स्त्री-अस्मिता का सैद्धान्तिक पक्ष
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
डी॰ सी॰ एस॰ के॰ पी॰ जी॰ कालेज, मऊ
वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर, उ॰ प्र॰
शोधार्थी हिन्दी
डी॰ सी॰ एस॰ के॰ पी॰ जी॰ कालेज, मऊ
वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय, जौनपुर, उ॰ प्र॰
अस्मिता, मनुष्यता के विकासक्रम में मानवीय भूमिका को उसकी भीतरी और बाह्य चेतना के साथ रेखांकित करने वाली मनःस्थिति है। जैसे-जैसे मनुष्य अधिक प्रगतिशील, विज्ञानसम्मत और धार्मिक सहिष्णुता के स्तर पर विकसित हुआ वैसे-वैसे अस्मिताओं ने अपने जीवनानुशासन और समालोचनात्मक दृष्टि को भी विकसित किया। अस्मिता की खोज बाह्य और आंतरिकता के विभाजन से हटकर एक समाज वैज्ञानिक विकास में अपनी कसौटी की खोज है। अस्मिताओं की प्रासंगिकता और उनकी ऐतिहासिकता का सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि कैसे मनुष्यता के इतिहास के साथ हम शोषण, उत्पीड़न, लैंगिक असमानता और सत्ता केन्द्रीयकरण का इतिहास भी पल्लवित होते देखते हैं। सदियों से होते आये लैंगिक दमन और असमतामूलक राजनीति ने स्त्री-अस्मिता के अध्ययन को नवीन सामाजिक दर्शन का एक जरूरी हिस्सा बना दिया है।
दर्शन और चिंतन के स्तर पर जो ‘अस्मिता’ है वही व्यवहार और आंदोलनों के स्तर पर ‘विमर्श’ है। अपने अस्तित्व, स्वत्व और सामाजिक ताने-बाने में एक आवश्यक और अपरिहार्य हस्तक्षेप के रूप में स्त्री की अस्मिता की उपस्थिति ही विमर्श कहलाती है। समर्पण, ग्लानि, दैन्य और प्रारब्ध से स्त्री होने की नियति अर्थात परवश होने की विवशता और पुरुष के एकाधिकारवादी माहौल से स्त्री को मुक्त कराने का जो सैद्धांतिक और क्रियात्मक पक्ष है वही स्त्री-विमर्श का मूल स्वरूप है। जहाँ भावुकता का स्थान विवेक, विषमता का स्थान समानता, परम्परा का स्थान वैज्ञानिकता और नियति का स्थान चेतना ले लेती है वहीं से अस्मितामूलक विमर्श की शुरूआत होती है। स्त्री-अध्ययन के संदर्भ में इसे स्त्री-अस्मिता और स्त्री-विमर्श कहते हैं।
अस्मिता का हेतु और उसका ध्येय सामाजिक ही होता है। प्रथमतः व्यक्ति सामाजिक परिस्थिति और संबंधों में अपनी पहचान और उपस्थिति को सुनिश्चित करता है और फिर निजी स्तर पर अपने स्वत्व को सामाजिक अभिप्राय के साथ संयुक्त करने का प्रयास करता है। यह चरणबद्ध न होकर निरन्तर समानान्तर प्रक्रियाएँ हैं। जिस तरह से समाज व्यक्ति के उपयोग और उसकी उपादेयता को परिभाषित करता है उसी तरह व्यक्ति भी समाज की आकांक्षाओं और उसके दायित्व का वहन करता है। यह एक समूहगत प्रणाली है। समस्या तो तब आती है जब कोई एक पक्ष दूसरे पक्ष पर नियंत्रण करने या हावी होने की भावना से संचालित होता है। यदि व्यक्ति समाज पर बलपूर्वक हावी होता है तो वह समाज की मौलिक संरचना को ध्वस्त करता है। जैसे-जैसे विभिन्न मानवीय तौर तरीकों ने अपनी पहचान को बढ़ाया, उसे नये रीति-रिवाजों से जोड़ा और धार्मिक, वैज्ञानिक मान्यताओं के साथ घुला-मिला दिया वैसे-वैसे अस्मिताएं व्यवहारिक रूप से कठोर और तल्ख़ तेवर वाली होती गयी। इसमें मनुष्य की बौद्धिक क्षमता और उसका व्यक्तित्व, सामाजिक परिस्थिति और जीवन को विकृत करता है। इससे न्याय और समूहगत धारणाओं के हृास की प्रवृत्ति बढ़ती है जो कि अनुचित है। अस्मिता के सवाल व्यक्तिगत पहचान के साथ-साथ सामाजिक अस्तित्व और स्थापत्य के भी सवाल हैं। बिना सामाजिक भूमिका के अस्मिता के सवाल भी सम्बोधित नहीं किये जा सकते। इसलिए अस्मिता के सवाल जितने व्यक्तिगत पहचान को तलाशने के हैं उतने ही समाज के द्वारा बनायी गयी असमानता और विषम अस्तित्वहीनता के भी हैं।
जैसा कि हम ऊपर कह आये हैं कि अस्मिता जितनी स्वयं के प्रति प्रश्नाकुल होती है उतनी ही समाज के प्रति मुखर भी होती है। ध्यान रहना चाहिए कि स्वयं की पहचान और गौरव का अर्थ स्वयं से निःसंगता नहीं है। वस्तुतः सामाजिक अंतर्विरोधों के बीच व्यक्तिगत सत्ता का वस्तुगत सत्ता के साथ एक द्वन्द्वात्मक योग है। जैसा कि अभय कुमार दुबे कहते हैं ‘‘यह एक ऐसा दायरा है जिसके तहत व्यक्ति और समुदाय यह बताते हैं कि वे खुद को क्या समझते हैं। अस्मिता का यह दायरा अपने आप में एक बौद्धिक, ऐतिहासिक और मनोवैज्ञानिक संरचना का रूप ले लेता है जिसकी रक्षा करने के लिए व्यक्ति और समुदाय किसी भी सीमा तक जा सकते हैं।’’ भारत का भूमण्डलीकरण, संपादक- अभय कुमार दुबे, वाणी प्रकाशन, 2007, पृष्ठ-455
