सज्जलक से शर्विलक : गौण पात्र से प्रधान नायक तक

मोदी राकेश नारायणदास

एसो.प्रोफ. नाट्य विभाग

फेकल्टी ऑफ़ परफोर्मिंग आर्ट्स

ध महाराजा सयाजीराव विश्व विद्यालय, बडौदा.

वड़ोदरा ३९० ००१

मोबा. ९८२४ ५८५ ५५०

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सारांश:

संस्कृत नाटको में विविध प्रकार के ‘रूपक’ प्राप्त है । किंतु ‘प्रकरण’ नामक रूपक अल्प संख्या में है । इसापूर्व में महाकवि भास रचित ‘दरिद्रचारुदत्तम’ जिसमे समाज के सारे वर्गों का प्रतिनिधित्व नजर आता है । मध्ययुग में इस कृति पर आधारित शूद्रक रचित् ‘मृच्छकटिकम’ नामक कृति प्राप्त होती है । और इन्ही दोनों कृतियो के आधार पर सन१९५७ में गुजरात के नाट्यकार परीख रसिकलाल नया सर्जन ‘शर्विलक’ नाम से करते है ।

संस्कृत और आधुनिक नाटको के संदर्भ में शायद यह तीन कृतियाँ एसी है जिसका कथानक और चरित्र परिवर्तन के साथ साथ साम्प्रत समाज का प्रतिबिम्ब भी दर्शाती है । वृत के साथ कुछ एक चरित्रभी एसे है जो परिवर्तित होती कृति के साथ उसके लक्षणों के कारण विस्तृत भी हुए है । वैसा ही एक तेजस्वी चरित्र है ‘सज्जलक’,जो भास की कृति में ‘स्वहित’ के लिए ‘चोरकर्म’ करता है । ‘मृच्छकटिकम’ में शूद्रक उसे उपकथा (क्रांति कथा) का उप-नायक बनाते है, तो श्री परीख उसे ‘शर्विलक’ नाटक में प्रधान नायक के रूप में प्रस्तुत करते है । जहां ‘क्रांति कथा’ मुख्य हो जाती है और ‘प्रेम कथा’ गौण बनती है ।

शोध का आशय यही है की तीनों रचनाकारो ने इस चरित्र में कोनसे लक्षण पायें जिससे ‘चोरकर्म (सज्जलक) से क्रांतिकारी(शर्विलक)’ बनाया ।

बीज शब्द: सज्ज्लक, चोरकर्म, मदनिका, राजक्रांति, आर्यक, क्षात्रतेज, शर्विलक, लोकहित

शोध आलेख:

भूमिकार्थआयोजित पात्रा : II

संस्कृत नाटकों में नायकों का हमेशा से ही विशेष महत्व रहा है। यहाँ तक कि संस्कृत नाटककारोंने भी रूपकों में नायक के गुणों पर हमेशा जोर दिया है, और नायक के प्रकारों के बारे में भी अच्छी चर्चा की है। रूपकों के वर्गीकरण में ‘नेता, वस्तु और रस’ को भी विशेष महत्व दिया जाता है।

नाटककारोंने भी चरित्र-नियोजनके महत्वको स्वीकार किया है । उनका प्रधान उद्देश्य चरित्रको अपने दृष्टिकोण, संस्कृति, वातावरण की मदद से पोषित करना है। चरित्र वह है जो “रुचि, अरुचि प्रदर्शित करके एक नैतिक उद्देश्य को प्रदर्शित करता है,” चरित्र नाटककारका आधार है और उसके माध्यम से वह अपना संदेश देता है। एक नाटककार जो पात्रों के चरित्रको यथासंभव स्पष्ट रूप से चित्रित कर सकता है उसे एक सफल नाटककार माना जाता है। जैसे महाकवि भास, शूद्रक और आधुनिक नाटककार श्री. रसिक्लाल छोटालाल परीख…आदि.

नाटक-निर्देशक भी अभिनेता के माध्यमसे संबंधित ‘आंगिक, वाचिक, सात्विक और आहार्य’ प्रदर्शन के माध्यम से नाटक प्रदर्शित करता है। भरतमुनि के नाट्य शास्त्र के चौबीसवें अध्यायमें, यह दर्शाया गया है कि सामान्य अभिनयके लिए अनुकूल हावभावको कैसे अपनाया जाए। यह बताता है कि “प्रत्येक चरित्र का मनोरंजन उसके अपने चरित्र और व्यवहार से होता है।”

‘चरित्र’ किसी भी कथानक में विशेष रूप से सहाय कारक होता है। जिस तरह ईंटें किसी भी वास्तुकला के निर्माण में मदद करती हैं, उसी तरह पात्र, सीमेंट हैं जो इन ईंटों को बांधते हैं। नाटककार नाटक में चरित्र-चित्रण के माध्यमसे अपने विचारों में निहित सिद्धांतों को प्रकट करता है। पात्रों को विभिन्न परिस्थितियों में रखकर जीवन के संघर्षों को प्रस्तुत करता है।

एसे ही उत्कृष्ट पात्रों के निर्माता हैं, महाकवि भास । उनका चरित्र-विश्व बहुत व्यापक और विविध है। पात्रों का भातीगल चित्रण उनकी रचनाओंमें देखा जा सकता है। उन्होंने अपने तेरह नाटकोंमें लगभग दोसौ तीस पात्रोंकी रचना की है। जैसे, राम, कृष्ण, रावण, घटोत्कच, कर्ण, भरत, वसंतसेना, चारुदत्त… जैसे उच्च वर्ग के पात्र और सज्जलक, विट, चेट, गणिका… जैसे निम्न वर्ग के पात्र देखे जाते हैं। उन्होंने जीवन के सभी क्षेत्रों से पात्रों का चयन करके समाजकी पूरी तस्वीर खींचनेकी कोशिश की है। केवल इतना ही नहीं बल्कि कई पात्रोंको मनोवैज्ञानिक रूप से चित्रित किया गया है।

