ओटीटी प्लैटफ़ार्म में दिव्यांग की प्रस्तुति : मानव अधिकार के संदर्भ में

डॉ॰ यशार्थ मंजुल 

सहायक प्रोफेसर(फिल्म अध्ययन)

प्रदर्शनकारी कला विभाग

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा 

ई मेल आईडी: yasharthmanjul@hindivishwa.ac.in

सारांश- सिनेमा अपने आगमन से ही एक महत्वपूर्ण माध्यम की तरह स्थापित हो गया। इसके प्रभाव का एक विस्तृत इतिहास है। भारत की आज़ादी से पहले और बाद में यहाँ बन रहे सिनेमा की विषयवस्तु की समीक्षा के लिए कई समीतियाँ निर्मित हुई। इन सभी सामीतियों ने मनुष्य के मन एवं मस्तिष्क पर सिनेमा के प्रभाव को माना है। भारत में मूक सिनेमा के दौर से ही दिवयांग पात्रों की एक रूढ़िबद्ध (stereotypical) छवि को स्थापित कर दिया गया। वर्तमान समय में सिनेमा और मीडिया के विकेन्द्रीकरण के कारण इस रूढ़िबद्ध छवि को तोड़ने का भी प्रयास हुआ। ओटीटी(OTT) प्लैटफ़ार्म पर दिखाई जा रही बहुत सी दृश्य-श्रव्य सामाग्री को इसी रूढ़िबद्ध छवि को तोड़ने के प्रयास के क्रम में देखे जाने की ज़रूरत है। ये दृश्य –श्रव्य सामग्री विकलांगता की अवधारणा को मानव के मूल अधिकार और सामाजिक संरचना के अनुरूप देखने का प्रयास करती है न की पूरे विमर्श को दिव्यांगजनों के शरीर पर केन्द्रित करती है।

बीज शब्द– मीडिया,सिनेमा,ओटीटी,दिव्यांगता,मानवाधिकार

शोध आलेख

दादा साहब फालके की राजा हरिश्चंद्र से वर्तमान तक भारतीय सिनेमा ने अपनी व्यापकता और दायरे को बढ़ाया है , मूक सिनेमा से शुरू हुए इस सफर को आज डिजिटल युग में भी प्रवेश किए एक दशक से ऊपर का समय हो गया है। हालांकि ये डिजिटल युग बहुआयामी है और अपने में निरंतर बदलाव ला रहा है। भारत में अँग्रेजी, हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के लिए 35 से अधिक ओटीटी प्लैटफ़ार्म कार्य कर रहे हैं।2012 में ये संख्या मात्र 2 थी , ये संख्या निरंतर बढ़ ही रही है। पिछले कुछ समय से अकादमिक चर्चाओं में इसका ज़िक्र और इसपर और ध्यान केन्द्रित किए जाने की आवश्यकता पर भी बल दिया जाने लगा है।

ओटीटी पर दृश्य श्रव्य उत्पाद – नए प्रयोग एवं सिनेमा के विकेन्द्रीकरण का दौर

इंटरनेट के आने से लेखन,पठन,देखने और वितरण की समग्र स्वाधीनता का उदय हुआ है। सही मायनों में ये अभिव्यक्ति की आज़ादी का ही दौर है। आज सामान्य सी साक्षारता के आधार पर करोड़ों लोगों तक अपनी बात पहुंचाई जा सकती है। ऐसे में बौद्धिक संपत्ति का अवमूल्यन हुआ है इसको भी झुठलाया नहीं जा सकता है। डिजिटल मीडिया निरंतर अपने भीतर से ही नए संसाधनों को खोज रहा है जो इसके लिए ईर्धन की तरह काम कर रहे हैं । भारत में इंटरनेट प्रयोक्ताओं की बढ़ती संख्या,बढ़ती डिजिटल साक्षारता,सस्ते होते डाटा प्लान और स्मार्टफोन की बढ़ती उपलब्धता डिजिटल मीडिया की निरंतर वृद्धि का ही प्रमाण है। ये वृद्धि मात्र डिजिटल चैनल और वैबसाइट में ही नहीं बल्कि उपभोगताओं के इस्तेमाल करने के समय में भी है। नेशनल असोशिएशन ऑफ सॉफ्टवेयर एंड सर्विस कंपनी की नवम्बर 2020 की एक रिपोर्ट ने ये माना है कि कोरोना के कारण हुए लॉकडाउन में ओटीटी पर ग्राहक द्वारा बिताया गया औसत समय 20 मिनट से बढ़कर एक घंटा हो गया है। भारत में 49 प्रतिशत युवा ऑनलाइन दृश्य-श्रव्य सामाग्री देखने के लिए 2 से 3 घंटे व्यतीत करने लगा है। दृश्य-श्रव्य कंटैंट में बढ़ती सामाग्री कि मांग को ध्यान में रखते हुए और उसे पूरा करने के लिए ओटीटी दिग्गज 3000 करोड़ रुपये का इनवेस्टमेंट करने जा रहा है।

दृश्य-श्रव्य माध्यम के उपभोग का स्वरूप भी तेज़ी से बदल रहा है । प्राइसवॉटर हाउस कूपर की 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार इंटरनेट पर विश्व में 40 प्रतिशत नए उपभोगता बच्चे हैं।इनको भी ध्यान में रखकर ये कंटैंट बनाया जा रहा है। ये मात्र मनोरंजन के स्तर पर ही नहीं बल्कि ज्ञान के क्षेत्र में भी इजाफा करने के लिए भी ज़रूरी है। ब्रॉडकास्ट आडियन्स रिसर्च काउंसिल की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार बच्चों के लिए दृश्य श्रव्य सामग्री में 2016 से 2018 के बीच में तेज़ी से उछाल आया है। अंतरराष्ट्रीय ब्राडकास्टिंग कंपनी जैसे डिस्कवरी किड्स, पोगों,कार्टून नेटवर्क और भारतीय कंपनी जैसे वूट किड्स,हंगामा किड्स एवं ज़ी 5 किड्स बच्चों के लिए निरंतर इस स्पेस में बेहतर सामाग्री उपलब्ध कर रहे हैं।

