रस का स्वरूप और उसकी प्रासंगिकता

आशा                                                                                                                                                              पीएच॰डी॰ शोधार्थी
हिन्दी साहित्य विभाग
म॰गां॰अ॰हीं॰वि॰
वर्धा (महाराष्ट्र)

सारांश

रस  सिद्धांत भारतीय काव्यशास्त्र का बहुत ही प्राचीनतम सिद्धांत है परन्तु  इसे व्यापक स्तर पर प्रतिष्ठा बाद में प्राप्त हुई। यही कारण रहा कि अलंकार सिद्धांत जो रस सिद्धांत से बाद में आया लेकिन रस सिद्धांत से प्राचीन माना जाने लगा। रस के स्वरूप पर मुख्य रूप से भरतमुनि, अभिनव गुप्त, मम्मट और विश्वनाथ जैसे आचार्यों ने प्रकाश डाला है। रस सिद्धांत के मूल प्रवर्तक लगभग 200 ई॰पू॰ आचार्य भरतमुनि माने जाते हैं।

बीज शब्द

भाव, अनुभाव, रस, सिद्धान्त, आनंद, काव्यशास्त्र

आमुख

सर्वप्रथम हम बात करते हैं रस की, रस क्या है? रस का शाब्दिक अर्थ होता है आनंद। किसी भी वाक्य, घटना, या दृश्य आदि को देखने सुनने से पाठक या श्रोता के ह्रदय में जो स्थायी भाव उत्पन्न होते हैं (रति, उत्साह, क्रोध, भय आदि)। वही स्थायी भाव, विभाव आदि से मिलकर रस की उत्पत्ति करते हैं।

उदाहरण के रूप में जिस प्रकार किसी भी भोजन को खाने से हमें उसके मीठे, तीखे, खट्टे या किसी भी तरह के स्वाद की जो अनुभूति होती है और उससे जो भाव भोजन करने वाले व्यक्ति के मन में उत्पन्न होते हैं उन्हे स्थायी भाव कहा गया है, यही स्थायी भाव, विभाव आदि से मिलकर रस का रूप ग्रहण करते हैं।

रस को हम कुछ इस तरह भी समझ सकते हैं। जैसे एक ही दृश्य या घटना को सुनने या देखने वाले  एक से अधिक श्रोता या दर्शक एक ही दृश्य में अलग-अलग रस की अनुभूति कर सकते हैं। उदहारणस्वरूप किसी व्यक्ति को भीख मांगते देख किसी व्यक्ति में करुणा का भाव उत्पन्न हो सकता है तो किसी अन्य व्यक्ति में क्रोध का भाव। इसका यह अर्थ है कि एक ही दृश्य, घटना या संवाद से अलग-अलग व्यक्तियों में अलग-अलग रस की परिणिति हो सकती है।


रस  सिद्धांत भारतीय काव्यशास्त्र का बहुत ही प्राचीनतम सिद्धांत है परन्तु  इसे व्यापक स्तर पर प्रतिष्ठा बाद में प्राप्त हुई। यही कारण रहा कि अलंकार सिद्धांत जो रस सिद्धांत से बाद में आया लेकिन रस सिद्धांत से प्राचीन माना जाने लगा।

रस के स्वरूप पर मुख्य रूप से भरतमुनि, अभिनव गुप्त, मम्मट और विश्वनाथ जैसे आचार्यों ने प्रकाश डाला है। रस सिद्धांत के मूल प्रवर्तक लगभग 200 ई॰पू॰ आचार्य भरतमुनि माने जाते हैं।

भारतीय काव्यशास्त्र में रस सूत्र के विवेचन का मूल आधार भरतमुनि का रस सूत्र है, उनके अनुसार “विभावानुभाव व्यभिचारी संयोगाद्रस निष्पति” अर्थात विभाव, अनुभाव, और व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। इसी सूत्र के आधार पर ही परवर्ती आचार्यों ने रस-सूत्र के स्वरूप और उसकी निष्पति को लेकर अपने विस्तृत विचार प्रस्तुत किए है। जिससे रस-सूत्र का विकास हुआ।

