भारतीय लोकनाट्य में बिदेसिया का प्रदेय- डॉ. सतेन्द्र शुक्ल
डॉ. सतेन्द्र शुक्ल
सहायक प्राध्यापक
रामजस महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
ई-मेल- satendrashukla@ramjas.du.ac.in
सारांश
प्रस्तुत शोध आलेख “भारतीय लोकनाट्य में बिदेसिया का प्रदेय” में बिदेसिया नाटक से सम्बंधित विभिन्न आयामों जैसे बिदेसिया की उत्पत्ति, पलायन, रोजगार, और रंगमंच पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है। जब हम बिदेसिया नाटक पर गौर करते हैं तो हम यह देखते हैं कि लोक जनमानस में प्रेम का इजहार एवं विरह की शिकायत कहीं मिलती है तो वह बिदेसिया में ही मिलती है। बिदेसिया सिर्फ एक नाटक न होकर एक लोकगीत है जो आम जनमानस को स्वयं में पिरोए हुए है और जिसे आम जनमानस स्वयं में पिरोए हुए हैं। बिदेसिया और आम जनमानस को लेकर हम निश्चित रूप में यह कह सकते हैं कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।
बीज शब्द: बिदेसिया, लोकनाट्य, लोकजीवन, सामाजिक, सांस्कृतिक, गाँव
शोध प्रविधि: प्रस्तुत आलेख में विभिन्न द्वितीयक स्रोतों का प्रयोग किया गया है। जिनमें विभिन्न पुस्तकें , अखबार, व पत्रिकाएँ शामिल हैं।
शोध आलेख
जब भी बात बिदेसिया की होती है तो हमारे मन मस्तिष्क में एक छायाचित्र कौंध उठता है और वह छायाचित्र होता है बिदेस (प्रदेश ,अपने मूल निवास से कहीं सुदूर जाकर अस्थायी रूप से बसने वाला स्थान) का। भारतीय लोकनाट्य में भिखारी ठाकुर ने अपनी रचना बिदेसिया के माध्यम से जो कौतुहल पैदा किया है वह अद्वितीय है। इसमें सबसे मूल बात यह है कि यह नाटक भोजपुरी भाषा में लिखा गया। जिससे एक भाषा को सम्मान पूर्वक आगे बढ़ने और प्रतिष्ठित होने का अवसर मिला। बिदेसिया नाटक हमें यह बताता है कि कैसे पति के बिदेस (प्रदेश) चले जाने पर उसकी पत्नी विरह में व्याकुल रहती है और उसे यह आशंका होती है कि उसके पति किसी रण्डी (अन्य स्त्री) के रूप माया जाल में फँस गए हैं तथा अपने गाँव वापस नहीं आ रहे हैं। अपनी इस व्यथा को वह अपनी सखी से विभिन्न लोकगीतों के माध्यम से कहती है। भिखारी ठाकुर का बिदेसिया इसी कथा के इर्द गिर्द घूमता रहता है।
लोकजीवन से संबंधित सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताओं तथा प्रवृत्ति का निरूपण लोकनाट्यों में होता है। विशेष बात यह रहती है कि लोकनाट्य में संवाद तत्त्व की प्रधानता रहती है और चरित्र चित्रण को अपेक्षाकृत गौण स्थान प्रदान किया जाता है। लोकनाट्य में नृत्य और संगीत के साथ-साथ शारीरिक हाव-भाव एवं भंगिमाओं पर ध्यान दिया जाता है। यह भी देखा जाता है कि संवाद अधिकांशतः काव्यात्मक हो। लोक संगीत तथा विविध वाद्ययंत्रों जैसे हारमोनियम, ढोलक, नगाड़ा, सारंगी, बासुरी आदि की सहायता से संवादों को अधिक प्रभावशाली बनाने का प्रयत्न किया जाता है।
