प्रकृति युद्धरत है. : प्रेम और संघर्ष के बीच स्त्री

डॉ. कर्मानंद आर्य
सहायक प्राध्यापक
भारतीय भाषा केंद्र, हिंदी
दक्षिण बिहार केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गया, बिहार
ईमेल : karmanand@cub.ac.in
मो. : 8863093492

शोध सार :

रमणिका गुप्ता हमारे समय और संदर्भ की एक ऐसी रचनाकार हैं जिन्होंने दलित, आदिवासी और स्त्री विमर्श को एक नई जमीन दी है. उन्होंने आजीवन उस कौम को सशक्त करने का काम किया जो किसी भी तरह के उत्पीड़न का शिकार रहे. अपनी पत्रिका युद्धरत आम आदमीके माध्यम से उन्होंने हाशिये पर पड़े हुए एक बड़े वर्ग को मुख्यधारा बना दिया जो सदियों से दरदर की ठोकरें खा रहा था. बाबा साहब आंबेडकर के रास्ते पर चलने वाले रचनाकारों के बीच वे इन विमर्शों की सबसे बड़ी पैरोकार रही हैं. सामंती पृष्ठभूमि से आने वाला उनका स्वयं का जीवन जीवटता का एक सशक्त उदाहरण है. एक सामंती पितृसत्तात्मक समाज में पैदा होने वाली लड़की ने आखिर विद्रोह का रास्ता चुना और उसके लिए आजीवन संघर्ष करती रहीं, आज तक उनके जीवन का यही पाथेय रहायहाँ हमने कविता में उनके अवदान और प्रकृति युद्धरत हैसे संदर्भित कविताओं की विवेचना प्रस्तुत की है.

बीज शब्द :

आदिवासी विमर्श, पितृसत्ता, प्रकृति, सामंतवाद, विद्रोह

 

शोध विस्तार

रमणिका गुप्ता हमारे समय की ऐसी महत्वपूर्ण कवयित्री हैं जिन्होंने जीवन के बहुत लंबे वर्षों में एक अनुभव पाया है, वह है जीवन का अनुभव. गरीब मजदूरों स्त्रियों के साथ काम करते हुए उनका  व्यापक अनुभव कविता में उभरकर सबके सामने आता है.  यह बात रमणिका गुप्ता बहुत अच्छी तरह से जानती हैं कि जिस समाज में लड़कियों को लड़की होने का बोध जन्म घुट्टी की तरह पिलाया जाता है उसी समाज में एक नई परिभाषा गढ़ने के लिए जी जान से लगना ही पड़ेगा. यही कारण है कि उन्होंने अपनी आत्मकथा को खुदसर होना यानी कि आपहुदरी होना स्वीकार किया. जीवन का यही तेवर उनकी कविता में भी दिखाई देता है.

रमणिका गुप्ता को बचपन से ही कविता लिखने का शौक था. यह संस्कार उन्हें अपने पिता से विरासत में मिला था. रमणिका अपने एक साक्षात्कार में कहती हैं : लिखने की विधाएं तो व्यक्ति में ही अन्तर्निहित होती हैं. किसी में कम किसी में ज्यादा. साहित्य की साधारणतः तीन विधाएं हैं-कविता, नाटक और किस्सा गोई. ये सभी में होती है किन्तु जो लोग अधिक संवेदनशील या भावुक होते हैं उनके भीतर कविता आती है. वे कविता करना सीखते नहीं’[1].

रमणिका गुप्ता के कुल सोलह कविता संग्रह प्रकाशित हैं.  ‘गीत-अगीत-1962’ जैसे अपने पहले कविता संग्रह के साथ ‘खूंटे-1980’, ‘आम आदमी के लिए-1982’ ‘प्रकृति युद्धरत है-1988’ ‘कैसे करोगे बंटवारा इतिहास का-1994’ ‘विज्ञापन बनता कवि1996’ ‘आदमी से आदमी तक’ ‘भला मैं कैसे मरती’ ‘अब मुरख नहीं बनेगे हम-1997’ ‘तुम कौन’ ‘मैं आजाद हुई हूँ’ ‘टिल टिल नूतन’ तीनों 1999 में और ‘भीड़ सत्र में चलने लगी-2000 तथा ‘पातियाँ प्रेम की-2006 में प्रकाशित हुआ था.

