बूमरैंग
दीक्षित साहब अरुण के सामने बैठे हैं। अरुण की टेबल पर फाइलों का ढेर लगा हुआ है। पिछले दस मिनट से उसने सर उठाकर देखने की भी जहमत नहीं उठाई है कि सामने कौन है।
दरअसल उसने ऑफिस के दरवाजे पर ही देख लिया था दीक्षित जी को। और आज वह तय कर बैठा था कि आज सब कुछ सुना देगा जो बरसों से उसके भीतर उबल रहा था।
अरुण के पिताजी इसी दफ्तर में अधिकारी थे एक समय। कुछ स्वास्थ्य ऐसा बिगड़ा की अस्पताल से घर न लौट पाए। नौकरी में रहते हुए देहांत हो जाने का अर्थ था परिवार का अधर में लटक जाना।
ऊपर से अरुण और उसकी बहन की उम्र भी कम। कॉलेज में प्रथम वर्ष में था अरुण जब ये सब घटा।
तब दीक्षित जी समकक्ष हुआ करते थे अरुण के पिताजी के।
देहांत के बाद पेंशन और बाकी जमापूंजी के लिए भागदौड़ शुरू हुई। दीक्षित जी के टेबल से होकर ही फ़ाइल आगे बढ़ती। लेकिन हर बार वो कुछ न कुछ कमी बताकर वापस कर देते।
एक साल बीत गया, न कोई फंड मिला ना पेंशन शुरू हो पाई। चक्कर पर चक्कर लग रहे थे। बड़े साहब के पास जाकर फरियाद भी की, लेकिन दीक्षित जी हर बार कोई नया कारण बता, बच जाया करते थे।
पूरे एक साल बिना आय के कैसे परिवार चला ये केवल अरुण समझता था। अरुण कभी भूल नही पाया कि किस तरह दफ्तर में दीक्षित जी ने असहयोग किया।
आज दीक्षित जी उसी पेंशन और बाकी फंड के लिए चक्कर काट रहे हैं। अरुण हालांकि क्लर्क ही है, पर उसके फ़ाइल बनाए बिना आगे कुछ होना नहीं है।
दीक्षित जी आस भरी नजरों से उसे देख रहे हैं और वो नजर भी नहीं उठा रहा है।
“सुनो बेटा! लंबा अरसा हो गया है पेंशन के बिना बड़ी मुश्किल हो रही है। तुम ने जो भी कागज़ात बताए सभी जमा कर दिए। अब क्या कमी है?”
“वही कारण है दीक्षित जी जो कुछ साल पहले मेरे कागजों में थी। मेरी फ़ाइल में तो पिताजी का डेथ सर्टिफिकेट भी था।” अरुण अचानक ही फट पड़ा।
दीक्षित जी के चेहरे पर मानों किसी ने काला रंग पोत दिया हो, ऐसा हो गया चेहरा उनका।
वो चुपचाप उठे और सर झुकाए चल दिये। अरुण ने पानी की बोतल उठाई और एक घूंट में खाली कर दी। लगा जैसे अन्तस् में लगी आग थोड़ी ठंडी हुई आज।
©संजय मृदुल