लोकनाट्यों को प्रभावशाली और मनोरंजक बनाने के लिए विदूषक की व्यवस्था की जाती है, जो प्राय: पेटू व्यक्ति होता है अथवा जिसकी शारीरिक बनावट कुछ विचित्र की होती है। उसकी वेशभूषा चाल-ढाल आदि इस प्रकार की रखी जाती है कि दर्शक को हँसने के लिए विवश होना पड़ता है। विदूषक से कई के मानक में घुली-मिली प्रमुख समस्या को प्रस्तुत करने में सहायक का काम भी लिया जाता है। यह मुख्य पात्र अथवा नायक के आस-पास रह कर उसके घर को समझने में सहायता तो करता ही है, लोकनाट्य द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले के विविध स्तरों को सामने लाता है। उसके अपने चरित्र में हास्य और व्यंग्य का विलक्षण समावेश होता है।
‘बिदेसिया’ बिहार का सर्वाधिक लोकप्रिय लोकनाट्य है। इसके रचयिता भोजपुरी लोकनाट्य परम्परा के महानायक “भिखारी ठाकुर” हैं। “बिदेसिया’ लोकनाट्य की रचना सन् 1914 में हुई। लोक- चितेरे भिखारी ठाकुर की बिदेसिया भोजपुरी समाज व संस्कृति का जीवन प्रतीक है। इसकी भाषा शुद्ध भोजपुरी है और शैली की दृष्टि से यह गीति काव्य है। भिखारी ठाकुर कृत बिदेसिया पर गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। ‘बिदेसिया’ लोकनाटक में तत्कालीन समाज की विशेषताओं को रेखांकित करने के साथ ही वहाँ के ज्वलंत समस्याओं को नाट्य रूप में अद्भुत किया गया है। नवविवाहिता पत्नी को छोड़ कर पति के ‘पलायन’ एवं उससे आने वाली एकाकीपन का दंश बिदेसिया की केन्द्रीय समस्या है। इसके साथ ही भिखारी ठाकुर ने इस लोकनाटक में लोक पक्ष को प्रतीकात्मक शैली में ‘जीव,ब्रह्म,गुरु और माया’ के स्वरूप में प्रस्तुत करते हैं।
बिदेसिया में मुख्य चार पात्र है- विदेशी, प्यारी सुंदरी, बटोही और रखेलिन(रंडी)। यहाँ विदेशी जीव का प्रतीक है, प्यारी सुन्दरी ब्रह्म का ,बटोही गुरु का एवं रखेलिन माया का प्रतीक है। विदेशी एक पुरुष पात्र है, जो अपनी नवविवाहितता प्यारी सुन्दरी के न चाहते हुए भी उसे बहला कर छुप-छुपाकर धनोपार्जन के निर्मित कलकत्ता चला जाता है। बिदेसिया जिस समय की रचना है उस समय कृषि कार्य के अभाव में गाँव के बेरोजगार युवक घर की आर्थिक स्थिति को देखते हुए रोटी रोजगार के लिए कलकत्ता, असम आदि राज्यों में पलायन करते थे। आज भी पलायन की यह समस्या क्षेत्रीय एवं वैश्विक स्तर पर व्यापक है। इस संदर्भ में बिदेशिया लोकनाटक अत्यंत प्रासंगिक है। कहा जाता है कि बिदेसिया की उत्पत्ति उत्तर प्रदेश के कुतुबपुर गाँव से हुई थी। जो लोग गाँव छोड़कर शहर जाते थे, उन्हें बिदेसिया के नाम से जाना जाता था। ऐसे ही एक व्यक्ति थे, भिखारी ठाकुर। वह एक प्रसिद्ध लोक कलाकार और नाटककार थे। ठाकुर अनपढ़ थे फिर भी उन्होंने खुद से तुलसीदास द्वारा लिखित रामचरितमानस को पढ़ना और याद करना सीखा, इसलिए वह उन्हें अपना साहित्यिक गुरु मानते थे। उन्हें भोजपुरी का शेक्सपियर कहा जाता था। ठाकुर ने बिदेसिया सहित बारह नाटक और बहुत सारे गीत लिखे हैं। ठाकुर ने अपने नाटकों और गीतों में महिलाओं, निम्न जाति के लोगों और गाँवों में रहने वाले गरीब लोगों से संबंधित सामाजिक मुद्दों को उठाया। उन्होंने अपने नाटकों में भी अभिनय किया और अपने समय की विभिन्न प्रस्तुतियों का निर्देशन किया था। बिदेसिया की यह कला शैली हिंदू जाति प्रथा की तथाकथित निचली जाति से संबंधित था। इस कला शैली का सार समाज की बुराइयों पर प्रकाश डालना है और इसलिए इसमें पोशाक को कम महत्व दिया जाता है। प्रदर्शन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिकाएँ सूत्रधार (कथावाचक) और समाजी (संगीतकारों) की होती है। बिदेसिया एक प्रसिद्ध नाटक है जो देशपरिवर्तन की समस्या और पीछे रह गई महिलाओं पर इसके प्रभाव की ओर ध्यान आकर्षित करता है।