’अपने संग्रह ‘प्रकृति युद्धरत है’ में रमणिका गुप्ता अपने मंतव्यों को स्पष्ट करती हैं. उन्हीं के शब्दों में कहें तो ‘मेरे अपने संयुक्त संकलनों में बिखरी अथवा मेरी डायरी के पन्नों पर छितरायी भूली बिसरी मेरी रचनाओं का एक गुच्छा है. स्वतः उग आए बांसों का झुरमुट है जो हर साल बढ़ता है पर विरले ही फूलता है. कहते हैं बस जब फूलता है तो मर जाता है. क्रूर समय, वातावरण, बदलते मौसम के थपेड़े खाता हर टक्कर, हर संघर्ष की गांठे बांधता, हर पोर पर नागफन सा सर्राटा, सीधा लहराता, युद्ध भूमि में तना रहता है. बरसों वह झुकता नहीं झूमता है इसीलिए टूटता नहीं. अपनी जड़ों में उतनी ही टेढ़ी मेढ़ी आकृतियां बनाता रचता रहता है. कलात्मक आकार, वह सीधा तना बांस. कभी भूल से हंस दिया तो कभी ना मुरझाने वाले बहुत ही सुंदर फूलों से लहरा उठता है. उन हँसी के फूलों को सदा के लिए लिख जाता है वह प्रकृति का नाम जो सतत युद्धरत है. उसकी जड़ों में छिपी अनंत आकृतियाँ मरती नहीं. प्रकृति की प्रदर्शनी में जड़ी रहती हैं. बिना योजना के एक तरतीब में सजी रहती हैं, और करील का सृजन निर्माण करती रहती हैं सदा’[2]. हम रमणिका के इन्हीं मंतव्यों के सहारे उनकी भावनाओं को ठीक से समझ सकते हैं. यही उनकी कविता और रचनात्मकता की पृष्ठभूमि भी है.

रमणिका गुप्ता का जीवन ऐसे ही नहीं बना था.  वह जिस दशक में पैदा हुई,  जिस दशक में उनका बचपन बीता, जिसमें जवानी आयी उसमें औरतों की स्थिति अच्छी नहीं थी. उन दिनों औरत को पुरुष की परछाई माना जाता था. स्त्रियों की अलग से कोई सामाजिक राजनीतिक पहचान नहीं थी.  बस वह किसी की बेटी, पत्नी, बहन या मां के रूप में ही पहचानी जाती थी. उस समय स्त्री की अपनी छवि का निर्माण उसे परम्परा से बेदखल करना था. वह सामंती समाज के आँखों की किरकिरी बन जाती थी. उसपर मनु स्मृति की सारी आचार संहिताएँ लाद दी जाती थी. स्त्री के शरीर पर पुरुष का एकाधिकार था और कई मायनों में स्त्री को पशुवत जिन्दगी जीने पर मजबूर कर दिया जाता था.

यह बात बहुत देर में स्पष्ट हुई कि स्त्री पुरुष का फर्क शारीरिक है. किंतु इन दोनों की अस्मिता का निर्माण और उनकी क्षमताओं अक्षमताओं की पहचान सामाजिक. सांस्कृतिक रूपों की पहचान का आधार शरीर नहीं है बल्कि उनकी ज्ञान और विवेक है यह स्वीकार करने में भारतीय समाज को अभी भी कई दशक लगेंगे. कोई व्यक्ति स्त्री है या पुरुष है, यह उसके स्वयम की निर्मिति नहीं है. लिंग प्राकृतिक है किंतु उसके लिंग के रूप में पहचान को सांस्कृतिक कारकों के माध्यम से निर्मित किया जाता है. उसे निर्मित करते हैं परिवेश और संस्कार.  संस्कारों के बहाने स्त्री को अपनी पहचान मिलती है. समाज में  पुरुष संदर्भ के कारण ही उसे पत्नी मां बहन बेटी या रखैल का दर्जा मिलता है. इसके अलावा उसकी अस्मिता को पहचानने का अगर कोई और हमारे सामने आता है तो समाज आज भी उस रूप में स्त्री को पहचानने से इंकार करता है.  स्त्री की बनायीं हुई इसी छवि के खिलाफ रमणिका गुप्ता ने अपनी कविताओं को प्रतिरोध के तौर पर रखा है. वह अपनी कविताओं में स्त्री की ऐसी छवि निर्मित करती हैं जो स्वयं प्रगल्भा है. आज किसी की रखैल, डसी नहीं बल्कि स्वयं योशिता नारी है.

