्तावेज़ों में बाक़ायदा थर्ड जेंडर के तौर पर एक पहचान दी है। वो सरकारी नौकरियों में जगह पा सकते हैं। स्कूल कॉलेज में जाकर पढ़ाई कर सकते हैं। उन्हें वही अधिकार दिए हैं जो किसी भी भारतीय नागरिक के हैं।”[2] लेकिन समाज में किन्नर को हास्य की वस्तु समझा जाता है, या फिर घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। वर्तमान समय में किन्नर समाज आर्थिक रूप से भी पिछड़ा हुआ है। शादी-ब्याह में नाच-गाकर या किसी बच्चे की पैदाइश पर जश्न मनाकर ये अपनी कमाई करते हैं। इनके आर्थिक स्त्रोत के बारे में बीबीसी हिंदी लिखता है- “ये सड़कों पर, पार्कों, बसों, ट्रेनों, चौराहों, कहीं भी मांगते हुए नज़र आ जाते हैं। लोगों की नज़र में अब इनकी पहचान भिखारी की हो गई है।”[3] इस समाज की विवशता और संघर्ष को चित्रित करने में समकालीन कथाकारों का योगदान रहा है। हिंदी की सुप्रसिद्ध लेखिका कुसुम अंसल की कहानी ‘ई मुर्दन का गांव’ में लैंगिक विकृति से पीड़ित लोगों की मार्मिक दशा को चित्रित किया गया है। इस कहानी की पात्र सलीमा कहती है- “भाग्य की बात है, हम जब अलिंगी पैदा हुए हैं एसेक्सुअल, इसी से यहां रहने को मजबूर है।”[4] लेखिका किन्नर गुरु जया के माध्यम से कहती है कि जन्म पर किसी का अधिकार नहीं होता बल्कि यह एक प्राकृतिक है। इसीलिए सभी को जीने का सम्पूर्ण अधिकार है। किन्नरों के सन्दर्भ में समाज की दो धारणाएं हैं। पहली धारणा यह है कि उनसे घृणा करने के साथ-साथ अमानवीय व्यवहार भी किया जाता है, दूसरी धारण यह है कि शिशु के जन्म, विवाह, गृहप्रवेश आदि के अवसर पर किन्नरों को आमंत्रित कर उनका आशीर्वाद भी लिया जाता है। इस सन्दर्भ में कहानी की पात्रा किन्नर गुरु जया कहती है- “बांझ औरतें हमारे पास बच्चे की कामना से आती हैं और ताज्जुब हमारा आशीर्वाद फलता भी है किसी भी बच्चे का जन्म हमारे नाच गाने के बिना पूरा नहीं होता।”[5] इसी क्रम में गरिमा संजय दुबे की ‘पन्ना बा’ कहानी किन्नर समाज के अनछुए पहलुओं को उजागर करने में महत्वपूर्ण है। भारतीय समाज में किन्नरों को जीते जी नकार, अपमान, घृणा, गालियों आदि का सामना करना पड़ता है। लेकिन मरने के बाद भी उसकी लाश को दर्द के सिवा कुछ नहीं मिल पता। दरअसल किन्नरों के अंतिम संस्कार को गैर-किन्नरों से छिपाकर किया जाता है। अंतिम संस्कार से पहले लाश को जूते-चप्पलों से पीटा जाता है। ऐसा माना जाता है कि इससे उस जन्म में किए सारे पापों का प्रायश्चित हो जाता है। इस मार्मिक दृश्य को लेखिका ने अपनी इस कहानी में प्रस्तुत किया है। “किन्नर की मौत पर उसकी लाश की जूतों से पिटाई की खबर पढ़ ही रही थी की पता चला पन्ना बा मर गया।”[6] लेखिका ने किन्नरों के दुःख को महसूस करते हुए वर्तमान सामाजिक व्यवस्था पर सवाल खड़ा करती है। वह कहती हैं- “कोई काम पर रखे नहीं, कोई माता पिता इस अभिशाप को साथ रखने को राजी नहीं, कोई नौकरी नहीं, कोई पढ़ाई नहीं, बेचारा मनुष्य जिए भी तो कैसे? कैसे देह से परे हो, फिर भी जीता है एक किन्नर।”