भोजपुरी भाषा के शेक्सपियर के रूप में पहचान रखने वाले, लोक नाट्यकार भिखारी ठाकुर एक विशिष्ट रंगकर्मी होने के साथ-साथ स्त्री-विमर्श एवं दलित-विमर्श के रचनाकर और एक संवेदनशील कलाकार के रूप में भी प्रतिष्ठित नाम हैं। भिखारी ठाकुर का जन्म 18 दिसंबर को बिहार के गंगा तथा सोन नदी के संगम पर बसे कुतुबपुर दियारा गांव में हुआ। इस क्षेत्र के लोग न केवल देश के विभिन्न राज्यों बल्कि गिरमिटिया मजदूर के रूप में मॉरिशस, सूरीनाम, फीजी, गुयाना, हॉलैंड आदि देशों में ले जाये गए। यद्यपि भिखारी ठाकुर का पालन-पोषण एक निम्नवर्गीय परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम दल सिंगार ठाकुर और माता का नाम शिवकली देवी था। बचपन में कुछ समय तक स्कूल जाने के बाद उन्होंने स्कूल जाना छोड़ दिया। गाँव के दूसरे चरवाहों के साथ गाय घराने जाने लगे। जहाँ अपने घरवाह मित्रों के साथ लोकगीत गाते, नकल उतारते और शाम तक घर वापस आ जाते भिखारी ठाकुर जैसे-जैसे बड़े हुए, उन्होंने पढ़ना लिखना सीखा और अक्षर जोड़कर, शब्दों को बैठाकर कविता आदि करने लगे। परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, गांव में रहकर धन कमाने का ऐसा कुछ साधन भी नहीं था, इसलिए वे घर को छोड़कर खड़कपुर चले गए। जहाँ उन्होंने धन कमाना शुरू किया, वहीं पर उन्होंने रामलीला, रासलीला, जात्रा जैसे लोक नटरंग देखने शुरू किए। एक बार घूमने के इरादे से भिखारी ठाकुर जगन्नाथ पुरी की यात्रा को निकले, यहाँ स्नान कर भगवान जगन्नाथ के दर्शन प्राप्त किए। इस घटना ने उनके जीवन को बदल दिया। उसके बाद खड़कपुर छोड़कर वापस अपने गांव कुतुबपुर आ गए और साधु संतों की संगत में बैठकर रामचरितमानस का पाठ, भजन कीर्तन सीखने लगे। धीरे-धीरे उन्हें इस कार्य में महारत हासिल हो गई, उन्हें लगभग पूरी रामचरितमानस कंठस्थ हो गई। इसके साथ ही कुछ गीत और काव्य आदि की रचना भी करने लगे। उन्होंने गाँव के युवाओं को जोड़कर रामलीला का मंचन प्रारंभ किया, उनके गीत और कविताएँ ऐसी सरल भाषा और लोकरंग लिए होती थी कि दूर-दूर से लोग उनकी ओर से खिंचे चले आते थे। उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी। अब वे रामलीला के प्रदर्शन के लिए गांव के बाहर भी जाने लगे। तैयब हुसैन ने इस बारे में लिखा है। आम के आम और गुठलियों के दाम’ की तरह उन्हें नाम और दाम दोनों मिलें नाम इस रूप में कि उनके गीत, नृत्य और नाटक लोक परम्पराओं से जुड़े थे जो जल्दी ही लोकप्रिय हो गए क्योंकि उनमें लोगों को अपनी छवि दिखाई देती थी, अपना सुख-दुःख अपनी कहानी इससे उनकी आत्मीयता स्वाभाविक थी। भिखारी के भीतर के कलाकार को संतोष मिला और प्रोत्साहन