रमणिका गुप्ता ने अपने साहित्य में उस परंपरावादी नारी की छवि को तोड़ दिया और उसे नकार कर आगे निकल पड़ी.  राजनीतिक एवं सामाजिक जीवन में रमणिका जी को हर तरह के पुरुषों से एवं उनकी भिन्न-भिन्न तरह की मानसिकता से रूबरू होना पड़ा. यह बात सार्वभौमिक सत्य है कि जब भी कोई पुरुष किसी औरत को देखता है तो वह उसकी उन्मुक्त का तथा उसके वर्चस्व को स्वीकार नहीं कर पाता पुरुष औरत को उसी हालत में बर्दाश्त करता है जब उसे यकीन हो जाए कि वह पूरी तरह से उसी पर आश्रित है और खुद कोई निर्णय नहीं ले सकते हैं.  या फिर वह स्वयं उस औरत से डरने लगे. स्त्री-पुरुष संबंधों के मनोविज्ञान प्रकाश डालते हुए रमणिका जी कहती हैं कि पुरुष को ऐसा लगता है कि स्त्रियों के पास उसके सामान गुणों के अतिरिक्त आकर्षित और प्रभावित करने का गुण भी होता है. पुरुषों को हमेशा सताता रहता है कि अगर उसके क्षेत्र में कोई सशक्त महिला आ गई तो उसके अस्तित्व को खतरा हो जाएगा. अपने से ज्यादा कामयाबी स्त्रियों से करने लगता है. रमणिका जी की कविताओं में ऐसी ही बेबाक स्त्री छवि की निर्मिति मिलती है. जैसा कि रमणिका गुप्ता अपनी कविता में लिखती हैं :

 

मैं

मैंने जब भी

जिधर द्वार खटखटाया

उसे बंद पाया

कविता के अंतर पटों पर दस्तक दी

एकाएक द्वार खुला

कविता झांकी

किंतु एक क्षीण फीकी मुस्कान से

मुंह मोड़कर

उसने द्वार बंद कर लिया

शायद मैं अभी इस योग्य नहीं कि

वहां तक पहुंच पाऊं[3]

 

रमणिका गुप्ता जानती हैं कि जीवन में जहां कांटे हैं वहां पर फूल भी हैं लेकिन वह ना तो कांटों की परवाह करती हैं ना तो फूलों वाली दुनिया ही चाहती हैं. वह निरंतर कांटे से लड़ती रहती हैं और जीवन के फूल बिनती रहती हैं. उसी तरह जिस राह पर प्रकृति अपने सारे कामों का निर्वाह करती है. रमणिका की विशेषता यह भी है कि वह राजनीतिक रास्ते को अपना बनाती हैं और उसी से हौसला लेती हैं. और एक समय आता है जब हौसले के साथ लेकर वह राजनीति का चाणक्य बन उभरती हैं. लेकिन चाणक्य बनना उन्हें बिल्कुल भी आसान नहीं होता, उनका रास्ता संघर्ष से भरा रहता है.

दुनिया का चाहे कोई भी मनुष्य हो वह धर्म सत्ता से कभी दूर नहीं रह पाया और उस धर्म सत्ता ने उसे गुलाम बनाया है. धार्मिक गुलामी चाहे जिस स्तर की हो मनुष्य उससे परेशान ही रहा है. सम्भव है उसे क्षणभर को आराम तो मिला लेकिन उस आराम से उसको कोई तृप्ति नहीं मिली. रमणिका गुप्ता यह तथ्य बहुत अच्छी तरह से जानती हैं कि जब तक धर्म सत्ता है, ईश्वर है और धर्म सत्ता और ईश्वर के बीच काम करने वाले दलाल हैं तब तक मनुष्यों का भला नहीं ही हो सकता. धर्म सत्ता आम आदमी के भीतर भय  भरकर उसे साधन हीन बनाने का काम करती है. रमणिका गुप्ता ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण कविता लिखी है जिसका शीर्षक है ‘खुदा’.  ‘खुदा’ कविता में वह प्राकृतिक शक्तियों का, मनुष्य की आस्थाओं का जिक्र करती हुई इस सवाल तक पहुंचती हैं कि आखिर खुदा पर सवाल कब उठाया जाएगा ? और उस खुदा के विरुद्ध विद्रोह कब होगा जिससे लोग अभी तक डरे हुए हैं. वे जानती हैं कि विज्ञान सम्मत इस दुनिया में या तो खुदा रह सकता है या तर्क.