इन संदर्भों का आधार लेकर यह एक बात कही जा सकती है कि अस्मिता व्यक्तिवत्ता, निजता, अहंता के साथ अपनी केन्द्रीय शक्ति के होने का बोध कराती है। और साथ ही वह भौतिकता की अन्य अनुभूतियों और समाज चिंतन की लोक उन्मुखता से जुड़े हुए अन्य पहलुओं से भी संबंध रखती है। यह समय पर अपना परिवेश, अनुशासन और उसकी व्याख्या बदलती रहती है। यही वजह है कि कभी एक दूसरे के साथ संयुक्त होकर, कभी समानांतर रहकर और कभी प्रतिगामी बनकर व्यक्ति और समूह दोनों ही अस्मिता प्राप्ति के लिए निरन्तर संघर्षरत रहते हैं। अस्मिता के प्रति यही बहुआयामी तनाव इन्हें दिशाहीन होने से बचा ले जाता है। यह सही है कि आज के औद्योगिक शहरीकरण और पूँजीवादी आधुनिकता के दौर में अस्मिता के प्रश्न अधिक जटिल और विपर्यस्त हैं। इससे उनकी संघर्ष और प्राप्ति अधिक दुष्कर और सूक्ष्म हो गयी है। इस स्थिति को विश्लेषित करते हुए राजेन्द्र यादव कहते हैं ‘‘अब इस आइडेंटिटी नाम के तत्व ने अजब संकट खड़ा कर दिया है। अस्मिता जितनी मेरी है उतनी ही मेरे परिवेश और परम्परा की भी है। उसमें वर्ग, वर्ण, क्षेत्र, धर्म, लिंग, परम्पराएं सभी कुछ घुसे और घुले मिले हैं।‘‘ हंस, राजेन्द्र यादव, जून 2003, पृष्ठ 9
हम देख आये हैं कि अस्मिता संघर्ष की शुरूआत किसी भी वर्ग, जाति, परिवार, वंश, समुदाय, क्षेत्र, संगठित संस्था और यहां तक कि राष्ट्र के स्वयं को दमित, आक्रांत, वंचित और उत्पीड़ित होने के आधारभूत एहसास से शुरू हो जाती है। जिसमें अन्य सभी केन्द्रीय और प्रतिनिधि ताकतों के सामने सबसे बड़ा उद्देश्य अपनी पहचान और अधिकारों की रक्षा का होता है। ऐसे ही सत्ता के नियंत्रणवादी और शोषणवादी चरित्र के सम्मुख विवश और वंचित संस्कृतियां अपना स्वर मुखरित करने लगती हैं। इस संदर्भ में अर्चना वर्मा कहती हैं ‘‘अस्मिता एक हद तक संबद्धता, सरोकार, लगाव और अपनत्व का प्रश्न भी है। जिसे अंग्रेजी में सेंस आफ बिलांगिंग कहा जाता है।’’ अस्मिता विमर्श का स्त्री स्वर, अर्चना वर्मा, मेधा बुक, जनवरी 2008, पृष्ठ 32
हम यह जानते हैं कि चाहे साहित्य का पक्ष हो या फिर सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य, वास्तविक मुद्दा हमेशा मानवीय विवेक और लोकाग्रहों के प्रगतिमूलक विकास का रहा है। जब तक किसी भी नागरिक, राजनीतिक, रचनाकार और संस्कृतिकर्मी की विचारधारा अनुभूत सांसारिकता से युक्त नहीं होगी, जब तक वह अंतरसंघर्ष से नहीं जुड़ेगी तब तक बाहरी टकराहटों और विरोधों का सामना भी नहीं कर सकेगी। किसी कारण से अस्मिता प्राप्ति का संघर्ष बहुत बार हिंसक अभियानों और आत्महन्ता प्रवृत्तियों की ओर भी मुड़ जाता है जैसा कि अमत्र्यसेन कहते हैं ‘‘अस्मिता को प्राप्त करने की प्रबल आकांक्षा हिंसा को जन्म देती है। अपनी अस्मिता पर आये खतरे के समक्ष अन्य भावनाएं जैसे सहानुभूति, सहनशीलता, सद्भावना इत्यादि क्षीण हो जाती हैं तो पहचान की भावना हत्याएं भी करवा सकती है। किसी समूह के अंग होने की पहचान और यह कि हम दूसरों से अलग हैं कई दफा दूसरे समूहों से दूरियां और उनसे भिन्न होने का भाव भी पैदा करता है।’’ हिंसा और अस्मिता का संकट, अनुवादक महेन्द्र कुलश्रेष्ठ, पृष्ठ 19-20
अभिप्राय यह है कि पहचान जब भी आपत्तिग्रस्त होती है और कुछ संगठित शक्तियों द्वारा अपने नैसर्गिक अधिकार और समान विकास के अवसरों को छिनता हुआ देखती है तो संघर्ष का आवेग प्रतिहिंसा में भी बदल जाता है। सत्तासमर्थित उपेक्षा या समुदाय विशेष द्वारा प्रायोजित निषेध और अवमानना उत्पीड़ित और परिधिगत समाज को किसी भी असंगठित आंदोलन के स्वरूप में बदल सकते हैं।
नामवर जी कहते हैं कि एक व्यक्ति या समाज बहुत सारी अस्मिताओं को लेकर पैदा होता है। उनमें से कोई एक प्रतिनिधि अस्मिता उस व्यक्ति और समाज का नेतृत्व करती है और बाकी सभी अस्मिताएं उस एक अस्मिता की लक्ष्य प्राप्ति के लिए सहयोगी का काम करती हैं। हांलांकि कभी-कभी यह भी होता है कि सभी अस्मिताएं एक साथ आपस में टकराव की स्थिति में आ जाएं जो कि व्यक्ति और समाज दोनों के लिए हानिकारक है। ऐसे में समुदाय को व्यक्ति और व्यक्ति को समुदाय का शत्रु मान लिया जाता है।
राजेन्द्र यादव इस विषय में लिखते हैं ‘‘अस्मिता अपनी निजी पहचान के साथ-साथ उस क्षेत्र और समाज की पहचान भी है जो हमारे संदर्भ तय करते हैं। यह संदर्भ जाति, वर्ग, रंग, नस्ल, क्षेत्र, भाषा, जेंडर तथा पेशे इत्यादि के रूप में हमारे अंतरंग (साइकी) के हिस्से हैं।’’ हंस, राजेन्द्र यादव, जून 2003, पृष्ठ 9