भास रचित ‘दरिद्र चारूदतम्’ की रचनामें एक चतुर, उज्ज्वल, प्रतिभाशाली और रंगीन चरित्र है, जिसका नाम है ‘सज्जलक’ । इस रूपक में उनका स्थान ‘गौण पात्र’ जैसा है, वे थोड़े समय के लिए ही प्रकट होता हैं, फिर भी उनका व्यक्तित्व एक अनूठा आकर्षण पैदा करता है। कवि ने उसके व्यक्तित्व को कलात्मक रूप में विकसित किया है। अन्य पात्रों की तुलना में, यह चरित्र काल्पनिक दुनिया से नहीं है। यहां तक ​​कि दर्शक भी इस चरित्र के साथ आत्मीयता और अपनापन महसूस करते हैं। कवि शूद्रकने ‘दरिद्रचारूदतम्’ का विस्तार किया और ‘मृच्छटकटिकम्’ की रचना की, जिसमें यही ‘सज्जलक’ को ‘शर्विलक’ में रूपांतरित किया और उसे ‘राजक्रांति’ की उपकथा का नायक बनाया है! तो, गुजरात के मूर्धन्य नाटककार श्री. रसिक्लाल छोटालाल परीख भी ‘शर्विलक’ के चुंबकीय आकर्षण से अछूते नहीं हैं !! वह भी शर्विलक को प्रधान नायक के रूप में पेश करते है और हमें सामने एक नया कलेवर नया सर्जन लाते है। अब सवाल यह उठता है कि इस चरित्र के व्यक्तित्वमें किस तरहका चुंबकीय आकर्षण है जो गौण चरित्र से उपकथा का नायक और प्रधान नायक तक विस्तारित हुआ है। और आज भी रचनाकारों सहित हमारे भीतर अंतरंगता की भावना को प्रकट करता है।

‘दरिद्रचारूदतम्’ का ‘सज्जलक’ युवा और साहसी है। वह जन्म से ब्राह्मण है (वह अन्य दो कृतिओ में भी ब्राह्मण है) लेकिन यहाँ वह अपनी शक्तियोंका ठीकसे उपयोग नहीं होता । अपने नाम को सार्थक बनाने के लिए वह एक निंदनीय कृत्य यानि ‘चोरकर्म’ करते नजर आता हैं। हां, वह अपने व्यवसाय में कुशल है। जो उनके कथन से पता चलता है-

‘माजार्र प्लवने वृकोपसरणे श्येनोगृहालोकने

निद्रा सुप्तमनुष्यवीर्यतुलने संसपणे पन्नग :

मायावर्णशरीरभेद करणे वाग् देशभाषान्तरे

दीपो रात्रिषु संकटे च तिमिरं वायु: स्थले नौजॅले II चारु. ३/११

उछ्लने में बिल्ली के समान,तेज भागने में भेड़िया जैसा, घर की वस्तुओं को देखने में बाज पक्षी-सा, सोते हुए मनुष्य की शक्ति की तुलना में नींद सा, सरकने में साँप जैसा, स्थूल शारीर में माया के समान, विभिन्न भाषाओं का अंतर करने में सरस्वती के समान, रात्रि में दीपक-सा संकटो में अंधार जैसा, स्थल पर वायु समान और जल में नाव के समान बन जाता है।

चोरी के व्यवसाय में, वह उचित उपकरण और छेद बनाने के तरीके, उसके प्रकार, सेंघ कहाँ लगाना है, किस आकार में सेंघ करना है, आदि की कला में पारंगत है। इसी के साथ ‘नन्विदं दिवा ब्रह्मसूत्रं रात्रो कर्मसूत्रं भविष्यति’ दिन में उसके लिए जो ब्रह्मसूत्र होता है वह रात में कर्मसूत्र बन जाता है। सज्जलक यह सब सिर्फ निर्वाह के लिए नहीं करता। इस प्रकार के कार्य के मूल में मदनिका के प्रति गहरा लगाव है। जो वसंतसेना की ‘गुलामी’ में बंधी हुइ है और उसे मुक्त कराने के अर्थ में साहसी बन गया है। इसलिए वे कहता हैं, ‘किं वा न कारयति मन्मथ :’ कामदेव मनुष्य के पास क्या नहीं करा लेता? (‘सज्जलक’ के मुख से मानवजीवन का दर्शन रूप यह कथन, दे कर कवि ने सार्थक सन्देश दिया है) चौर्यकर्म करने से पहले वह प्रभु पार्थना करता है, जो उसकी धार्मिक आस्था को व्यक्त करता है, तो अपने इस निंदनीय कार्य से लोक दोष भी देंगे और उसकी सराहना भी करेंगे इस द्विधामय स्थितिका भी अनुभव करता है ।

कर्म से चोर होते हुए भी ‘सज्जलक’ दयालु वृति का हैं। चारुदत्त के घर की दरिद्रता देखकर वह चोरी न करने और खाली हाथ लौटने की सोचता है। तो वहां, स्वप्नमें बडबडानेवाला विदूषक जब उसे ‘ब्राह्मणवाद’ का शाप देता है और ‘स्वर्णालंकार’ लेने के लिए कहता है, तो तार्किक रूप से सोच कर ‘स्वर्णालंकार’ ले भी लेता है। इस प्रकार मानसिक और वास्तविक स्थिति में झूलते चरित्र का चरित्र प्रकट होता है।