रस के सम्बन्ध में ‘निष्पति’ शब्द का प्रथम प्रयोग भरतमुनि के रस-सूत्र में मिलाता है। भरतमुनि के रस-सूत्र में आए ‘संयोग’ और ‘निष्पति’ शब्द को लेकर काफ़ी विवाद रहा है। रस सूत्र के व्याख्याता आचार्यों में भट्ट लोल्ल्ट, आचार्य शंकुक, भट्ट नायक, अभिनवगुप्त का नाम लिया जाता है।

भरतमुनि ने रस सूत्र का विवेचन कुछ इस प्रकार किया है-

“जिस प्रकार अनेक व्यंजनों और औषधियों के संयोग से रस की उत्पत्ति होती है। उसी प्रकार अनेक भावों के संयोग से रस की निष्पति”

अर्थात भरतमुनि का कहना है कि रस एक तत्व है जिसका स्वाद लिया जा सकता है किन्तु संयुक्त रूप से। जिस प्रकार अलग-अलग भोज्य पदार्थ अपना अलग-अलग स्वाद और अस्तित्व त्याग कर संयुक्त रूप से भोजन का रूप ग्रहण करते हैं। ठीक उसी प्रकार, रस के विभिन्न अवयव संयुक्त होकर रस रूप में परिणित होते हैं। इस मत को हम कुछ इस तरह भी समझ सकते हैं कि अलग-अलग अवयव रस नहीं होते पर जब वह संयुक्त अवस्था आते है तब ही रस का स्वरूप ग्रहण करते हैं।

भरतमुनि ने रस की वस्तुपरक  व्याख्या की है उनका मत है कि जिस प्रकार स्वस्थ चित्त वाला व्यक्ति ही भोजन का आस्वाद ले सकता है। ठीक उसी प्रकार सह्रदय समाजिक व्यक्ति ही रस का आस्वादन कर आनंद प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार आस्वादन प्रथम (कारण) स्थिति है और आनन्द (कार्य) द्वितीय स्थिति है।

अभिनव गुप्त का रस विवेचन सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। रस विवेचन में अलौकिकता का समावेश करने का श्रेय इन्हीं को जाता है। इनका मत मनोवैज्ञानिक आधार पर रसानुभूति की प्रक्रिया का यथार्थवादी विश्लेषण प्रस्तुत करता है। इनके मत को अभिव्यक्तिवाद कहा जाता है। इन्होंने भरतमुनि के ‘निष्पति’ शब्द का अर्थ ‘अभिव्यक्ति’ और ‘संयोग’ का अर्थ ‘व्यंग्य-व्यंजक’ के संबंध में किया है। इनका मानना है कि रति आदि स्थायी भाव पाठकों के अवचेतन में वासना या संस्कार के रूप में सदैव गुप्तावस्था में पड़े रहते हैं। जब अभिनय से काव्य का अर्थ प्रकाशित होता है तो साधारणीकरण द्वारा यह वासना जाग उठती है। जो प्रत्यके व्यक्ति में स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्त होकर आनन्द प्रदान करती है। इनके अनुसार यही रसास्वाद है। आगे आने वाले आधिकांश विद्वानों ने अभिनव गुप्त के मत को ग्रहण किया है। अभिनवगुप्त का यह मत सही अर्थों में भरतमुनि के रस सूत्र की सबसे संगत व्याख्या प्रस्तुत करता है।

रस को काव्य की आत्मा के रूप में सर्वप्रथम मान्यता आचार्य विश्वनाथ द्वारा दी गई। आचार्य विश्वनाथ ने अपने रस-सूत्र का विवेचन परम्परागत विचारों के आधार पर अपने ग्रंथ ‘साहित्य दर्पण’ में किया। इनका मत है कि विभाव, अनुभाव, और संचारी भाव के संयोग से सह्दय (व्यक्ति) में रहने वाले रति, शोक, हास आदि स्थायी भाव ही रस का रूप ग्रहण करते हैं। जिस समय यह रस प्रकट होता है उस समय ह्रदय में केवल सात्विक भावों की ही प्रधानता होती है। शेष राजसी और तामसी भाव दब जाते हैं और ऐसी स्थिति में सात्विक भाव ही प्रमुख होते है।