दृश्य श्रव्य सामाग्री का इतना उपभोग इससे पहले कभी नहीं हुआ। दृश्य श्रव्य सामाग्री का ये उपभोग मीडियम की आसान पहुँच और उपलब्धता के कारण है। आज एक फिल्म देखने के लिए किसी को थिएटर में जाकर उस फिल्म को देखने की ज़रूरत नहीं। ये घर के टेलेविशन सेट और मोबाइल पर ही आसानी से उपलब्ध है। वितरण प्रणाली के इस मुक्त स्वभाव ने दृश्य-श्रव्य सामाग्री के स्वरूप में बड़ा बदलाव किया है। हाशिये पर रहने वाले समाज के विमर्श को इन ओटीटी प्लेट्फ़ोर्म्स के माध्यम से केंद्र में लाया गया है।

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि ओटीटी के आने से दृश्य-श्रव्य उत्पाद बनाने के उद्योग मे भी विकेन्द्रीकरण हुआ है। इस विकेन्द्रीकरण ने स्टूडिओ एवं स्टार सिस्टम के एकाधिकार को भी चुनौती दी है। कोरोना काल में फिल्म थिएटर के बंद होने से स्टूडिओ एवं स्टार सिस्टम भी अब ओटीटी पर ही आश्रित हैं। वर्तमान में इस विषय पर चल रही चर्चा-परिचर्चा से एक बात जो सामने आ रही है वो ये कि कोरोना काल समाप्त होने के बाद भी ओटीटी प्लाट्फ़ोर्म्स व्यापक स्तर पर दृश्य श्रव्य उत्पादों को प्रभावित करते रहेंगे। भारत के मीडिया एवं एंटर्टेंमेंट को लेकर 2020 में केपीएमजी द्वारा जारी रिपोर्ट( A year of script:Time for resilience) में इस तथ्य को प्रमुखता से स्पष्ट किया है कि भविष्य में भी सिनेमा के बजट ,उत्पादन प्रक्रिया के मॉडेल एवं तकनीक के उपयोग में ओटीटी प्लैटफ़ार्म के कारण बदलाव देखने को मिलेंगे। ये सभी संकेत भविष्य में सिनेमा के स्वतंत्र हो रहे और स्टुडियो से मुक्त हो रहे मॉडेल की ओर इशारा कर रहे हैं।

सिनेमा में ‘स्टीरियोटाइपिंग’ को सबसे ज़्यादा बढ़ावा स्टुडियो सिस्टम के द्वारा ही दिया गया। अमरीकी मीडिया चिंतक हरबेर्ट स्चील्लर(Herbert Schiller) ने नियंत्रित मीडिया के एक समूह के लिए शब्द दिया पेक्केजेड कोनशौसनेस्स (packaged consciousness) इसका अर्थ है ‘नियंत्रित मीडिया के द्वारा ऐसी सूचनाएँ और छवियों का निर्माण किया जाता है जो हमारे विश्वास,दृष्टिकोर्ण और व्यवहार को निर्धारित करता है’। इससे भिन्न ओटीटी का दृश्य श्रव्य उत्पाद पोस्ट न्यू वेव सिनेमा का ही विस्तार है। परंतु पोस्ट न्यू वेव सिनेमा की वितरण प्रणाली से विपरीत ये कंटैंट ओटीटी के कारण समाज के बीच में बड़ी मात्रा में पहुँच रहा है।

पोस्ट न्यू वेव शब्द का प्रयोग उस सिनेमा को संदर्भित करने के लिए किया जाता है जो नए सिनेमा के अनुसरण का परिणाम है। नया सिनेमा सौंदर्य संवेदनशील के साथ ही महत्वपूर्ण सामाजिक-राजनीतिक- सांस्कृतिक विषयों पर चिंता के लिए प्रतिबद्ध सिनेमा था। जबकि पोस्ट न्यू वेव शब्द का अर्थ ऐसे सिनेमा के लिए प्रयोग किया जाता है जो नए सिनेमा से अपनी प्रेरणा प्राप्त करते हुए व्यावसायिक रूप से भी स्वयं को स्थापित करता है।

ओटीटी क्या है :-

ओटीटी अर्थात ओवर –द-टॉप, एक ऐसी वितरण व्यवस्था है जो इंटरनेट के माध्यम से दृश्य-श्रव्य सामाग्री दर्शकों को प्रदर्शित करता है। इसके उपयोग के लिए स्मार्ट फोन,कम्प्युटर या स्मार्ट टीवी में से किसी एक की आवश्यकता होती है। इसपर उपस्थित दृश्य-श्रव्य सामाग्री को देखने के लिए किसी भी प्रकार के डीटीएच या केबल कनैक्शन की आवश्यकता नहीं है।ओटीटी का विस्तार आईपीटीवी(इंटरनेट प्रोटोकॉल टेलीविशन) के कारण ही संभव हो पाया। आईपीटीवी का सीधा मतलब है कि इंटरनेट या ब्रॉडबैंड कनैक्शन लेते ही अलग से केबल नेटवर्क या डीटीएच लेने से मुक्ति। उपभोगता इंटरनेट और डीटीएच पर अलग-अलग पैसे खर्च करने के बदले एक ही कनैक्शन से दोनों सुविधाएं प्राप्त कर सकता है। इसके अंतर्गत तीन तरह कि सुविधाएं हैं- 1॰इसके माध्यम से लाइव प्रसारण देखा जा सकता है। 2॰ जो कार्यक्रम पहले प्रसारित हो चुका है या फिर मौजूदा कार्यक्रम का पिछला हिस्सा छूट गया हो तो उसे शुरू से देख सकते हैं। 3॰वो सारी वीडियो जो टीवी कार्यक्रम में नहीं हैं।