सज्जलक, प्यार और युद्ध में सब कुछ सही है’ कहावत को सही ठहराता है, मदनिका का स्नेह प्राप्त करने हेतू चोरी के आभूषणों लेकर वसंतसेना के भवन में जाता है और मदनिका से मिलता है। मदनिका उसकी पूरी कहानी सुनने के बाद कहती है की, ये सारे अलंकार ‘वसंतसेना’ के हैं, तब वह दूखी: होकर कहता है कि- “अज्ञानाद या मया पूर्व शाखा पत्रे पत्रैविॅयोजिता छायार्थी ग्रीष्मसन्तप्तस्तामेव पुनराश्रित’ ।।४.५ ‘अज्ञानतावश जो शाखा मैंने पहले पत्तों से अलग की थी पुन : गर्मी से पीड़ित होकर मै छाया की कामना से उसी के पास आया हुँ’ इस प्रकार वह अच्छे बुरे का विवेक भी जानता है। भावीपत्नी की आज्ञा का सम्मान करता है। मदनिका के निर्देशों के बाद, सज्जलकने वसंतसेना को ‘स्वर्णालंकार’ सौंपते हुए कहा कि उसे चारुदत्त ने भेजा है। वसंतसेना भी उदार भावों से अलंकारो का स्वीकार करती है, और बदले में वह ‘मदनिका’ को उन्हीं अलंकारो से सजाकर ‘वधू’ बनाकर बिदाई देती है। तब सज्जलक मन में सोचता है कि ‘वसंतसेना के उपकारका बदला कब चूकाऊँगा?’ और कृतज्ञता भाव से स्वगत कहता हैं- ‘शांतम पापम शांतम पापम’

महाकवि भास का यह एक गौणपात्र है लेकिन चरित्र तेजस्वी है और यह उनकी चरित्र-चित्रण कला का एक उत्कृष्ट उदाहरण भी है। जिसने धूर्त और प्रेमी का रूप धारण कर लिया है। यहाँ ऊपर वर्णित उनके कर्म और भावों में,मानव सहज प्रवृत्ति हैं और एक छाप हमारे मन पर अंकित होती है। कवि ने यहाँ उसके चोरकर्म के पीछे एक ठोस मनोवैज्ञानिक आधार दिया है और वह है ‘मदनिका’ की प्राप्ति। एसा नटखट और प्रभावशाली व्यक्तित्व को स्वार्थ के लिए काम करते हुए यहाँ प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार ‘दरिद्रचारूदतम्’ में हमें ‘सज्जलक’ के शानदार व्यक्तित्व का उपरी पहलू मिलता है।

इसी रूपक से आकर्षित होकर मध्यकालीन युग के कवि शूद्रक ने ‘मृच्छटकटिकम्’ की रचना की। कवि इसमें ‘राजक्रांति’ की गौण कथा को प्रधानकथा (प्रेमकथा) से जोड़ते है। नाट्यशास्त्र में इसे ‘प्रकरी’ के कहते है। प्रस्तुत कृति में कवि अनेक नये पात्रों की रचना करता है। यहाँ तक की ‘सज्जलक’ का नाम बदलकर ‘शर्विलक’ किया और इस चरित्र का विस्तार भी किया। प्रेम कथा में राजक्रांति (राजा पालक की हत्या और आर्यक की राज्य प्राप्ति) की गौणकथा को जोड़ दिया। सबप्लॉट की धुरी ‘शर्विलक’ के हाथ में दे दी। ‘शर्विलक’ प्रधान कहानी और गौण कहानी के बीच की कड़ी है। ‘दरिद्रचारूदतम्’ में ‘सज्जलक’, जो ‘स्व-हित’ के लिए कार्य करता है, वह ‘मृच्छटकटिकम्’ में ‘शर्विलक’, ‘जन-हित’ के लिए कार्य करता है।

‘मृच्छटकटिकम्’ में कवि ने शर्विलक की कहानी को ‘मदनिका प्राप्ति’ तक अनुसरण करने की प्रयत्न कीया है। पत्नी के रूप में ‘मदनिका’ की प्राप्ति के बाद, पर्दे के पीछेसे एक उद्घोषणा सुनाई देती है की, ‘…जो-जो भी जहाँ हों, वे सब सुन लें सिद्धों की भविष्यवाणी जानकर कि ‘ग्वालेपुत्र आर्यक राजा होगा’ राजा पालक ने उसे घर से लाकर कारगर में डाल दिया है… ।’१० यहाँ से क्रांति के लिए सज्ज होकर ‘शर्विलक’ नए लक्षणों के साथ प्रकट होता है। वह तुरंत अपनी नवविवाहिता पत्नी मदनिका को अपने मित्र रेभिल के वहां पहुचाने की व्यवस्था करता है, और वह अपने दोस्त आर्यक को मुक्त करने के लिए निकल पड़ता है।

यहाँ भी वह गरीब है लेकिन एक एसे पिता का पुत्र है जो चारों वेदों का जानकार और व्रतों का पालन करने वाला है। जो उनके चरित्र को एक ठोस पृष्ठभूमि प्रदान करता है। उसने चोरी के शास्त्र में व्यवस्थित शिक्षा प्राप्त की है। चारूदत्त के भवन में चोरी से पहले चोरीके कार्य में विशिष्ट एसे विशेषज्ञों के नाम लेता हैं। जिसमें ‘कार्तिकेय’ चोरों के इष्टदेव है। ‘देवव्रत, कनक्षक्ति, भास्करनंदी और योगाचार्य’ जैसे गुरुओं को नमस्कार करता है। वह ‘योगाचार्य’ को अपना गुरु मानता हैं। यहाँ यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि वह शिक्षित है, जबकि ‘दरिद्रचारूदतम्’ में वह अस्पष्ट प्रतीत होता है।