 

जिस ने

खुदा को गढ़ा

अपने को उसकी औलाद मानकर

बन्धुआ सा सृष्टि का खेत

धर्म के हलों से जोत कर

दुनिया की लहलहाती फसल को

भाग्य के महाजन को सौंपकर

आत्मा की बहियों में फंसता चला गया

और फँसता चला जा रहा हूँ

ना जाने

खुदा के खिलाफ का विद्रोह होगा ??[4]

 

रमणिका भावुक संवेदना की कवयित्री हैं. प्रेम का अव्यक्त रूप उनकी कविता में मुखर होकर आता है. उनकी कविता में संयोग से अधिक वियोग के चित्र दिखाई देते हैं. उनकी कविताओं की संवेदना प्रस्तुति बहुत मार्मिक है. रमणिका का वियोग कृष्ण की गोपियों का वियोग नहीं है. बल्कि अपनी चरम सत्ता को पाने का, प्रकट करने का एक सशक्त माध्यम भी है. वह एक प्रेमिका की तरह अपने प्रियतम को हमेशा ही अपने पास रखना चाहती हैं. वह उसे महसूस करना चाहती हैं और उसकी यादों में जीना चाहती हैं. प्रेम का भावुकपन इस संग्रह की सारी कविताओं में मुखर होकर आता है. ‘जब तेरी याद आ गई’ कविता में उनका प्रेम कुछ इस रूप में व्यक्त हुआ है :

 

आज एकाएक तेरी याद आई

व्यस्त घड़ी सी जिंदगी की 

क्षण-क्षण पार करती सुई

रुक गई –

अनवरत चलने वाली हवा की

गति रुक गई

समय थम गया

मेरी आंखों की झील की गहराइयों में

आकाश झुकना भूल गया

बादल उड़ना भूल गया

धरती अपनी धुरी पर

खड़ी हो गई

गाड़ी के पहिए में ब्रेक लग गया

सोचो की चक्की जम गई

रास्ते रुक गए, आवाजे थम गई

 जब तेरी याद आई[5]

            इस कविता में रमणिका गुप्ता इस बात को रेखांकित करती हैं कि जब प्रियतम की आंखों में प्रेमी होता है या प्रेमिका की  आंखों में उसका प्रियतम होता है तो दूसरी कोई सत्ता उनके आसपास फटकती भी नहीं है.  दुनिया की सारी चीजें स्थिर हो जाती हैं, कोई हलचल नहीं होती है. दुनिया रुक जाती है और उसी रुकने के अंतराल में महसूस होता है प्रेम का असली राग. इस अक्स की कई कवितायेँ इस संग्रह की ताकीद करती हैं. आजीवन प्रेम की तलाश में भटकती रमणिका ने अंततः जाना कि देह कहीं अधिक है, प्रेम कहीं थोड़ा कम. पर अपनी कविताओं में उन्होंने स्वयं को ‘आप हुदरी’ ही बनाया, ‘अन्या से अनन्या’ नहीं.

‘बयाना’ रमणिका गुप्ता की एक महत्वपूर्ण कविता है. भारतीय समाज में ‘बयाना’ रोजमर्रा की जिंदगी में दिए जाने वाले अग्रिम के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है. इसे पेशगी भी कह सकते हैं. लेकिन जीवन में जब यह बयाना आ जाता है तो उसकी साहित्यिक निर्मिती कुछ और होती है. बयाना कविता में रमणिका गुप्ता भावनाओं की मंडी में शब्दों की ‘बाछी’ के लिए बयाना देने की बात करती हैं. अपनी कविता में लिखती हैं :

भावनाओं की मंडी में शब्दों ने

कविता की बाछी के लिए

बयाना दे दिया

अर्थों की थैली में भर प्रेरणा के हाथ

सौदा पक्का हो गया !

और

कोलनो, डैशों, विरामों से कसी

पंक्तियों की सिकुड़ती फैली

छोटी लंबी रस्सी

थमा दी हाथ में !

कविता बिक गई

उसके गले में बंधी

लय की घंटियां खनक उठी.[6]

 वस्तुत यहां एक बछिया के रूप में एक स्त्री के जीवन का मार्मिक चित्रण किया गया है. वह जिस खूटे से बांध दी जाती है. जीवन भर उसका निर्वाह करने की कोशिश करती है और इसी जीवन निर्वाह को जीते हुए वह तथा अपने जीवन के रस को खत्म कर लेती है. उसके इतर वह नहीं सोच पाती. रमणिका गुप्ता ने इस कविता में जिस तरह के बिम्बों का प्रयोग किया है वह अपने आप में बहुत ही अद्भुत है. कविता का शीर्षक भी जबरदस्त है.

