वरिष्ठ व्यंग्यकार और कवि गोपाल चतुर्वेदी से डॉ. संतोष विश्नोई की बातचीत
प्रतिष्ठित व्यंग्यकार और कवि गोपाल चतुर्वेदी जी का नाम वरिष्ठ साहित्यकारों की शृंखला में शीर्षस्थ पर है। आपके दो काव्य-संग्रह -‘कुछ तो है’ और ‘धूप की तलाश’ तथा अनेक व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ‘सारिका’, ‘इंडिया टुडे’, ‘नवभारत टाइम्स’, ‘हिन्दुस्तान’, ‘दैनिक भास्कर’, ‘साहित्य अमृत’ जैसे अनेक पत्र-पत्रिकाओं में आप वर्षों से नियमित लेखन कार्य कर रहे हैं। अब तक आपको अनेक पुरस्कारों से सम्मानित भी किया जा चुका हैं। आपके ‘आदमी और गिद्ध’, ‘अफसर की मौत’, ‘सत्तापुर के नकटे’, ‘दुम की वापसी’, ‘राम झरोखे बैठ के’, ‘फाइल पढ़ि पढ़ि’, ‘जुगाड़पुर के जुगाडू’, ‘धाँधलेष्वर’, ‘कुरसीपुर का कबीर’, ‘फार्म हाउस के लोग’, ‘भारत और भैंस’ आदि प्रमुख व्यंग्य संग्रह रहे हैं। सरकार में उच्च पदों पर वर्षों रहने के बावजूद आपने लेखन के क्षेत्र में भी सक्रिय रहे। वर्तमान जीवन की चाहे कोई छोटी से छोटी विसंगति हो अथवा बड़ी से बड़ी समस्या आपने उन पर तीखे और मार्मिक प्रहार कर एक जागरुक व सफल साहित्यकार की भूमिका निभाई हैं। आपने अपने व्यंग्य के माध्यम से युगीन सच्चाइ्र्र एवं विपरीत परिस्थितियो को देखा-परखा तथा उन्हें अपनी बेबाक, विषयानुसार शैली में मुक्त भाव से व्यक्त किया है। अतः आपसे व्यंग्य, उसके स्वरूप, परम्परा तथा साहित्य की विविध विधाओं में इसके प्रयोग आदि पर आपका दृष्टिकोण जानने की दृष्टि से आपसे प्रश्नावली आधारित साक्षात्कार प्रस्तुत है-
- आज व्यंग्य चेतना प्रभावी हो गई है कि साहित्य की विविध विधाओं में अपनी पैठ बना चुकी है। आपके विचार में सभी विधाओं में लिखी जाने के कारण भी क्या व्यंग्य को एक स्वतन्त्र विधा माना जा सकता है? एक व्यंग्यकार होने के नाते आपकी निजी मान्यताएँ क्या है?
उत्तर – मैं व्यंग्य को स्वतंत्र विधा नहीं मानता हूँ। व्यंग्य चेतना आज हर विधा में वर्तमान है। व्यंग्य को अलग विधा बनाकर उसे सीमित करना अनुचित है। व्यंग्य, लेखन की एक लोकप्रिय षैली है और उसे महत्त्वपूर्ण बनाने के लिए इतना ही पर्याप्त है। पहले व्यंग्य का आलोचना शास्त्र विकसित होना आवश्यक है जो आज नहीं है।
- आरम्भ से ही व्यंग्य के साथ हास्य शब्द जुड़ता चला आ रहा है। जहाँ भी व्यंग्य की चर्चा होती है, हास्य उपस्थित होता है, किन्तु हास्य–व्यंग्य एक दूसरे के पूरक होने के बावजूद भी पारस्परिक भिन्नता रखते हैं। आपके विचार में हास्य का प्रयोग व्यंग्य में अनिवार्य है, क्या हास्य के बिना भी श्रेष्ठ व्यंग्य लिखा जा सकता है?
उत्तर – हास्य और व्यंग्य की उलझन होरेस और जुवैनल के जमाने से चली आ रही है। हिन्दी व्यंग्य प्रारम्भ से ही हास्य से जुड़ा रहा है। इस में भारतेन्दु से लेकर, बेढब बनारसी, पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी तथा केशवचन्द्र वर्मा जैसे अनेक नाम गिनाये जा सकते हैं। इस का कारण शायद तत्कालीन विदेषी शासन था। स्वतन्त्रता के बाद से जहाँ परसाई जी ने सतत प्रहार के समक्ष व्यंग्य लिखे, वहीं शरद जोशी और रवीन्दनाथ त्यागी के लेखन में हास्य भी व्यंग्य के साथ घुला-मिला है। महत्वपूर्ण तथ्य है कि जहाँ सायास हास्य व्यंग्य को कमजोर करता है वहीं उस की स्वाभाविक उपस्थिति व्यंग्य को
रोचक और सामथ्र्यवान बनाने में समर्थ है। मेरे विनम्र मत में बिना हास्य के भी सार्थक व्यंग्य लिखा जा सकता है और हास्य के साथ भी।
- अच्छा व्यंग्य आप किसे मानते हैं। आपके विचार से व्यंग्य की परिभाषा क्या हो सकती है?