तो ऐसे हम देखते हैं कि अस्मिता बोध का लक्ष्य और स्वप्न स्पष्ट है- कि अपनी चेतना और व्यक्ति निष्ठा की प्रतीति, अपने अस्तित्व के प्रति संवेदनशील ईमानदारी और अभिव्यक्ति को अपने जीवनमूल्यों तथा सामाजिक सरोकारों के अनुकूलन में बनाये रखना।
अपने स्वतंत्र अस्तित्व के वैचारिक संघर्ष और चिंतन की आलोचनात्मकता को केन्द्रीय बनाना ही जीवनदृष्टि को आधुनिकता की धारणा से जोड़ता है। यह भूमण्डलीकरण की वैश्विक संरचना के समानांतर, शक्ति और सत्ता के विरोध को भी व्यक्त करता है। साथ ही यह भावना सामाजिक विवेचन में मानवीय उपस्थिति के शक्ति संतुलन को भी बनाए रखती है अर्थात् मनुष्यता को बनाए रखना ज़रूरी है। कुछ तयशुदा आग्रहों से इतिहास को देखने के सत्ता-व्यवहार के बरक्स यह मानव प्रवृत्ति को अधिक समन्वयात्मक और सहअस्तित्व के लिए प्रेरित करती है। ऐसे में हम देखते हैं कि कैसे अस्मिताएं एक समतामूलक समाज के लिए समुदाय की चेतना और व्यक्ति की स्थानिकता को मिलाकर इतिहास और संस्कृति को देखने का नितांत अलग नज़रिया प्रस्तुत करती हैं।
अस्मिता-बोध जहाँ एक सांस्कृतिक पड़ाव है वहीं विमर्श एक राजनीतिक और सामाजिक संवाद है। जैसा कि अभय कुमार दुबे कहते हैं ‘‘इसका निपट अर्थ है दो वक्ताओं के बीच संवाद या बहस या सार्वजनिक चर्चा।’’ भारत का भूमण्डलीकरण, संपादक- अभय कुमार दुबे, वाणी प्रकाशन, 2007, पृष्ठ 444
जहाँ अस्मिता का संबंध एक सांस्कृतिक लोकाचार में व्यवहृत सांस्थानिक और स्थानीय पहचान बोध से है वहीं विमर्श की आवश्यकता उस पहचान बोध को वैचारिक अभिव्यक्ति के स्तर पर राजनैतिक और सामाजिक अनुशासनों में तार्किक परिणति तक पहुँचाना है। कह सकते हैं कि जहां अस्मिता मनुष्यता का विचार पक्ष है वहीं विमर्श उसका व्यवहार पक्ष। विमर्शों के उभार ने सत्ताओं के ध्रुवीकरण, उनके संगठित ताने-बाने, नौकरशाही, नकली किस्म की समाजशास्त्रीयता और आत्मप्रकाशित वरीयताओं को चुनौती देते हुए उसकी मानसिकता और कार्यप्रणाली का विरोध किया। शम्भुनाथ सिंह अपने लेख ‘विमर्श की ज़मीन’ में इस बात की पुष्टि करते हैं- ‘‘आदर्श की बड़ी-बड़ी बातें करने वालों ने ही आदर्शों को संकट में डाला। यही वजह है कि समाज के दबे समुदायों ने विचारधाराओं की तरफ से मुँह फेरकर अतीत से चले आ रहे भेद-भाव के खिलाफ सामुदायिक आवाज का रास्ता पकड़ा और साहित्य में विमर्श की महत्ता बढ़ी।’’ नया ज्ञानोदय, शम्भूनाथ सिंह, दिसम्बर 2010, पृष्ठ 126
एक बनावटी तरह के इतिहास, सांस्कृतिक विभाजन और पद्धतियों के विरोध में नयी आत्मचेतनाओं, अपेक्षाओं और चुनाव के प्रश्न सामने आये। हाशिये पर पड़े उपेक्षित विकल्प, दमन से ग्रस्त जीवनशैलियां, समाज की मुख्यधारा से बहिष्कृत इकाइयाँ, लघुतर लोकसमूह, समाप्त प्राय और लगभग भुला दिये गये वर्ग की पीड़ाएं आज अपनी सामाजिक पहचान से जुड़ी जटिलताओं को सामने रखकर समाज और राजनीति की नेतृत्वकारी स्थिति में आना चाहती हैं। अनामिका अस्मिता विमर्श की धारणा को इस तरह विवेचित करती हैं ‘‘यही तो मंशा है अस्मिता विमर्श की कि जो कभी नहीं बोले वो बोलें, अपना दुःख दर्द कहें ताकि उन अंधों की आँखें और बहरों के कान खुलें जिनके बारे में बाइबिल में बहुत पहले ही लिख दिया गया है ‘‘Seeing they don’t see, hearing they don’t hear’’ हंस, अनामिका, नवंबर 2009, पृष्ठ 56
अस्मिताएँ जब भी संकट में आती हैं तो विमर्श की स्थिति भी पैदा होती है। ऐसे में हम एक रोचक सामाजिक बदलाव को देखते हैं कि कैसे वंचित और उपेक्षित वर्ग अपनी जातीय चेतना और वर्गीय मानसिकता से ऊपर उठकर मात्र मानवीय अधिकारों और मुक्ति के सवालों पर एकजुट हो जाता है। यहाँ कहने का आशय यह नहीं है कि स्वत्रंतता और अधिकारों के सवाल के बीच में उनका अपना जातीय चरित्र और पहचान शामिल नहीं है बल्कि सिर्फ इतना ही कि जीवन और चेतना से जुड़ हुए वृहत्तर सवाल हमें अपने निहित मंतव्यों और संकीर्ण दायरे से बाहर निकलने के लिए उकसाते हैं। तो इस तरह से हम देखते हैं कि कैसे अस्मिता विमर्श हाशिये और केन्द्र के सत्ताजनित विभाजनकारी मन्तव्यों का शोध करता है और समाज के सर्वांगीण मानवीय बोध को सामने लाने का प्रयास करता हैं। जैसा कि अर्चना वर्मा कहती हैं ‘‘अस्मिता विमर्श आज के राजनैतिक सामाजिक दृश्य का सबसे अधिक मुखर और प्रमुख स्वर है।….. वंचित की हैसियत से अपनी पहचान के साथ बड़ा मोह होता है। पूरे समाज और इतिहास के अन्याय के खिलाफ खड़े होने का ख्याल ऊर्जा और प्रतिरोध की आपूर्ति का अक्षय श्रोत साबित होता है।’’ अस्मिता विमर्श का स्त्री स्वर, अर्चना वर्मा, मेधा बुक, जनवरी 2008, पृष्ठ 33