शर्विलक (सज्जलक की तरह) कुछ नीति-नियमों का पालन करता है। ऊपर वर्णित ‘दरिद्र चारूदतम्’ के श्लोक ९/११ के गुण यहाँ प्रकट हुए हैं। ऐसे गुण सेना में और जासूसी के क्षेत्र में काम करने वाले पुरुषों को सिखाए जाते हैं। शूद्रक के काल के दौरान सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक स्थिति बदल गई थी। उज्जयनी में राजा पालक के कुशासन से प्रजा त्रस्त थी। शकार इसका ‘प्रतीक’ है। उसका अत्याचार राजनीतिक क्रांति की आग में ईंधन पूरने का काम करता हैं। ऐसी परिस्थितिओं का सर्जन करके कवि ‘शर्विलक’ का मानस क्रांतिकारी बनाता हैं और उसमें पड़े हुए नेतृत्व गुणों को एक नई दिशा देता हैं।

इस नए कर्तव्य के लिए, शूद्रक ‘शर्विलक’ के कथन के माध्यम से निर्देश करते है कि ‘मित्र और नारी दोनों व्यक्तिको बहुत प्रिय होते है परंतु मित्रका स्थान अन्य सबसे कहीं ऊँचा होता है…’ ११ वह तुरंत नवविवाहिता ‘मदनिका’ को मित्र रेभिल के पास भेज कर प्रिय मित्र आर्यक को कारागृह से छुड़ाने हेतू निकल जाता है। यहाँ शर्विलक की ऊर्जा प्रेम से पलटकर, तख्तापलट के लिए केन्द्रित होकर सक्रियता में बदल जाती है। अलग होते समय मदनिका उसे सावधान रहनेका निर्देश देती हैं, तो वह कहता हैं,‘ उदयन के अमात्य यौगंधरायण की तरह अपने मित्र के उद्धार के लिए अपने संबंधियों को, अपने भुजबल से ख्याति-प्राप्त विटों को, और राजा द्वारा अपमानित तथा उस पर कुपित राज- कर्मचारीयों को भड़कानेका प्रयत्न करूँगा १२ उसका यह कथन तख्तापलट की भावी योजनाओं को प्रतिध्वनित करती है और कवि यह एहसास कराते है की वह कूटनीति भी अच्छी तरह जानता है। क्रांति में ‘लोक’ का साथ होना बहुत जरूरी है, लेकिन उससे पहले वह दुष्ट शत्रुओं की छावनी में अचानक से हमला करके आर्यक को रिहा करना पसंद करता है। यहाँ कवि शर्विलक का ‘सज्जन के साथ सज्जन और दुर्जन के साथ दुर्जन’ का चित्रण किया है। इससे शर्विलक का एक नया पहलू सामने आता है।

चौथे अंक में प्रकट होने वाला शर्विलक सीधे दसवें अंक में प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देता है! हां, लेकिन समय-समय पर कवि अपने तख्तापलट के लिए ‘लोक-प्रकोप’ के तत्वों को परोक्ष रूप से प्रस्तुत करते जाते है । (चंदनक, चारूदत्त, विट इत्यादि) ‘शकार’ अपने अत्याचारोंसे शर्विलक की योजना को सफल बनाने में सहायता प्रदान करता हैI जो नाटक के अंत में सफल होती दिखाई देती हैI पाँचवाँ और छठा अंक क्रमशः ‘अभिसरण’ और ‘दुर्दिन’ के प्रसंग से घिरा हुआ है। ‘मिट्टीकी गाड़ी’ ये प्रसंग शुरू होने तक शर्विलक आर्यक को बंदीगृह बाहर निकालनेमें सफल होता है। आर्यक, जो प्रवहण के अदल-बदल अवसर पर बच गया था, अनजाने में चारुदत्त के प्रवहण में बैठ जाता है, तब राजा का वफादार सेवक ‘चंदनक’ आर्यक को सुरक्षा देता है। और शकार के प्रवहणमें बैठी हुई ‘वसंतसेना’ को एक स्मृति के रुपमे ‘तलवार’ देता है, और राजा के विश्वासपात्र सेवक ‘वीरक’ से झगड़ा मोल लेता है। ‘चंदनक’ की इस घटना से स्पष्ट होता है कि ‘शर्विलक’ की राजक्रांति की गुप्त गतिविधि ‘लोक’ के संज्ञान में आ गई है और जो लोग शासन से पीड़ित और त्रस्त हैं वे इसमें शामिल होने लगे हैं।

आर्यक, जो अनजाने में चारुदत्त के प्रवहणमें में बैठ गया था, वह पुष्पकरंडक उद्यान तक पहुँचता है, लेकिन चारुदत्त उसे बचाता है और उसकी बेडीयों को कुएँ में फेंक कर भगाने में उसकी मदद करता है। चारुदत्त शर्विलक की राज क्रांति में भी अप्रत्यक्ष शामिल होता हैं। ‘चारुदत्त’ को पता नहीं है कि यह ‘शर्विलक’ वही है जिसने उसके घर से वसंतसेना के अलंकारो की चोरी की थी !! वसंतसेना भी अनजाने में ‘शकार’ के प्रवहणमें बैठकर ‘शकार’ के उद्यान में प्रवेश करती है, तो शकार का ‘विट’ उसे बचाने की कोशिश करता है लेकिन वह असफल होता है। जब वसंतसेना शकार द्वारा मृत:प्राय स्थिति प्राप्त करती है, तो इस घटना से व्यथित ‘विट’, शकार के खिलाफ अपनी तलवार खींचता है। लेकिन यह महसूस करते हुए कि यहां रहना उचित नहीं है, तो वह ‘शर्विलक’ के समूह में शामिल होने के लिए निकल जाता हैं।