‘महक’ नाम से रमणिका गुप्ता ने बहुत ही संभावनापूर्ण और मार्मिक कविता लिखी थी. इस कविता में प्रेम की गंध जीवन की गंध बनकर पाठकों के सम्मुख आती है. यादों का एक झोंका अपनी तीखी गंध के साथ आता है और सब कुछ समेटने की कोशिश करता है. कवयित्री इन्हीं तीखी गंधों में जीने की गुजारिश करती हुई लिखती हैं :

 

घर की दीवारे लीप दो

ताकि तुम्हारी गंध खत्म हो जाए !

किसी जंगली फूल की महक से ही

भर जाने दो घर

ताकि

खालीपन का एहसास ना खटके

एकाकीपन दूर हो जाए!

कितनी गंधों को उठाकर

लाती रही है हवा

जीवन के कमरे में

और घोलती रही है रंगों का मिश्रण

गंधों से सींचकर

पर कभी-कभी

मौलसिरी की गंध

तेज गंध

घेर लेती थी जकड़ लेती थी

वह आज खत्म हो गई

पुटूस की गंध ही भर जाने दो बस

सपनों में

यह जंगली महक ही

मेरी अपनी रहेगी

क्योंकि वह भी

मेरी तरह अकेली है[7]

 

 

‘घरौंदा’ मिट्टी से बनाया जाने वाला बच्चों का ऐसा घर होता है जो बच्चे इस दुनिया में अपने घर की कल्पना करते हुए बनाते हैं. यह उनके जीवन की पहली निर्मिति भी होती है. घरौंदा एक ऐसा घर होता है जिसका स्थाई अस्तित्व नहीं होता वह कल्पना ओं का एक मंजर भर होता है. पर कभी कभी यह घरौंदा बनाते बनाते पूरी जिन्दगी बीत जाती है. और यह करौंदा जब एक स्त्री बनाती है तो उसमें वह अपनी सारी कल्पनाएं उड़ेल कर रख देती है. उसका अपना संसार कैसा होगा, उसका पति कैसा होगा, उसकी सास कैसी होगी, उसके आसपास का वातावरण कैसा होगा, पति उसे कितना आजादी देगा, वह अपने बच्चों से कितना सुख पाएगी ऐसी अनंत कल्पनाओं में स्त्री हमेशा खोई रहती है.  और जब वही स्त्री कविता के क्षेत्र में उतरती है तो वह ‘घरौंदा’ उसकी कविता का वस्तु बनकर उभरता है. रमणिका गुप्ता भी इसी तरह की कल्पना करते हैं कि उसका अपना एक कमरा होगा जहां पर वह अपने निजी जीवन को जी पाएगी. उस घरौंदे में किसी और व्यक्ति का किसी बाहरी व्यक्ति का कोई प्रवेश नहीं होगा. वे अपनी कविता ‘घरौंदे’ में लिखती हैं :

मैं अपने घर में सिमट गई हूँ

फडफडाने लगी थी

पर फैलाने लगी थी

उड़ने ही वाली थी

मुक्ताकाश में डैने खोल

हवाओं को पीने लगी थी

कि दूर आकाश में

झपट्टा मारता हुआ बाज नजर आ गया

और मैं अपना अस्तित्व बचाने

अहं को सीने से चिपकाए

फिर अपने घरौंदे में

आ दुबकी

यहां तो शायद नहीं पहुंच पाएगा बाज [8]

वस्तुतः यह कविता पितृसत्तात्मक समाज से एक स्त्री को बचाए रखने का संकल्प है. एक स्त्री जहां भी सोचती है. कि वह सुरक्षित है, वस्तुतः सुरक्षित नहीं होती है. चाहे वह जेंडर का घेरा हो, चाहे सेक्सुअलिटी का हो, और चाहे उसके सेक्स का घेरा हो.  उसे चारों तरफ से घेर कर रखा जाता है. रमणिका गुप्ता की इस कविता में एक ऐसी स्त्री का एक उभरता है जो सामंती और पुरुषवादी पितृसत्तात्मक समाज में अपना स्थान बनाने के लिए निरंतर संघर्ष करती है. संघर्ष ही नहीं करती पितृसत्तात्मक समाज से लोहा भी लेती रहती है. वह जहां भी जाती है उसके लिए दरवाजे बंद मिलते हैं. उसे हर जगह अवरोधों  का सामना करना पड़ता है. लेकिन वह हार नहीं मानती है. वह पत्थर पर प्रहार करती है. और प्रहार करने के साथ-साथ जो चिंगारी निकलती है उस चिंगारी को उस चिंगारी की मशाल लेकर वह आगे बढ़ती चली जाती है. वह हर समय आत्मविश्लेषण की प्रक्रिया में खुद को ढालती है.

