तेय्यम:अनुष्ठानिक कला रूप

रोहित जैन (शोधार्थी)

हिन्दी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग

केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय

कासरगोड, केरल

मो.8448509399,

मेल-rohitjainsep22@gmail.com

दक्षिण भारत के केरल राज्य को विभिन्न कला-सांस्कृतिक परंपराओं, रीति-रिवाजों और लोक अनुष्ठानों के लिए धनवान माना जाता है। यह राज्य सहस्त्र वर्षों पुरानी सांस्कृतिक विरासत को न केवल जीवित रखे हुए है वरन् वर्तमान समय में भी अपनी पारंपरिकता को उत्साह के साथ आगे बढ़ा रहा है। इसी पारंपरिकता में यहां अनेक कला रूपों का उद्भव और विकास हुआ। यहां के विभिन्न तट कला रूपों के प्रस्फुटन और विकास के साक्षी माने जाते हैं। इन कला रूपों1 को हम चार प्रमुख वर्गों में विभाजित कर समझ सकते हैं-

  • प्रदर्शन कला रूप
  • केरल की अनुष्ठानिक कला रूप
  • युद्ध कला रूप
  • केरल के लोक कला रूप

केरल की सांस्कृतिक विरासत को समेटे हुए यह विभिन्न कला रूप इस प्रदेश की अप्रतिम पहचान है। केरल के विभिन्न अनुष्ठानिक कला रूपों में उत्तरी मालाबार क्षेत्र के प्रसिद्ध कला रूप ‘तेय्यम’ अथवा ‘थेयम’ का प्रमुख स्थान है। तेय्यम लगभग 800 वर्ष पुराना एक आध्यात्मिक या पूजा कला रूप है। डॉ. सूर्या बोस के अनुसार, “दैवी या देव का तद्भव रूप है ‘तेय्यम’। यहां दैवी शक्ति का भास प्रतीत होता है।”2 वहीं व्यापक अर्थ में तेय्यम का शाब्दिक अर्थ है– ‘ईश्वर का अवतार’ इसीलिए इसे देवता का उत्सव भी कहा जाता है। नंदुल एस अपने वर्चुअल आलेख में तेय्यम के महत्व को स्पष्ट करते हुए लिखते है, “It is a ritualistic performance blending the art of dance, craft making, literature, history and the emotions of society.”3

तेय्यम उत्तरी केरल के कन्नूर, कोझिकोड, कासरगोड, नीलेश्वरम आदि जिलों का लोकप्रिय अनुष्ठानिक कला रूप है। यह सामाजिक समानता को बढ़ावा देने वाला अनुष्ठानिक उत्सव है, जिसमें सभी वर्गों और जनजातियों के लोगों को धार्मिक भागीदारी के साथ जोड़ा जाता है। तेय्यम की उत्पत्ति के संबंध में मान्यता है कि कोलाथिरी नामक राजा के शासन काल में करिवेलूर के मनक्कटानन गुरुकल नामक महान कलाकार ने तेय्यम की कुछ शैलीयां विकसित की थी। तेय्यम नृत्य की समय अवधि मलयालम माह ‘तुलाम’(अक्टूबर-नवंबर) के दसवें दिन से आरंभ होती है और मई के अंत तक समाप्त हो जाती है। तेय्यम की सामाजिकता और उसकी समय अवधि के विषय में भवानी चिरत अपनी पुस्तक में लिखती है, “The Theyyam season begins after the harvest in October and continues till April-May, ending before the onset of the monsoons.it is a time for thanksgiving and for propitiating the Gods and ancestors for the bountiful harvest.”4 तेय्यम के पीछे सामाजिक मान्यता है कि इसमें अधिकांशत: पुरुष वर्ग देवताओं का रूप धारण करते है और देवताओं को प्रसन्न करने के लिए नृत्य करते हैं इससे देवता समाज को समृद्धि और शांति प्रदान करते हैं। तेय्यम के विषय स्थानीय मिथकों और क्षेत्रीय महत्व के पात्रों की लोक कथाओं से विकसित होते हैं। इसी के साथ इसे हिंदू पौराणिक कथाओं से प्रेरित भी माना जाता है। विभिन्न समुदायों के मिथकों और विश्वासों में अंतर के चलते, तेय्यम की विभिन्न शैलियां प्रचलित हैं; जिन्हें विभिन्न समुदायों द्वारा पवित्र कुंजो तथा अन्य स्थानों पर प्रस्तुत किया जाता है। तेय्यम का प्रदर्शन वर्ष में एक बार होता है और इसे ‘कलियाट्टम’ कहते है। तेय्यम के कलाकार विभिन्न सामाजिक समुदायों से आते हैं जिनमें वण्णान, मलयन, माविलन, वेलन, चेरवन, चिंकत्तान, कोप्पालन, पुलयन, कलनाडी, पेरुमण्णान, तुलुवेलन, अंजूट्टान और मून्नूट्टान जैसे समुदाय प्रमुख हैं। प्रत्येक समुदाय द्वारा प्रस्तुत तेय्यम की नृत्य शैली, संगीत, चेहरे तथा शरीर को रंग करने के तरीके और धारण किए जाने वाले वस्त्राभूषण आदि में उनकी परंपराओं के अनुसार अंतर होता है। इस प्रकार तेय्यम के विविध रूप देखने को मिलते हैं। तेय्यम के विविध रूपों में सबसे लोकप्रिय है; मुत्तप्पन, ती चामुण्डी, कण्डाकर्णन, गुलिकन, विष्णुमूर्ति, मुच्छिलोट भगवति आदि है। इनमें से ती चामुण्डी, अत्यंत जोखिमी माना जाता है क्योंकि इस रूप में, तेय्यम आग अँगारों में नृत्य करके दैवी माहौल बनाता है। यह कला अनुष्ठान प्रकृति से गहरे तक जुड़ा हुआ है। तेय्यम के लिए उपयोग होने वाली सामग्री; शिरोभूषण से लेकर चेहरे तथा शरीर के श्रृंगार में प्रयोग होने वाले रंग अपने आस-पास की प्रकृति से ही प्राप्त किए जाते है।