जैसा कि ऊपर कहा गया है कि विमर्श असंदिग्ध रूप से व्यापक, सामाजिक पुनरूत्थान और मानवीय मूल्यों के संरक्षण का एक सांस्कृतिक अनुशासन है। यह विभिन्न तरह के सामाजिक एकाधिकारवाद की सोच का विरोध करता है। जीवन तथा अवधारणाओं को देखने के पूर्वाग्रहों से मुक्त करता है। विमर्श वैचारिकी और व्यवहारिकता का नज़रिया है। इसीलिए इसमें यथार्थ न तो किसी उपयोगिता से जन्में पदार्थ की तरह मौजूद होता है और ना ही किसी प्रतिस्पर्धा के तौर पर पाया जाता है। विमर्श यथार्थ को सरल या रैखिक ना मानकर बहुस्तरीय और जटिल मानता है। इसलिए अस्मिता-विमर्श में यथार्थ का संदर्भ विभिन्न मूल्यों, प्रभावों और प्रक्रियाओं के सहअस्तित्व से मिलकर बनता है। उसके पास सामान्य लोकमन की त्रासदी, उत्पीड़न, अवसाद, विडम्बनाओं और सपनों के साथ अधिक तटस्थ और संतुलित होकर देख सकने की क्षमता होती है। इसीलिए विभिन्न सामाजिक खाँचों (क्षेत्र, वर्ण, जाति) के मौजूद रहते हुए भी उसका मूल उद्देश्य मानवीय समतामूलक वर्ग संरचना को उपस्थित करना होता है। इसमें विमर्शकार की दृष्टि युग से जुड़े हुए बौद्धिक आयामों के साथ जितना समाज के वर्तमान के प्रति सजग होती है उतना ही भविष्य के विकल्पों के प्रति भी जागरूक रहती है।
इस तरह हम देखते हैं कि विमर्श का लक्ष्य सामूहिक जनसांस्कृतिक दृष्टिकोण के साथ अस्मिताओं के सामान्यीकरण और उनके सामाजिक परिक्षेत्र को सुनिश्चित करना है। इसलिए स्त्री-विमर्श हो, या दलित-विमर्श, या आदिवासी-विमर्श- यह समझना ज़रूरी है कि उसमें वर्गीय आदतों और अभ्यासों से प्रतिरोध की चेतना कितनी मुखर है। और साथ ही सत्ता केन्द्रित प्रणालियों और नियामक शक्तियों के उपभोग से बचकर निकल जाने की कितनी सामथ्र्य है। यह सामर्थ्य ही मानवता के विभेदहीन सामाजिक अभियान को तय करती है। इसलिए यह आवश्यक है कि समाज में सार्थक रचनात्मक बदलाव पैदा करने के लिए उसका विकासगामी जीवन के अनुभवों और संघर्षशील संवेगों के साथ प्रतिबद्ध जुड़ाव हो। विमर्श यथास्थितिवाद का विरोधी होता है और समय के अविभाजित परिवेश का बयान भी होता है। इसीलिए विमर्श की सार्थकता इसी में है कि वह अपने सामाजिक, सांस्कृतिक, स्मृतिगत और अमूर्त घेरावों से अलग इतिहास और परम्परा के अनिवार्य आत्मसंघर्ष को देखने का प्रयास करे। हांलांकि अस्मिता विमर्श के खतरे भी हैं जो कई बार उसे आत्मभत्र्सना और निजी आकांक्षाओं की पूर्ति का उपकरण बना देते हैं।
स्त्री-अस्मिता-विमर्श: दृष्टिकोण
विमर्श अपनी प्रकृति, संभावनाओं और चुनौतियों में चूँकि स्वभावतः संवादधर्मी होता है इसलिए उसकी एक बड़ी जिम्मेदारी यह भी होती है कि वह सामाजिक संरचनाओं और मानवीय अस्मिताओं के बीच मध्यस्थ का भी काम करे। स्त्रियाँ अपनी निजी अभिव्यक्ति और सामाजिक उपस्थिति के लिए जिन सवालों से सैद्धांतिक रूप से और प्रक्रियात्मक रूप से दो-चार होती हैं उसे ही स्त्री-विमर्श के रूप में जाना जा सकता है। स्त्रियाँ परम्परा से चली आ रही पारिवारिक सत्ता में देह और गृहस्थी के एक विपर्यस्त भूगोल में बंधी हुई हैं। स्त्री-विमर्श का मूल स्वर यही है कि स्त्रियाँ इन बंधनों का निषेध करें और अपने व्यक्तित्व की सीमाओं को विस्तार दें और लैंगिक असमानता का प्रसार करने वाली चेतना(स्त्री-पुरुष) को चुनौती दें। भारतीय सामाजिक स्थितियों में और यहाँ तक कि वैश्विक स्तर पर भी पिछले कुछ दशकों में उभरे अस्मिता आंदोलनों ने स्त्री की दृष्टि, छवि और वैचारिक स्थिति के बारे में प्रचलित पूर्वाग्रहों और विश्वस्त मान्यताओं को बदला है।
आधुनिकताबोध और सांस्कृतिक विमर्श की मानवाधिकारवादी पद्धतियों ने स्त्री-चिंतन की वैचारिकी को अस्पष्टता और आकस्मिकता से बाहर निकाला है। जहाँ सामाजिक समीकरण में पुरुष की सत्ता प्रधान इकाई के रूप में सुरक्षित और सम्मानित मानी जाती है। वहाँ स्त्री-जीवनशैली का मूल स्वर नगण्य और अनसुना ही रहता है। उसकी चुप्पी ही उसका श्रंगार और सेवा ही संस्कार माने जाते है। यदि वह स्वयं को अभिव्यक्त कर सकती है और अपने अस्तित्व के लिए चुनौती दे सकती है तो उस समूचे सांस्कृतिक एकीकरण का प्रतिरोध कर रही होती है जिसमें परंपराओं और रीतियों के नाम पर निरंकुशता का पोषण होता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जब स्त्री मुखर होती है तब वह समस्त असमानताओं के लिए परिवार, समाज और समुदाय से अपना विरोध दर्ज करा रही होती है।