उत्तर – अच्छा व्यंग्य वह है जो बिना किसी व्यक्तिगत आक्षेप के प्रवृत्त्तियों का चित्रण करें, पाठक को सामाजिक विषमताओं से परिचित कराये, प्रचार से बनी सियासी छवियों को वास्तविकता के चित्रण की क्षमता रखे और पढ़ने वाले को सोचने पर विवश करे। सब के मन में एक आदर्श समाज की अवधारणा होती है। आदर्ष और यथार्थ के अंतर की अभिव्यक्ति ही व्यंग्य है।
- व्यंग्य लिखना साधारण लेखन से किस प्रकार अलग होता है? व्यंग्य लिखने के तहत् कैसी रचनात्मक अनुभूति होती है?
उत्तर -अधिकतर रचनात्मक लेखन सत्य की तलाश है, व्यंग्य उसी लगन से झूठ की खोज करता है। जाहिर है कि व्यंग्यकार का परिस्थितियों, घटनाओं और व्यक्तियों के व्यवहार को देखने के नजरिये में फर्क हो। इसी से रचनात्मक अनुभूति का अंतर नजर आता है।
- हरिषंकर परसाई, शरद जोशी और रवीन्द्रनाथ त्यागी तीन भिन्न स्कूल के व्यंग्यकार रहे हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार परसाई, जोशी तथा त्यागी हिन्दी हास्य–व्यंग्य की त्रयी है। इन व्यंग्य रचनाकारों के रचना–कर्म के विषय में आप क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर – त्यागी, जोशी और परसाई व्यंग्य की ऐसी त्रयी है जिनका लेखन आजादी के बाद के दर्षकों का वास्तविक दर्पण है। परसाई जी सतत प्रहार के धनी हैं, शरद जोशी गुदगुदाते पाठक को रूलाने की सामथ्र्य रखते हैं और त्यागी जी का विपुल अध्ययन उन के व्यंग्यों में झलकता है। समानता यह है कि भाषा की रोचकता तीनों की विशेषता है। मेरी प्रतिक्रिया एक सामान्य पाठक की है, किसी व्यंग्य के विशेषज्ञ की नहीं।
- किसी भी रचना का मूल्यांकन करने के लिए कुछ तत्व निर्धारित रहते हैं। सभी विधाओं के अपने तत्त्व निर्धारित है, आज विद्वानों ने व्यंग्य विधा के अनेक तत्त्वों का उल्लेख किया है। आपके विचार से कौन–कौन से तत्त्व व्यंग्य में जरूरी है?
उत्तर- प्रभावी और रोचक भाषा, व्यापक विषय वस्तु, निजी शैली और जीवन मूल्य किसी भी सार्थक व्यंग्य लेखन के आवश्यक तत्त्व हैं। जहाँ व्यंग्य व्यक्तिगत स्तर पर चोट करता है, उस की धार कुन्द हो जाती है।
- आजकल अख़बार व्यंग्य अधिक दिखाई दे रहा है, क्या ऐसा व्यंग्य साहित्य को समृद्ध दे सकता है?
उत्तर – जोशी और परसाई ने भी अखबारी व्यंग्य लिख कर व्यंग्य को समृद्ध किया है। रचना की गुणात्मकता पर निर्भर है।
- आप एक रचनात्मक लेखक हैं, आपके समकालीन लेखकों में अनेक सफल व्यंग्यकार रह चुके हैं और वर्तमान में है भी। अन्य सृजनषील व्यंग्यकार आप किन्हें मानते है? वर्तमान में नई पीढ़ी का नेतृत्व
करने वाला कोई सशक्त व्यंग्यकार है? वर्तमान के हास्य–व्यंग्यकारों के व्यंग्य लेखन पर अपने विचार प्रकट कीजिए?
उत्तर – आज कई सशक्त व्यंग्यकार अपना योगदान दे रहे हैं। नाम गिनाकर बहुतों के छूटने का डर है। व्यंग्य में किसी के नेतृत्व का प्रश्न नहीं, सब को अपनी अपनी रचनात्मक लड़ाई खुद ही लड़नी है। ज्ञान चतुर्वेदी वर्तमान में प्रमुख व्यंग्यकार है जिन्होंने उपन्यास, निबंध, कथा सब में अपना योगदान दिया है।
- इसमें सन्देह नहीं कि आज का व्यंग्य वर्तमान युग की विसंगतियों, विडम्बनाओं, विद्रूपताओं, कथनी और करनी पर प्रकाश डालता है। मात्र हँसने के लिए लिखा नहीं जाता। आज आम आदमी जिस दुष्चक्र में फँसकर घुट रहा है, व्यंग्य उसके दुःख को कम करने में कितनी सार्थक भूमिका निभा सकता है?
उत्तर – व्यंग्य विसंगति, विडम्बना, विद्रूप को प्रगट या अभिव्यक्ति करने का माध्यम है, दुःख कम करना या घटाना इस का लक्ष्य नहीं है। गालिब ने भी कहा है कि ‘‘दर्द का हद से गुजरना है, दवा हो जाना।’’ हद से गुजरना शायद सड़क की लड़ाई है, व्यंग्य का इससे वास्ता नहीं है।
साक्षात्कार दिनांक – 21.07. 2016
पता: 9/5 राणा मार्ग, लखनऊ