भट्ट लोल्लट का मत उत्पत्तिवाद या आरोपवाद कहलाता है। आचार्य भट्ट लोल्लट को भरतमुनि के रस सूत्र का प्रथम व्याख्याता माना जाता है। इनके अनुसार ‘निष्पति’ का अर्थ ‘उत्पत्ति’ और ‘संयोग’ का अर्थ ‘उतपाघ-उत्पादक’ या ‘पोष्य-पोषक’ संबंध है। इन्होंने रस की स्थिति मूल पात्र में मानी है। इनके मत के अनुसार दर्शक अभिनेताओं पर मूल पात्रों का आरोप कर देता है। अर्थात अभिनेता मूल पात्र के अनुरूप अभिनय, वेशभूषा, अंग-संचालन, वार्तालाप आदि के सहारे वास्तविक चरित्र का आरोप कर लेता है। आरोप करने के कारण दर्शकों में भी रस की अनुभूति होती है इसलिए यह मत आरोपवाद कहलाता है।

आचार्य शंकुक का मत अनुमितिवाद कहलाता है। इनके मत में भट्ट लोल्लट के मत का परिष्कार दिखाई पड़ता है। इनके मत के अनुसार अभिनेता के द्वारा अनुकरण किया जाता है। अभिनेता के द्वारा अनुकरण किए गए नायक का स्थायी भाव, अनुमान के द्वारा समाज को जो आनन्द प्रदान करता है, वह रस कहलाता है। आचार्य भट्ट लोल्लट की तरह अनुमितिवाद में अभिनेताओं में नायक आदि पात्रों पर आरोप कर रस की प्राप्ति नहीं होती।

आचार्य भट्टनायक ने सर्वप्रथम रस को ब्रह्मानंद सहोदर कहा है। भट्ट नायक के अनुसार रस न तो अनुमिति होता है, न अभिव्यक्ति और न वह उत्पन्न ही होता है। आचार्य लोल्ल्ट के मत का खंडन तो भट्टनायक ने किया ही साथ ही इन्होंने अभिव्यक्ति सिद्धांत का भी विरोध किया। अपने मौलिक विचार के रूप में साधारणीकरण का सिद्धांत प्रस्तुत किया। इनके मत में भावकत्व व्यापार को साधारणीकरण कहते हैं। इस व्यापार से विभावादि अपने पराए की भावना से मुक्त होकर सामान्यकृत हो जाता है। आचार्य नायक के अनुसार निष्पति का अर्थ भुक्ति और भोज्य-भोजक का संबंध है।

 

रस के चार अवयव होते हैं-

  1. स्थायी भाव –

वह भाव जो सदैव ह्रदय में स्थायी रूप से उपस्थित रहते हैं और जैसे ही उन्हें अनुकूल परिस्थिति मिलती है वह बाहर भी दिखाई देते हैं। स्थायी भावों की संख्या नौ मानी गई है। स्थायी भाव का अर्थ प्रधान भाव होता है। किसी भी रचना में कोई एक मूल स्थायी भाव होता है। जो आरम्भ से अंत तक रचना में बना रहता है।  यह उस रचना का मूल रस होता है। स्थायी भाव ही इसका आधार माना जाता है। एक रस के मूल में केवल एक ही स्थायी भाव होता है।

  1. विभाव –

जिन कारणों से स्थायी भाव उत्पन्न होते हैं उन कारणों को ही विभाव कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं-

2.1. आलंबन विभाव –

जिस आलम्बन के कारण आश्रय के मन में कोई स्थायी भाव जागृत हो उसे आलम्बन विभाव कहते हैं, जैसे फूल को देखकर अगर स्थायी भाव ‘रति’ जागृत होता है। उस स्थिति में देखने वाला आश्रय है और फूल आलंबन होगा।