भी। फलतः उनका विकास होने लगा। फिर ऐसा दिन भी आया जब भिखारी का नाच ‘बिदेसिया’ नाम से शादी-ब्याह, पर्व-त्योहार और दूसरे उत्सव में मनोरंजन के साथ सामाजिक प्रतिष्ठा से भी जुड़ गया। वास्तव में उनके रचनाकार व्यक्तित्व ने अपने क्षेत्र की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि परिस्थितियों को बहुत ही करीब से देखा था। वे अपने समाज की परंपराओं और स्त्रियों की दशा से भी भलीभाँति परिचित थे।
बिदेसिया लोकनाट्य में तत्कालीन समाज की प्रमुख समस्याओं को स्थान मिला है। भिखारी ठाकुर के अपने लोक से गहराई से जुड़े थे। अत: समाज में व्याप्त बुराइयों एवं समस्याओं को सामुहिक रूप से विचार-विमर्श का मुद्दा बनाने के लिए एवं उसके समाधान के लिए लोगों को प्रेरित करने के लिए, सामाजिक मनोरंजन के सर्वाधिक उत्तम साधन-‘लोकनाट्य’ के माध्यम से समस्या आदि के रूप में चयनित करते हैं। हैरत की बात तो यह है कि तत्कालीन समाज की समस्या आज भी समाज में देशी एवं वैश्विक स्तर पर मुंह खोले खड़ी है। स्वाधीनता के आन्दोलन से गति पाई ‘पलायन की समस्या’ सात दशकों से निरन्तर बनी हुई है।
‘बिदेसिया नाटक में पलायन की समस्या ‘पलायन से उपजी स्त्रियों की विरह-पीड़ा एवं एकाकीपन, वेश्यावृत्ति की समस्या एवं पूँजीबाद या औद्योगिकीकरण की समस्या पर सूक्ष्म दृष्टिपात किया गया है। कहीं-न-कहीं इन सभी के मूल में पलायन की समस्या व्याप्त है। यह समस्या आज देशी और वैश्विक दोनों स्तर पर फैली हुई है।
पलायन के कारणों की पड़ताल से पहले पलायन क्या है यह जान लेना आवश्यक है। पलायन एक स्थान से दूसरे स्थान तक लोगों की आवाजाही है। यह एक छोटी या लंबी दूरी के लिए अल्पकालिक या स्थायी स्वैच्छिक या विवशता के कारण, अन्तर्देशीय या अन्तर्राष्ट्रीय हो सकता है। बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश में पलायन किए हुए व्यक्ति को उसके मूल स्थान पर बिदेसी संबोधित करते है। वह व्यक्ति जो अपना मूल स्थान छोड़कर अन्यत्र गमन कर चुका है ‘बिदेसी’ कहलाता है। बेरोजगारी , शैक्षिक सुविधा का अभाव, बदतर जीवन शैली, राजनीतिक, धार्मिक एवं भाषिक सहभागिता का अभाव, प्राकृतिक आपदा, आदि पलायन का मजबूत कारण बने।
भिखारी ठाकुर ने जितनी भी मौलिक रचनाएँ की वे सभी अपने क्षेत्र की समस्याओं का प्रतिनिधित्व करती है। बिदेसिया नाटक के माध्यम से उन्होंने स्त्री की विरह वेदना को प्रस्तुत किया है, जो उस समय की सबसे विकट समस्या थी। गाँव के पुरुष जीविकोपार्जन के लिए अन्य प्रदेशों में जाते थे और उनके पीछे उसकी पत्नी और परिवार वाले संतप्त रहते थे। ‘भाई विरोध’ नाटक में संयुक्त परिवार के विघटन की कथा है। ‘विधवा विलाप’ में विधवा स्त्री के प्रति होने वाला सामाजिक अत्याचार प्रस्तुत हुआ है। ‘गंगा असमान’ नाटक में धार्मिक आडम्बर किस तरह समाज को खोखला कर रहे हैं, जबकि ‘पुत्र वध’ नाटक में नारी चरित्र का विचलन प्रस्तुत हुआ है। ‘गंबर थियोर’ नाटक में जीते जागते इंसान को वस्तु समझने की मानसिकता दर्शाई गई है। ‘ननद भउजाई’ नाटक में बाल विवाह की समस्या तथा कलयुग प्रेम’ में समाज में बढ़ रही नशाखोरी की समस्या का चित्रण हुआ है। जबकि ‘बेटी वियोग’ नाटक के माध्यम से उन्होंने बेटी बेचने की प्रथा पर कुठाराघात किया है। इस प्रकार इन नाटकों के माध्यम से उन्होंने ऐसे कथानकों को पुना, जो समाज में ही चारों और व्याप्त थे, जिनके सुधार पर कोई ध्यान नहीं दे रहा था उन्होंने इन समस्याओं को उठाकर जहाँ धर्म के ठेकेदारों को, धार्मिक आडंबरों के लिए खबरदार किया, वहीं समाज को भी अपनी रूढिगत परंपराओं को छोड़ने के लिए प्रेरित किया।
भिखारी ठाकुर का समय भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का युग था। उस समय समाज सुधार एवं स्वतंत्रता आंदोलनों का प्रचार-प्रसार पूरे देश भर में चल रहा था। भिखारी ठाकुर नामक सोनोग्राफ में तैयब हुसैन पीड़ित लिखते हैं “भिखारी का काल अंग्रेजी राज के कारण गाँव में उथल-पुथल का काल था। पहली बार भारत की सामंती संस्कृति में पूंजीवादी संस्कृति हस्तक्षेप कर रही थी। वर्ण-व्यवस्था रखने की कोशिश जारी थी। गृह उद्योग नष्ट हो रहे थे। लकदक करती विदेशी चीजें शहर से मुंबई हाट में प्रवेश करने लगी थीं। टैक्स के लिए अंग्रेजों का जमीदारों पर और जमींदारों का रैयतों पर दबाव बढ़ रहा था। नवजवान ग्रामीणों का शहर की ओर रुख स्वाभाविक हो गया था। ऐसे में उनका शहर चालू औरतों के शिकंजों में फँसना अथवा उनकी ब्याहता घरवाली पर गैर मर्द का घेरा पड़ना उनकी नियति बन रही थी। भिखारी ठाकुर जी की सबसे बड़ी युगीन समस्या थी पलायन वृत्ति। गांव का युवा रोजगार की तलाश एवं धन कमाने की चाह में अपने घर-गाँव को छोड़कर सुदूर प्रदेश में जाकर बस रहा था। पलायन की यह समस्या उन्होंने स्वयं भोगी थी। उन्होंने अपने नाटकों में सामाजिक सरोकारों से जुड़े पक्षों को ऐसा बाँधा कि अभिव्यक्ति की एक शैली भिखारी शैली के नाम से जानी जाती है। आज भी सामाजिक कुरीतियों की यह गूंज क्षेत्र विशेष में सुनाई पड़ती है। भिखारी ठाकुर ने समाज सुधार हेतु लोकधमी शैली का चयन किया। बिहार के प्रसिद्ध लोक-पारंपरिक नाथ लोरिक नाच के माध्यम से अपने समाज की तत्कालीन समस्याओं को स्वर दिया, साथ ही लोगों में चेतना जागृत करने का प्रयास किया। ये लोक धर्मी रचनाकार ही नहीं थे, बल्कि सामाजिक कुरीतियों से लगातार लड़ने और जुड़ने वाले कटिबद्ध कलाकार थे। उन्होंने बिहार क्षेत्र की लोक शैली लोरिक नाथ प्रतिष्ठित किया था। भिखारी ठाकुर का सबसे ज्यादा ध्यान पलायन वृत्ति को रोकना था, इसके लिए उन्होंने बिदेशिया नामक शैली को पुनर्जीवित किया। यह लौरिक नाच का ही एक रूप था, जिसमें एक स्त्री अपने पति के विदेश चले जाने पर परदेस जाने वाले बटोही को रोककर अपनी व्यथा सुनाती है। परदेश गये अपने पति को शीघ्र घर वापस आने का संदेश भिजवाती है। बटोही भी परदेस में रहने वाले उस परदेसी को ढूंढकर उसे घर वापस भेजने का भरसक प्रयास करता है। यह लोक शैली बिदेसिया के नाम से ही जग प्रसिद्ध हो गई।