इसके माध्यम से दर्शक को व्यक्तिगत स्तर पर अधिक से अधिक चुनाव करने का मौका मिलता है। इसी चुनाव के कारण ही दृश्य श्रव्य सामाग्री सिनेमाई भाषा के स्तर पर अधिक से अधिक सुगठित होती जा रही है। सबसे पहले इसकी शुरुआत एमटीएनएल ने अक्टुबर 2006 में की। फरवरी 2008 में ट्राई (टेलीकॉम रेग्युलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया) ने भारती एयरटेल और रिलायंस को आईपीटीवी शुरू करने की अनुमति दे दी। इंटरनेट के विस्तार के साथ ही ओटीटी और आईपीटीवी दोनों में विस्तार हुआ। इंटरनेट के उपभोगताओं में निरंतर बढ़ावा हो रहा है। 2009 में भारत की जनसंख्या का मात्र 5.1 प्रतिशत ही इंटरनेट का उपयोग करता था। परंतु वर्तमान में ये संख्या 45 प्रतिशत हो गयी है।

ओटीटी सेवा के मुख्यता तीन प्रकार होते हैं :-

  1. ट्रांसक्शनल वीडियो ऑन डिमांड (टीवीओडी)

सब्सक्रिप्शन वीडियो ऑन डिमांड (एसवीओडी)

एडवरटाइजिंग वीडियो ऑन डिमांड (एवीओडी)

इन तीनों में सबसे महत्वपूर्ण है सब्सक्रिप्शन वीडियो ऑन डिमांड (एसवीओडी)। इस व्यवस्था के उपयोग दर्शकों को सब्स्क्रिप्शन (मासिक शुल्क) के माध्यम से मिलता है। जिसमे दर्शकों का सामना मूल कंटैंट से होता है। ये कंटैंट किसी भी अन्य माध्यम पर नहीं उपस्थित रहता। भारत में वेब सिरीज़ की प्रवृत्ति इसी प्रकार की सेवा से दर्शकों के बीच पहुंची।

ओटीटी को समझने के लिए ये समझना ज़रूरी है कि पूर्व में टीवी पर आमदनी के सबसे महत्वपूर्ण कारक थे सब्स्क्रिप्शन,विज्ञापन और कंटैंट। विज्ञापन का कारक कंटैंट के कारक को काफी प्रभावित करता था परंतु ओटीटी के कारण ही अब कंटैंट(दृश्य-श्रव्य सामग्री) के विज्ञापन रहित होने की शुरुआत हो चुकी है। 90 के दशक में जब निजी टीवी चैनल का आगमन हुआ , उस समय ये सोचना भी लगबघ असंभव था कि सब्स्क्रिप्शन से किसी भी तरह कि आमदनी संभव है। चैनल अपना कार्यक्रम मुफ्त दिखाते थे जिसका सीधा लाभ केबल ऑपरेटर को मिलता था। परंतु ओटीटी प्लैटफ़ार्म का मुख्य आय स्त्रोत ये सब्स्क्रिप्शन ही है।

21वीं सदी मीडिया,विकलांगता और मानवाधिकार -“विकलांगता मानव अधिकार से जुड़ा मुद्दा है। हममें से जो विकलांग हैं वो समाज और हमारे साथी नागरिकों द्वारा एक ऐसे व्यवहार से तंग आ चुके हैं जो हमारे अस्तित्व पर ही प्रश्न खड़ा करता है। राजनेता और अन्य निर्णायक संस्थाएं इस बात को स्वीकारते तो हैं परंतु इसपर कोई कारवाई नहीं करते”। ये कथन है वर्ष 2000 में ,विकलांगता और पुनर्वास पर संयुक्त राष्ट्र संघ के एक सम्मेलन के दौरान , विकलांगजनों के लिए कार्य कर रहे स्वीडन के राजनेता बेंग्ट लिंड्क़्विस्त(Bengt Lindqvist) का। उनके इस कथन से ज़ाहिर है,विकलांगता और सामाजिक कारणों से उससे उपज रही दुर्बलता मानवाधिकार का अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा है।वर्ष 2008 में विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों को लेकर एक संधि को लागू किया गया जिसे वर्ष 2020 तक 163 सदस्यों के द्वारा स्वीकारा गया। 21वीं शताब्दी में मानवाधिकार को लेकर ये संयुक्त राष्ट्र संघ की प्रथम संधि थी। इस संधि ने विकलांगता को मानवाधिकार का मुद्दा मानते हुए भेदभाव को खत्म करने एवं विकलांगों के समाज में पूर्ण और प्रभावी भागीदारी और समावेश पर बल दिया है। इसके अनुसार ‘विकलांगता एक ऐसी अवधारणा है जिसमे निरंतर बदलाव देखा जा सकता है। विकलांगता के उत्पन्न होने का कारण है विकलांग व्यक्ति और उसके सामाजिक संवाद के बीच एक बाधा का आ जाना’।

संयुक्त राष्ट्र संघ का मानना है कि मीडिया में छवियां और कहानियां जनमानस को गहराई से प्रभावित कर सामाजिक मानदंड स्थापित करती हैं। विकलांग व्यक्तियों को मीडिया में कवर करते समय जब उन्हें चित्रित किया जाता है, तो वे उनका एक रूढ़िबद्ध रूप होता है जो उचित रूप से उनका प्रतिनिधित्व नहीं करता है।

जागरूकता बढ़ाने और गलत सूचनाओं का मुकाबला करने में मीडिया एक महत्वपूर्ण साधन हो सकता है। यह सामाजिक भ्रांतियों को बदलने और विकलांग व्यक्तियों को समावेशी रूप से प्रस्तुत करने में एक महत्वपूर्ण साधन की तरह उपयोग में लाया जा सकता है । विकलांगता के मुद्दों और विकलांग व्यक्तियों की विविधता और उनकी स्थितियों के बारे में जागरूकता और समझ को बढ़ाकर, मीडिया सामाजिक जीवन के सभी पहलुओं में विकलांग व्यक्तियों के प्रभावी और सफल एकीकरण में सक्रिय रूप से योगदान दे सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ की इस संधि के उद्देश्य को भी मीडिया आमजन तक पाहुचाने में मददगार साबित हो सकता हैं।