नौवें अंक में शर्विलक अदृश्य है। चारुदत्त, जो नाटकके आरंभमें देवताओं को ‘बलि’ देता है , नाटक के अंत में खुद ‘बलि’ चढ़न की स्थिति में हैं। वहां परदे के पीछे ‘राजा पालक’ के वध की घोषणा सुनाई देती है। और राजा आर्यक की सूचना पर, ‘शर्विलक’ चारुदत्त को मुक्त करने के लिए सक्रिय होता है। यहां पहली बार दोनों प्रत्यक्ष होते हैं और शर्विलक संकल्प पूर्ण करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। राजा आर्यक की सूचना से, चारुदत्त को कुशावती का राजा घोषित किया जाता है, वहां अग्निप्रवेश प्रवेश करने के लिए तैयार चारूदत्त की पत्नी ‘द्युता’ को बचाता है, और ‘वसंतसेना’ को ‘वधूपद’ प्रदान करता है। और नाटक भरतवाक्य के साथ समाप्त होता है। उपरोक्त सभी घटनाचक्र को शर्विलक के संदर्भ में समझते हुए, हम महसूस करते है कि यह वास्तव में क्रांतिकारी है।

एक मित्र के लिए मदनिका को छोड़ने वाला ‘शर्विलक’, लोक समुदायको राजा पालक के विरुद्ध तख्तापलट के लिए उकसाता है। इस नाटक में जनोई से छेद करने वाला ब्राह्मण ही अब क्रांतिकारी बनता है। लेकिन, शूद्रक स्नेह कथा के प्रवाह में जैसे ‘शर्विलक’ को भूल गये है, वह सीधे नाटक के अंत में, राजा पालक को मारकर और आर्यक को सिंहासन पर बिठाकर ही मंच पर प्रवेश करता है! इस प्रकार, ‘शर्विलक’ इस नाटक का अनु-नायक है, लेकिन जैसे-जैसे तख्तापलट का आंदोलन पर्दे के पीछे चल रहा है, उसका चरित्र कुछ हद तक क्षितिज के समानांतर ही विकसित होता है।

साहित्य अकादमी की योग्यता प्राप्त है, ऐसी गौरवमयी कृति ‘शर्विलक’ के रचयिता है, श्री रसिकलाल छोटालाल परीख । ‘चारूदत्तम्’ का सज्जलक ‘साहसे श्री प्रतिवसति’ में माननेवाला, ऐसे ‘शर्विलक’ के चरित्र से आकर्षित होकर, एक नया अनुसर्जन करनेका साहस किया, सिर्फ इतनाही नहीं किंतु ‘शर्विलक’ के चरित्र को क्षितिज की समानांतरसे विस्तारित किया और उसेके चरित्र को उर्ध्वगति प्रदान करके एक नया ही सर्जन किया ‘मृच्छकटीक का राज परिवर्तकार’ । ‘मृच्छकटीकम्’ की गौण कथा का अनु-नायक शर्विलक है, और राजपरिवर्तकी कथा के अंश को प्रधान बना दिया और इसका नायक है ‘शर्विलक’। यहाँ प्रणय कथा है, ‘शर्विलक और मदनिका’ की। तो, नायिका मदनिका भी वारांगना से वीरांगना बन चुकी है। ‘राजपरिवर्त’ की कथा केंद्रीवर्ती है। वह लिखते हैं कि “यह शर्विलक सच्चा रिवोल्युशनरी – क्रांतिवादी नहीं – क्रांतिकारी है।” १३

श्री परीख शर्विलक के चरित्र को एक ऐतिहासिक और पौराणिक पृष्ठभूमि देते हैं। शर्विलक महाराज चंडप्रद्योत के महाअमात्य शालंकायन का पुत्र था शुक्रबुद्धि। राजा का ज्येष्ठ पुत्र गोपालक गद्दी पर आया, लेकिन वह बौद्ध धर्म में आस्था रखने वाला (निर्ग्रन्थ) था, इसलिए भरत रोहतकने उसे पदच्युत कर दिया और सिंहासन छोटेभाई ‘पालक’ को सोंप दिया, गोपालक के पुत्र आर्यक की परवरिश करते हुए, शालंकयनने अपने पुत्र शुक्रबुद्धि को अपने जीवन के अंत में अपना कर्तव्य पूर्ण करने का निर्देश दिया था । क्रांतिकारी के रुपमे उसने ‘शर्विलक’ उपनाम धारण किया था वह लोकायतमत वादी/तर्फी है। लोक जीवन में ‘अर्थ और काम’ प्रधान तत्व हैं। ऐसा उनका मानना ​​है। प्रजाका सुख और उसके लिए ‘अर्थ और काम’ के पुरुषार्थ की सिद्धि हेतू सुराज्यकी आवश्यकताको वह जानता हैं। इसी लिए पालक जैसे दुष्ट राजा को उखाड़ फेंकना और गोपालक पुत्र आर्यक की राजाके रुपमे स्थापना करने में पिता के आदेश के अतिरिक्त लोकायतमत की पुष्टि भी प्रतीत होती है। शर्विलक है तो ब्राह्मण लेकिन उसमें ब्राह्म-क्षात्र तेज है और एक क्रांतिकारी के रूप में, उसका बुद्धितेज और क्षात्रतेज दोनों का परिचय होता है।