बिदेसिया नाटक में स्त्री की प्रभावमयी भूमिका को हम संक्षेप में इस प्रकार देख सकते हैं – बिदेसी (पति) गौना के बाद विदा कराके अपनी पत्नी प्यारी सुन्दरी को घर लाता है। पति-पत्नी अभी दोनों ही गौना के शुभ और रंगीन वस्त्र में हैं। उनके पैर का महावर अभी छूटा भी नहीं है। तभी अचानक बिदेसी को कलकत्ता जाने की धुन सवार हो गई। नई ब्याहता पत्नी के लाख मनुहार करने पर भी बिदेसी पत्नी को तरह-तरह के प्रलोभन देकर गाँव-घर और बिसूरती ब्याहता को छोड़ कर कमाने के लिए शहर चला गया। कलकत्ता में जाकर कुछ रूपया कमाने के बाद बिदेसी शहर के चमक-दमक में अपना घर, अपनी पत्नी सबकुछ भूलकर वहीं का होकर रह गया। बिदेसी वहाँ एक अन्य स्त्री के साथ गृहस्थी बसा लेता है। दूसरी औरत से उसके दो बच्चे भी हैं।
गाँव में प्यारी सुन्दरी पति की प्रतीक्षा में रो-रोकर बेहाल है। एक दिन एक बुजुर्ग बटोही को देख कर प्यारी सुन्दरी उनके गन्तव्य स्थान के विषय में पूछती है। बटोही के द्वारा यह बताने पर कि वह कलकत्ता जा रहे हैं, प्यारी सुन्दरी उनसे अपना सारा दुःख सुनाती है और अपने स्वामी का रूप-रंग बताते हुए बटोही से उनको ढू्ँढ़ लाने की प्रार्थना करती है। बटोही कलकत्ता जा कर बिदेसी को ढू्ँढ़ लेते हैं। वे बिदेसी को समझा-बुझाकर घर लौटने के लिए राजी कर देते हैं। बिदेसी दूसरी स्त्री को छोड़ कर अपने घर-गाँव लौट आता है। बिदेसी के गाँव लौटने के पश्चात दूसरी स्त्री भी अपने दोनों बच्चों के साथ बिदेसी के घर का पता पूछते-पूछते पहुँच जाती है। प्यारी सुन्दरी पति को पाकर धन्य हो गई और उपहार-स्वरूप सौत तथा दो बच्चे भी उसकी झोली में डाल दिए गए। इस प्रकार अन्त में पूरा परिवार मिल जाता है। प्रकट में ऐसा प्रतीत होता है कि नाटक सुखान्त है। किन्तु, नाटक पढ़ने के बाद उसके अलिखित और अघोषित प्रश्न मस्तिष्क को मथने लगते हैं। इस पुरूष-प्रधन समाज में क्यों, क्या और कब तक सारी मर्यादा के निर्वाह की जिम्मेदारी स्त्री पर थोपी जाती रहेगी? स्त्री को ही कब तक हर बार त्याग की मूर्ति बनना पड़ेगा? स्त्री-पुरूष सम्बन्ध में स्त्री चाहे पत्नी के रूप में हो अथवा प्रेयसी के रूप में , कब तक छली जाती रहेगी? इस विषय में सबसे पीड़ादायक पहलू है – पुरूष द्वारा छली गई स्त्री को अन्त में समाज द्वारा अपशब्दों से नवाज़ा जाता है ( रचनाकार ने दूसरी स्त्री के लिए जो शब्द प्रयुक्त किया है, सभ्य और शिष्ट समाज में वह एक भद्दी गाली है )।
बिदेसी के परदेस चले जाने पर प्यारी सुन्दरी कहती है –
तूरि दिहलन पति-पत्नी नतवा ए सजनी।
हमरा घोटात नइखे कनवाँ भर अनवाँ ए सजनी।
चाभत होइहे मगही पानवाँ ए सजनी।
पत्नी प्यारी सुन्दरी जो कुछ ही दिन पूर्व ब्याह कर ससुराल आई है, अभी गाँव-घर के कोनों से भी परिचित नहीे हो पाई, पति-पत्नी के रिश्ते की गरिमा और मर्यादा को समझ रही है। बिदेसी के परदेस-गमन के पश्चात वह अकेली ही ससुराल के चौखट के भीतर रहकर अपना दायित्व निभा रही है। बिदेसी पति-पत्नी के पवित्रा बन्धन को तोड़कर अपने तन-मन के सुख में डूबा हुआ है। विरहणी पत्नी दुःख में अन्न का एक कण भी कंठ से नीचे नहीं उतार पा रही है।
पियऊ का बियोग में प्रान छुटि जाई,
हमरे सिरवे बीतत बा, ना दोसरा का बुझाई।