स्त्री जब किसी को मन से स्वीकार करती है तो उसे वह अपनी रूह से अधिक महत्व देती है. यह बात पुरुष पर  उतनी लागू नहीं होती है. स्त्री चाहती है संपूर्ण समर्पण और वह संपूर्ण समर्पण देती भी है. वह अपने मन को कभी दो चिता नहीं रहने देती. रमणिका गुप्ता की कविताएं प्रेम में पगी हुई कविताएं हैं. जहां पर स्त्री अपना सब खोकर प्रियतम में अपने आप को आहुति की तरह प्रस्तुत करती है. एक कविता रमणिका गुप्ता ने लिखी है, शीर्षक है :  ‘सीकर’.  यह प्रेम प्रधान कविता है और प्रेम की सारी संभावनाओं को तलाश कर वह इस कविता में मक्खन की तरह चिकनाहट ले आती हैं. रमणिका गुप्ता अपने प्रियतम के चेहरे पर किसी तरह की शिकन नहीं देखना चाहती और वह महसूस करती हैं कि जब कोई शिकन उनके प्रियतम के चेहरे पर होती है तो  उसे उसे जल्द ही पोंछ देना चाहती हैं. यह एक स्त्री की स्वाभाविक चिंता से जुड़ा हुआ संवेदन है.

 

मुक्ति की आकांक्षा और कल्पना से भरा हुआ मनुष्य दुनिया का सुंदरतम मनुष्य होता है. यह इच्छा और आकांक्षा उसे एक ऐसे जीवन की तरफ लेकर जाती है जो उसका अपना जीवन हो. स्त्री आजीवन बंधनों से बंधी रहती है और इन्हीं बंधनों से बंधते हुए वह हमेशा चाहती है कि वह एक चिड़िया की तरह मुक्त हो. उसका अपना आकाश हो जहां पर डैने फैला कर उड़ सके. वह अपनी इच्छित फलों को प्राप्त कर सके. वह अपनी इच्छाओं को पूरी कर सके. प्रतिबंधों को तोड़ कर एक अनंत आकाश में विचरण कर सके. यह विचरण एक स्त्री के लिए बहुत जरूरी भी है. कवयित्री रमणिका गुप्ता अपने भावों को अपनी कविता ‘मैं  आजाद हुई हूं’ में कुछ इस प्रकार से रखती हैं :

खिड़कियां खोल दो

शीशों के रंग भी मिटा दो

पर्दे हटा दो

हवा आने दो

धूप भर जाने दो

दरवाजा खुल जाने दो

मैं आजाद हुई हूं

सूरज आ गया है मेरे कमरे में

अंधेरा मेरे पलंग के नीचे छिपते-छिपते

पकड़ा गया है

और

धक्के लगाकर बाहर कर दिया गया है उसे

धूप से तार तार हो गया है वह

मेरे बिस्तर की चादर बहुत मुचक गई है

बदल दो उसे

मेरी मुक्ति की स्वागत में

अकेलेपन के अभिनंदन में

मैं आजाद हुई हूं

गुलाब की लताएं जो डर से बाहर लड़की थी

खिड़की के छज्जे के ऊपर

उचक उचक कर खिड़की के

भीतर देखने की कोशिश में है

कुछ बदल गया है

सहमे सहमे हवा के झोंके

जो बंद खिड़कियों से टकराकर

लौट जाते थे

अब कमरे के अंदर झांक कर रहे हैं

हां डरो मत आओ ना

चले आओ

तुम अब तुम पर कोई खिड़कियां बंद करने वाला नहीं

अब मैं अपने वस में हूं – किसी और के नहीं

इसलिए रुको मत

मैं आजाद हुई हूं [9]            

 

प्राकृतिक सौंदर्य कवि को कविता की जमीन देता है और जब यह सौन्दर्य प्राकृतिक दिशाओं , जंगलों, फूलों, कलियों से होकर आता है तो उस भावभूमि की कविता भी सौन्दर्यात्मक होती है. प्राकृतिक संवेदना की कविता भी उतनी ही कोमल और नाजुक बनती चली जाती है. और जंगली वृक्षों के समान वह  कविता मजबूत और अडिग रहती है. रमणिका गुप्ता झारखंड के परिवेश में खिलने वाली कवयित्री हैं.उनकी कविता में वहां का परिवेश वहां के मनुष्य वहां का दुख-दर्द वहां की दृष्टि और दर्शन अनुस्यूत होते हैं.  वह अपनी कविता का थीम भी वहां के प्राकृतिक स्रोतों से उठाती हैं. वह शहर की धमाचौकड़ी में, प्लेटफॉर्म पर बस अड्डों पर भी उन्हीं प्राकृतिक बिंबों के दर्शन कर पाती हैं जिसे उन्होंने देखा और जिया है. झारखंडी परिवेश उनसे कभी अलग नहीं होता है. उनकी एक महत्वपूर्ण कविता है : प्लेटफार्म पर. देखें उस कविता का बिम्ब :

प्लेटफॉर्म पर

प्रदूषण से घिरे झूमते

चटखते, फूले पलाश से तुम !