इसके जरिए स्त्री के स्वत्व और वैचारिक चेतना को या तो किसी पौराणिक भावुक नियतिवाद में झोंक दिया जाता है या तो किसी भ्रमित रहस्यवादी उपभोग में ढकेल दिया जाता है। किसी भी वर्ग की सत्ता अपनी अधीनस्थ समाजिकता के साथ जैसा व्यवहार करती है उससे उस सत्ता की मनुष्यता के प्रति प्रामाणिकता और उत्तरदायित्व का पता चलता है। जैसा कि निवेदिता मेनन कहती हैं ‘‘खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी’ इस पंक्ति का क्या अर्थ निकलता है वास्तविकता में यह उस सूरत में भी जब कि एक औरत ऐसे अपरिमित शौर्य और वीरता का प्रदर्शन कर रही है उसके इस गुण को नारी सुलभ गुण नहीं माना जा रहा था यानी कुल मिलाकर बहादुरी का गुण पुरुषों की ही विशेषता कहलाती है। फिर भले ही कितनी भी औरतें बहादुरी का प्रदर्शन करती रहें और कितने ही पुरुष पीठ दिखाकर भाग खड़े होते रहें।’’ नारीवादी राजनीति, संघर्ष एवं मुद्दे, निवेदिता मेनन, हिन्दी माध्यम कार्यान्यवयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, पृष्ठ 9
यहाँ इस बात का उल्लेख करना भी आवश्यक है कि स्त्री-स्वतंत्रता की बुनियादी प्रक्रिया स्वत्व की खोज और इतिहास की सर्वसमावेशी नियति में स्वयं को रेखांकित करती है। सत्ता की पितृसत्तात्मक तकनीक अपने ढंग से काम करती है व स्त्री के सौंदर्य को उसके ही विरूद्ध इस्तेमाल करके उसे मनुष्य से पदार्थ होने की ओर ढकेल रही है ताकि वह निजी अधिकारों और मुक्ति की पद्धति से विचलित हो जाये।
आधुनिक चेतना और वैज्ञानिक प्रगति के दौर में स्त्री-चिंतन को भी आत्मसजग और आत्मसंवेदित बनाया है। उसने अपने अनुभव और अभिव्यक्ति के अधिक विकल्प तैयार किये हैं। अपने को अधिक इतिहास सापेक्ष बनाया है और संस्कृतिजीवी भी। इसका यह आशय नहीं है कि स्त्रीवाद कोई व्यक्तिवादी दर्शन है। असल में वह सत्ता के वैयक्तिक और शक्तिलिप्सा से ग्रस्त सांस्थानिक तटस्थता का प्रतिरोध है। स्त्री-अस्मिता इसी अर्थ में विशिष्ट है कि वह अपनी मुक्ति को जितना नैतिक दायित्व मानती है उतना ही वैचारिक और राजनीतिक भी मानती है। मनीषा कुलश्रेष्ठ कहती हैं ‘‘स्त्री-मुक्ति का सवाल अपने खुद के लिए निर्णय लेने से लेकर मनुष्य के रूप में आजादी से जुड़ा प्रश्न है। स्त्री-मुक्ति सड़े-गले स्त्री-विरोधी, पितृसत्तात्मक, ब्राह्मणवादी, सामन्ती मूल्यों के प्रति विद्रोह भी है।’’ स्त्री-अस्मिता के प्रश्न, मनीषा कुलश्रेष्ठ, सम्पादक-सुभाष सेतिया, सामयिक प्रकाशन, 2009, पृष्ठ 102
इस तरह हम देखते हैं कि विभिन्न सामाजिक व्यवस्थाओं के साथ स्त्री-चिंतन अलग-अलग तरह के अनुभवगत रूपांतरण के साथ आगे बढ़ता रहा है। इस बात को रेखांकित किया जाना आवश्यक है कि एक सामाजिक अध्ययन की कसौटी पर स्त्री-चिंतन लिंग या जेन्डर को तन्त्रगत उत्पीड़न के एकमात्र आधार के रूप में नहीं देखता। वह स्त्री के सामुदायिक पर्यावरण, भौतिक संदर्भों और व्यवस्थाबद्ध अनुकूलन के जरिए स्त्री के प्रति होने वाले भेद-भाव और असमानता को चिह्नित करता है। रोहिणी अग्रवाल का मत है ‘‘स्त्री का अस्मितामूलक मुक्तिकामी संघर्ष, नैतिक व अनैतिक हो अपनी दृष्टि से पुनर्भाषित करने का प्रयास है। जहाँ पुरुषतंत्र के पूर्वाग्रह और मानदण्ड दोनों औंधे मुँह गिर पड़ते हैं। और इसीलिए स्त्रीवादियों की दृष्टि में उनकी लड़ाई नैतिक, मानवीय और सृजनात्मक है जबकि परम्परावादियों की दृष्टि में अनैतिक और विध्वंसात्मक है। स्त्रियाँ पुरुषों के समानान्तर हक चाहती हैं। वह उनसे आगे या पीछे नहीं रहना चाहती हैं। वह तो सिर्फ मानवीय बनने का अवसर चाहती हैं।’’ नागपाश में स्त्री, रोहिणी अग्रवाल, संपादक-गीताश्री, राजकमल प्रकाशन, 2019, पृष्ठ 119
चूँकि स्त्री-विमर्श स्त्री के अपने परिचित संसार, भोगे हुए यथार्थ और इतिहास के बहुआयामी सवालों से पैदा हुआ है इसलिए परम्परागत ढंग से पितृसत्ता के शोषणवादी खाँचों से स्त्री अपनी मुक्ति की घोषणा करती है। और स्थापित विश्लेषणों के यथास्थितिवाद का प्रतिरोध करती हैं। स्त्री-चिंतन ने स्त्री दासता के लिए मात्र पितृसत्तात्मक दोहरेपन को ही जिम्मेदार नहीं माना बल्कि स्त्री-मनोविज्ञान के सरलीकृत, समझौतावादी राजनीति को भी सहायक माना। चर्चित कवियत्री और लेखिका अनामिका कहती हैं ‘‘दुनिया का इकलौता पूर्णतः अहिंसक आन्दोलन है स्त्रीवाद। एक मनोवैज्ञानिक लड़ाई जिसने मुकाम भी हासिल किये हैं तो बहनापे के जोर पे। और युद्ध, दंगे, निःशस्त्रीकरण, रंग-भेद की नीति और पर्यावरण सब बेहतर प्रश्नों से उन अपने भाईयों, बेटों और दोस्तों के साथ लगातार जूझ रही हैं जो उनकी तरह सर्वहारा और विस्थापित हाशिये के लोग हैं।’’ स्त्री मुक्तिः सांझा चूल्हा, अनामिका, नेशनल बुक ट्रस्ट, भूमिका से, पृष्ठ 28