सिनेमा महत्वपूर्ण क्यों है-

सिनेमा की महत्वता उसके प्रभाव के कारण है। ये प्रभाव सिनेमाई भाषा के कारण उत्पन्न होता है। इसकी व्याख्या करते हुए सत्यजीत रे लिखते हैं कि “फिल्म गति है,फिल्म नाटक है,फिल्म कहानी है,फिल्म संगीत है – फिल्म में मुश्किल से एक मिनट का टुकड़ा भी इन सब बातों को एक साथ दिखा सकता है” सत्यजीत रे आगे लिखते हैं कि “ चलचित्र शिल्प है की नहीं इस पर आज भी बहस-मुबाहसे चलती रहती है। जो लोग इसे यह मर्यादा देने के लिए तैयार नहीं हैं , उनका कहना है कि चलचित्र की कोई निजी सत्ता नहीं है,कि यह पाँच तरह के शिल्प साहित्य से मिश्रित एक पँचमेल बेढब वस्तु है। दरअसल इस शिल्प शब्द से ही गड़बड़ी पैदा होती है। शिल्प की बजाय यदि इसे भाषा कहा जाये तो चलचित्र का स्वरूप और भी ज़्यादा स्पष्ट हो जाये और तर्क कि कोई गुंजाइश न रहे”। सिनेमा का ये प्रभाव मिस-एन –सीन के विभिन्न तत्वों और सामंजस्य के कारण ही उत्पन्न होता है। मिस –एन –सीन थिएटर का शब्द है जिसका अर्थ है ‘स्टेज पर प्रस्तुत करना’ इसके मूलतः छ: तत्व होते हैं:-

सेटिंग,लाइटिंग,एक्टिंग ,प्राप,कॉस्ट्यूम एवं मेकअप, इन्हीं तत्वों को स्क्रीन पर प्रदर्शित करते समय इनमे तीन तत्व और जुड़ जाते हैं,वो हैं केमरा एंगल,संपादन(एडिटिंग) एवं साउंड(ध्वनि) अतः इन 9 तत्वों के सामंजस्य से ही सिनेमा का प्रभाव अन्य कला माध्यमों से ज़्यादा होता है। एक उपन्यास या कहानी पर बनी फिल्म का प्रभाव कई बार मिस-एन –सीन के इन्हीं तत्वों के कारण मूल कथा से अधिक हो जाता है।

फिल्म पाठ के अध्येताओं ने फिल्म को आधुनिक कला के इतिहास में संदर्भित करने के अलावा सिनेमा में राष्ट्र ,नस्ल,वर्ग,विकलांगता, समलैंगिकता इत्यादि के सरोकारों के साथ जोड़ने का प्रयास किया है रवि वासुदेवन ने अपने आलेख न्यू कल्चरल हिसटरि एंड एक्सपिरियन्स ऑफ मोडेरनिटी(new cultural history and experience of modernity) में फिल्म अध्ययन कि महत्वता को स्पष्ट करते हुए बताया है कि ‘ फिल्म अध्ययन का उद्देश्य आधुनिकता की तफतीश है क्योंकि सिनेमा मूलतः आधुनिकता का केन्द्रीय उपकरण है’। वो आगे लिखते हैं कि इसकी दो स्तरों पर पहचान की जा सकती है प्रथम एक यंत्र के रूप में जो आकृतियों की प्रतिलिपियाँ तैयार कर निरूपण की परम्पराओं का परावर्तन करता है , दूसरा, उस उपकरण के रूप में जो सामाजिक और संस्थागत तौर पर आधुनिकता के परिचालन के लिए उत्तरदायी है। विकलांगता का आकलन भी इस उपकरण के माध्यम से किए जाने की ज़रूरत है।

भारतीय सिनेमा में विकलांगता

मार्टिन एफ नोर्डेन अपनी पुस्तक द सिनेमा ऑफ आइसोलेशन : अ हिस्टरी ऑफ फ़िज़िकल डिसेबिलिटी इन द मूवीस(The cinema of isolation : A history of physical disability in the movies) में लिखते हैं कि “अधिकांश फिल्मों में विकलांग पात्रों को उनके गैर विकलांग साथियों से अलग और अकेला करके प्रदर्शित करने की प्रवृत्ति रही है। यह मात्र फिल्मों की कहानी में ही नहीं बल्कि विकलांग पात्र के अपने वातावरण से संवाद स्थापित करते समय भी परिलक्षित होता है। मिस-एन –सीन के सभी तत्वों का इस्तेमाल विकलांग पात्र के भौतिक एवं प्रतीकात्मक अलगाव को लक्षित करने के लिए किया जाता है। जिससे वह समाज से अलग दिखाई पड़े। ऐसे में दर्शकों का नज़रिया और महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि फ़िल्मकार विकलांग आधारित फिल्मों में मिस-एन-सीन के तत्वों का इस्तेमाल गैर विकलांग के दृष्टिकोर्ण से करते हैं। इसके कारण विकलांग पात्रों में अकेलेपन और अन्यता के भाव को बढ़ाया जाता है एवं उन्हे दया,भय,तिरस्कार इत्यादि से लबरेज वस्तुओं की तरह प्रदर्शित किया जाता है। फिल्मों के भीतर की ये स्थिति विकलांग दर्शकों के भीतर भी अलगाव एवं आत्म-घृणा को भर देती है”। वो आगे लिखते हैं कि “फ़िल्मकारों है”।

भारतीय सिनेमा में विकलांग आधारित फिल्मों के भीतर इस प्रकार की प्रवृत्ति लोकप्रिय,स्टुडियो द्वारा नियंत्रित,ज़्यादा पूंजी लगा करके बनाई गई फिल्मों में देखने को मिलती है। इसके विपरीत न्यू वेव एवं पोस्ट न्यू वेव सिनेमा विकलांग आधारित फिल्मों में अपने दृष्टिकोर्ण में ज़्यादा समावेशी है। मुख्यधारा के लोकप्रिय सिनेमा में विकलांग पात्र के चित्रण को निम्नलिखित प्रारूपों में बाटा जा सकता है।