या कि

बीहड़ों में वीरानों में

कंटीले करीलों में दूर से नजर आते

सरू से सरुपते तुम !

नहीं तो जंगल में

महकते महुआ से भरे भरे

लदे-लदे

डालों के घेरे बांधे

इन्तजारते तुम

टपकने को टोकरी में

मझियाइनों की

जो आधी रात में झाड़-बुहारकर लीप पोतकर

बैठ जाती है

कतार वद्ध हो कर तीसरे पहर से ही ![10]

दुनिया की जितनी विकसित सभ्यताएं हैं,  सभ्यताओं के कंगूरे में आज भी नदी बसी हुई है. वह उन कंगूरों की आत्मा है. उन खंडहरों की जान और उसका अस्तित्व निर्माण करती ईंट भी है. रमणिका नदी को स्त्री का रूपक बना देती हैं. अपनी कविता ‘मैं आत्मा हूँ खंडहरों की’ में कवयित्री लिखती हैं :

मैं कौन हूं ?

परिचय चाहते हो ?

थक गए हो आराम चाहते हो

खोज में हो पहचान चाहते हो ?

आओ बैठो, साथी

मेरे काई के बिस्तर पर

मैं मकड़ी के जालों से

सुंदर ओढने बुनती हूं

ओढ़ लेना सो रहो

झींगुर के सुरीले गीत

सुनते रहो

आराम करो सो रहो

यहां इतिहास भी आराम करता है[11]

 

इसी तरह से वह अपनी कविता ‘ हाँ मेरा अवमूल्यन हुआ है’ में लिखती हैं :

 

हां मेरा अवमूल्यन हुआ है

कविता मैं मानुष थी

अब केवल नारी हूं

जग के बाजार में मंदी की मारी हूं

हां मेरा उन्मूलन हुआ है[12]

 

रमणिका साफ़ तौर पर यह जानती हैं कि कोई भी युद्ध केवल सामाजिक तौर पर नहीं लड़ा जाना चाहिए. बल्कि सांस्कृतिक और राजनीतिक तौर पर भी युद्ध का पहलू होता है. वह हमेशा एक विशेष दृष्टि की वकालत करती हुई, एक अविचारित दृष्टि को खारिज करती हैं. उनकी एक बहुत महत्वपूर्ण कविता है- ‘चश्मा’ जिसमें वे लिखती हैं :

 

मुझे इस बात की खुशी है

कि तुम तोड़ना चाहते हो

संस्कृति के ‘हाथी के दांत’ जैसे सुंदर खिलौनों को

इतिहास की फैली आकृतियों को

महंतों की गहरी गद्दियों को जमातों को

घेरों को ‘गोल’ को

जो भी बड़ा है समाज में

आज की नजर में उसे खींच

नीचे खड़ा करना चाहते हो जमीन पर

एक कतार में सबके साथ

उलट देना चाहते हो सामाजिक स्थापना को

गढ़ देना चाहते हो समाज को

सर्वहारा के अनुकूल[13]

 

निष्कर्ष  :