हमारी सभ्यता की संरचनाओं में हिंसा के बहुवैकल्पिक और दबाव समूहों की व्यवस्था अन्तर्निहित है। वर्ण, कुल, नस्ल, रंग की विभाजनकारी व्यवस्था एक ही समय पर अलग-अलग इरादों और दिशाओं के साथ जीवित रहती हैं। सामाजिक राजनीति का प्रतिमानीकरण इनके आदर्श और गति को तय करता है। ये कभी एक दूसरे की अंतरग्रन्थी कुंठा बनकर काम करते हैं और कभी निहित सामाजिक स्वार्थ के लिए एक दूसरे के विरोध में आ जाते हैं।
ये सभी अंतर्धाराएँ प्रताड़ना और दमन के नए प्रतीकों का निर्माण करती है। इसलिए इनकी पहचान लैंगिक विषमताओं और उनके आपसी जटिल संबंधों को समझने का सही परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करती हैं। सामाजिक प्रणालियों में सभी स्त्रियाँ वर्गीय रूप से समान अन्तरसंबंधों और एकरूपात्मकता से युक्त नहीं है। सामाजिक विभाजन के आधार पर वे भी दूसरे वर्ग और जाति की स्त्रियों के साथ वैसा ही दोयम और असामान्य व्यवहार करती हैं जैसा पुरुष उन जातियों और वर्गों के साथ करता है। इसलिए सामाजिक श्रेणीक्रम में निचले स्तर पर खड़ा हुआ पुरुष उत्पीड़न और हिंसा के दंश को भोगता अपनी ही स्त्री को नियंत्रित और शोषित रखने की प्रक्रिया में उसी प्रकार शामिल हो जाता है जैसे अन्य वर्ग और जाति के लोग उस स्त्री के साथ व्यवहार करते हैं। ऐसे मौके पर सामाजिक व्यवस्था अपने सांस्कृतिक ढांचे को उपनिवेश की तरह संचालित करने लगती है। इसमें तमाम वर्ग, द्वन्द्व, मनोदशाएँ अपनी-अपनी केन्द्रीय राजनीति के साथ अपने वैचारिक निहितार्थों को भी सामने लाते हैं। सार्वजनिक तंत्र वर्चस्व और आक्रामकता के आधार पर लैंगिकताओं के पदानुक्रम तय करते हैं। ऐसे में सत्ताभिमुख लैंगिकता, सत्ताहीन लैंगिकता को हाशिए पर डाल देती है।
स्त्री-रचनाशीलता की प्रासंगिकता और उपस्थिति तब है जब इन संरचनाओं में व्याप्त पितृसत्तात्मक दोहन और उसके प्रतीतिकरण को रेखांकित करके उसके विरूद्ध एक स्वतंत्र प्रतिपक्ष तैयार कर दिया जाए। इस तरह हम देखते हैं कि स्त्री-विमर्श अन्ततः एक ऐसे समाज के स्वप्न को भौतिक बनाना चाहता है जो न्याय, स्वतंत्रता और समानता के प्रामाणिक यथार्थ पर निर्भर हो। यह बात ध्यान में ले आनी चाहिए कि स्त्री की लैंगिक समानता और मुक्ति पुरुष के लिए भी कसौटी है। वह भी तभी अपने स्वत्व और पहचान को पूर्ण कर सकेगा जब स्त्री अपने स्थानीय और निजी अनुभवों से स्वयं की भागीदारी सुनिश्चित कर पायेगी। वह शक्ति-संतुलन के साझा अनुभवों को जीवन-पद्धति और विचार-पद्धति में बदलने का प्रयास करती हैं। महाश्वेता देवी कहती हैं ‘‘स्त्री आन्दोलन के प्रथम चरण में स्त्रियाँ स्वयं को पुरुष के रूप में प्रस्तुत करने की पक्षधर थीं जिसमें उन्होने पहनावे आदि पर विशेष ध्यान दिया। द्वितीय चरण में समाज में प्रचलित तमाम नियमों के विरोध में स्वयं को खड़ा करके वे अपने आन्दोलन की सार्थकता महसूस करती थीं। किन्तु अब स्थिति ऐसी नहीं है। अब वे समाज में अपना स्थान चाहती हैं। राजनैतिक, सामाजिक तथा आर्थिक हर क्षेत्र में अपना पहचान बनाना चाहती हैं। वस्तुतः इन्हीं अधिकारों को पूरे सम्मान के साथ पाने के लिए संघर्षरत हैं।’’
स्त्री-अस्मिताओं का चिंतन इतिहास, समूह, परम्परा और सार्वजनिक अवचेतन के स्तर पर पनपते सभी प्रश्नों को संबोधित करता है। ये एक प्रकार से सामाजिक, राजनैतिक संसाधनों और प्रतिमानों पर पुरुष-सत्ता के नियंत्रण का प्रतिकार भी है और साथ में स्त्रियों के वैचारिक और सांस्थानिक बहनापे का प्रगतिशील अभियान भी है। स्त्री-संघर्ष का इतिहास एक लम्बी उम्र जी चुका है। अपने असमंजस और विकल्पों के बीच अपने जीवन के अनुभवों का सीमांकन और पुरुषसत्ता के उपभोगवादी ज्ञान और आदर्श का क्रिटिक तैयार करता हुआ स्त्री-चिंतन का विकास सामाजिक यथार्थ के विभिन्न स्तरों पर एक होता है। राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व में हिस्सेदारी से लेकर आर्थिक संसाधनों में समान हस्तक्षेप की मांग स्त्री-आन्दोलन के इतिहास का एक मुख्य घटक रही है।