पति के वियोग में पत्नी प्यारी सुन्दरी के प्राण निकलना चाहते हैं। प्यारी सुन्दरी कहती है कि पति-वियोग का यह दुःख जो मेरे ऊपर बीत रहा है उसे कोई दूसरा महसूस नहीं कर सकता। विरह की जिस ज्वाला में प्यारी सुन्दरी जल रही है, उसकी आँच बिदेसी को क्यों नहीं लगती? इतना ही नहीं गाँव के मनचलों से वह अपने सतीत्व को भी बचाती है। गाँव का कथित देवर भाँति-भाँति के प्रलोभनों के द्वारा प्यारी सुन्दरी को रिझाने का प्रयास करता है –
भउजी काहे रोवत बाड़ू चुप रह भइया परदेस गइलन,
तू हमरा से रूपया, गहना, कपड़ा जे कुछ खोज हम देब।
यहाँ गाँव के मनचले देवर के रूप में पुरूष की यौवन-लोलुप-दृष्टि दिखाई देती है। इस बहाने से रचनाकार ने सती के सतीत्व को भी परखा है। प्यारी सुन्दरी अपने चारित्रिक दृढ़ता का परिचय देती हुई देवर को दो टूक जवाब देती है –
प्यारी के मन लागल बाटे जहंवा बाड़न राम।
माड़ो में सत बंध्न भइल बा कहत भिखारी हजाम।।
हिन्दू विवाह की रस्म में विवाह-मण्डप में दुल्हा-दुल्हन अग्नि को साक्षी मानकर सात फेरे लेते हैं। ये सात फेरे सात जन्मों के बंधन हैं। लेकिन इस सातबंधन में क्या दुल्हन ही बांधी जाती है? दुल्हा सभी बंधनों से मुक्त रखा जाता है? प्यारी सुन्दरी को इस सातबंधन की सुदृढ़ता और पवित्रता का अहसास है। पति की लंबी अनुपस्थिति में भी वह विवाह-मण्डप में लिए गए सात फेरे की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करती है। जो बंधन प्यारी सुन्दरी को बांधे रखता है, वही बंधन बिदेसी के लिए अर्थहीन क्यों हो गया?
बटोही के समझाने पर बिदेसी अपने गाँव प्यारी सुन्दरी के पास लौटने के लिए आतुर हो जाता है। दूसरी स्त्राी बिदेसी को जाने नहीं देना चाहती क्योंकि अब बिदेसी से ही उसका भी घर-संसार है, दो बच्चे भी हैं। वह बिदेसी से कहती है –
पिया पिरतिया लगाई के, दूर देस मत जाहू।
कहे भिखारी भीख मांगि के लाइब, तुम खाहू।
किन्तु, बिदेसी को इस स्त्री का प्रेम और उससे पैदा हुए दो बच्चे भी रोक नहीं पाए। बिदेसी स्वार्थी पति, धूर्त प्रेमी तथा गैर-जिम्मेदार पिता साबित होता है। विवाहित बिदेसी परदेस जाकर, कुछ रूपया-पैसा कमाने के पश्चात अपने इन्द्रिय सुख के लिए दूसरी स्त्री के साथ घर बसा लेता है। रचनाकार जो कि समाज के विचार का प्रतिनिधित्व करता है, पुरूष के उच्छृंखलता को नजरअंदाज करता है और दूसरी स्त्री को बड़ी सहजता से पूरे नाटक में जिस शब्द द्वारा सम्बोधित करता है, वह किसी भी स्त्री के लिए अपमानजनक है। मनचले देवर के माध्यम से प्यारी सुन्दरी के सतीत्व की भी परीक्षा ली गई है अर्थात्, पति की अनुपस्थिति में पत्नी को भी शक के दायरे में रखा गया है। अकेली स्त्री के चरित्र की ठेकेदारी समाज अपने ऊपर ले लेता है। पति (बिदेसी) के घर लौटने पर पत्नी (प्यारी सुंदरी) पति के साथ ही उसकी प्रेयसी और उसके दो बच्चों को सहने के लिए बाध्य है।