तेय्यम के सबसे महत्वपूर्ण और आकर्षक भाग हैं; उसका मुखतेजुत्तु (चहरे का श्रृंगार), शिरोभूषण (मुडी) और उसकी वस्त्रसज्जा। कलाकार की वेषभूषा, सजावटी और रचनात्मक होती है। ‘मुखतेजुत्तु’ और ‘मुडी’ तेय्यम के ऐसे दो भाग है जो इसे विश्वनीयता प्रदान करते है। यह दोनों बहुत ही बारीक और कठिन कलाएं है। तेय्यम में चेहरे पर होने वाली चित्रकारी को ‘मुखतेजुत्तु’ नाम से जाना जाता है। चेहरे का श्रृंगार प्राकृतिक सामग्री जैसे चंदन, हल्दी, कुमकुम, चावल का आटा, पत्ती के अर्क आदि के द्वारा किया जाता है। मुखतेजुत्तु की सूक्ष्म बारीक चित्रकारी और रचनात्मकता के माध्यम से ही तेय्यम को विशिष्ट भावनात्मक अभिव्यक्ति मिलती है। के.के.एन.कुनीप अपने लेख में मुखतेजुत्तु के विभिन्‍न प्रकारों को बताते हुए लिखते है कि “There are different patterns of face painting. Some of these patterns are called Vairudalum, Kattaram, Kozhipuspam, Kotumpurikam, and Prakkezhuthu. Mostly primary colours and secondary colours like black and white applied with con trast for face painting. It had effected certain stylization also.”5 मुखतेजुत्तु में चेहरे पर चित्रकारी देवताओं के गुणों के अनुरूप होती है, जिससे कलाकार को देवी-देवताओं जैसे पौराणिक आकृतियों की भव्यता को व्यक्त करने में मदद मिलती है। शिरोभूषण अर्थात् मुडी ; यह वह हिस्सा है जो सिर पर पहना जाता है। तेय्यम कलाकारों के शिरोभूषण को ‘मुडी’ के नाम से जाना जाता है। इसे हम मुखौटा के अर्थ में समझ सकते है। मुडी तेय्यम के सबसे महत्वपूर्ण भागों में से एक है और यह एक विशेष क्षेत्र के हस्तशिल्प का प्रतिनिधित्व करता है। तेय्यम में मुडी की व्याख्या ‘ईश्वरीय अंश’ के रूप में की जाती है। यह अत्यंत सजावटी होने के कारण कभी-कभी भयंकर दिखाई देती है। नंदुल एस अपने ब्लाॅग में मुडी के महत्व को स्पष्ट करते हुए लिखते है कि, “It is belived that the god reincarnates into the thyyakaran when he wears the theyyam mudi and sees himself in the mirror.”6 तेय्यम की मुडी के विभिन्न रूप होते है। इसकी ऊँचाई लगभग आधा फिट से लेकर बीस फिट के बीच होती है। इसकी संरचना अत्यंत जटिल और विस्तृत होती है; जिसे बनाने में बहुत अधिक श्रम और समय लगता है। मुडी का निर्माण मुख्य रूप से ताड़ के पत्तों, सुपारी के पेड़ों, फूलों, रेशमी कपड़ों, धातु और अन्य प्राकृतिक सामग्री से होता है। मुडी के निर्माण का प्रमुख प्राकृतिक घटक नारियल के पत्ते होते है। विभिन्न प्रकार की बारीक चित्रकारी इन्हीं पत्तों पर की जाती है; नारियल के पत्तों पर की जाने वाली इस चित्रकारी को ‘कुरूथोला चरथु’ कहा जाता है। इस प्रकार यह चित्रकारी किए हुए पत्ते मुडी के दृश्य भाग का स्वरूप निर्मित करते है। तेय्यम के मुडी निर्माण में प्रयुक्त होने वाले आभूषणों का निर्माण नारियल और सुपारी के पेड़ों की लकड़ियों से होता है। मुडी के निर्माण में पारंपरिक उपकरण जैसे- उली, वल्ममट्टी, अरनी, अलावाट्टोम आदि का उपयोग किया जाता है। तेय्यम मुडी के निर्माण की कला को रीति-रिवाजों और परंपराओं के रूप में संरक्षित किया जाता है; जिससे एक ओर कला का विकास होता है तो वहीं दूसरी ओर इसे मशीनी युग के बढ़ते आधुनिकीकरण से भी बचाया जाता है। के.के.एन.कुनीप अपने लेख में इस संबंध में लिखते है कि, “The indigenous Teyyam cult under the influence of the great classical Indian tradition incorporated new ideals and legends. How ever, its form and content did not change very much.”7 तेय्यम मुडी के विभिन्न भागों का निर्माण व्यापक स्तर पर नहीं होता है बल्कि अधिकांशतः मुडी का निर्माण सात पेरूवन्नुम (वह समुदाय जो तेय्यम की मुडी का निर्माण करता है) और चार आश्रयी (बढ़ई) मिलकर करते है। तेय्यम में इन संख्याओं का क्या अर्थ है, इसके विषय में जानकारी नहीं मिली है लेकिन कुछ स्रोतों से ज्ञात हुआ कि तेय्यम मुडी के निर्माण में कलाकार कम से कम सामग्री के उपयोग द्वारा बेहतर से बेहतर कार्य करने की कोशिश करते है।