स्त्रीवाद की विभिन्न अवस्थाएँ अपनी योजना के आधार पर अलग-अलग नहीं होती बल्कि योजनाओं की भूमिकाओं, तौर-तरीकों, अभ्यासों और तर्क के आधार पर पृथक होती हैं। जो उदार स्त्रीवाद, रेडिकल स्त्रीवाद, मार्क्सवादी स्त्रीवाद इन सभी प्रतिरूपों की मुख्य पहचान लैंगिक असमानता से मुक्ति और पितृसत्तात्मक निरंकुशता का सांकेतिक और प्रत्यक्ष विरोध है कि स्त्री पितृसत्ता का अंकुश हटाकर निकलती हैं। यह अलग बात है कि इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उपर्युक्त सभी धाराओं की विचार-प्रक्रिया और भौतिक प्रत्याशायें अलग-अलग हैं। स्त्री सृजनात्मकता में स्त्रीमानस, स्त्रीभाषा और स्त्रीदृष्टि की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस शिनाख्त से सामाजिक संक्रमण और उसके दर्शन को रेखांकित करने का अवसर मिलता है जो वर्तमान समाज के ऐसा होने के लिए उत्तरदायी है। पुरुष सत्ता और उसका प्रतिरोध जितनी बड़ी आवश्यकता और शर्त है उतनी ही बड़ी आवश्यकता समाज का वह प्रबंधन है जो अपने वर्चस्ववादी हितों को साधने के लिए पितृसत्ता और मातृसत्ता जैसे जड़ और सर्वग्रासी सांचे को तैयार करता है।
स्त्रीवाद से जुड़े विभिन्न देशकालों में लिखे गये साहित्य का अध्ययन करने पर हमें सामाजिक विभाजन और वर्गीय विकेन्द्रीकरण का परस्पर मिला-जुला रूप देखने को मिलता है। जिसमें विषय, विचार, चेतना, पदार्थ, प्रतिक्रियाओं और व्यक्तियों का ऐसा समीकरण है कि ऐतिहासिक विरोधाभास बहुत सहज और सामान्य दिखने लगते हैं। स्त्री-चिंतन के साहित्य का एक बड़ा हिस्सा स्त्री आत्मकथाओं का भी है जिनमें वही विषय भी हैं और वही अध्ययन भी हैं। विभिन्न किस्म की आकस्मिक और तात्कालिक सामाजिक व्यवस्थाओं के बीच किस तरह से उनका आत्म एक अमूर्त यथार्थबोध और सुविधापरस्त इतिहास से संघर्षरत होता है और अपने लिए मार्ग तैयार करता है।
विकास उन्मुख समाज के लिए समता और स्वतंत्रता का बोध अत्यन्त गतिशील और चेतनावान होना चाहिए। मुक्ति और न्याय की कोई भी अवधारणा कुण्ठित और आभासी नहीं रह सकती। अवधारणाओं का सम्बन्ध लोकाचार, ज्ञान की विभिन्न संस्कृतियों और सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक जीवनशैलियों को प्रभावित करने वाला होता है। इसीलिए इनकी सार्वजनिक निर्मिति संवादी और विकेन्द्रित होती है। स्त्री-पुरुष की जीवन-स्थितियाँ भी इन व्यवहारों, अनुभवों और सिद्धांतों के साथ लगातार बदलती और रूपान्तरित होती रहती है। इनके अन्तरसम्बन्धों को भी बार-बार पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता होती है। स्त्री-अस्मिताएँ बदलावों और मानवीय सामूहिकता के आधार पर व्यक्तिवाची और वस्तुनिष्ठ मनःस्थितियों के विकास के द्वारा स्त्री अस्तित्व को समूहगत प्रतीक में बदल देती है। इस अर्थ में स्त्रीवाद को जीवन और विचार के सामाजिक पाठ की तरह भी पढा जा सकता है। प्रकारांतर से आधुनिक सभ्यता के विकास के साथ स्त्री ने अपने अवचेतन और अचेतन के उन दबावों और दमन की उन सच्चाईयों को भी अभिव्यक्त किया है जिन पर एक समय सोचने पर भी पहरा था। इसलिए सभ्यतामूलक न्याय, वर्गीय समानता एवं लैंगिक एकाधिकारवाद के विरूद्ध संघर्ष की ज्ञान मीमांसा को यथार्थ तथा सत्य के साथ रेखांकित कर पाना इस साहित्य को पढ़ने की पहली माँग है।
स्थापित कार्य-कारण और अनुमानित ज्ञान के आधार पर तैयार वर्चस्ववादी मानकों को ध्वस्त करके स्त्री-चिंतन भागीदारी और हस्तक्षेप की मुद्रा तैयार करता है। इससे उन प्रचलित मान्यताओं का असली चेहरा और संकीर्ण राजनीति सामने आती है। साथ ही यह क्रिया स्त्री के लिए उसके संघर्ष की अभिव्यक्ति और अपनी विलुप्त आत्मा को पाने का प्रयत्न भी है। स्त्री-रचनाशीलता का वास्तविक चरित्र उनके सृजन में मौजूद सामाजिक शक्तियों की सत्ता संरचना और उनके बीच अपनी निजता और अधिकार को भी प्रत्यक्ष करते रहना है। इसका सामना हर स्त्री अपने जीवन में बार-बार करती है। सामाजिक विभेद, अधीनता की परम्परा वस्तुस्थितियों और मनोदशाओं को सत्य और न्याय के गहरे उद्देश्यों से अपदस्थ कर देती हैं। इससे विडम्बनाएँ भी जीवन की सहजता की तरह दिखने लगती हैं और उनसे मुक्ति का प्रयास भी दुस्साहस बन जाता है।
परम्परा और संस्कार से प्राप्त स्त्रीत्व के अनेक दृश्य, व्यवहार, स्वप्न और स्मृतियाँ इसी अनुकूलन की निर्मितियाँ हैं। जातिगत, क्षेत्रगत और साम्प्रदायिक असमानताओं को तैयार करने का भी यही मार्ग रहा है। सामाजिक अवधारणाएँ राजनीतिक मनोजगत को स्वभावगत व्यवस्थाओं के साथ व्याख्यायित करने का एक उपक्रम है। किसी भी विमर्श की सार्थकता इतिहास को तात्कालिकता की दृष्टि से देखने की विरोधी होती है साथ ही समाज द्वारा किये जा रहे किसी वर्ग विशेष के कृत्रिम और सरलीकृत अनुकूलन को चुनौती देने की क्षमता पर आधारित होती है। स्त्री-रचनाशीलता इस अर्थ में विलक्षण है कि वह सामाजिक असमानता और विषमता को लैंगिक विरूपता और विभेद की सैद्धांतिक और व्यवहारजनित प्रस्तावना से जोड़ती है। उस लैंगिक निरंकुशता को किसी स्वायत्त अथवा तात्कालिक द्वन्द्व के रूप में प्रस्तुत नहीं करती है बल्कि एकरूपताओं के सर्वसमावेशी परिवेश में उनकी अन्तरदशाओं को सामने लाती है। इसलिए स्त्री-चिंतन का हस्तक्षेप दुविधा से बना हुआ होकर भी प्रतिरोध के प्रामाणिक अनुभवों और यथार्थ को वैज्ञानिक दृष्टि से देखने का माध्यम बनता है।