शर्विलक का व्यक्तित्व प्रभावशाली है। वह पालक के खिलाफ विद्रोह करने हेतू उज्जयनी आता है। शर्विलक की उपस्थितिसे ही द्युतागार के द्यूतकार भी व्यग्र होते हैं। राजपुरुष और चोर भी परेशान हैं, विद्वानों की मंडली में पंडित भी उनकी राय पूछते हैं। गायिक और नर्तकीयां भी उसके अनुग्रह-व्यंग्य के लिए उत्सुक हैं। लेकिन, सबकी उपेक्षा करने वाली ‘मदनिका’, जो कल्पलता की तरह है, वो ‘शर्विलक’ से स्नेह करती है। इन सबके बावजूद उज्जयिनी कभी-कभी ‘शर्विलक’ को निराश करती है। उनका मानना ​​है कि उज्जयनी के लोग स्मृतिभ्रंश से पीड़ित हैं। राजा पालकने अपने ज्येष्ठ भाई को मारकर उसका राज्य ले लिया इस बात प्रजा को चूभती नहीं है । वसंतसेना जैसी नगरश्री को बलात्कार से वश करने की और चारुदत्त जैसे प्रतिष्ठित संस्कारी व्यक्ति से बदला लेने की धमकी देने वाला ऐसे अनार्य ‘शकार’ के खिलाफ नगरमें किसी का लहू नहीं खौलता! उसे एक ऐसे नगरमें में जान फूंकनी है जो विलासी और निर्वीर्य हो गया है। उज्जयिनी का ‘नरदुर्ग’ भेदकर उसे राजपरिवर्त करना है। इसलिए ‘माधव, दर्दुरक और नंदनक’ जैसे मित्रो को ‘राजधर्म का पालन न करने वाले राजा को कुत्ते की तरह मार डालो !’ १४ ये मंत्र देते हैं। वह मदनिका के स्नेह का भी स्वीकार करता है। और सोचता है कि मदनिका के माध्यम से राजविप्लव में वसंतसेना और चारुदतकी भी सहायता ली जा सकती है। शर्विलक अपनी सेना को महल में संरक्षक के पास और बंदीगृह में महत्वपूर्ण स्थानों पर रखता है। माधव मरने से पहले राजमुद्रा भी लाता है। दर्दुरक आदि राजा पालक के प्रति लोगों में असंतोष फैलाते हैं और उसके काम में मदद करते हैं।

तो सामने महाअमात्य भरत रोहतक ने आर्यक को पकड़ने की योजना बनाई है। ऐसी सूचना मिलने पर शर्विलक मित्र बचाव के लिए दर्दुरक को भेजता है। और उज्जयनी की रोजाना स्थिति सँभालने हेतू वह खुद उज्जयनी में रहता हैं। लेकिन गहरा कारण यह हो सकता है कि उन्हें मदनिका को छोड़ना पसंद नहीं था।

उसका सारा धन आर्यक के लिए सेना जुटाने में खर्च हो गया, दूसरी सेना के लिए और साथ ही उसे मदनिका को वसंतसेना के बंधन से मुक्त करने के लिए धन की आवश्यकता थी। इसलिए उसने चोरी करने का फैसला किया। और अनजाने में वह चारुदत्त के घर में चोरी करता है। वह चोरशास्त्र का भी विशेषज्ञ हैं। वह अलंकार चुराकर मदनिका को छुड़ाने जाता है। वहां चारुदत्त की तस्वीर देखकर वह हैरान रह जाता है कि उसने वहां चोरी की है। यह जानते हुए कि अलंकर वसंतसेना के है, वह अंतर से अपराधभाव का अनुभव करता है। लेकिन बाहर से साहस के साथ वह मदनिका को समझाता है, कि मदनिका के लिए उसका प्यार अनोखा है। इस तरह के उसके साहसिक कार्य से शंकित बनी मदनिका को यह कहकर चलता बनता है कि ‘मदनिका से अधिक गौरवपूर्ण लक्ष्य हैं मेरे पास’ १५ वहां छिपी हुई वसंतसेना उन दोनों को बुलाती है और अलंकारो के बदले में मदनिका का हाथ शर्विलक के हाथ में देकर उसे ‘वधूपद’ प्रदान करती है। उसी समय नेपथ्य में घोषणा सुनाई देती है की,

नेपथ्यमे: पराजित। समस्त आर्यक सैन्य पराजित। सावधान…। शर्विलक को लगता है कि उसकी योजना विफल हो रही है। मदनिका के स्नेह में, उसे पछतावा होता है कि वह आलसी हो गया है। मदनिकाको मित्र भाव रेभिल के सहारे छोड़कर विप्लव कार्य को और तेज करता हैI

आर्यक को जेल से कैसे छुड़ाया जाए इस बात से शर्विलक चिंतित है । जीर्णोद्धान में वार्ता के दौरान, चारुदत्त सुझाव देते है कि किसी प्रकार से ‘यदि राजामुद्रा मिल जाए तो आर्यक को छुड़ाया जा सकता है’। माधव ने मरते वक्त राजमुद्रा शर्विलक को दी थी, लेकिन वह अब मदनिका के पास है। अगर इसे उसके पास जाता है तो प्रतिज्ञा भंग हो जाती हैं। ‘चारुदत्तम् और मृच्छकटिकम्’ की वारांगना मदनिका इस नाटकमें विरांगना बनकर आती है और यह बात गुप्त रूप से सुनकर प्रगट होकर ‘राजमुद्रा’ उसके सामने रखती है और लोकविप्लव के कार्य में उसके साथ रहने की अनुमति मांगती है। लेकिन एक बार जब शर्विलक, मदनिका के प्यार में पड़ गया और आलसी हो गया, तो वह अब नहीं चाहता है कि वह उसका सहवास करे। क्योंकि उसे खुद पर भरोसा है। लेकिन आवेश में आकर मदनिका को ‘विलासिनी’ कह देता है, बाद में उसे इसका पछतावा होता है। मदनिका आघात पाकर कहती है ‘आपके शील की परीक्षा लेने नहीं आउंगी’ १६ कहकर उससे मुंह मोड़ लेती है, तो शर्विलक भावनात्मक रूप से कहता है। ‘जाओ, हृदयेश्वरी, मैं तुम्हारा उपयुक्त पति बनूंगा और तुमसे मिलूंगा।’ १७

