- सरकारी नौकरी के बढ़ते सामाजिक दवाब उसके प्रभाव और दुष्परिणाम
क्या सरकारी नौकरी ही सब कुछ है? क्या सरकारी नौकरी बिना ज़िदंगी नहीं जी सकती है क्या? आखिर क्यों अभिभावक भी अपने बच्चों को सरकारी नौकरी की रटमारी घूँट पिला देते की छात्र सरकारी नौकरी की आश मे कई छात्र आधि उम्र प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारियों में गुजारकर कोई कौशल नहीं सीख पाते की अपना जीवन यापन कर सके?
आखिरकार निजी कंपनीयो प्राइवेट नौकरीयों में किसी तरह शुरूआत करते भी हैं तो समाजिक ताने बाने छात्रों को आत्महत्या के लिए मजबूर कर देता है. सबको टाप करना होता है टाॅप के काॅलेज मे पढ़ना टाॅप नौकरी पाना ये समाजिक दवाब छात्रों पर गारजियन द्वारा जबरन थोप दिया जाता है आखिर क्यूँ? इन कारणों से छात्र मानसिक समाजिक दवाब को झेलते रहते धक्के खाते आखिरकार मौत को गले लगा लेता या ग़लत रास्तों पर निकल पड़ता है.
माना की सरकारी नौकरी के नाम पर सुविधाएं हर वो एशो आराम है जिसकी तलाश मे युवा पिढ़ी भटकती फिरती है. उन्हें समाजिक रूप से भी एसे ही दिवास्वपन दिखाए जाते हैं क्यूँ? क्या मेहनत मजूरी करने को हिकारत भरी नज़रों से देखने की आदत कब बदलेगी? निजी क्षेत्र मे प्रतिस्पर्धा और अपने आप को साबित करते रहने का बहुत दवाब भी रहता है और कौशल विकास में इसके फायदे भी मिलतें हैं. लेकिन यहाँ तो हर किसी को सरकारी नौकरी ही चाहिए? ना मिले तो छात्र छात्राएँ कार चोरी, ज़िस्मफरोशी, दलाली, लूट, अपराधिक वारदात, आत्महत्या जैसे घिनौने कार्य करते फिरतें हैं क्यूँ? क्या सरकारी नौकरी के बिना ज़िदंगी नहीं जी जा सकती है क्या?
आखिर हमारी शिक्षा और समाजिक नज़रिया सरकारी नौकरी के पीछे ही क्यूँ भागते फिरते? हम अपने बच्चों को जीवन कौशल क्यों नहीं सीखा पाते. आखिर सरकारी नौकरी के लिए समाजिक दवाब क्यों? इतना तक की शादी ब्याह भी सरकारी नौकरी देखकर तय किए जाने लगे? प्राइवेट नौकरी छोटे मोटे काम स्वरोजगार को महत्वहीन समझने और सरकारी नौकरी को ही सब कुछ मानने के सामाजिक दुष्परिणाम आत्महत्या, कार चोरी, दलाली, ज़िस्मफरोसी, अपराधिक लूट आदि घटित हो रहे. लेकिन फिर भी लोगों के समाजिक सोच, नज़रिया में बदलाव नहीं आया? जो बेहद चिंताजनक है?
सराकरी नौकरी के बढ़ते सामाजिक दवाब. रिजल्ट में धांधली, प्रतियोगिता परीक्षा का अतिंम परिणाम लेट लतिफी, कोर्ट केस, सरकारी नीतियाँ का स्पष्ट नहीं होना इन घटनाओं छात्रों की आत्महत्या के कारण हैं.
आलेख- डाॅ. किशन कारीगर
(©काॅपीराईट)