भारतीय सर्जना में भले ही एक आलोचनात्मक अनुशासन के रूप में उसकी स्वीकार्यता बहुत बाद में बनी किन्तु लिंग आधारित समाजशास्त्र और विषमता का वैचारिक और सांस्थानिक स्तर पर पहचान का बोध स्त्री-लेखन के साथ प्रारम्भ से जुड़ा हुआ है। इसलिए भारतीय स्त्रीवादी मीमांसा को पश्चिम से आये नये किस्म की सैद्धांतिकी की प्रतिलिपि मानना गलत होगा बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि भारतीय स्त्री-चिंतन अपनी प्रकृति और इतिहास में पश्चिमी अवधारणा और स्त्री-मुक्ति के राजनैतिक सामाजिक दर्शन को आगे ले जाता है। इस बात को स्वीकार करना सही होगा कि भारतीय मानस में पाठ का संदर्भ अस्मिता केन्द्रित कम और परिकल्पना केन्द्रित अधिक होता है। सरल शब्दों में कहें तो यह स्त्री-चिंतन विचार की स्थानीय प्रवृत्तियों को उसके संस्कार और चेतना के अन्तराल को रेखांकित करके तैयार होता है। इसमें सत्ता संरचना की भूमिका बहुत धुँधली और अपारदर्शी होती है। भारतीय परिस्थितियों में स्त्री-विमर्श घटनाओं और जीवनवृत्त के माध्यम से शोषण की नियामक सत्ता तक पहुँचने का प्रयास है। जो बहुस्तरीय, जटिल और विवादित होती है।
मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि भारतीय स्त्री अध्ययन व्यक्ति-सापेक्ष कम है और समाज-सापेक्ष अधिक है। ऐसे में स्त्री-चेतना का अनुभवतंत्र और उसकी वर्गीय अस्मिता को उसके पारिवारिक कुटुम्बगत कार्य क्षेत्र में व्याख्यायित करते हैं। इसलिए परिवार और पारिवारिक सम्बन्ध, स्त्रीवादी दर्शन और ज्ञान का बीज तंत्र बनते हैं। स्त्री का परिवार और उसका सामाजिक जीवन, उसके स्वत्व और सामूहिक चेतना पथ पर प्रभावशाली रहने वाला एक सुरक्षात्मक और संगठित समीकरण है। यह द्वन्द्व विचारधारात्मक स्तर पर सजातीय रूप से जितना केन्द्रित है उतना ही सत्ता और शक्ति द्वारा अनुकूलित किये जाने के स्तर पर अवसादी भी है और रक्त-संबंधों तथा अन्यान्य पारिवारिक सम्बन्धों में प्रतिहिंसात्मक भी है। भारतीय स्त्री-लेखन में परिवार और समाज की समानान्तर व्यवस्था के बीच, प्रतिरोध और प्रतिकार की संवेदनशील और पारस्परिक रूप से निर्भर इस द्वन्द्वात्मकता को थेरीगाथाओं के समय से कभी मंद और कभी उच्च स्वर से इतिहास के प्रवाह में देखा जा सकता है। परिवार और पितृसत्ता वैयक्तिक उत्पीड़न के संवाहक भी हैं और सामाजिक अस्मिता तथा सम्मान के मानक भी हैं। दरअसल स्त्री को जिसके विरूद्ध खड़ा होना है वही उसका नियंता भी है। इसकी वजह से उसका लेखन भी बहुधा नाटकीय आस्वादों और व्यक्तित्व की नैतिक वांछनाओं का भी शिकार होता रहता है। इसीलिए स्त्री-लेखन का स्वर द्वन्द्व और असमंजस से भरा है। परिवारजनित हिंसा, दमन की सांस्कृतिक प्रक्रिया और इनसे उत्पन्न विरोधाभासों को स्त्री-लेखन में सुना जा सकता है। स्त्री-संघर्ष की सामाजिक, राजनैतिक विचारधारा का व्यवस्थित नरेटिव बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सामने आया। उसकी अभिक्रिया, प्रतीति और चिंतन तभी से स्त्री अभिव्यक्ति का केन्द्र बिन्दु रही है। जब से मनुष्य ने अपने आस्वाद, विकास, उपभोग को, सामाजिक और आर्थिक जीवनशैली को संगठित करने के दृष्टिकोण से प्रबंधित किया। केट मिलेट कहती हैं ‘‘महिला की पूर्ण आर्थिक स्वतन्त्रता और उसका मुक्त व्यवहार पितृसत्ता के लिए बड़ी चुनौती है। इसका महŸवपूर्ण परिणाम यह होगा कि वर्तमान में प्रचलित सम्पत्ति में स्वामित्व और अवयस्कों का अधिकारहनन बन्द हो जाएगा। बच्चों की देखभाल का सामूहिक उत्तरदायित्व रूढ़िवादी परिवार संरचना में स्त्री की स्वतंत्र भूमिका को स्थापित करेगा। विवाह यदि पारस्परिक रूप से अपेक्षित हो तो दोनों पक्षों का स्वतंत्र चुनाव होना चाहिए। यौन-क्रान्ति की घटना आज असम्भव सी प्रतीत होती है। यह अनियंत्रित जनसंख्या की समस्या को भी नियंत्रित कर देगी क्योंकि स्त्री-स्वातंत्र्य इसके केन्द्र में होगा।’’ सेक्सुअल पालिटिक्स, केट मिलेट, गूंगे इतिहासों की सरहदों पर, अनुवादक-सुबोध शुक्ल, आधार प्रकाशन, 2017 पृष्ठ 72
सन्दर्भ ग्रन्थः
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4. हिंसा और अस्मिता का संकट, अनुवादक महेन्द्र कुलश्रेष्ठ
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