1. दयनीय – इस प्रकार के स्टीरियोटाइप के भीतर दिव्यांग पात्र की दुर्बलता पर ध्यान केंद्रित किया जाता है और उनका उपयोग गैर दिव्यांग चरित्र के बारे में अधिक जानकारी देने के लिए किया जाता है, जैसे कि वे(गैर दिव्यांग) कितने संवेदनशील हैं या किसी जरूरतमंद(दिव्यांग) के प्रति अपने व्यवहार में कितने अच्छे हैं।

2. हिंसा की एक वस्तु के रूप में – इस प्रकार के स्टीरियोटाइप का संदर्भ इतिहास में स्थित है-उदाहरण के लिए-नाजी का इच्छामृत्यु कार्यक्रम। इस तरह के स्टीरियोटाइप दया , निर्भरता और यूजीनिक्स की धारणा को पुष्ट करते हैं। और यह स्थापित करने की कोशिश करते हैं कि दुर्बलता का प्राकृतिक समाधान हिंसक मृत्यु है।

3. भयावह और दुष्ट – इसके अंतर्गत दिव्यांग पात्रों का इस्तेमाल कथा में नकरात्मक किरदारों की तरह किया जाता है।

4. नकारात्मक वातावरण को प्रदर्शित करने में – दिव्यांग पात्रों के चित्रण के माध्यम से सिनेमा में दुख,खतरे और आभाव के वातावरण को बढ़ाया जाता है।

5॰ प्रेरक नायक-इस प्रकार के स्टीरियोटाइप के माध्यम से दिव्यांग और गैर दिव्यांग पात्रों के बीच की असमानता को और बढ़ाया जाता है। इसके अनुसार गैर दिव्यांग पात्रों के द्वारा किया गया साधारण कार्य जब दिव्यांग पात्र के द्वारा किया जाता है तो वो असाधारण हो जाता है । यह स्टीरियोटाइप दिव्यांग और गैर दिव्यांग पात्रों के बीच की खाई को और चौड़ा करता है। हिंदी सिनेमा में इस प्रकार के प्रेरक नायकों के कई उदाहरण हैं ।

6. उपहास की वस्तु के रूप में – हास्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए दिव्यांग पात्रों के चित्रण से विकलांगता का उपहास किया जाता है। हिंदी सिनेमा ऐसी कई फिल्मों से भरा पड़ा है जहां सिनेमा में विकलांगता का मजाक उड़ाया जाता है। यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि टेलीविजन स्क्रीन में ‘रिकॉल वैल्यू’ के रूप में विकलांगता का उपयोग और उपहास काफी सामान्य है। रमेश सिप्पी द्वारा निर्देशित लोकप्रिय फिल्म ‘शोले’ में ठाकुर(जिसके दोनों हाथ नहीं हैं ) की छवि का उपयोग इसका सामान्य सा उदाहरण है। देश के सबसे बड़े सेल्युलर नेटवर्क ‘एयरटेल’ का एक विज्ञापन ठाकुर द्वारा ‘टेक्स्ट मैसेज टाइप करने में असमर्थता का मजाक उड़ाता है’। मॉन्स्टर डॉट कॉम, नौकरी खोजने के अंतरराष्ट्रीय पोर्टल के विज्ञापन में ,ठाकुर की छवि को क्रिकेट अंपायर के रूप में दिखाया जाता है, जो संकेत देने के लिए अपनी बाहें नहीं उठा सकता है। इसके पश्चात स्क्रीन पर एक टैगलाइन उभर कर आती है कॉट इन द रोंग जॉब अर्थात “गलत काम में फस गए”।

7. स्वयं के सबसे खराब और एकमात्र दुश्मन – इस स्टीरियोटाइप को दयनीय स्थिति के विस्तार के रूप में देखा जा सकता है। प्रेरक नायकों की तरह, इन पात्रों से आशा की जाती है कि वे अपनी विकलांगता और उससे उपजी दुर्बलता को स्वयं दूर कर सकते हैं यदि वे खुद पर दया करना बंद कर दें। लेकिन वे चुनौती को स्वीकार नहीं करते और दिव्यांग एवं दुर्बल बने रहते हैं। जो इस चुनौती को स्वीकार कर लेता है वो अपनी विकलांगता से निकल जाता है। ये पात्र निरंतर स्वयं के शरीर के साथ संघर्षरत रहते हैं।

8. बोझ- इसके अंतर्गत दिव्यांग पात्र को गैर दिव्यांग पात्र के ऊपर निर्भर दिखाया जाता है। इस गैर दिव्यांग पात्र को सात्विक गुणों के साथ देखभाल करने वाले की तरह डिज़ाइन किया गया है। इस प्रकार दिव्यांग चरित्र का उपयोग अधिक महत्वपूर्ण सक्षम शारीरिक पात्रों के बारे में जानकारी प्रदान करने के लिए किया जाता है।

9. यौन रूप से असामान्य / नपुंसक – इसके अंतर्गत दिव्यांग पात्रों को नपुंसक और यौन रूप से असामान्य पात्रों की तरह चित्रित किया जाता है जिसके कारण सिनेमाई स्पेस मे उनको साथी (सहभागी) को व्यभिचारी होने का कारण प्रदान होता है। शोनाली बोस द्वारा निर्देशित “मार्गरीटा विद अ स्ट्रॉ” (2015) ने विकलांगता की इस रूढ़िवादिता को प्रभावी ढंग से तोड़ा है।

10. समुदाय एवं सार्वजनिक स्थानों में भाग लेने में असमर्थता– इस प्रकार के स्टीरियोटाइप के अंदर सिनेमाई स्पेस में ऐसा विचार उत्पन्न किया जाता है जिसमे दिव्यांगजन अपनी दुर्बलता के कारण सार्वजनिक स्थानो एवं समुदायों मे अपनी भागीदारी नहीं दे पाते। फिल्म में भागीदारी दे रहे अन्य समुदायों में वे (दिव्यांग पात्र )नदारद दिखते हैं। उन्हे समुदायों में एवं सार्वजनिक स्थानों में चित्रित ही नहीं किया जाता है। ऐसी फिल्मों को बनाने की जरूरत है जो कैमरे के पीछे और सामने दिवयांग पात्रों की भागीदारों को सुनिश्चित करें। सिनेमा को एक प्रभावी माध्यम होने के कारण ये उपस्थिति महत्वपूर्ण हो जाती है।