मुडी की संरचना में ऊपरी हिस्से को ‘कलशा’ कहा जाता है, जो तेय्यम कलाकार के अनुसार लंबा या छोटा हो सकता है। मुडी का यह हिस्सा दिव्य भाग की तरह प्रतीत होता है। मुडी के अन्य भागों में ‘कर्णपदम’ (कान की संरचना) और आधार संरचना की सजावट शामिल है। इसी के साथ मुडी को लाल रेशमी कपड़े से चारों ओर से ढका जाता है, जिससे तैयार की गई आधार संरचना को सुदृढ़ किया जा सकें। मुडी को सिर पर रखने की प्रक्रिया को ‘मुडियेट्टु’ कहा जाता है। मुडियेट्टु के उपरांत मान्यता है कि तेय्यम चरित्र, दैवीय शरीर में प्रवेश कर जाता है और इसे परकाया प्रवेश की तरह देखा जाता है। तेय्यम मुडी को एक दिव्य इकाई माना जाता है। तेय्यम अनुष्ठान पूर्ण होने के उपरांत ‘कलियाट्टम’ आशीर्वाद के रूप में अपने मुडी व श्रृंगार से हल्दी लगे हुए फूल और पत्ते आम लोगों को देते है। वह एक तरह से दिव्य मुडी के हिस्सों को लोगों के बीच ही वितरित कर देते है और आम-जन इन्हें समृद्धि का प्रतीक मानकर ग्रहण करते है।

पहले के समय में मुडी का निर्माण कुछ पारंपरिक लोगों द्वारा ही किया जाता था; यह पारंपरिक लोग पूर्ण अनुष्ठानिक ढंग से मुडी को प्राकृतिक अवयवों द्वारा निर्मित करते थे। लेकिन समय के साथ बदलते इस मशीनी युग ने दिव्य अनुष्ठानिक कला रूप को प्रभावित किया है और आजकल के युवा प्राकृतिक के बनिस्बत मशीन-निर्मित अवयवों को मुडी के निर्माण में प्रयोग करने लगे है। मुडी शिल्प के प्रमुख केंद्र कन्नूर जिले के पयन्नूर, अंडलुर आदि स्थान है। शिरोभूषण या मुडी को इनकी विविधता के आधार पर कतिपय विशेष नामों से पहचाना जाता है; उनमें ओलमुडी, इलमुडी, पालमुडी, तोप्पि चमयम, वट्टामुडी, नीलमुडी, पीलीमुडी, पुरत्तट्टु, ओमकारा मुडी आदि प्रमुख है। तेय्यम के रूप और वस्त्र सज्जा की विविधता सीधे-सीधे यहां की क्षेत्रीय मूर्ति कला से प्रभावित है।