[7] किन्नरों की वेदनाओं को अभिव्यक्त करने में किरण सिंह की कहानी ‘संझा’ भी महत्वपूर्ण है। इस कहानी में नायिका संझा का जीवन बिखरा हुआ है, जिसे रचनाकार ने बारीकियों से चित्रित करने का प्रयास किया है। इस कहानी में दंपत्ति को बरसों से संतान प्राप्ति की इच्छा थी, वह क्षण भर में समाप्त हो गई। दरअसल जब संझा का जन्म हुआ तो उसमें कोई जननांग नहीं था। इससे संझा के माता-पिता काफी निराश थे। अमूमन देखा जाता है कि जब किसी परिवार में ऐसे शिशु का जन्म होता है तो समाज के तानों और दुर्व्यवहारों से बचने के लिए उस बच्चे को किन्नरों को सौंप दिया जाता है। लेकिन संझा के माता-पिता ऐसा नहीं करते बल्कि समाज की नजरों से बचाकर स्वयं उसका पालन-पोषण करते हैं। तीन साल की संझा के सर से माँ का साया उठ जाता है। जैसे-जैसे संझा बड़ी होने लगती है, वैसे-वैसे उसके अन्दर भी बाहरी दुनिया को देखने की इच्छा जागने लगती है। वह अपने वैद्य पिता की सहायता भी करना चाहती है। “बाउदी! आप की फंकी में फफूँद लग रही है। इमाम दस्ते में दवा कूटते समय आपके आँसू गिरते रहते हैं ! अपने मन भर जड़ी नहीं बटोर पाते इसलिए न! आज से जंगल में औषधि के लिए मैं जाऊँ बाउदी!”[8] लेकिन पिता को समाज का डर सताने लगता है। इसीलिए संझा को बाहर निकलने की अनुमति नहीं देता। वह कहता है- “नहीं! नहीं! बाहर निकलते ही तुम्हें छूत लग जाएगी। एकदम भयंकर! लाइलाज बीमारी! मैंने कितनी बार तुम्हें समझाया है।”[9]
आज समाज जिन परिस्थितियों से गुज़र रहा है, वह चिंता का विषय है। लगातार गिरते मानवीय मूल्य और मानवीयता का हनन सामाजिक ताने-बाने को खोखला कर रहा है। दरअसल अपराध, हिंसा, बलात्कार आदि घटनाओं को अंजाम दिया जाना कानून व्यवस्था की नाकामी को दर्शाता है। इस सन्दर्भ में डॉ.पद्मा शर्मा द्वारा रचित ‘इज्जत के रहबर’ कहानी का ज़िक्र करना प्रासंगिक है। इस कहानी का पात्र श्रीलाल की बेटी का स्थानीय गुंडे द्वारा बलात्कार किया जाता है। जब इस अमानवीय घटना का सोफिया (हिजड़ा) को पता चलता है, तो वह तुरंत श्रीलाल के पास जाकर बलात्कारी पर पुलिस में मामला दर्ज करने के लिए कहती है। लेकिन श्रीलाल बलात्कारी पर मामला दर्ज करने से इंकार कर देता है। उसका मानना था कि अब तक जिस बात का पता केवल गांव वालों को है, यदि पुलिस तक बात पहुँच गई तो शहर भर में बात फैल जाएगी। इसीलिए वह चुप हो जाता है। लेकिन सोफिया के भीतर की ज्वालामुखी चुप रहने नहीं देती। क्योंकि सोफिया को जिस जननांग के न होने से लोग उसकी इज्जत नहीं करते और कुछ लोग इसी जननांग के कारण दूसरों की इज्जत से खेलते हैं। इसीलिए सोफिया ही उस गुंडे को नपुंसक बना देती है। सोफिया कहती है- “नहीं, लालजी। हमारी संख्या तो ईश्वर बढ़ाता है। खुदा न करे, वह और अधिक संख्या बढ़ाए। हमें कितना कष्ट है, इस योनि में होने का। ये तो हम ही जानती हैं। हां, हमें उस चीज पर बड़ा गुस्सा जरूर है, जिसके होने पर ये नासपीटे दम भरते हैं और हमारी बहू बेटियों की इज्जत से खेलते हैं।”