भिखारी ठाकुर ने ‘बिदेसिया’ में ऐसी स्त्रियों के पुनर्संयोजन के लिए मार्ग प्रशस्त किया है, जिन्हें समाज घृणित दृष्टि से देखता है। किन्तु यहाँ प्रश्न दूसरे तरह का है। एक ही घर में दो स्त्रियां, एक पुरूष के साथ साँझा करने के लिए लाचार हैं। ऐसी स्थिति में दोनों ही स्त्रियां क्या संतुष्ट और खुश रही होंगी? दोनों स्त्रियों की बेचैनी का अंदाज रचनाकार अथवा समाज को क्यों नहीं है? दो स्त्रियों के बीच पुरूष बेदाग और सभी आरोपों से मुक्त है। उसके जीवन में पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्री का होना सहज तथा परिस्थितिजन्य है। ‘बिदेसिया’ में रचनाकार ने समाज के पुरूष-प्रधान विकृत मानसिकता को स्थापित किया है।
‘बिदेसिया मूलतः गीतात्मक नाट्य शैली है, जिसमें गीत और संगीत का विशेष महत्व है। गायन ऊँचे स्वर में किया जाता था। गीत में साथ देने के लिए कोरस भी होता था, जिन्हें समाजी’ नाम की संज्ञा दी जाती थी। ये समाजी मंच पर ही उपस्थित रहते हैं। कभी-कभी ‘ए’ या ‘हो’ आदि बोलकर ताल देने का कार्य करते हैं। बीच में छोटा-मोटा अभिनय भी कर लेते हैं। गायन करने, वाद्य यंत्रों के वादन और भीड़ आदि के संवाद बोलने की भूमिका अदा करते हैं। बिदेसिया में गीतों के साथ नृत्य का भी संयोजन होता है, पर नृत्य, गीत आरोपित ना होकर पटना की माँग होते हैं। बिदेसिया शैली के नृत्य में स्वाभाविकता अधिक होती है, नृत्य में कमर की गति और उछल-कूद पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है बिदेसिया को किसी विशिष्ट रंगमंच की आवश्यकता नहीं थी। चार-पांच लगती को जोड़कर भी संघ बना लिया जाता था। जिसके एक तरफ समाजी, अभिनेता और बाकी तीन तरफ दर्शक बूँद बैठा करते थे ना कोई पर्दा होता, ना दृश्यबन्ध की आवश्यकता होती थी। बिदेसिया शैली में पारसी संघ का ज्यादा महत्व नहीं होता, कलाकार रूप सज्जा के लिए पाउडर, काजल, बिंदी, बाली आदि केवल यही प्रयोग करते हैं। वेशभूषा में साधारण धोती, मिरजई और स्त्री पात्र साड़ी और ब्लाउज पहनते थे अभिनय की दृष्टि से पारसी रंगमंच की तरह वि
बिदेसिया नाट्य किसी तरह का भ्रम नहीं पैदा करते थे। इसमें पात्र और चरित्र का अस्तित्व मंच पर बराबर रखा जाता था। इसमे अतिरंजना का प्रयोग ना करके सहजता एवं स्वाभाविकता बनाए रखने का प्रयास रहता था। स्त्री पात्रों की भूमिका में पुरुष कलाकार ही निभाते थे। इन विशेषताओं के फलस्वरूप आज बिदेसिया को राष्ट्रीय स्तर पर विशेष पहचान मिल चुकी है। इस कृति के माध्यम से भिखारी ठाकुर का सांस्कृतिक योद्धा और समाज चितक का रूप मुख्यतः उभरा है। वास्तव में वे अपने जीवन काल में ही लीजेंड बन चुके थे।
निष्कर्षत: हम यह कह सकते हैं कि लोकनाट्य एवं रंगमंचीय शैली में अनेक नवीन प्रयोग होत रहते हैं और हम निश्चित रूप से यह कह सकते हैं कि भारतीय लोकनाट्य में बिदेसिया का प्रदेय अद्वितीय एवं अतुलनीय हैं।
सन्दर्भ सूची –
- फिजी में हिन्दी : विविध प्रसंग , सं. डॉ. राजेश कुमार “माँझी” सर्व भाषा ट्रस्ट , जे – 49 गली नं. 38 राजापुरी मेन रोड नई दिल्ली 110059
- बिदेसिया- भिखारी ठाकुर , हिन्दी समय डॉट काम
- बिदेसिया की स्त्री, अर्चना उपाध्याय, सहचर त्रैमासिक ई पत्रिका ,7 मई 2017
- लोकनाट्य परम्परा और प्रवृत्तियाँ – महेन्द्र भाणावत, बाफना प्रकाशन , जयपुर