लंबे संघर्ष के बाद स्त्री आज पहले से थोड़ा बेहतर स्थिति में आई है अभी भी समूचा परिवेश स्त्री विरोधी भाव बहुत से भरा हुआ है. स्त्रियों से बातें करना, स्त्रियों का आपस में बात करना, इस्त्री समस्याओं पर बात करना, स्त्री से जुड़े हुए गंभीर सवालों पर बहस मुबाहिसा आयोजित करना, आज भी बेहद चुनौतीपूर्ण कार्य है. आज के समय में यह करना बहुत घातक है. स्त्री विरोधी परिवेश के कारण ऐसा करने वालों पर हमला या उपहास का पात्र बनना पड़ता है. पर आज सब समझ चुके हैं स्त्री गंभीर विषय है उस पर हमला करके उसे चुप कराना संभव नहीं है और ना ही उपहास करके उसकी सामाजिक भूमिका एवं जरूरतों से आंख चुराया जा सकता है. स्त्री कोई निष्क्रिय शरीर नहीं है,  वह हँसती है रोती है खिलखिलाती है पढती पढ़ाती है, शादी करती है, मेहनत मजदूरी करती है,  उत्पादन और पुनरुत्पादन  का साधन है. स्त्री  स्वतंत्र व्यक्तित्व है, उसकी इच्छाएं स्वतंत्र है, उसकी सोच स्वतंत्र है.  मुख्यधारा में फिर भी उसे शामिल नहीं किया जाता तो उसका कारण स्त्री नहीं बल्कि पुरुष है. कविता में ऐसे ही न जाने कितने सवालों को उठाती हैं रमणिका गुप्ता. कुल मिलाकर रमणिका गुप्ता का यह संग्रह जिसमें उनकी बिखरी हुई, भूली बिसरी बहुत सारी कविताओं को संग्रहीत किया गया है एक मुकम्मल दृष्टि से संपन्न कवितायें हैं. यहाँ दलित आदिवासी, मजदूर स्त्रियों की छवियाँ हैं तो प्रकृति और सहचारी पुरुष भी प्रेम की भावना में सहचर के रूप में आया है. प्राकृतिक जीवन की मोह और उसकी गंध को आप हर कविता में महसूस कर सकते हैं. दृष्टि सम्पन्नता ही रमणिका गुप्ता को हमारे समय की महत्वपूर्ण कवयित्रियों में स्थान भी दिलाता है. यही उनकी कविता का आधार भी है.

 संदर्भ

  • रमणिका गुप्ता, 2014, मेरे साक्षात्कार, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली
  • रमणिका गुप्ता, 1988 रमणिका, फाउंडेशन, हजारीबाग, झारखण्ड, ब्लर्ब
  • रमणिका गुप्ता, 1988, प्रकृति युद्धरत है,  रमणिकाफाउंडेशन, हजारीबाग, झारखण्ड

रमणिका गुप्ता, 1988,  प्रकृति युद्धरत है,  रमणिकाफाउंडेशन, हजारीबाग, झारखण्ड

[1] रमणिका गुप्ता, 2014, मेरे साक्षात्कार, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 61 

[2] रमणिका गुप्ता, 1988 रमणिका, फाउंडेशन, हजारीबाग, झारखण्ड, ब्लर्ब 

[3] रमणिका गुप्ता, 1988,  प्रकृति युद्धरत है,  रमणिकाफाउंडेशन, हजारीबाग, झारखण्ड, पृष्ठ 1

[4] रमणिका गुप्ता, 1988,  प्रकृति युद्धरत है,  रमणिकाफाउंडेशन, हजारीबाग, झारखण्ड, पृष्ठ 5

[5] रमणिका गुप्ता, 1988,  प्रकृति युद्धरत है,  रमणिकाफाउंडेशन, हजारीबाग, झारखण्ड, पृष्ठ 6

[6] रमणिका गुप्ता, 1988,  प्रकृति युद्धरत है,  रमणिकाफाउंडेशन, हजारीबाग, झारखण्ड, पृष्ठ 8

[7] रमणिका गुप्ता, 1988,  प्रकृति युद्धरत है,  रमणिकाफाउंडेशन, हजारीबाग, झारखण्ड, पृष्ठ 10

[8] रमणिका गुप्ता, 1988,  प्रकृति युद्धरत है,  रमणिकाफाउंडेशन, हजारीबाग, झारखण्ड, पृष्ठ 12

[9] रमणिका गुप्ता, 1988,  प्रकृति युद्धरत है,  रमणिकाफाउंडेशन, हजारीबाग, झारखण्ड, पृष्ठ 21

[10] रमणिका गुप्ता, 1988,  प्रकृति युद्धरत है,  रमणिकाफाउंडेशन, हजारीबाग, झारखण्ड, पृष्ठ 42

[11] रमणिका गुप्ता, 1988,  प्रकृति युद्धरत है,  रमणिकाफाउंडेशन, हजारीबाग, झारखण्ड, पृष्ठ 48

[12] रमणिका गुप्ता, 1988,  प्रकृति युद्धरत है,  रमणिकाफाउंडेशन, हजारीबाग, झारखण्ड, पृष्ठ 92

[13] रमणिका गुप्ता, 1988,  प्रकृति युद्धरत है,  रमणिकाफाउंडेशन, हजारीबाग, झारखण्ड, पृष्ठ 98

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