2.2. उद्दीपन विभाव –

यह ‘आलंबन विभाव’ के सहायक होते हैं। उद्दीपन के अंतर्गत आलंबन की चेष्टाएं और बाह्य वातावरण दो तत्व आते हैं। जो स्थायी भाव को और अधिक उद्दीप्त करते हैं।

  1. अनुभाव –

जिससे किसी भी व्यक्ति के मन के भावों को उसकी भाव-भंगिमाओं से समझा जा सके अनुभाव कहलाते हैं। अनुभावों की संख्या आठ मानी गई है।

  1. संचारी भाव –

जो भाव मुख्य रूप से स्थायी भाव की पुष्टि के लिए तत्पर रहते हैं और सभी रसों में संचरण करते हैं उन्हे संचारी भाव कहा जाता है।  संचारी भावों की संख्या 33 मानी गई है। इनके नाम है निर्वेद, ग्लानी, शंका, श्रम, आलस्य, मोह, चिंता इत्यादि आचार्य शुक्ल ने विरोध, अवरोध की दृष्टी से इनके चार भेद किए हैं (1) सुखात्मक (2) दुखात्मक (3) उभयात्मक (4) उदासीन। अतः स्थायी भाव के अंतर्गत निरंतर गतिमान रहने वाले या उस समय आते-जाते भावों को ‘संचारी भाव’ कहते हैं।

आचार्य भरतमुनि को रस का संकलनकर्ता माना गया है। भरतमुनि ने रसों की संख्या आठ मानी है। श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स, अद्भुत, रसों को ही रस की श्रेणी के अंतर्ग माना है। किन्तु समय-समय पर आचार्यों ने रसों की संख्या में वृद्धि की है। जैसे आचार्य उद्भट ने शांत रस, आचार्य विश्वनाथ ने वात्सल्य रस, रुपगोस्वामी ने भक्ति रस और रुद्रट ने प्रेयान को रसों के अंतर्गत स्थान दिया है।

नाटक में भी रसों की संख्या आठ मानी जाती है। शांत रस को नाटक में रस नहीं माना जाता किन्तु आचार्य अभिनवगुप्त ने रसों की संख्या नौ मानी हैं। इन्होंने वात्सल्य रस और भक्ति रस जो बाद में जोड़े गए। इन दोनों रसों को भी श्रृंगार रस के अंतर्गत स्थान दिया है। इस प्रकार रसों की संख्या में वृद्धि होती गई।

डॉ. नगेन्द्र अग्निपुराण को ही रसवाद का पहला प्रतिपादक ग्रन्थ मानते हैं। रस सिद्धांत का प्रणयन करके डॉ. नगेन्द्र ने आज के युग में भी रस की प्रासंगिकता प्रमाणित की है। उसे एक नए मुकाम पर पहुँचाया है। जिस देश में स्वयं ब्रह्मा को ही रसमय माना गया हो उस देश में कभी भी रस की प्रासंगिकता समाप्त नहीं हो सकती है। रस तो पुरी स्रष्टि में चारों ओर बिखरा हुआ है। बिना रस के जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। रोने में, हँसने में, दुःख में, सुख में सभी तरह के भाव हमें एक अलग रस की प्राप्ति कराते हैं। अगर इस पल में कोई सह्दय किसी रस में हमारे समाने है तो वह किसी दूसरे पल में कोई और रस रूप में हमारे सामने हो सकता है। जीवन सत्य है और रस जीवन को सुन्दरता प्रदान करता है।