तेय्यम के प्रदर्शन में प्रकृति और प्राकृतिक तत्वों का बहुत अधिक महत्व है। प्रदर्शन से संबंधित विभिन्‍न प्रकार के कार्यों और उद्देश्यों की पूर्ति के लिए केवल प्राकृतिक सामग्री का उपयोग ही परंपरा से चला आ रहा है। जैसे-मुडी आदि के निर्माण के समय जो टेंट बनाया जाता है, वह ताड़ के पत्तों का होता है। तेय्यम प्रदर्शन के समय सभी नर्तकों द्वारा एक साथ अनुष्ठान गीत का पाठ किया जाता है और मंदिर के नाम का उल्लेख किया जाता है। पृष्ठभूमि में लोक संगीत, वाद्ययंत्र जैसे ‘चेंडा’, ‘टुटी’, ‘कुज़ल’ और ‘वेक्नी’ लय में बजाए जाते हैं। इसी संबंध में विद्वान के.के.एन.कुनीप अपने लेख में लिखते है, “Teyyam performance is a combination of playing of musical instruments, vocal recitation, dance and strange make-up and costumes. The Teyyam ritualistic observations make it one of the fascinating theatrical arts of India.”8 तेय्यम प्रदर्शन से संबंधित प्रत्येक कला में निपुणता हासिल करने में लगभग आठ से दस वर्षों की अवधि लगती है। तेय्यम नृत्य से संबंधित शिक्षण-प्रशिक्षण आज भी गुरुकुला माॅडल में दिया जाता है, इस प्रशिक्षण अवधि के दौरान प्रशिक्षु ढोल वादक और मुखतेज्जु कला का भी प्रशिक्षण प्राप्त करता है।

तेय्यम का उद्देश्य अशिक्षित जनता के बीच हिन्दू पौराणिक कथाओं और विश्वासों का प्रचार करना है। तेय्यम को लोकप्रिय अनुष्ठानिक कला रूप बनाने में उत्तरी केरल के लोगों द्वारा इसका निरंतर प्रदर्शन और संरक्षण मददगार रहा है। के.के.एन.कुनीप अपने लेख में इस संबंध में लिखते है कि, “the folk theatre like the Teyyam is mainly intended to propagate religion, Hindu mythology and belief even among the uneducated masses. There the art form is only a medium of communication and cult centre where the art form is performed is a sacred centre of social organisation. The continued patronage of the masses makes it a popular art.”9

आज के समय में हमें जरुरत है कि हम इस पारंपरिक सांस्कृतिक दिव्य अनुष्ठानिक कला नृत्य को, उसी पारंपरिक परिचय के साथ जाने; जिसे हमारे पूर्वज हजारों वर्षों से हमारे लिए संरक्षित करते आए है। तेय्यम के विभिन्‍न अवयवों को निर्मित करने वाले कलाकार ‘टी.वी. प्रभाकरन.’ अपने एक साक्षात्कार में कहते है, “Many skill sets associated with this craft are disappearing, unfortunately. We have only very fewer people in this profession now.”10 यह परंपराएं और संस्कृतियां हमारे इतिहास की जीवित विरासत है; इन्हें समृद्ध करना ही हमारा कर्तव्य है

संदर्भ ग्रंथ सूची–

1. https://www.keralatourism.org/hindi/artforms/ केरल के कला रूप

2. उत्तरी केरल के पुलयर और तेय्यम- डॉ. सूर्या बोस; समन्वय दक्षिण, अप्रैल-जून 2020 ; पृष्ठ-97

3.https://spaindustrialdesign.wordpress.com/2020/12/16/theyyam-mudi-craft/

4. Theyyam: The Other Gods- Bhawani Cheerath; Stark World Publishing Private Limited, Page- 80

5. A Panorama of Indian Culture- edited by K. K. Kusuman; (Teyyam-A Vanishing Ritual Dance of Kerala- K. K. N. Kunip); Mittal Publication,New Delhi; Page- 129

6.https://spaindustrialdesign.wordpress.com/2020/12/16/theyyam-mudi-craft/

7. A Panorama of Indian Culture- edited by K. K. Kusuman; (Teyyam-A Vanishing Ritual Dance of Kerala- K. K. N. Kunip); Mittal Publication,New Delhi; Page- 126

8. A Panorama of Indian Culture- edited by K. K. Kusuman; (Teyyam-A Vanishing Ritual Dance of Kerala- K. K. N. Kunip); Mittal Publication,New Delhi; Page- 130

9. A Panorama of Indian Culture- edited by K. K. Kusuman; (Teyyam-A Vanishing Ritual Dance of Kerala- K. K. N. Kunip); Mittal Publication,New Delhi; Page- 134

10.https://medium.com/@tyndistravelindia/crafting-the-divine-accessories-37f09e5da8b8

 

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