लेकिन मदनिका ने यह दिखाते हुए कि वह क्रांति की साथी है, वह आर्यक को मुक्त कराती है, तो श्वेतपद्माको भी पालक के महेल से भगाने में सहायता करती है और राज्यकी ‘शक’ प्रजाको राजा पालक के प्रति उकसाती है, और ‘शशक’ को हमले करनेका का संकेत भी देती है। शर्विलक लोकायतमार्गी हैं। उसे भगवान की पूजा में कोई विश्वास नहीं है। लेकिन वसंतसेना और मदनिका का जब पता नहीं चलता है तो क्षणभर के लिए, अगर उनका पता चले तो वह देवताओं की पूजा करने का भी मन बनाता है। वह उलझन में है कि उज्जयनी में प्रवेश कैसे किया जाए। क्योंकि भरत रोहतक ने पुख्ता इंतजाम किया है, लेकिन खुफिया जानकारी के आधार पर अब वह क्षोत्रिय ब्राह्मणों के वेश में राज्यमें घुसने का फैसला करता है। पालक का यज्ञभूमिमें ही वध करके राजसत्ता को कैसे हथियाना है, इसकी सटीक योजना तय करता है। इन सारी स्थितियोंमें उसकी सूक्ष्म और दूरदृष्टि प्रतीत होती है।

राजा पालकका वध हो गया, विप्लव सिद्ध हो गया है। लेकिन उसे सत्ता की कोई लालसा नहीं है। वह आर्यक के अमात्य बनने के लिए अपने प्रतिद्वंद्वी भरत रोहतक से प्रार्थना करता है। भरत रोहतकको भी अपने कट्टर शत्रु को देखकर कहते हैं, “धर्मादर्थश्च कामश्च । शालंकायनपुत्र, अगर तु महाअमात्य होकर वैदिक धर्म को अगर दृढ बनाये तो तेरे पिता का सारा वेर भूलने को तैयार हूँ’१८ भरत को प्रतीत होता है कि “अगर मुझे इसके जैसा पुत्र होता तो?” १९ तब शर्विलक जीवन के प्रति अपने दृष्टिकोण की व्याख्या करते हुए कहेता है की “मुझे अधिकारों के प्रति आकर्षण नहीं है, मुझे सौन्दर्य का, साहस का आकर्षण है मोक्ष खोजनेमें साहस है, उसका का भी मुझे आकर्षण है। लेकिन मेरी वृत्ति लोगों की आर्थिक सुखकारी में खेलती की है। मुझे मोक्ष के लिए वैराग्य चाहिए, मुझमें वैराग्य नहीं है।“ २० यह कहकर भरत रोहतक को अमात्य का पद स्वीकार करने को कहता है। लेकिन भरत रोहतक उसे तुरंत दक्षिणके स्मशान जाने के लिए कहता है।”… वह वहां जाता है, तो उसकी प्रियतमा के शरीर का अंतिम संस्कार कर दिया गया है। वह “आपके शील की परीक्षा नही आउंगी” २१ ऐसे मदनिका के शब्दों को याद करते पछताता है। लोकायत के अनुसार, मानव शरीर केवल चार भूतों से बना है, लेकिन मदनिका के चल बसने से, उन्हें लगता कि मदनिका सिर्फ चार भूतों की मूर्ति नहीं थी। कुछ विशेष थी । वह जानना चाहता है कि यह विशेष तत्व क्या है। आर्यक उसे अपना अमात्य बनने के लिए कहता है लेकिन वह नहीं मानता। वह कहता है: ‘मुझे वैराग्य नहीं है । मैंतो अनुराग से प्रेरित हूं ।’ २२

लेकिन वसंतसेना उसे अनुरागधर्म समझाती है। वह मदनिका का सच्चा साहसिक हैं, उन्हें तो महाराज आर्यक का लोकद्रष्टा सचिव ही बनना है। तब शर्विलक सोचता है कि राजपरिवर्त की समर्थ नायिका प्रति सही तर्पण तो लोक का कल्याण करने में है। इसलिए, आर्यक का लोकद्रष्टा बनना स्वीकार करता है और इस प्रकार वह अनासक्ति का प्रर्वतक बन जाता है।

नाटक में निर्मित संघर्ष का नायक ‘शर्विलक’ है। राम-रावण के युद्ध में सत्य और असत्य के पक्ष में सेनाएँ खडी हैं, जीव सटोसटकी बाजी खेली जा रही है, धारा रक्तरंजित है और दोनों ओर रक्तपात का खेल खेला जा रहा है। असत्य के पक्ष में ‘पालक, शकार, भरत रोहतक’ मारे जाते हैं, तो सत्य की ओर से ‘चारूदत्त’ मारा जाता है! मदनिका ने आत्महत्या कर ली। क्रांतिकारियों बलिदान देते है और अंत में सत्य की जीत होती है। आर्यक राजा बन जाता है। इस प्रकार शर्विलक एक सच्चा ” रिवोल्युशनरी – क्रांतिवादी नहीं – क्रांतिकारी है।” २३

निष्कर्ष:

मूल महाकवि भास की कृति ‘दरिद्र चारूदतम्’ में जो केवल स्नेह के लिए, साहस करनेवाला ब्राह्मण, ‘सज्जलक’ चोर कर्म करते हुए दिखाया गया है। चोरकर्म के प्रसंग में ही उसकी प्रतिभा का दर्शन होता है, एक गौण चरित्र के रूप में उन्हें यहाँ पर्याप्त जगह नहीं मिली। लेकिन शूद्रके ने उनके व्यक्तित्वके लक्षणों को पहचानते हुए उन्हें ‘राजक्रांति’ की उपकथा का उपनायक बना दिया, लेकिन क्रांति का आंदोलन तो पर्दे के पीछे ही रखा था, इसलिए उनका चरित्र उतना नहीं उभर पाया, जितना उभरना चाहिए था। क्योंकि प्रधानकथा तो ‘प्रेम कथा’ है, ‘राजक्रांति’ नहीं। लेकिन ‘शर्विलक’ के रचयिता श्री परीख ‘राजक्रांति’ की कथा को प्रधान बनाते हैं और ‘प्रेमकथा/ए’ गौण, साथ ही प्रधान नायक के गुणों से भरपूर एसा ‘शर्विलक’ सही अर्थमें क्रांति करते नजर आते हैं। ‘मृच्छकटिकम्’ में, आर्यक को शर्विलक द्वारा कारागृह से रिहा कर दिया जाता है, लेकिन ‘शर्विलक’ में मदनिका, वारांगना से वीरांगना बनकर ‘राजमुद्रा’ की मदद से आर्यक को मुक्त कराने में मदद करती है। तो, ‘शर्विलक’ भरत रोहतक और राजा पालक की सभी योजनाओं को उलट देता है। यहाँ वह एक कुशल राजनीतिज्ञ है, एक वीर योद्धा है, शुक्र बुद्धि है, कर्तव्यपरायण है, हाँ चोरकर्म उसके व्यक्तित्व का अभाव है लेकिन वह प्रेम और शौर्य में अद्वितीय है। मदनिका के लिए त्यागवृति है, तो क्रांति हेतू कर्तव्यनिष्ठ है। इस प्रकार एक सफल राजनीतिज्ञ, सच्चा प्रेमी, तपस्वी, क्षमाशील, उदार, वीर और कर्तव्यपरायण अमात्य के रूप में ‘शर्विलक’ का चरित्र चन्द्रमा की सोलह कलाओं समान खिल उठता है।

संदर्भ:

  1. सीताराम चतुर्वेदी (१९६४) ‘अभिनव नाट्य शास्त्र’ : (१९६४) इल्ल्हाबाद, किताब

महल पृ. ११३

  1. डॉ. शास्त्री एन (२००९) महाकवि भास भोपाल, मध्य प्रदेश ग्रन्थ अकादमी पृ. १८८
  2. के. का. शास्त्री : ‘संक्षिप्त भरत नाट्य शास्त्र ‘ (१९५८) बडौदा, म. स. विश्वविद्यालय

पृ.८४-८५

  1. पं. पाण्डेय, पी. (१९९५) ‘चारुद्त्तम’ वाराणसी, कृष्णदास अकादमी. अंक ३,

पृ.११०-१११

  1. वही पृ. १०८-१०९
  2. वही पृ. १०४-१०५
  3. वही पृ. १४२-१४३ अंक ४ श्लोक ५
  4. वही पृ. १५६-१५७
  5. वही पृ. १५७
  6. मोहन राकेश, (१९९९) ‘मृच्छकटिक’ नइ दिल्ली, बहावलपुर हाउस, रा. ना. वि.,

पृ. ७९

  1. वही पृ. ७९ अंक ३ श्लोक ११
  2. वही पृ. ८०
  3. परीख, आर. सी (१९८३) ‘शर्विलक’ अमदावाद, गर्जर ग्रन्थ रत्न कार्यालय. पृ. २

(मूल में गुजराती ; अनुवाद हिन्दी में)

  1. वही अं.१ पृ. ४७
  2. वही अं.३ पृ. ११६
  3. वही अं.३ पृ. १३७
  4. वही
  5. वही अं.५ पृ. १९४
  6. वही
  7. वही
  8. वही अं.५ पृ. १९७
  9. वही अं.५ पृ. १९४
  10. वही पृ. २

सन्दर्भ सूची:

  1. के. का. शास्त्री : संक्षिप्त भरत नाट्य शास्त्र (गुजराती)
  2. अभिनव नाट्य शास्त्र : सीताराम चतुर्वेदी
  3. डॉ. रमाकांत त्रिपाठी : संस्कृत नाट्य सिद्धांत
  4. डॉ. कृष्णकांत कडकिया : शर्विलक : नाट्य प्रयोग शिल्प नी द्रष्टिऐ (गुजराती)
  5. नारायण, हेन्री डब्ल्यू वेल्स : अनु: वीरेंद्र : ‘भारत का प्राचीन नाटक ‘
  6. डॉ. शास्त्री नेमिचन्द्र : महाकवि भास
  7. पं. पाण्डेय, पी. : ‘भासनाटकचक्र ’‘चारुद्त्तम’
  8. प्रा. शांतिकुमार एम्. पंड्या प्रा. शुचिता वाय. महेता : ‘चारुद्त्तम’
  9. डॉ. गंगा सागर राय : ‘मृच्छकटिकम’
  10. मोहन राकेश : ‘मृच्छकटिकम’
  11. डॉ. डी. आर. सुथार: ‘मृच्छकटिकम’ (गुजराती)
  12. श्रीरसिकलाल छो. परीख : ‘शर्विलक’ (गुजराती)

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