[10] ठीक इसी तरह से महेंद्र भीष्म की कहानी ‘त्रासदी’ में सुंदरी नामक हिजड़ा अपनी जान पर खेलकर बलात्कारी से रति को बचाता है। कहानी का पात्र बंशी के देहांत के बाद रति अपने पति की नौकरी करती है। एक दिन कड़ी दोपहर में घात लगाए बैठे दो वासना के भेड़ियों ने रति को दबोच लिया और उसे गलत इरादे से मालगाड़ी के खाली डिब्बे में ले गए। “प्लेटफार्म पर ही लोगों को नाच-गाना दिखा कर अपना पेट पालने वाली हिजड़ा सुंदरी ने रति के साथ हो रही जोर-जबरदस्ती कप दूर से देख लिया था। वह भागी-भागी उस मालगाड़ी के डिब्बे में पहुंच गई जहां वहशी अपना वहशीपन करने जा रहे थे। सुंदरी बेतहाशा चिल्लाते हुए उन दोनों पर टूट पड़ी।”[11]
वर्तमान समय में मनुष्यों के भीतर निरंतरता से स्वार्थी भाव का बढ़ना, नैतिक मूल्यों के विघटन को दर्शाता है। कैस जौनपुरी द्वारा रचित ‘एक किन्नर की लव स्टोरी’ कहानी एक ऐसे किन्नर की दास्तां बयां करती है, जिसे सुनकर क्रोध आना स्वाभाविक है। इस कहानी की पात्र रानो खूबसूरत किन्नर है। अपना जीवन यापन करने के लिए बड़े-बड़े होटलों में अमीरों का मनोरंजन करती है। अपने घर से हर रोज राजू के ऑटो से आना-जाना करती है। लेकिन ऑटो ड्राईवर राजू की निगाह उसके धन-संपत्ति पर होती है। इसीलिए वह रानो को अपने प्रेम जाल में फंसाकर ब्लैकमेल करने लगता है। भोली-भाली और प्यार की भूखी रानो उसके षड्यंत्र को समझ नहीं पाती, बल्कि उस व्यक्ति पर आंख मूंदकर विश्वास करने लगती है। राजू के प्रति उसके प्रेम को कहानी के इस अंश से अंदाजा लगाया जा सकता है- “उसने राजू को अपना पति ही मान लिया था और राजू को खुश रखने की भरपूर कोशिश करती थी, राजू एक ऑटो ड्राइवर था मगर रानो ने उस पर इतने पैसे खर्च किए कि खुद राजू ही भूल गया कि वो ऑटो ड्राइवर है, और रानो जब बहुत खुश हो जाती, तब राजू को खूब प्यार करती और राजू भी खुश हो जाए इसलिए वो राजू के आगे घोड़ा बन जाती।”[12] एक दिन मौक़ा पाकर इसी अवस्था में रानो की पीठ में चाकू घोंपकर हत्या कर देता है और उसकी सारी जमा पूँजी लेकर फरार हो जाता है।
किन्नरों के प्रति समाज का दुर्व्यवहार, संकीर्ण मानसिकता और तिरस्कार तो है ही। लेकिन अपने घर में भी घृणा, नफरत, अपमान और शोषण का शिकार होना पड़ता है। जिसका ज्वलंत उदाहरण बबिता भंडारी की ‘समर से सुरमई’ कहानी में मिलता है। कहानी की पात्र देवकी रमा दाई से बालक के सामान्य नहीं होने की ख़बर सुनकर सन्न हो गई थी। समर में प्रति दिन होने वाले बदलाव के कारण पिता वीर सिंह का प्यार भी कम होने लगा था। यहां तक कि समर को मारते-पीटते भी थे। अपने अंदर होने वाले परिवर्तन और पिता की यंत्रणा से समर समझने लगा था कि उसका जीवन और भविष्य सामान्य नहीं है बल्कि चुनौतीपूर्ण है। इसीलिए वह स्कूल जाने से कतराने लगता था। घर के अलावा बाहरी समाज में भी समर के साथ शोषण व अत्याचार की घटनाओं का सिलसिला जारी था। वह अपने दोस्तों के बीच भी वह मज़ाक का पात्र बन चुका था। सभी लोग उसे लड़की व हिजड़ा कहकर मज़ाक बनाने लगे थे। हद तो तब हो गई जब चार-पांच बड़े लड़कों के इशारे पर समर के ही कुछ दोस्त उसके कपड़े उतारने की घटना को अंजाम देते हैं। “हम भी तो देखें हिजड़ा आखिर बला क्या है… कर डालो नंगा हरामी को… शर्म बचेगी तो भाग खड़ा होगा मोहल्ले से।”[13] इस घटना ने समर को अन्दर तक हिला कर रख दिया। इसीलिए वह अपनी चीत्कार सुनाते हुए ईश्वर पर सवाल खड़ा करता है- “मुझे क्या बनाकर दुनिया में भेजा तूने? क्या जानवर का जन्म भी नसीब न था मुझे? क्या नरक की आग भी बदी न थी मुझे?”[14] समर की यह चीत्कार तथाकथित सभ्य समाज के चेहरे पर से नकाब उतारती है।