रूढ़िवादी छवि को तोड़ते ओटीटी पर दिव्यांग पात्र

ओटीटी प्लैटफ़ार्म के माध्यम से वितरण प्रणाली में एक प्रकार की स्वतन्त्रता देखने को मिली है। इस कारण से इन प्लैटफ़ार्म पर स्टुडियो सिस्टम पर आश्रित एवं गैर आश्रित दोनों तरह की फिल्मों में प्रयोग देखने को मिलते है। स्टुडियो सिस्टम के भीतर भी कम बजट के मद्देनजर बेहतर प्रयोग हो रहे हैं। ओटीटी एक ऐसी व्यवस्था की तरह कार्य कर रहा है जहां दर्शकों के सामने विकल्पों की संख्या को बढ़ा दिया गया है। इन विकल्पों के साथ ही दर्शकों के अनुभव और फ़िल्मकारों की सिनेमाई सामग्री दोनों का विकास हुआ है। कम और मध्यम बजट की फिल्मों को थिएटर में स्थान बनाने के लिए संघर्ष करना पड़ता था, परंतु ओटीटी के बाद से बिना स्टार वाली छोटी फिल्में भी ज़्यादा से ज़्यादा दर्शकों तक पहुँच रहीं हैं । इस कारण से दृश्य-श्रव्य सामग्री में बढ़ोतरी भी हुई है। ज़्यादा सामाग्री शोध को जटिल भी बना रही है। आइडैनटिटि(identity) के मुद्दे पर वर्तमान सामाजिक विज्ञान अनुसंधान के भीतर एक नई प्रवृत्ति जो मानव विकास के चरणों के अनुक्रम के साथ सामाजिक संस्था के सांस्कृतिक पैटर्न पर केन्द्रित है का जन्म हुआ है । इसके माध्यम से व्यक्तियों के व्यवहार और गतिविधियों को निश्चित सेट में रखा जाता है। इस संदर्भ में शोधकर्ता अपनी आधार सामाग्री को जुटाने के लिए आत्मकथा,पौराणिक कथा,ऐतिहासिक प्रतिबिंब,लोककथा एवं रचनात्मक कार्यों को एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ की तरह देखते हैं जो विशिष्ट प्रकार के सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन को समझने के लिए ज़रूरी हैं।

हम यहाँ ओटीटी किस प्रकार से दिव्यांग जन की रूढ़िवादी छवि को तोड़ रहा है इसे समझने के लिए ओटीटी पर स्ट्रीम हो रही तीन फिल्मों पर बात करेंगे। ये सभी फिल्में अपने दिव्यांग पात्रों को सोशल मोडेल ऑफ डिसबिलिटी(Social Model Of Disability) के आधार पर प्रस्तुत कर रही हैं न कि मेडिकल मोडेल ऑफ डिसबिलिटी(Medical Model Of Disability) के आधार पर।

सोशल मोडेल ऑफ डिसबिलिटी के अनुसार विकलांगता शारीरिक रूप से अक्षमता के कारण नहीं बल्कि सामाजिक कारणों से उत्पन्न होती है। ये मोडेल दिव्यांग जनों के लिए जीवन जीने के विकल्पों को प्रतिबंधित करने वाली बाधाओं को चिन्हित कर उन्हे दूर करने के तरीकों को देखता है। जब ये बाधाएँ समाप्त कर दी जाती हैं तब दिव्यांग जन समाज में स्वतंत्रता और समानता के साथ स्वयं के जीवन पर नियंत्रण लिए हुए उसे व्यतीत कर सकते हैं। इसके विपरीत मेडिकल मोडेल विकलांगता के कारणों की खोज शरीर में ही करता है।

ये तीन फिल्में हैं :-

  1. ग्लित्च(glitch) – रिलीज़-दिसम्बर 2020

ओटीटी प्लैटफ़ार्म- अमज़ोन प्राइम (amazon prime)

निर्देशक – राज एवं डीके

लेखक- रेशु नाथ

ग्लित्च , अनपास्ड (un-paused) नामक फिल्म की 4 कहानियों में से प्रथम है । ये लघु फिल्म वर्ष 2030 में स्थापित है। कोविड-19 अब कोविड-30 के रूप में विकसित(mutate) हो चुका है। ये वर्क फ्रम होम से काफी आगे की स्थिति है। फिल्म का नायक ‘आहान’ एक हाइपोकॉन्ड्रिअक है,उसे कोविड वाइरस से एक किस्म का फोबिया है। आहान वर्चुअल माध्यम से फिल्म की नायिका ‘आएशा’ नामक एक चितिक्सक युवती से मिलता है। वाइरस से एक युद्ध ही आईशा का पेशा है।इसी कारण उसे वारीयर(warrior)कह कर संबोधित किया जाता है। आहान आईशा से प्रेम करने लगता है। एक हाइपोकॉन्ड्रिअक और चितिकसक के बीच का ये कोन्फ़्लिक्ट ही कथानक को आगे ले जाता है। आईशा सुन नहीं सकती अतः आहान विडियो कॉल पर आईशा से संवाद स्थापित करने के लिए साइन लेंगवेज़(sign language) सीखता है। फिल्म कि पटकथा लेखक रेशु नाथ का कहना है कि वो किसी भी प्रकार से आईशा की विकलांगता का महिमामंडन नहीं करना चाहती थी। उन्होने आईशा को एक साधारण मनुष्य की तरह ही स्थापित करने पर ज़ोर दिया। रेशु नाथ के अनुसार आईशा के हियरिंग इमपेयर्ड(hearing Impaired) होने के कारण ही अहान उससे संवाद स्थापित करने के लिए एक नयी भाषा सीखता है। आहान को ये प्रेरक शक्ति आईशा के लिए अपने प्रेम से प्राप्त होती है। रेशु नाथ का ये भी मानना है कि ओटीटी प्लैटफ़ार्म ने दर्शकों के भीतर नई किस्म कि रुचियों और संभावनाओं को जन्म दिया है। जिसने इन नए किस्म के पात्रों को जन्म दिया है।