डॉ. नागेन्द्र मानते है कि वात्स्यायन के समय तक रस शब्द की शास्त्रीय विवेचना आरम्भ हो चुकी थी। इस प्रकार भरतमुनि द्वारा रचित नाट्यशास्त्र के पूर्व भी रस का एक स्वरूप स्थिर हो चुका था। रस की सबसे श्रेष्ठ और महत्वपूर्ण बात तो यही है कि इतना समय बीतने के बाद भी यह केवल विस्तृत ही नहीं हुआ है बल्कि इसमें विषयगत व्यापकता और विवेचनागत गहराई भी देखी जा सकती है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि वो रस ही है जो पाठक और श्रोता के मन में संवेदना जगाने का कार्य करता है। रचनाकार के भावों को पाठक और श्रोता तक पहुँचाने और दोनों को एक भाव-भूमि पर लाने का कार्य करता है। वो रस ही है जो सह्रदय में उच्च गुणों के विकास और विकार से भरे मनभावों का परिष्कार करके व्यक्ति में मानवीय गुणों का उद्गार करता है। रस कोई नया विषय नहीं है और समाज के लिए अपना महत्व रखते हुए भी हमें इसकी कुछ खामियों को स्वीकार करना होगा। इसकी सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण खामी यही है कि रस को केवल सौन्दर्यपरक मान कर, उसकी सीमा केवल सुन्दरता तक आंकना।

रस की आवश्यकता या महत्व के सम्बन्ध में हम जागरूक हो या न हो, लेकिन जीवन को सरल सुखद और सकारात्मक बनाए रखने के लिए रस की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण है। केवल प्राचीन समय में ही नही, आज के नीरस होते जीवन और आधुनिक होते समाज के लिए रस की उपयोगिता और महत्व अत्याधिक आवश्यक जान पड़ता है। जहाँ आज देश के कोने-कोने में हाहाकार मचा हुआ है। लोग दिखावटी और छद्म खुशियाँ पाने के लिए अपना सब कुछ खो रहे हैं। उनके अवचेतन में अनके ऐसी विकृतियाँ सुप्तावस्था में हैं जो उन्हें अंदर ही अंदर खाए जा रही हैं। जिन्हें बाहर निकालने का सबसे सफल माध्यम है रस। रस के महत्व को सभी बड़े आचार्यों ने स्वीकार किया है। जिसे मनोवैज्ञानिक आधार पर भी सिद्ध किया जा चुका है। हिंदी के आचार्यों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आधुनिक मनोविज्ञान के आधार पर रस की लौकिकतावादी पुनर्व्यख्या प्रस्तुत करते हुए अपने मत में “लोक में लीन होने की दशा को रस-दशा कहा”। रस में वह शक्ति है जो एक संवेदनशील व्यक्ति को झकझोर सकती है। तो वहीं दूसरी ओर एक असंवेदनशील व्यक्ति की खोई हुई संवेदनाओं को जागृत कर सकती है। उपनिषदों, पुराणों में भी रस की प्रासंगिकता को किसी न किसी रूप में स्वीकार किया गया है। पुराणों में तो यहाँ तक कहा गया है कि ‘जिस तरह लक्ष्मी बिना त्याग और दान के शोभा नहीं पाती ठीक उसी तरह कविता रस के बिना’। 

सन्दर्भ ग्रन्थ:-

  • भारतीय काव्य शास्त्र , सत्यदेव चौधरी।
  • भारतीय साहित्य शास्त्र , बलदेव उपाध्याय।
  • काव्य में रस, आनंद प्रकाश दीक्षित।
  • रस सिद्धांत ; डॉ. नगेन्द्र
  • भारतीय काव्यशास्त्र की परम्परा; डॉ. नगेन्द्र
  • रससिद्धांत का पुनर्विवेचन ; डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त
  • इतिहास और समीक्षा; विष्णुदत्त राकेश
  • रसमीमांसा ; रामचंद्र शुक्ल

4 COMMENTS

  1. NiceExcellentGreat blogweblog hereright here! AlsoAdditionally your websitesiteweb site a lotlotsso muchquite a bitrather a lotloads up fastvery fast! What hostweb host are you the use ofusingthe usage of? Can I am gettingI get your associateaffiliate linkhyperlink for youron yourin yourto your host? I desirewantwish my websitesiteweb site loaded up as fastquickly as yours lol Laurice Burke Tita

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.