अत: मुख्य रूप से ये कहानियां भारतीय समाज में किन्नर जीवन के विभिन्न पहलुओं को चित्रित करने के साथ-साथ समाज का व्यवहार और संकीर्ण मानसिकता से भी परिचित कराती हैं। समाज के इस कटु यथार्थ को प्रस्तुत करने में रचनाकार अपनी प्रतिबद्धता दिखा रहा है। यह भी सच है कि वर्तमान समय में किन्नर समुदाय अनेक समस्याओं तथा चुनौतियों से गुज़र रहा है। विशेष रूप से अपनी पहचान और आत्मसम्मान की लड़ाई देखी जा सकती है। मुख्य बात यह है कि स्त्री और पुरुष की तरह ही किन्नर भी इसी समाज का हिस्सा हैं और समान नागरिक भी हैं। उनके प्रति संकीर्ण भाव रखने के बजाय व्यापक विचार रखते हुए उसके अस्तित्व को स्वीकार करने की आवश्यकता है। इस बात को भी भूलना नहीं चाहिए कि भारत का संविधान सभी नागरिकों को समान का अधिकार देता है। साथ ही लिंग, जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा आदि के नाम पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। इस दिशा में हिंदी कहानियां समाज को नई दिशा, नई सोच और नए विचार प्रदान करने में आगे बढ़ रही हैं।
सन्दर्भ सूची :
सं. डॉ.एम. फ़िरोज़ खान, हम भी इंसान हैं, वांग्मय बुक्स, अलीगढ़, प्रथम संस्करण 2018, पृ.82-83
कुसुम अंसल,मेरी दृष्टि तो मेरी है, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2018, पृ.106
सं. डॉ.एम. फ़िरोज़ खान, वांग्मय, अंक-जनवरी-मार्च 2017, पृ.120
सं. डॉ. अरुण देव, समालोचन वेब पत्रिका, अंक- दिसम्बर 26, 2017, पृ.वेब पेज
सं. प्रदीप त्रिपाठी, कंचनजंघा, अंक-जनवरी-जून,2020, पृ.214
सं. डॉ.एम. फ़िरोज़ खान, हम भी इंसान हैं, वांग्मय बुक्स, अलीगढ़, प्रथम संस्करण 2018, पृ.77
- सं. डॉ.एम. फ़िरोज़ खान, हम भी इंसान हैं, वांग्मय बुक्स, अलीगढ़, प्रथम संस्करण 2018, पृ.82-83 ↑
- https://www.bbc.com/hindi/magazine-41038752 ↑
- वही ↑
- कुसुम अंसल,मेरी दृष्टि तो मेरी है, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2018, पृ.106 ↑
- वही. पृ.107 ↑
- सं. डॉ.एम. फ़िरोज़ खान, वांग्मय, अंक-जनवरी-मार्च 2017, पृ.120 ↑
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- सं. डॉ. अरुण देव, समालोचन वेब पत्रिका, अंक- दिसम्बर 26, 2017, पृ.वेब पेज ↑
- वही ↑
- https://hindi.matrubharti.com/book/read/content/19901403/honor-of-honor ↑
- सं. प्रदीप त्रिपाठी, कंचनजंघा, अंक-जनवरी-जून,2020, पृ.214 ↑
- https://hindi.matrubharti.com/book/read/content/9232/ek-kinnar-ki-love-story ↑
- सं. डॉ.एम. फ़िरोज़ खान, हम भी इंसान हैं, वांग्मय बुक्स, अलीगढ़, प्रथम संस्करण 2018, पृ.77 ↑
- वही