2. मिसमेच्ड(mismatched)- रिलीज़-नवम्बर 2020

ओटीटी प्लैटफ़ार्म-नेट्फ़्लिक्स

निर्देशक – आकर्ष खुराना एवं निपुन अविनाश धर्माधिकारी

पटकथा लेखक –ग़ज़ल धालीवाल

मिसमेच्ड ‘डिंपल’ एवं ‘ऋषि’ के प्रेम सम्बन्धों पर आधारित एक कहानी है। फिल्म में ‘अनमोल मल्होत्रा’ नामक पात्र विकलांगता कि रूढ़िबद्ध छवि को तोड़ता है। अनमोल एक सड़क दुर्घटना के दौरान अपने चलने की शक्ति खो देता है और व्हील चेयर पर अपना जीवन व्यतीत करने के लिए विवश हो जाता है। अनमोल मल्होत्रा के चरित्र के माध्यम से दिव्यांगजनो को किस प्रकार की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है इसपर ज़ोर दिया गया है।इस सिरीज़ के एपिसोड ‘पाँच’ में एक प्रभावशाली दृश्य है जो इस प्रकार है :-

अनमोल कम्प्युटर कोडिंग पर पाठ्यक्रम चलाने वाली एक संस्था में पढ़ता है। संस्था की कक्षा में देर से प्रवेश करने की स्थिति में उसका शिक्षक उसे अंदर आने से रोकता है। अनमोल शिक्षक से कहता है कि उसे कक्षा के अंदर आने दिया जाये क्योंकि वह शौचालय गया था। शिक्षक को अनमोल की यह बात झूठी लगती है। इसपर अनमोल सटीक शब्दवाली का इस्तेमाल करते हुए शिक्षक को बताता है कि इस संस्थान में दिव्यांगजनों के लिए मात्र एक शौचालय है,जो की संस्थान के दूसरे छोर पर स्थित है। उसमे साफ सफाई न रहने की स्थिति में उसे भी अक्सर बंद ही रखा जाता है। उसे बार-बार शौचालय न जाना पड़े अतः वो अब पानी भी कम पीने लगा है। अनमोल अपने डायलाग के अंत में कहता है कि “मुझे देर से आने के लिए तो खेद है परंतु मुझे दिव्यांग होने के लिए किसी भी प्रकार का खेद नहीं है”।फिल्म के पात्र अनमोल मल्होत्रा का ये कथन एक ऐसी स्थिति को उजागर करता है जहां दिव्यांगजनो की सामूहिक भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए उनकी सार्वजनिक स्थानों पर अभिगम्यता को बढ़ाना होगा। अनमोल मल्होत्रा फिल्म में अपनी तरफ किसी भी तरह की दयनीय दृष्टि को न सिर्फ रोकता है बल्कि उसका खंडन भी करता है।

3. अनकही- रिलीज़- अप्रैल 2021

ओटीटी प्लैटफ़ार्म-नेट्फ़्लिक्स

निर्देशक –कायोज ईरानी

पटकथा लेखक –उजमा खान

अनकही नेट्फ़्लिक्स पर प्रदर्शित हो रही अजीब दास्तान नामक की चार कहानियों में से अंतिम है। ये सभी फिल्में समाज के हाशिये पर रहने वाले समूह पर केन्द्रित हैं। अनकही विकलांगता और उससे जुड़ी चर्चाओं को सामान्य रूप से प्रस्तुत किए जाने के विमर्श पर केन्द्रित है। अनकही का शाब्दिक अर्थ है न बोले जाने वाला ,जो की इस फिल्म ने अपनी सिनेमाई स्पेस में संदर्भित भी किया है। इसी का उदाहरण है ‘नताशा’ और सुन नहीं सकने वाले(hearing impaired) फोटोग्राफर ‘कबीर’ के बीच का प्रेम प्रसंग। इस प्रेम प्रसंग में शब्द नहीं हैं परंतु ये मौन भी नहीं बल्कि इसमे संवाद सांकेतिक भाषा(साइन language) के माध्यम से स्थापित किया है। नताशा का संबंध अपने पति ‘रोहन’ से इस वजह से समाप्त होने की स्थिति तक पहुँच रहा है क्योंकि रोहन अपनी सुन न सकने वाली बेटी से संवाद स्थापित करेने के लिए सांकेतिक भाषा (sign language) नहीं सीख रहा है। इसी कारण नताशा का कबीर से एक संबंध विकसित होता है। फिल्म में कबीर को एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप में दिखाया है जो अपनी विकलांगता के कारण किसी पे निर्भर नहीं है। इस फिल्म की महत्वता इस बात में भी है कि दिव्यांग जनों से संवाद स्थापित करने की ज़िम्मेदारी गैर दिवयांग पात्रों के ऊपर है।

ये सभी फिल्में निम्नलिखित कारणों से दिव्यांगजनों की रूढ़िबद्ध छवि (स्टीरियोटाइप) को तोड़ती हैं।

  1. इन सभी फिल्मों में दिव्यांगजन आत्म निर्भर हैं वो किसी भी प्रकार से गैर दिव्यांग पात्र पर निर्भर नहीं हैं। दो फिल्मों (ग्लित्च एवं अनकही ) में दिव्यांगजन नौकरी पेशा हैं। वो सामाजिक बोझ नहीं हैं।
  2. दिव्यांगजन को सार्वजनिक स्थानों पर चित्रित किया गया है एवं उन्हे गैर दिव्यांग समूह में भागीदारी करते स्थापित किया है।
  3. सभी दिव्यांग पात्र स्वयं के प्रति दयनीय नहीं है और दूसरों से दया कि स्थिति में उन्हे ऐसा करने से रोकते हैं। इसे मिसमेच्ड में ज़्यादा रेखांकित किया गया है।
  4. इन दिव्यांग पात्रों से माध्यम से फिल्म के निर्देशक दिव्यांगजनों के लिए बाधा मुक्त बुनियादी सुविधाओं की वकालत करते हैं। इस बात को मिसमेच्ड(Mismatched) में ज़्यादा रेखांकित करके दिखाया है।
  5. दिव्यांगजनों को प्रेरक नायक, उपहास और हिंसा कि वस्तु के रूप में नहीं स्थापित किया गया है। ये इस कारण संभव हुआ क्योंकि उनकी विकलांगता को रेखांकित करके नहीं प्रस्तुत किया।
  6. दो फिल्में (ग्लित्च एवं अनकही) में दिव्यांगजनों को अपने शरीर के साथ किसी भी तरह से संघर्षरत नहीं दिखाया है।
  7. दो फिल्मों (ग्लित्च एवं अनकही) में दिव्यांगजनों और गैर दिव्यांगजनों में प्रेम संबंध को स्थापित किया गया है।
  8. न सुन पाने वाले पात्रों (hearing Impaired) से संवाद स्थापित करने की ज़िम्मेदारी का दायित्व गैर दिव्यांग पात्रों के पास है। वो उनसे (न सुन पाने वाले पात्रों से )संवाद स्थापित करने के लिए साइन लेंगवेज़(Sign Language) सीखते हैं। नई भाषा सीखने की प्रेरक शक्ति उन्हे दिव्यांग पात्र के प्रति प्रेम से प्राप्त होती है ,न की दया से।
  9. दो फिल्मों (ग्लित्च एवं अनकही) में दिव्यांग पात्रों के छोटे छोटे सुखों को रेखांकित एवं चित्रित किया है न की विकलांगता से उभरी दुर्बलता को।
  10. मिस-एन-सीन के विभिन्न तत्वों के माध्यम से दिव्यांग पात्रों को सिनेमाई स्पेस में समावेशी(inclusive) रूप से प्रस्तुत किया है न की अलग(isolated) रूप से।
  11. इन सभी फिल्मों कि कथा में विकलांगता एक अंतर्निहित विषय नहीं हैं।

निष्कर्ष जागरूकता बढ़ाने और गलत सूचनाओं को रोकने में मीडिया एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। इसके लिए ज़रूरी है कि दिव्यांगता को केंद्र में रख कर बनाई जा रही दृश्य-श्रव्य सामग्री का निर्माण कर रहे निर्देशक,लेखक एवं तकनीशियन विकलांगता और उससे जुड़ी अवधारणा के प्रति अपनी समझ को विकसित करें। भारत में लंबे समय तक हिन्दी सिनेमा के द्वारा दिव्यांग पात्रों को फ़िज़िकल मॉडल ऑफ डिसेबिलिटी के अनुरूप देखा और प्रस्तुत किया गया है। इसके विपरीत दिव्यांगजनों को सोशल मॉडल ऑफ डिसेबिलिटी के अनुरूप देखे जाने और प्रस्तुत किए जाने कि आवश्यकता है। इसके लिए फिल्म निर्माण के प्रथम चरण, पटकथा लेखन के समय ही कुछ विशेष बिन्दुओं पर ध्यान केन्द्रित करना होगा जिसके माध्यम से दिव्यांगजनों को फिल्म में एक उत्पाद कि तरह नहीं बल्कि एक आम इंसान की तरह दिखाया जा सकता है। छायांकन और संपादन के स्तर पर निर्देशक को इस बात पर ध्यान देना होगा की कहीं जाने अंजाने दिव्यांग शरीर को घूरा (gaze) तो नहीं जा रहा। पिछले कुछ वर्षों में दिव्यांगजनों पर केन्द्रित फिल्म फेस्टिवल का आयोजन भी किया जा रहा है , ऐसे आयोजनो से दर्शकों के भीतर दृश्य –श्रव्य सामग्री के माध्यम दिव्यांगता को समावेशी रूप से देखे जाने की समझ का विकास होता है। ऐसे आयोजनो को भी बढ़ावा देने की ज़रूरत है। साथ ही मीडिया एवं सिनेमा शिक्षा में दिव्यांग छात्रों की भागीदारी बढ़ाने से भविष्य में फिल्म एवं मीडिया उद्योग को समावेशी रूप प्रदान किया जा सकता है।

संदर्भ-

  1. ललित जोशी ,बॉलीवुड पाठ,नई दिल्ली,वाणी प्रकाशन,2012
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  10. Prachand Praveer,Cinema Through Rasa,New Delhi,DK Printworld,2021
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  12. https://indianexpress.com/article/entertainment/web-series/raj-and-dk-on-glitch-we-didnt-want-to-make-anything-sad-or-dreary-7108101/
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  14. https://home.kpmg/in/en/home/insights/2020/09/media-and-entertainment-report-kpmg-india-2020-year-off-script.html
  15. https://indianexpress.com/article/entertainment/opinion-entertainment/why-2020-was-a-game-changer-for-streaming-aces-like-netflix-and-amazon-prime-video-7105424/
  16. https://www.statista.com/statistics/792074/india-internet-penetration-rate/
  17. https://www.un.org/development/desa/disabilities/resources/disability-and-the-media.html

annexure 1

Questions to Reshu Nath,Writer of Glitch

1.What was your point of reference while you were developing the character of Alizah?

2.Why you choose your warrior to be non-verbal since you never emphasized on disability of the character.

3. The way the consumption of differently abled characters takes place in Hindi cinema, haven’t you thought that the audience will not be able to relate to the differently abled character that you have presented in your film?

4.Are you trying to suggest through your film that in future, with more technology in place, society will become disable friendly ?

5.How do you view OTT platforms as a medium of telling new stories, creating new characters and breaking stereotypes?

6.What is your opinion about the representation of disability in studio based Hindi cinema? How the stereotyping of disability can change?

7.Did the actors who performed in the film learned sign language?

8.Since you are the writer of the film,what were your thoughts after the final cut of the film?Was your imagination of the characters were put suitably on screen?